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नाटक-एकाँकी >> देश की आन पर

देश की आन पर

केशव प्रसाद सिंह

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2632
आईएसबीएन :81-85827-76-1

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छत्रपति शिवाजी के पुत्र और उत्तराधिकारी सम्भाजी के बलिदान पर आधारित नाटक

Desh Ki Aan Par

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आशीर्वचन

रंगमंच एवं ललित कलाओं के लिए समर्पित प्रसिद्ध संस्था ‘संस्कार भारती’ पश्चिम उ॰ प्र॰ के सचिव बाल-किशोर जगत के युवा नाट्य-शिल्पी श्री केशवप्रसाद सिंह की ऐतिहासिक रचना ‘देश की आन पर’ सात दृश्यों में एक निबद्ध एक लघु नाटक है। दृश्य छोटे एवं चुस्त हैं। सबसे अधिक प्रसन्नता की बात है, यह नाटक पुस्तकाकार छपने के पूर्व ही अनेक बार मंच पर प्रदर्शित हो चुका है। कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही यह प्रकाशित हो रहा है।

    आज देश की प्रतिष्ठा और गौरव की अभिवृद्धि में योग देने वाले भारतीय चरित्रों को प्रकाश में लाने की सर्वाधिक आवश्यकता है जिससे राष्ट्रीय चरित्र निर्माण को बल मिले। छत्रपति शम्भाजी का नाम सुनते ही उनका विलासी रूप हमारी आँखों के सामने उपस्थित हो जाता है, किन्तु इस पात्र में कहीं उदात्त भावों का समावेश है, यह नाटक में बहुत अच्छी तरह अभिव्यक्त हुआ है। नाटक का कथानक अतीत से जुड़ा होने पर भी वर्तमान समस्याओं को स्पर्श करता है। नवीन भावबोध के साथ लेखक का प्रयास स्तुत्य है।

    इस पुस्तक में ‘देश की आन पर’ के साथ ही लेखक का एक प्रसिद्ध एकांकी ‘नमन करो’ भी प्रकाशित किया गया है। यह एकांकी भी मंच पर प्रदर्शित हो चुका है।
    इनके अन्य नाटक अधरा स्वपन, कल्पना लोक, माँ काली की कसम, बलिदान एवं एकलव्य तथा एकांकी पूजा के फूल, ममता की होली, कर्तव्य की पुकार, यह धूल रंग लायेगी, दुद्धा का बलिदान, समर्पण, एक और परीक्षा और रक्षक धरती आकाश के, मंचित एवं प्रशंसित हो चुके हैं।
    मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि एक दिन श्री सिंह नाटक जगत में बहुत कीर्ति अर्जित करेंगे। एक रचनाकार निर्देशक भी हो यह आवश्यक नहीं है किन्तु इस नाटक का रचयिता अभिनय कला का मर्मज्ञ और कुशल निर्देशक भी है।
    मैं इस कार्य के लिए श्री सिंह को बधाई देती हूं। परमात्मा से मेरी प्रार्थना है कि वे अधिकाधिक यश प्राप्त करें।

डॉ. (श्रीमती) गिरजा सिंह

नाटक का कथानक


‘देश की आन पर’ नाटक का कथानक छत्रपति शिवाजी के पुत्र और उत्तराधिकारी शम्भाजी के बलिदान पर आधारित है। नाटक का कथानक अतीत से जुड़ा है पर वर्तमान-समस्याओं को स्पर्श करता हुआ आगे बढ़ता है। सत्ता के लिए संघर्ष, राजनीतिक दांव-पेच, साम्राज्यवादी शक्तियों की विस्तारवादी नीति, उसके लिए संघर्ष, मानवीय मूल्यों की हत्या और निरंकुश शासकों द्वारा अपने विरोधियों के विरुद्ध चलाये जाने वाले दमन-चक्र की एक सजीव झांकी को इस नाटक के माध्यम से उभारने का प्रयास किया गया है।

    नाटक में वर्णित मराठा साम्राज्य उन स्वतन्त्र, स्वावलम्बी, नवोदित राष्ट्रों का प्रतिनिधित्व करता है जो अपनी संस्कृति, परम्परा और श्रेष्ठ जीवन मूल्यों को केन्द्र मानकर अपने देश-वासियों की समस्याओं को सुलझाने में संगलन हैं, वहीं मुगल शासक औरंगजेब उन भूखी साम्राज्यवादी शक्तियों का प्रतीक है जो अपने में सम्पूर्ण विश्व को समेट लेने को आतुर है।
    नाटक का पात्र खण्डोबल्लाल श्रेष्ठ मिशन के लिए समर्पित ऐसा चरित्र है जो त्याग, बलिदान और समर्पण का उच्चतम आदर्श प्रस्तुत करता है। बिखरी मराठा शक्तियों को एक सूत्र में बाँध कर छत्रपति शिवाजी के स्वपनों को साकार करने के लिए जहां वह अपने को एकाकार कर देता है वहीं अपने महान मिशन के लिए व्यक्तिगत अपमानके हलाहल को शंकर की तरह पीने की क्षमता रखता है।

    सत्ता के मद में डूबा शम्भा राजा—उस पथिक का प्रतिनिधित्व करता है जो कर्तव्य पथ से भटक कर बड़ी-बड़ी भूलें करता है, पर जब उसे अपनी भूलों की अनुभूति होती है तो किसी श्रेष्ठ कार्य के लिए अपने जीवन की आहुती देकर एक अनुकरणीय परम्परा का पथ आलोकित कर जाता है।

पात्र


शम्भाजी            (छत्रपति शिवाजी के पुत्र)
राजाराम            (छत्रपति शिवाजी के पुत्र)
खण्डोबल्लाल         (मराठा साम्राज्य के मन्त्री)
नीलोपंत            (मोरोपंत के पुत्र)
हम्मीरराव             (प्रधान सेनापति)
गणो जी            (मराठा सरदार)
नागो जी            (मराठा सरदार)
बहिरू                (खण्डोबल्लाल के पुत्र)
औरंगजेब            (मुगल सम्राट)
दिलेर खां            (मुगल सेनापति)
पुरोहित             (मराठा पुजारी)
गढ़पति             (पन्हाला दुर्ग का गढ़पति)
गुप्तचर            (मराठा गुप्तचर)
सोना                (खण्डोबल्लाल की बहिन)
कवि कलश            (युवा कवि, शम्भा जी के सलाहकार)
सैनिक एवं सेवक आदि।

देश की आन पर


 प्रथम दृश्य
स्थान : पन्हाला दुर्ग


समय :सन् १६८0 के लगभग, रात्रि
      [पन्हाला दुर्ग की एक अंधेरी कोठरी–शम्भाजी जंजीरों में जकड़े हुए दीवाल की ओर मुंह करके खड़े हैं। मराठा सेनापति हम्मीर राव का एक सैनिक के साथ प्रवेश। सैनिक के हाथ में मशाल है। ]

शम्भाजी : (किसी के आने की आहट पर दीवाल की ओर मुंह किए हुए) इस अंधेरी रात में अब तुम क्या कहने आये हो ? गढ़पति, एक बार तुमसे फिर कहता हूं अपनी भलाई चाहते हो तो ये जंजीरें खोलकर मुक्त कर दो। काली रात का यह सन्नाटा, चारों ओर बुना जा रहा षड्यंत्रों का ताना-बाना, अब असह्य होता जा रहा है। गढ़पति, अगर तुमने मुझे मुक्त नहीं किया तो समय आने पर तुम्हारी बोटी-बोटी कटवाकर कुत्तों के आगे डलवा दूंगा। याद रखो, पन्हाला दुर्ग की पत्थर की ये दीवारें शम्भा राजा को अधिक दिनों तक बन्दी नहीं रख सकतीं, एक दिन ये टूटेंगी—शम्भा राजा मुक्त होंगे। उस दिन की सोच गढ़पति...उस दिन तुम न होगे, न...(शम्भा जी पीछे मुड़ते हैं। गढ़पति के स्थान पर हम्मीर राव को देखकर आश्चर्य से ) हम्मीर राव तुम...और यहां ?

हम्मीर राव : (अभिवादन करके) मराठा साम्राज्य का प्रधान सेनापति हम्मीर राव स्वयं आपकी सेवा में उपस्थित है महाराज, आज्ञा करें।

शम्भाजी : इस अंधेरी कोठरी में मेरा दम घुटा जा रहा है हम्मीर राव। मुझे यहां से मुक्त करो। पर इसके पहले रायगढ़ का समाचार सुनाओ।

हम्मीर राव : रायगढ़ की स्थिति गम्भीर है महाराज। छत्रपति शिवाजी महाराज अब इस संसार में नहीं रहें। महारानी सोयराबाई अपने पुत्र राजाराम को रायगढ़ के सिंहासन पर बैठाकर मराठा साम्राज्य का शासन-सूत्र अपने हाथ में लेने की योजना बना रही है।

शम्भाजी : (दुःखी स्वर में) पिताजी के मरने का दुःखद समाचार मैं पहले ही सुन चुका हूँ। अपनी विमाता महारानी सोयराबाई की इच्छा से भी मैं अवगत हूं। पर शम्भा राजा के जीवित रहते यह संभव नहीं होगा, हम्मीर राव।
हम्मीर राव: रायगढ़ में इसकी पूरी व्यवस्था करके आया हूं। महाराज, बस यहां से रायगढ़ पहुंचने की देर है। इस गढ़ को भी मेरे विश्वस्त सैनिकों ने घेर रखा है। गढ़ के रक्षकों ने आत्मसमर्पण कर दिया है। गढ़पति हमारा बन्दी है।
शम्भाजी : यह तो बहुत ही शुभ समाचार है।

हम्मीर राव : खण्डोबल्लालजी आपको छत्रपति बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं। पर पेशवा मोरोपंत, शिरका सरदार गणोजी और नागोजी राजाराम के पक्ष में हैं।

शम्भाजी : सेना की क्या स्थिति है ?
हम्मीर राव :मेरे संकेत पर मर मिटने को तैयार है।
शम्भाजी : और सामान्य जन ?
हम्मीर राव :सामान्य जन छत्रपति शिवाजी को खोकर दुःखी हैं और मुगल सम्राट् औरंगजेब के आक्रमण की सम्भावना से आतंकित। महल की आतंकित राजनीति से सामान्य लोग अनभिज्ञ हैं। जहाँ तक सहयोग करने का प्रश्न है, सामान्य जन उसका साथ देंगे जो छत्रपति शिवाजी के पदचिन्हों पर चलकर अपनी तलवार से शौर्य और साहस का नया अध्याय लिखेगा।

शम्भाजी : लगता है तुलजा भवानी मुझ पर प्रसन्न हैं। अब देर मत करो। मेरे बन्धन खोलो। मुझे मुक्त करो।
[हम्मीर राव आगे बढ़कर शम्भाजी राजा को बन्धन मुक्त करता है।]
शम्भाजी : (अपने बंधे हुए हाथों पर पड़े निशानों को देखते हुए) राजाराम को छत्रपति बनाने वाले एक-एक षड्यन्त्रकारी को मौत के मुंह में नहीं भेजा तो मेरा नाम शम्भा नहीं। गढ़पति कहां है ? सबसे पहले उस नमक हराम को मेरे सामने उपस्थित करो।

हम्मीर राव : नीलोपंत गढ़पति को लेकर यहीं आ रहे हैं।
शम्भाजी : यह रहस्य मेरी समझ में नहीं आया। हम्मीर राव, मेरी मां मोहिते कुल की थी। तुम मोहिते कुल के हो। तुम मुझे मुक्त कराने आए हो यह तो समझ में आता है। पर नीलोपंत अपने पिता मोरोपंत का साथ न देकर मुझे क्यों मुक्त कराने आया है ?

हम्मीर राव : मोरोपंत बूढ़े हो गये हैं। उनकी बुद्धि अब सही निर्णय लेने में असमर्थ है। नीलोपंत में नया खून है, सूझ-बूझ है, विवेक-बुद्धि है। उसे आपके साहस और शौर्य पर भरोसा है। वह अनुभव करता है, मुगलों के आक्रमण का प्रतिकार शम्भा राजा ही कर सकते हैं, अबोध राजाराम नहीं।

[नीलोपंत गढ़पति को साथ लेकर आते हैं। गढ़पति के हाथ आगे बंधे हैं। नीलोपंत के हाथ में नंगी तलवार है।]
नीलोपंत : (झुककर अभिवादन करते हुए) महाराज नीलोपंत का अभिवादन स्वीकार करें।
शम्भाजी : (नीलोपंत के पास जाकर) नीलोपंत, तुम अपने पिता मोरोपंत को छोड़कर मेरी सहायता के लिए आये, इसके लिए मैं तुम्हारा आभारी हूं। छत्रपति शिवाजी ने तुम्हारे पिता को पेशवा बनाया था। आज मैं तुम्हें इस पद पर प्रतिष्ठित करता हूं।

नीलोपंत : यह आपकी महानता है श्रीमान्। गढ़पति आपकी सेवा में उपस्थित है।
शम्भाजी : (गढ़पति के पास जाकर) नमकहराम ....होश ठिकाने आया है ? अब बोल, मुझे बन्दी बनाने की आज्ञा किसने दी थी ?
गढ़पति : छत्रपति शिवाजी ने।
[शम्भा राजा जोर से गढ़पति को चांटा मारते हैं। वह गिर जाता है। कांपते हुए कातर दृष्टि से शम्भाजी की और देखता है।]
शम्भाजी : छत्रपति शिवाजी ने या सोयराबाई ने ?

(गढ़पति के सीने पर पैर रखकर नीलोपंत से) नीलोपंत अपनी तलवार मुझे दो।
[नीलोपंत आगे बढ़कर तलवार शम्भा जी को देते हैं।]
शम्भाजी : (तलवार गढ़पति के सीने पर रखकर)
अब बोल, मुझे बन्दी बनाने की आज्ञा किसने दी थी ?
गढ़पति : (कातर स्वर में) बताता हूं.....बताता हूं......महाराज।
शम्भाजी :बोल......जल्दी बोल।

गढ़पति : महारानी सोयराबाई ने।
शम्भाजी :(तलवार पर थोड़ा जोर देते हुए) और तुमने उनकी आज्ञा मानकर मुझे इस दुर्ग की अंधेरी कोठरी में बन्द किया। पिता जी इस संसार को छोड़कर चले गए....और मैं ! उनके अन्तिम दर्शन के लिए तड़पता रहा।
गढ़पति : मैं विवश था महाराज। अगर मैं महारानी की आज्ञा का उल्लंघन करता तो मुझे तोप से उड़ा दिया जाता।
शम्भाजी :(गढ़पति की गर्दन से तलवार हटाकर नीलोपंत की ओर मुड़ते हैं। नीलोपंत को तलवार देकर) महारानी सोयराबाई...मेरी विमाता....नागिन....जिसके डसने से लहर नहीं आती...मैं तुम्हें ऐसा दण्ड दूँगा कि इतिहास याद रखेगा। (नीलोपंत से ) नीलोपंत, कल प्रातःकाल तक हम लोगों को रायगढ़ पहुंचना है...यहां से चलने के पहले तुम एक काम करो...इस गढ़पति को गढ़ की प्राचीर पर खड़ा करके तोप से उड़वा दो।
[गढ़पति लडखड़ाता हुआ उठकर शम्भाजी के पैरों में गिर जाता है।]

गढ़पति :(दीन स्वर में याचना करते हुए) मुझे क्षमा कर दो शम्भा राजा...मुझे क्षमा कर दो...मुझे मत मारो...मुझे मत मारो...मेरी विवशता पर तरस खाओ शम्भा राजा।
शम्भाजी : (गढ़पति को ठोकर मारते हुए) नीच, मैं इस समय तुम्हें कुत्ते से नुचवाता—पर मेरे पास समय कम है। (नीलोपंत से) नीलोपंत, मेरे आदेश का पालन करो। (हम्मीर राव से) हम्मीर राव, मेरे साथ आओ।
[शम्भा राजा तेजी से बाहर आते हैं। हम्मीर राव और सैनिक उनका अनुगमन करते हैं। नीलोपंत गढ़पति के पास आते हैं और उठने का संकेत करते हैं।]

नीलोपंत : उठो। मरने के लिए तैयार हो जाओ।
(गढ़पति भय से कांपता हुआ उठता है। उसकी पीठ पर अपनी तलवार की नोक रखकर) आगे बढ़ो।
[गढ़पति आगे बढ़ता है। धीरे-धीरे मंच का प्रकाश कम होता हुआ अंधकार में परिवर्तित हो जाता है। नेपथ्य में एक तोप के छूटने की आवाज और एक चीत्कार, फिर शान्ति।]





    






























































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