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विश्व धर्म सम्मेलन 1893

लक्ष्मीनिवास झुनझुनवाला

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2637
आईएसबीएन :81-7315-494-5

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विश्व धर्म सम्मलेन 1893 पर आधारित पुस्तक....

Vishva dharm sammelan 1893

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शुभाशंसा

सन् 1893 में शिकागो में आयोजित सुप्रसिद्ध विश्व धर्म सम्मेलन तथा उसमें स्वामी विवेकानंदजी द्वारा प्रस्तुत उद्गारों पर केंद्रित श्री लक्ष्मी निवास झुंझुनवाला कृत पुस्तक ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ को पढ़ने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। स्वामी जी की सुविख्यात शिकागो वक्तृता के विषय में सामान्य जानकारी तो समस्त देशवासियों को है, किंतु श्री झुंझुवाला ने स्वामीजी की अमेरिका यात्रा की पृष्ठभूमि एवं तैयारी के साथ-साथ विश्व धर्म सम्मेलन की दैनंदिनी गतिविधियों के बारे में जो रोचक एवं ज्ञानवर्धक सूचना इस पुस्तक में उपलब्ध कराई है, वह निहसंदेह दुर्लभ एवं उपयोगी है।

पुस्तक में अब से एक शताब्दी से भी अधिक पहले के भारतवर्ष की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति के सिंहावलोकन के साथ-साथ ईसाई मत के प्रचार, ब्रह्मसमाज एवं तत्कालीन अन्य भारतीय समाज सुधारकों के प्रयासों के संबंध में वस्तुस्थिति का विवरण विश्व धर्म सम्मेलन की पूर्वपूठिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है। विश्व धर्म सम्मेलन के संबंध में जो गवेषणापूर्ण जानकारी इस पुस्तक में दी गई है विश्व धर्म सम्मेलन के कार्यालय द्वारा संपादित एवं प्रकाशित 1300 पृष्ठों की विस्तृत रिपोर्ट, लुइस बर्क की पुस्तक तथा अनेक दुर्लभ ग्रंथों पर आधारित है। इसे संक्षिप्त एवं सुबोध रुप में प्रस्तुत करके लेखक ने हिंदी के पाठकों पर सचमुच बहुत उपकार किया है। हकम ही लोगों को ज्ञात होगा कि सन् 1893 का विश्व धर्म सम्मेलन तो विशाल विश्व मेले का एक अंगमात्र था और अमेरिकी नगरों में इसके आयोजन को लेकर इतनी होड़ थी कि अमेरिकी सीनेट में न्यूयॉर्क, वाशिंगटन, सेंट लुइस तथा शिकागो के संबंध में मतदान कराना पड़ा था, जिसमें अंततः शिकागो के पक्ष में बहुमत प्राप्त हुआ। 11 सितंबर, 1893 को प्रारंभ होकर सत्रह दिनों तक चलनेवाले इस धर्म सम्मेलन में प्रतिदिन विभिन्न देशों के धर्मशास्त्रियों एवं महत्त्वपूर्ण विद्वानों द्वारा प्रस्तुत विचारपूर्ण उद्गारों को पुस्तक में संक्षिप्त एवं सरल रूप से प्रस्तुत करके लेखक ने पुस्तक की उपयोगिता और बढ़ा दी है।

विश्व धर्म सम्मेलन तथा अमेरिका में अन्य कतिपय अवसरों पर स्वामी विवेकानंदजी द्वारा व्यक्त विचारों को पुस्तक में कालक्रम के अनुसार रोचक प्रवं प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। हिंदू धर्म की व्यापकता, उदारता एवं विराट् दृष्टि के साथ-साथ उपनिषदों एवं गीता में वर्णित ब्रह्म व आत्मतत्त्व की जो सुस्पष्ट एवं बोधगम्य विवरण पुस्तक में देखने को मिलता है, वह सराहनीय है। स्वामीजी ने ईसाई धर्म के साधकों के द्वारा स्वयं को ‘पापी’ मानने की प्रवृत्ति की प्रखर आलोचना करते हुए कहा था कि ईश्वर से जीवन का संबंध प्रेम का है, इसमें ‘पापी’ जैसी हीन भावना के लिए कोई स्थान नहीं है। पुस्तक में स्थान-स्थान पर स्वामीजी द्वारा प्रस्तुत हिंदू धर्म एवं अध्यात्म संबंधी सुस्पष्ट एवं तर्कपूर्ण विचार अन्य धर्मों की तुलना में हिंदू धर्म की श्रेष्ठता एवं संपूर्णता को स्थापित करने में समर्थ हैं।

मैं श्री लक्ष्मी निवास झुंझुनवाला को ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ जैसी सुबोध श्रमसाध्य एवं सार्थक कृति की रचना के लिए हार्दिक बधाई देते हुए आशावान् हूँ कि ‘गागार में सागर’ भरनेवाली इस उपयोगी पुस्तक का हिंदी जगत् में स्वागत किया जाएगा।

(विष्णकांत शास्त्री)

प्राक्कथन


मेरा परिचय श्री लक्ष्मीनिवास झुंझुनवाला से करीब चालीस वर्ष पुराना है। वे एक सफल उद्योगपति हैं। मैंने उनको व्यक्तिगत जीवन में अत्यंत संयमशील और अपने सिद्धांतों के प्रति सदैव समर्पित पाया। उनके एक आदर्शवादिता है, संवेदनशीलता है। जीवन की समस्याओं, शिक्षा, समाज और मानव के भविष्य के प्रति एक उत्सुकता, उत्कंठा और स्नेहात्मक रुचि है। कुछ-न-कुछ पढ़ते रहते हैं। विभिन्न क्षेत्रों के विद्वानों से संपर्क रखते हैं। कभी-कभी लिखते भी हैं, पर शायद नियमित रूप से नहीं।

पिछले कुछ दिनों से देख रहा था कि उनकी रुचि रामकृष्ण मिशन और मठ तथा आध्यात्मिक साहित्य के प्रति धीरे-धीरे अधिकाधिक आकर्षित होती जा रही थी। कभी-कभार मिल जाने पर इस विषय पर कुछ चर्चा भी हो जाती। अतएव जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि उन्होंने स्वामी विवेकानंद और विश्व धर्म-सम्मेलन पर एक विवेचनात्मक पुस्तक लिखी है। जहाँ तक मेरी जानकारी है, अपने में पूर्ण इस विषय पर हिंदी में संभवतः यह पहली पुस्तक है। पुस्तक उनकी पैनी दृष्टि की परिचायक है। विवेकानंदजी के प्रति श्रीलक्ष्मीनिवासजी की आगाध आस्था झलकती है। स्वामी विवेकानंद की कर्मशीलता, देश के भविष्य की चिंता, मानव-प्रेम, आध्यात्मिकता की खोज ने लक्ष्मीनिवासजी को जीवन में एक विशेष दिशा और संबल प्रदान किया है और यह हर पृष्ठ पर परिलक्षित होता है। प्रारंभ में अपने लेखकीय और पुस्तक की पृष्ठभूमि में उन्होंने  स्पष्ट किया है कि किन विशिष्ट महानुभवों के संपर्क के कारण किस प्रकार और क्यों उन्हें पुस्तक लिखने की प्रेरणा प्राप्त हुई। परिणाम अत्यंत आनंदकारी है। हो सकता है कि कहीं किसी विशेष संदर्भ के विवेचन में किसी का कोई मतभेद हो, पर लेखक की सत्यान्वेषण और तथ्यात्मक मार्ग को अपनाने की सतत चेष्टा को कोई नहीं नकार सकता।

स्वामी विवेकानंदजी की विश्व धर्म-सम्मेलन में भागीदारी अथवा सम्मिलित होना, उसका अभूतपूर्व व्यापक और दूरगामी प्रभाव केवल भारत के लिए ही नहीं, पूरे विश्व और मानव कल्याण की दृष्टि से आज भी सुधी लोगों के लिए विचार-विमर्श बना हुआ है। वह एक चमत्कारी दैवी घटना है। लक्ष्मीनिवासजी ने बड़े अध्यवसाय और लगन से पुस्तक लिखी है। काफी परिश्रम और विशद साहित्य के अवगाहन का यह सुंदर उदाहरण है। लेखनी में अपना प्रवाह है और भाषा में सुगमता तथा भावों के प्रकटीकरण में स्वाभाविकता है।

मैं श्री लक्ष्मीनिवास झुंझुनवाला को इस सत्प्रयास के लिए साधुवाद देना चाहूंगा। वह उत्कट निष्ठा और विश्लेषणात्मक मानसिक भावभूमि का प्रतिफल है। परमपिता से यही प्रार्थना है कि वे सदैव स्वस्थ रहें और इसी प्रकार धर्म, समाज और साहित्य की सेवा करते रहें।

मैं उनके इस सौजन्य के लिए विशेष रूप से आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे प्राक्कथन लिखने के लिए कहा। मैं किसी प्रकार अपने को इसका अधिकारी नहीं मानता। यह मेरे प्रति उनके स्नेह और सदाशयता का ही परिचायक है, जिसके लिए मैं श्री झुंझुनवाला का कृतज्ञ हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है कि श्री लक्ष्मीनिवास की इस प्रमाणिक सुकृति का हिंदी भाषा में प्रबुद्ध पाठकों एवं सत्साहित्य में रुचि रखनेवालों द्वारा उचित समादर होगा।

(त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी)

 लेखकीय


सन् 1969 में मैं संयोगवश कलकत्ता के नरेंद्रपुर स्थित रामकृष्ण मिशन की शाखा में चला गया। नरेंद्रपुर का आवासीय विद्यालय भारत का सर्वश्रेष्ठ माना जानेवाला शिक्षा संस्थान है। जीवनदानी गृहस्थ श्री शुक्लाजी के माध्यम से नरेंद्रपुर से परिचय हुआ। तब तक रामकृष्ण विवेकानंद साहित्य से व वहाँ के संन्यासियों से मेरा परिचय नहीं था पर नरेंद्रपुर से स्वामी लोकेश्वरानंदजी, स्वामी मुमुक्षानंदजी, स्वामी असक्तानंदजी से परिचय प्रारंभ होते हुए स्वामी आत्मानंदजी से घनिष्ठ परिचय हो गया। उनके साथ अनेक यात्राएँ अमरकंटक, नैनीताल, करीब 15 संन्यासियों के एक दल के साथ बद्री, केदार, गंगोतरी, यमुनोतरी की 16 दिन की यात्राएँ कीं। उनके साथ पंद्रह दिन हैदराबाद में रहा।

 ‘गीता’ पर उनके दिल्ली में प्रवचन करवाए। फिर ‘गीता’ के छह अध्याय तक के उनके प्रवचनों पर उनके साथ कार्य कर उन्हें छपवाया। धीरे-धीरे रामकृष्ण मिशन के हेड क्वार्ट्स बेलूड़मठ से संपर्क हुआ। सन् 1994 में रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष स्वामी भूतेशानंदजी के सान्निध्य का सौभाग्य मिला। रामकृष्ण विवेदानंद साहित्य के विद्वान् व अनुसंधानकर्ता श्री शंकरी प्रसाद बसु से स्वामी मुमुक्षानंद ने परिचय करवाया। बाँगला में लिखित उनके ‘स्वामी विवेकानंद व समकालीन भारत’ के आठ खंडों को गहराई से पढ़ा। इसी पृष्ठभूमि में मुझे स्वामी मुमुक्षानंदजी ने हिंदी में रामकृष्ण विवेदानंद आंदोलन पर कुछ लिखने का आदेश दिया। इसी आदेश के अंतर्गत यह पुस्तिका लिखनी प्रारंभ की।

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