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सपने कहाँ गए

विद्यानिवास मिश्र

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2642
आईएसबीएन :81-7315-229-2

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स्वाधीनता संग्राम पर आधारित पुस्तक.....

Sapne Kahan Gaye

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हर राष्ट्र के इतिहास में एक ऐसा समय आता है, जब विवेक का स्तर क्षीण हो जाता है। तत्कालिक दबाव में आदर्श धूमिल हो जाते हैं।...स्वाधीनता की उतावली तो आई, पर स्वाधीन भारत की कमान सँभालने की दक्षता भी आई, पर स्वाधीन भारत को अपने स्वरूप की, एक निर्माण की कोई विशेष चिन्ता नहीं। राजसी ठाट-बाट भारतीय गणतंत्र में भी रहे, यह हमारे जैसे लोगों को बहुत खटकता था। आज भी खटकता है। सबसे अधिक एक चीज खटकती थी, वह यह थी कि राष्ट्रपति भवन से यूनियन जैक तो हटा, पर लगभग डेढ़ साल तक गवर्नर जनरल बना रहा।

पहला गवर्नर जनरल था एक ऐसा आदमी, जो भारत का मित्र बनकर एक के बाद दूसरे गड्ढे में ढकेलता रहा। और कहने के लिए ढकेलता रहा। भीतर से भारत की जड़ खोदता रहा। उसका और उसके परिवार का जाने क्या जादू था कि भावुक नेहरू देश के इतने प्रिय होते हुए भी देश की भावना से काफी दूर होते गये। उनके मन में विशालता का संकल्प तो जगा, पर इस देश का निर्माण जिन लघु शक्ति-पुंजों से हुआ, उसकी उन्होंने उतनी सुधि नहीं रखी। इसलिए ऐसे नेता, जो ठेठ देशी थे, उपेक्षित होते गये और ऐसे भी नेता, जिनका जनाधार नहीं था, देश के कर्णधार बने।

आभार


‘जनसत्ता’ के पूर्व संपादक श्री राहुल देव से बातों-बातों में प्रस्ताव आया कि आप ‘जनसत्ता’ के लिए स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद के वर्षों के निजी संस्मरण लिखिए, हम उसे धारावाहिक रूप में छापेंगे। कुछ ही कड़ियाँ छपी थीं कि राहुल देव ‘आज तक’ दूरदर्शन में चले गए। उनके उत्तराधिकारी एवं मेरे अनन्य सहयोगी श्री अच्युतानंद मिश्र ने तगादे-पर-तगादे करके मुझसे ‘सपने कहाँ गए ?’ लेखमाला लिखवा ली। रविवार-रविवार वे उसे विशेष महत्त्व देकर छापते रहे। इसके पाठ की प्रतिक्रिया समय-समय पर मुझे मिलती रही। इसीसे प्रेरित होकर मैं इसे पुस्तक रूप में दे रहा हूँ। इसमें ‘साहित्य अमृत’ में छपा हुआ मेरा सम्पादकीय (स्वाधीनता स्वर्ण जयंती पर) भूमिका के रूप में सम्मिलित किया गया है तथा परिशिष्ट रूप में दो लेख ‘देश को क्यों भुला दिया राष्ट्रवाद ने’ एवं ‘स्वाध्यायः भक्ति का पुरुषार्थ’ दिए गए हैं।
इस पुस्तक का प्रूफ शोधन का कार्य आद्यंत डॉ. कपिल देव पांडेय ने किया तथा टंकण में श्री प्रदीप चटर्जी ने सहायता की। इसके लिए मैं इन दोनों को आशीर्वाद देता हूँ।

विद्यानिवास मिश्र

भूमिका

स्वाधीनता का अर्थ

विगत पचास वर्षों का लेखा-जोखा लेने बैठते हैं, तो सबसे पहले यह लगता है कि अपना तंत्र या शासन होते हुए भी हम स्वाधीन नहीं हैं। इसे हम स्थूल धरातल पर देखें तो हमारी अर्थ नीति कर्ज की ऐसी बैसाखियों पर टिकी हुई है कि जिसका सूद अदा करने में ही देश की लगभग एक-तिहाई आमदनी चली आती है। राजनीतिक धरातल पर देखें तो हमने जाने किन-किन से मित्रता की बात चलाई और सही मायने मे हमारा कोई मित्र इस समय नहीं है। हम मित्रता के लिए हाथ जोड़ रहे हैं और कम विकसित एवं तथाकथित विकासशील देशों से जुड़ रहे हैं। और उनके अध्यक्षों को न्यौतकर ही कुछ भारी-भरकम होने का ढोंग पाल रहे हैं। परंतु वास्तविकता यह है कि राजनीतिक शक्ति सैन्य शक्ति पर बहुत कुछ निर्भर  है। आज की सैन्य शक्ति सैन्य की तकनीक पर निर्भर है।

 उस तकनीक के लिए हम प्रयत्न तो कर रहे हैं, पर अभी इस स्तर तक नहीं पहुँचे हैं कि विशाल  सैन्य शक्तिवाले देशों के ऊपर हमारी निर्भरता एकदम समाप्त हो जाए। वैचारिक धरातल पर देखें तो और गहरा शून्य दिखाई पड़ता है। कितनी लज्जा की बात है कि अपने ही देश के प्रतिभाशाली लोग विदेश में अपनी प्रतिभा का परिचय देकर अंतरिक्ष उपक्रम, संगणक उपक्रम और चिकित्सा जैसे विशेषज्ञता के  क्षेत्रों में शीर्ष स्थान पर पहुँच रहे हैं। अपना देश स्वयं अंतरिक्ष विज्ञान में बहुत समुन्नत हो चुका है। परंतु हमारी मानसिक स्थिति यह है कि हम आत्मगौरव के भाव से एकदम रिक्त हो गए हैं। जिन विषयों में हमारी जानकारी बहुत विकसित है, उन विषयों में भी हम आत्मविश्वास तक नहीं करते कि हमारा अनुशीलन उच्च स्तर का है, हमारी सर्जनात्मक उपलब्धि उच्च स्तर की है।

इससे भी अधिक लज्जा की बात यह है कि हम पश्चिमी संस्कृति से उधार लेने की बात बार-बार दोहराते हैं और उसकी ओट में अपनी दुर्बलताओं को हटाने की चेष्टा नहीं करते। यहि हम विश्व की एकता के नाम पर अपने सारे दरवाजे खोलने की बात करते हैं तो हमारे भीतर साहस भी होना चाहिए कि हम अपने विचारों को, निरंतर गतिशील विचारों को अपनी संस्कृति की धारा में बहाकर अपने देश से बाहर ले जाएँ।

स्वाधीन होने का अर्थ केवल शासन अपने हाथ में आना नहीं, सत्ता अपने हाथ में आनी नहीं है। स्वाधीन होने का अर्थ पूरा तब होता है जब हम विचार के क्षेत्र और कार्यप्रणाली, दोनों में अपने विशाल जातीय अनुभव का प्रयोग करें। फिर उसका समस्त विश्व के कल्याण के लिए उपयोग करें। हमारी प्रयोगशीलता को लकवा मार गया है। जब तक कोई बाहर का आदमी हमारे अनुभव की धरोहर की प्रशंसा नहीं करता, तब तक हम उस अनुभव का तिरस्कार ही करते रहते हैं।

स्वाधीनता होने का अर्थ यह नहीं है कि हम केवल अपने प्रचीन गौरव का राग अलापते रहें। अपनी सक्रियता और जीवंतता का प्रमाण अपने समय के  अनुभवों से न दें। हम या तो अपने बारे में बिना-जाने समझे व्यर्थ की डींग हाँकते हैं या अपनी क्षमता की उपेक्षा करके हीनभाव से ग्रस्त रहते हैं। ये दोनों स्थितियाँ एक स्वाधीन देश के लिए भयावह स्थितियाँ हैं। स्व. वात्स्यायनजी कहते थे, ‘पराधीन देश में हम स्वाधीन भाषा में सोचते थे, लिखते थे और यह अनुभव करते थे कि राजनीतिक पराधीनता हमें झुका नहीं सकती, और आज स्वाधीन देश में हम जैसे एक पराधीन भाषा में लिख रहे हैं और सोच रहे हैं। विचारों और तर्कों की इतनी विकसित परंपरा के उत्तराधिकारी होकर भी हमारे चिंतन में पारदर्शिता और तीक्ष्णता नहीं आ रही है। हाँ, जहाँ आ रही है, उसको हम अनदेखा कर रहे हैं।’

 गोविन्द चंद्र पांडे के ‘मूल्य मीमांसा’ जैसे उच्च स्तरीय ग्रंथ को भारतीय भाषाओं में ही महत्त्व नहीं मिला। स्व. जड़ाऊलाल मेहता के अंग्रेजी में लिखे गए ग्रंथ विश्व-भर में  प्रशंसित हुए और हिंदी में जो कुछ लिखे गए, उनका मूल्य हमने नहीं आँका। यह मानसिक दरिद्रता स्वाधीनता में सबसे अधिक बाधक है। इस मानसिक दरिद्रता के कारण ही हमारे विश्वविद्यालय केवल कारखाने रह गए हैं। हमारी अधिकांश साहित्यिक संस्थाएँ दुकान बनकर रह गई हैं। इन संस्थाओं में हमारी कला संस्थाएं सरकार की मोहताज बनकर रह गईं। अब 1947 के पहले की तेजस्विता की चमक नहीं दिखाई पड़ती। यह नहीं है कि अच्छा साहित्य रचा नहीं जा रहा है, संगीत-नृत्य नई ऊँचाइयाँ नहीं छू रहे हैं, शिल्प और चित्र में नई प्रयोगशीलता नहीं है; पर यह सब होते हुए भी एक देशव्यापी आत्मसजगता नहीं है; क्योंकि देश का एक विशाल भाव नहीं है।

 वह विशाल भाव जब तक था, तब तक राजनीतिक परतंत्रता की बेड़ियाँ कुछ अर्थ नहीं रखती थीं। उन बेड़ियों में जकड़ा हुआ आदमी मस्तक ऊँचा रख सकता था और सत्ता के प्रलोभनों को नकार सकता था। आज देश छोटा हो गया है, हमारा अपना व्यक्तित्व इतना स्फीत हो गया है कि हम बड़े मन से और बड़े सामूहिक मन से सोच ही नहीं पाते। हम सोचते हैं कि अगर हम समाज की बात करते हैं तो समाज हमारा समाज नहीं होता, हमारे ऊपर आरोपित अवधारणा का समाज होता है। हमारा समाज होता तो वह केवल मनुष्यों के संगठन तक सीमित न रहता, न वह मनुष्य-मनुष्य के संबन्ध की व्यवस्था तक सीमित रहता। वह समस्त गोचर संसार की संबद्धता और एक–दूसरे पर अवलंबिता की बात करता।
 
विगत पचास वर्षों के सर्जन से हमें निराशा नहीं होती। हमें उसमें आशा दिखती है कि निरंतर नए-नए मोहभंग हुए हैं, निरंतर नई-नई सुगबुगाहट दिखाई पड़ी है। जीन की नई-नई शर्तों की तलाश हुई है और आत्मतुष्टि पर नए-नए ढंग से प्रश्नचिन्ह लगाए गए हैं। हमें निराशा एक दूसरी बात पर है कि हमारे लिखने, पढ़ने, सोचने और करने में कोई सामंजस्य नहीं है। हमारे घरों में, हमारे कमरों में, हमारे उठने-बैठने के तरीकों में, हमारी रुचि में और हमारी रचनात्मक संवेदना में कहीं भी तालमेल नहीं है। ऐसे लोग मिलेंगे जो अच्छी कविता करते हैं; पर दो अलग-अलग फूलों की गंध में कोई अलग विशेषता नहीं देख सकते, दो तरह की मिट्टी की खासियत नहीं देख सकते और न साँझ की लाली के बदलते रूपों का चमत्कार देख सकते हैं।

ऐसे लोग अपने को, अपनी रचनाशीलता को उन्नतिशील बनाए रखने में असफल होते हैं, इसलिए वे बड़ी जल्दी चुकने लगते हैं। रचनाशीलता के लिए जातीय भाव आवश्यक है। जातीय भाव विश्वबंधुता का विरोधी नहीं होता पोषक होता है और वह व्यक्ति को कुंठित नहीं करता है, व्यक्ति को समृद्ध करता है। विगत पचास वर्षों में हमारी रचनाशीलता बुरी तरह प्रभावित हुई है- विचारों के लचरपन से और अनावश्यक अप्रासंगिक विवादों के घेरे में फँसकर। उदाहरण के लिए, ‘कला जीवन के लिए’ और ‘कला कला के लिए’ के बीच विवाद हमारे संदर्भ में कोई अर्थ नहीं रखता। जहाँ जीवनमात्र को बनाने पर बल दिया गया है और दैनिंदित जीवन के अविभाज्य अंग के रूप में साहित्य रहा है, चित्रकला रही है, शिल्प रचना रही है, स्थापत्य रहा है, संगीत रहा है, नृत्य रहा; यह सब जीवन की शोभा नहीं, यह सब जीवन की आवश्यकता रहे हैं। इसी प्रकार का एक दूसरा विवाह है- व्यक्ति अपने आपमें कोई इकाई  हो।

 हमारी अपनी समझ तो यही रही है कि ईकाई तो संबंध है व्यक्ति से, परिवार से, परिवार का परिवार से, परिवार का जनपद से, जनपत का देश से और इस प्रकार एक-दूसरे से हर का संबंध होता है और एक-दूसरे का अवलंबित होना ही महत्त्व रखता है। किसी का किसी से टकराव का कोई महत्त्व नहीं है। हम हर टकराव को संवाद की शुरूआत ही मानते हैं। पर व्यक्ति और समाज के विवाद ने गत पचास वर्षों में लेखकों को ऐसे खेमों में बाँट दिया है, जैसे उनके बीच में लामबंदी हो गई हो।  

खेमेबाजी को देखकर क्लेस होता है कि संवेदना को प्राण माननेवाले लोग एक-दूसरे के प्रति कितने संवेदनशून्य होते जा रहे हैं। परिवारों के बारे में परिवार को केंद्र मानकर एक के बाद दूसरा वृत्त बनाने के जिस व्यापार ने हमें ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की शिक्षा दी, वह टूटा नहीं है। वह केवल बिखरा है और बिखरने में बराबर इसका अहसास है कि जुड़ना कितना अच्छा होता है। संतोष की बात केवल एक है  कि इस परिवार की भावना को मनोवैज्ञानिक निष्कर्षों के आधार पर महत्त्व देना शुरू हुआ है। यह प्रयोग के द्वारा देखा गया है कि जो बच्चे बड़े परिवार में पलते हैं तथा जिन्हें पहले की पीढ़ी का स्नेह एवं वांछित संस्कार मिलते हैं, वे बच्चे मानसिक रूप से अधिक स्वस्थ होते हैं और उनका व्यक्तित्व अधिक भरा-पूरा होता है। उसकी शिक्षा भी उन्हें कल्पना-प्रवण बनाती है।

एक तीसरा झूठ-मूठ का विवाद आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के बीच शुरू हुआ। मानो बावले गाँव में ऊँट आ गया हो। यह परखने को कोशिश कम हुई कि आधुनिकता हर देश और हर संस्कृति की अपरिहार्यता होती है। पर उसका रूप इन परिस्थितियों से उद्भूत होता है। परिस्थितियों के संदर्भ को काटकर जो आधुनिकता स्थापित की जाती है, वह तो तमाशा बनकर रह जाती है या फिर ऐसी रूढ़ि बनती है कि उससे छुटकारा पाना कठिन हो जाता है। उत्तर आधुनिकता पश्चिमी में जिन पूर्व संयोजनों को तोड़ने  पर बल देती है, वे संघटन हमारे लिए कोई महत्त्व ही नहीं रखते।

वे जिन आधुनिकताओं की जिन स्थापनाओं का खंडन करना चाहते हैं, वे स्थापनाएँ हमारी आधुनिकता की हैं ही नहीं। यदि कुछ हद तक हैं भी तो उनका समाधान हमने अपने ढंग से निकाल भी लिया है। इसके बावजूद उत्तर आधुनिकता का ढोल पीटा जा रहा है और हर नया लेखक उत्तर आधुनिक होने के लिए लालयित है। यहीं पर स्वाधीनता के विवेक की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यह वह विवेक होता है जब अपनी परिस्थितियों, अपनी क्षमताओं और अपनी आवश्यकताओं के आलोक में अपनी पुनर्रचना की बात आदमी सोचता है। यह पश्चिम में जो परिवर्तन हुआ है, वह कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं है। संस्कृतिक के इतिहास में यह परिवर्तन स्वाभाविक है। पश्चिम की दृष्टि हमेशा से ही विखंडनात्मक नहीं रही। सत्रहवीं शताब्दी में उसकी दृष्टि विखंडनात्मक हुई और उसने अपनी ही समझ को सही समझा और सभी समझों का स्रोत मानना शुरू किया।

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