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जय हिंद

श्रीकृष्ण सरल

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2678
आईएसबीएन :81-85830-71-1

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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस पर आधारित उपन्यास...

Jai Hind

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

‘जय हिंद’ वस्तुतः उपन्यास नहीं, सत्य ऐतिहासिक घटनाओं का औपन्यासिक प्रस्तुतीकरण है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद आंदोलन पर आधारित यह मेरी सातवीं कृति है। नेताजी पर लगभग दस हजार पृष्ठ लिख चुकने के पश्चात् भी मैं महसूस करता रहा था कि अभी मुझे वह चीज लिखनी है जो नेताजी के समस्त प्रभाव को थोड़े में समेट सके और उनका सही चित्र लोगों के सामने रख सके। ‘जय हिंद’ उसी दिशा में किया गया एक प्रयास है। सामान्य पाठक के पास न तो बड़े-बड़े समीक्षात्मक ग्रंथ पढ़ने के लिए समय ही है और न रुचि ही। इसीलिए महत्तम का यह लघुत्तम स्वरूप प्रस्तुत किया गया है।

प्रस्तुत कृति में कोई भी घटना या कोई भी नाम कल्पित नहीं है। हाँ, प्रस्तुतीकरण की सुविधा के लिए घटनाओं के स्वरूप में कुछ हेरफेर जरूर किया गया है। इस कृति के कई पात्र अभी जीवित हैं और उनसे मेरा जीवंत संपर्क भी है। मैं उन्हीं के मुँह पर झूठ बोलने का साहस कैसे कर सकता था। इस कृति को लिखने में मुझे एक कारण से सुविधा और हुई है कि मैंने स्वयं दौरा करके अपनी आँखों से उन क्षेत्रों को देखा है, जहाँ ये घटनाएँ घटित हुई हैं। इस क्रम में मैंने अंडमान-निकोबार द्वीप-समूह, बर्मा मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, हांगकांग, जापान, फारमोसा, पाकिस्तान तथा नेपाल का भ्रमण किया है और तथ्यों के अन्वेषण तथा शोध की दिशा में काफी प्रयत्न किया है। यह लिखने में मैं गौरव अनुभव करता हूँ कि ये विशद यात्राएँ मैंने अपने निजी खर्च से केवल लेखन के उद्देश्य से की हैं।

यद्यपि ‘जय हिंद’ के नायक सुभाषचंद्र बोस हैं, पर फिर भी भारत की विजय और समृद्धि की उस मूल भावना को केंद्रबिंदु के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसके लिए सुभाषचंद्र बोस से पहले भी हमारे देश के लोगों ने कुरबानियाँ दी हैं और आगे भी देते रहेंगे।


‘जय हिंद’ के लेखन में जिन अन्य विद्वान लेखकों की कृतियों का सहारा लिया गया है, उन सभी के प्रति मैं अत्यंत विनीत भाव से आभारी हूँ।
‘जय हिंद’ के रूप में भारत के वीरों की बलिदान-गाथा आपके हाथों में है। इस परंपरा का रक्षण और निर्वाह हम सबका कर्तव्य है।

श्रीकृष्ण सरल


एक


कलकत्ता महानगर के इस भाग को लोग एलगिन रोड के नाम से पुकारते हैं। इस रोड पर यह जो 38/2 नं. का मकान स्थित है, इसे घेरकर कुछ लोग पड़े हुए हैं। कुछ पुलिसवाले इस मकान के आसपास दूर-दूर तक बिखरे हुए हैं और वे निरंतर इस मकान पर नजर रखे हुए हैं। काफी रात गुजर चुकी है। वैसे ही सड़क पर आवागमन कम हो गया है; पर फिर भी इस तरफ आने-जानेवाले हर व्यक्ति की तरफ ध्यान से देखा जा रहा है। मकान के आसपास फुटपाथों पर भी कुछ लोग सोए हुए हैं, कुछ सोए हुए होने का अभिनय कर रहे हैं; और कुछ जागकर आपस में बातचीत करते हुए समय गुजार रहे हैं। फुटपाथ पर सोए बैठे इन लोगों में नागरिक वेश में कुछ पुलिसवाले भी हैं, जो इस मकान की हर हरकत पर अपनी सतर्क दृष्टि जमाए हुए हैं।

यह सन् 1941 का जनवरी का महीना है। 17 तारीख सरककर अतीत के अंतराल में चली जाती है और वह अपना स्थान 18 तारीख को दे जाती है। मकान के एक कमरे की दीवार पर लगी हुई घड़ी के काँटे इस समय एक बजकर पच्चीस मिनट का समय बता रहे हैं। इस मकान के पिछले हिस्से से एक पछाँही मौलवी निकलता है। वह अलीगढ़ी किस्म का पायजामा और काले रंग की शेरवानी पहने हुए है। उसके चेहरे पर बढ़ी हुई खस्ता दाढ़ी बड़ी खिल रही है। वह ऐनक भी लगाए हुए है। उसके सिर पर काली दुपल्लू टोपी है, जो आगे की तरफ कुछ ज्यादा झुकी हुई है और वह मौलवी की आधी पेशानी ढके हुए है।

मौलवी दबे पाँव अपने कमरे से निकलता है, झुक-झुककर गैलरी पार करता है और मकान के पिछले हिस्से के नीचे के सहन में पहुँच जाता है। वह थोड़ी देर रुकता है, गली में खुलनेवाले दरवाजे को आहिस्ता-आहिस्ता खोलता है, चेहरा थोड़ा बाहर निकालकर इधर-उधर झाँकता है और फिर दरवाजे से बाहर निकलकर अपने पैरों में पहनी हुई जूतियों से बिना आवाज किए गली के सिरे पर पहुँच जाता है। जहाँ गली खत्म होती है, वहाँ एक चौड़ी सड़क है, जिसके एक किनारे पर एक कार खड़ी हुई है। मौलवी कार के नजदीक पहुँचता है और कार में बैठे हुए ड्राइवर से उसकी आँखें मिलती हैं। मौलवी कार का दरवाजा खोलकर पिछली सीट पर बैठ जाता है, ड्राइवर से फिर उसकी आँखें मिलती हैं और कार सड़क पर आगे सरकने लगती है।

कलकत्ता महानगर सोता रहता है। मकान के पहरेदार जागते रहते हैं। पंछी उड़ चुका होता है, केवल पिंजड़ा ही पड़ा रह जाता है। यह पंछी है-भारत की आजादी का दीवाना सुभाषचंद्र बोस, जो ब्रिटिश पुलिस और जासूसों की आँखों में धूल झोंककर इस तरह जा रहा है; और वह ड्राइवर है उसका सगा भतीजा शिशिर कुमार बोस।
रात के सन्नाटे में सरकती हुई कार आगे बढ़ी चली जा रही है। हावड़ा बाली-उत्तरपाड़ा और चंद्रनगर पार हो गए हैं। घड़ी में समय देखने की फुरसत भी किसको ? भतीजा सारथी अपने ‘रांगा काकू’ (लाल चच्चू) को पुलिस की निगाहों से बचाकर निरापद स्थान पर पहुँचा देने की धुन में है और उसका ‘रांगा काकू’ सपनों में खोया हुआ है। वह सपने देख रहा है, सैन्य-निर्माण-आक्रमण-भयंकर रक्तपात-ब्रिटिश पराजय और भारत-मुक्ति के। कार ने सपाटे भरकर चुंचुड़, शक्तिगढ़ बर्दवान, आसनसोल और बराकट ब्रिज स्थान पार कर लिये हैं। पूर्व दिशा में उषा की अरुणिमा से भोर होने की सूचना पाकर सारथी बोल उठता है-

‘‘हम लोग धनबाद पहुँच गए हैं।’’
रथी कहता है-
‘‘तुम कार लेकर अशोक के बँगले पर पहुँचो। मैं पैदल ही वहाँ पहुँचूँगा। और हाँ, तुम अशोक से कह देना कि वह मेरे बारे में नौकर-चाकरों को कुछ न बताए और मुझसे वैसा ही व्यवहार करै जैसा मिलने आए हुए बाहर के व्यक्ति के साथ किया जाता है।’’

सारथी शिशिर अपने बड़े भाई अशोक के बँगले की ओर चल पड़ता है। इन अशोक महाशय का पूरा नाम है अशोकनाथ बोस और इन्हें श्री सुभाष का बड़ा भतीजा होने का गौरव प्राप्त है।
निश्चित योजना के अनुसार शिशिर कुमार बोस अपने बड़े भाई अशोकनाथ बोस के बँगले पर पहुँचते हैं। उनके आगमन से बोस परिवार में हर्ष छा जाता है।  उनकी प्रातःकालीन चाय का आयोजन किया जा रहा है। इसी समय एक मौलवी साहब बँगले पर पहुँचकर दरवाजे पर लगी हुई बिजली की घंटी बजाते हैं।
गृहस्वामी अपने एक नौकर को बाहर भेजते हैं। नौकर मौलवी को गृहस्वामी पास लिवा ले जाता है। मौलवी साहब और गृस्वामी में ‘आदाब अर्ज’ का आदान-प्रदान होता है और मौलवी साहब गृहस्वामी से सुबह-सुबह तकलीफ देने के लिए माफी माँगते हैं। नौकर को किसी काम में लगा दिया जाता है और गृहस्वामी तथा मौलवी में अनौपचारिक चर्चा होती है। फिर भी इतनी सावधानी रखी जाती है कि मौलवी साहब को घर के अंतरंग कक्षों में न ले जाते हुए बाहर के कमरे में ही रखा जाता है, ताकि नौकर-चाकरों के मन में किसी प्रकार का संदेह न हो।
18 जनवरी को दिन-भर भौलवी साहब श्री अशोकनाथ बोस के यहा मेहमान रहते हैं और संध्या होते ही रुखसत लेने के अंदाज में कह उठते हैं-

‘जनाब बोस साहब ! आपकी मेहमाननवाजी के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया अब इजाजत चाहता हूँ।’’
अशोकनाथ कहते हैं-
‘वैसे तो मैं चाहता था कि आप यहाँ और ठहरते, पर आपने जो जरूरी काम बताया है, उसे देखते हुए मैं आपको रोक भी नहीं सकता। कहिए तो मैं आपको गाड़ी से छोड़ दूँ ?’’
मौलवी साहब जवाब देते हैं-
‘जी नहीं, शुक्रिया। मैं आगे चलकर टैक्सी ले लूँगा।’’

नौकर-चाकर और आसपास के व्यक्ति समझते हैं कि कोई मौलवी साहब आए थे और चले गए। उन्हें क्या पता था कि बंगाल का शेर सुभाषचंद्र बोस अंग्रेजी साम्राज्य के पिंजड़े को तोड़कर स्वाधीनता के पथ पर छलाँगें भरता हुआ जा रहा है।
आधा घंटा पश्चात् अशोकनाथ बोस अपनी पत्नी तथा भाई शिशिर के साथ कार से बाहर निकलते हैं। निश्चित स्थान पर मौलवी साहब उनको मिल जाते हैं। वे मौलवी साहब को अपनी कार में ले लेते हैं और कार ग्रैंड ट्रंक रोड पर पहुँचकर गोमोह की तरफ झपटने लगती है।
पूरी रफ्तार के साथ दौड़ती हुई बोस परिवार की कार गोमोह के बाहरी अंचल में जा पहुँचती है। घड़ी देखने पर पता चलता है कि दिल्ली-कालका मेल को स्टेशन पर पहुँचने में एक घंटे का समय और बाकी है। निश्चित किया जाता है कि खाली समय बागर ही बिताया जाए। ट्रेन का समय होने पर का स्टेशन की तरफ दौड़ने लगती है। कार से मौलवी साहब का सामान निकाला जाता है। वे अपने मेजबानों से हाथ मिलाते हैं और कुली पर सामान लदवाकर चल देते हैं।


दो


मौलवी वेशधारी सुभाष दिल्ली-कालका मेल के एक डिब्बे में सवार हो गए। उन्हें बिदा देनेवाले बोस परिवार के सदस्य शहर के बाहर कार में रुके रहे और गाड़ी के चले जाने पर वे भी निश्चिंत होकर वापस चले गए।
कालका मेल अगले स्टेशन पर रुकी और श्री सुभाष ने देखा कि एक पुलिस दारोगा एक कॉन्स्टेबल को साथ लिये हुए उनके डिब्बे की तरफ बढ़ रहा है। अपने चेहरे को छिपाने के लिए उन्होंने अखबार फैलाया और उसे पढ़ने का अभिनय करने लगे। पुलिस दारोगा और कॉन्स्टेबल उनके डिब्बे में नजर दौड़ाये हुए आगे बढ़ गए। यह तो उनका हर दिन का काम था। मौलवी साहब ने चैन की साँस ली।

अगले स्टेशन पर श्री सुभाष को एक नई मुसीबत का सामना करना पड़ा। उनके डिब्बे में एक सिख सज्जन ने प्रवेश किया और लगे उनसे बातें करने। उनका पहला सवाल था-
‘कहाँ तशरीफ ले जा रहे हैं, जनाब ?’’
‘‘जी, मैं रावलपिंडी जा रहा हूँ।’’ उन्हें संक्षिप्त उत्तर मिला। सिख सज्जन ज्यादा मिलनसार तबीयत के थे। फिर सवाल किया-
‘‘क्या रावलपिंडी में ही जनाब का दौलतखाना है ?’’
सुभाष ने सलीस उर्दू में जवाब दिया-
‘‘जी नहीं, अपना गरीबखाना तो लखनऊ में है। पेशे से इंश्योरेंस ऑर्गेनाइजर हूँ और इसी सिलसिले में रावलपिंडी जा रहा हूँ।’’

‘‘जनाब का इस्म शरीफ ?’’ सिख सज्जन ने पूछा।
‘‘नाचीज को मौलवी जियाउद्दीन कहते हैं।’’ सुभाष ने उत्तर दिया।
बातचीत का सिलसिला ज्यादा न चले, इस खयाल से सुभाष ने नींद का बहाना मुँह पर अखबार डाल लिया। इस बीच भी सिख सज्जन ने कोई सवाल किया, पर जवाब न पाकर वे समझ गए कि मौलवी साहब की नींद लग गई है। कालका मेल चलती रही। स्टेशन पार होते रहे। उन्होंने नींद लग जाने का अभिनय-भर किया था। वे तन और मन दोनों से जाग रहे थे। उनके विचार गाड़ी की रफ्तार से अधिक तेज दौड़ रहे थे। उनके मन में दृश्य-चित्र उभरते और मिटते जा रहे थे। भारत माता के बंधनों को काटने के लिए अपने प्राणों की बलि देनेवाले शहीदों के चित्र उनके मानस-पटल पर उभरते जा रहे हैं। इन चित्रों में थे-खुदीराम बोस, प्रफुल्लकुमार चाकी, कन्हाई लाल, सत्येंद्र बसु, रामप्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशनसिंह, अशफाकउल्ला खाँ, राजेंद्र लाहिड़ी, यतीन्द्रनाथ दास, चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु और जाने-कितने-कितने अन्य। उनके मानस-पटल पर से फाँसियों के फंदे हटते जा रहे थे और उनका स्थान लेते जा हे थे-सेनाओं के घमासान युद्ध, गोलों की गड़गड़ाहट, बम के विस्फोट, मशीनगनों की बौछारें और ऐसे ही अनेक दृश्य।

कालका मेल दौड़ती रही, दौड़ती ही रही। 19 जनवरी आई और चली गई। 20 जनवरी को वह मेल पेशावर के सिटी स्टेशन पर रुकी। सिटी स्टेशन से सुभाष के कुछ सहायकों को सवार होना था। फॉरवर्ड ब्लॉक के एक नेता अकबर शाह प्लेटफॉर्म पर दिखाई दिए; पर वे न तो सुभाष से मिले और न उनके डिब्बे में सवार हुए। दोनों ने एक-दूसरे को देख-भर लिया। फॉरवर्ड ब्लॉक के नेता होने के कारण उनपर पुलिस की निगरानी थी और सुभाष से उनकी बातचीत दोनों के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती थी। जब गाड़ी चलने लगी तो अकबर शाह एक अन्य डिब्बे में बैठ गए।

अगला स्टेशन पेशावर का कैंटोनमेंट स्टेशन था। यहीं सुभाष को उतरना था। उनसे पहले अकबर शाह उतर गए और निश्चिंत भाव से फाटक की ओर चल दिए। थोड़ा फासला रखकर मौलवी जियाउद्दीन नामधारी सुभाष भी उनके पीछे हो लिये।
अकबर शाह फाटक के बाहर निकल गए। बाहर निकलते ही उन्होंने चारों ओर बिखरे हुए पठान साथियों की ओर नजर दौड़ाई। अपने साथियों को पाकर वे आश्वत हो गए। साथियों की आँखें अकबर शाह की आँखों से मिलीं। अकबर शाह की आँखों ने मूक भाषा में उनसे कहा-
‘हम लोग बंगाल के जिस शेर का इंतजार कर रहे थे, वह आ पहुँचा है। तुम लोग हथियारों से लैस रहो। शेरे-बंगाल पर आँच नहीं आनी चाहिए। अगर जरूरत पड़े तो आजादी के इस दीवाने के लिए तुम जान की बाजी लगा देना।’
साथियों की आँखों ने अकबर शाह की आँखों को आश्वस्त किया-
‘हम पठान लोग अपने कौल पर मर मिटेंगे, मगर आजादी के दीवाने अपने मेहमान पर आँच नहीं आने देंगे। जहाँ इनका पसीना गिरेगा, वहाँ हम लोग अपना खून बहाएँगे।’

अकबर शाह के पीछे-पीछे सुभाष फाटक के बाहर निकल गए और उन्होंने देखा कि अपने गंतव्य तक जाने के लिए अकबर शाह ने एक ताँगेवाले से भाव-ताव किया, पर सौदा पटते न देखकर वे आगे बढ़ गए। सुभाष के लिए यह एक पूर्व निश्चित संकेत था। वे जाकर उसी ताँगे में बैठ गए, जिसको अकबर शाह अपने लिए तय करना चाहते थे। ताँगेवाले से उनकी कोई बातचीत नहीं हुई और उनके बैठते ही ताँगा चल दिया। ऐसा लगा जैसा वहाँ उनका नित्य का आना-जाना रहता हो और ताँगेवाला जैसे उनका ही इंतजार कर रहा था। वह ताँगा पेशावर के ताजमहल होटल के सामने जाकर रुका और वे होटल में उसी अंदाज से दाखिल हुए जैसे वहाँ हमेशा आते-जाते रहते हों।

अकबर शाह दूसरे ताँगे पर सवार होकर दूसरे गंतव्य की ओर चले गए। उन्हें अपने साथियों से मिलकर कुछ व्यवस्थाएँ करनी थीं। ताँगेवाला उन्हींकी पार्टी का आदमी था और वह सुभाष को निश्चित स्थान पर छोड़ आया था।
ताजमहल होटल के एक कमरे में सुभाष को आराम करने के लिए लेटे हुए अभी थोड़ी देर ही हुई थी कि उनके कमरे के दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। उन्होंने अकबर शाह न होकर एक कद्दावर पठान नौजवान था। पठान नौजवान को सुभाष ने कमरे में आने का निमंत्रण दिया और कुरसी पर बैठने का आग्रह किया। पठान ने बातचीत का सिलसिला शुरू किया-
‘‘बंदे को अब्दुल मजीद खान कहते हैं। शायद आप मेरे बड़े भाई अब्दुल कय्यूम खान को जानते होंगे, जो यहाँ मुस्लिम लीग के नेता हैं।’’

मुस्लिम लीग का नाम सुनते ही सुभाष को कुछ हैरानी हुई। उन्हें हैरान होते देखकर नौजवान ने अपनी बास्कट की जेब से लाल रंग का रुमाल निकाला और उससे अपना मुँह पोंछने का अभिनय किया। इस संकेत को सुभाष समझ गए।
नौजवान ने अपना कथन पूरा किया-

‘‘मेरे बड़े भाई मुस्लिम लीग के नेता हैं, लेकिन मैं फॉरवर्ड ब्लॉक का सदस्य हूँ और अकबर शाह का आदमी हूँ। उन्होंने मुझे कुछ इत्तिला देने आपके पास भेजा है। आप बेफिक्र रहें। यहाँ सबकुछ ठीक है। कल शाम को हम लोग आपसे मिलेंगे।’’
अगले दिन 21 जनवरी की शाम को लगभग चार बजे अकबर शाह और भगतराम ने सुभाष से मुलाकात की। भगतराम से उनकी यह पहली भेंट थी और इन्हीं भगतराम को यह कर्तव्य-भार दिया गया था कि वे अपने इस मेहमान को अफगानिस्तान तक ले जाएँ। भगतराम अत्यंत विश्वसनीय व्यक्ति थे और उनका पूरा खानदान क्रांतिकारियों और देशभक्तों का खानदान था। उनके बड़े भाई शहीद हरीकिशन ने पंजाब के गवर्नर पर गोली चलाने के कारण फाँसी की सजा पाई थी।
इस कठिन कर्तव्य को वहन करते हुए भगतराम बहुत खुश थे कि उन्हें एक देशभक्त की सेवा करने का अवसर मिल रहा है।
पूर्व निश्चित कार्यक्रम में थोड़ा परिवर्तन किया गया। पहले जिस रास्ते से पेशावर से बाहर होना था वह काफी लंबा था। उसके स्थान पर अब अपेक्षाकृत एक छोटा रास्ता तय किया गया। इस रास्ते से जाने में एक कठिनाई थी और वह यह कि रास्ता पहाड़ी और दुर्गम था। इस रास्ते से बाहर निकलने के लिए एक मिलिट्री कैंप के पास से गुजरना पड़ता था। मिलिट्री कैंप के पास से निकलने के कारण इस रास्ते से तस्कर व्यापारी या फरार व्यक्ति नहीं निकलते थे और जो कोई भी निकलते थे, उनसे ज्यादा पूछताछ नहीं होती थी। इस कैंप के पास से निकलकर सुभाष-दल को खजूरी के मैदान पार करके अफरीदी इलाके में पहुँचना था। वहाँ से सिनवारी गाँव लाँघकर उन्हें अफगान सीमा में प्रवेश करना था। आवश्यकता थी उस इलाके से परिचित एक कुशल मार्गदर्शक की।

गाइड की खोज जारी रही और 25 जनवरी को वह मिल गया। अगले दिन 26 जनवरी की सुबह-दल सवेरे के धुँधलके में अपने गंतव्य के दूसरे चरण पर प्रस्थित हो गया। कार में पाँच सवारियाँ थीं-सुभाष बाबू स्वयं, ड्राइवर कॉमरेड भगतराम, कॉमरेड आबाद खान और गाइड। उनकी कार मिलिट्री कैंप के पास से गुजरकर खजूरी मैदान की ओर बढ़ गई।


तीन


यह कलकत्ता है। सन् 1941 की जनवरी है। प्रत्येक 26 जनवरी को भारत-भर में इस बात का संकल्प लिया जाता है कि हम देश की पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करके रहेंगे। उसी परंपरा के निर्वाह के लिए आज महानगर कलकत्ता में प्राप्तःकाल से ही दीवानों के दल सभा-स्थल की ओर बढ़ने लगे हैं। जोश और उत्साह का माहौल देखते ही बनता है। लोगों के हाथों में छोटे-छोटे तिरंगे झंडे हैं। आने-जानेवाली कारों, मोटर साइकिलों और साइकिलों पर भी तिरंगे झंडे फहरा रहे हैं। ‘भारत माता की जय’, ‘वंदे मातरम्’ और ‘इनकलाब जिंदाबाद’ के नारे लोगों के हौसलों को और भी ऊँचा कर रहे हैं। सभा-स्थल पर विशाल जन-समूह द्वारा भारत की पूर्ण स्वाधीनता की शपथ लेने के पश्चात् नारे लगाए जा रहे हैं।

इसी समय एलगिन रोड पर स्थित बोस परिवार के मकान से एक चिंताजनक समाचार फैलकर लोगों को बेचैन करने लगा है कि सुभाष बाबू कहीं लापता हो गए हैं। उनके परिवार के लोग भी बदहवास-से इधर-उधर दौड़ते-फिरते दिखाई दे रहे हैं। कलकत्ता की पुलिस भी पागलों की भाँति बेतहाशा इधर-उधर भागती हुई दिख रही है। कारों, जीपों और पुलिस लॉरियों की भाग-दौड़ प्रारम्भ हो गई है। पुलिस के कार्यालयों से सभी दिशाओं में टेलीफोन खटखटाए जा रहे हैं और शहर से बाहर जानेवाले सभी मार्गों पर कड़ी निगरानी रखी जा रही है; सारे शहर में जासूसों का जाल बिछा दिया गया है।
बाजारों, सड़कों और गलियों में जन-चर्चाओं का ज्वार उमड़ पड़ा है। कोई कह रहा है कि सुभाष बाबू हिमालय की किसी कंदरा में जा बैठे हैं, तो कोई अनुमान लगा रहा है कि शायद वे श्री अरविंद के पांडिचेरी आश्रम में पहुँच गए हैं। राजनीति में गहरी अंतर्दृष्टि रखनेवाले कुछ पहुँचे हुए लोग बहुत दबी जबान से कहते हुए सुने जा रहे हैं कि सुभाष बाबू निश्चित ही कुछ गुल खिलाने वाले हैं। सुभाष परिवार ने भी उनकी खोज-खबर के लिए तार और टेलीफोन संदेशों का आश्रय लिया है और इधर-उधर दूत भेजे हैं। तीर्थ-स्थानों में भी उनकी खोज कराई जा रही है।

गांधीजी ने भी शरत्-चंद्र बोस के नाम एक तार भेजकर स्थिति की जानकारी चाही है-
‘सुभाष के बारे में चौंकानेवाले समाचार मिले। तार से सत्य समाचार दो। आशा है पूर्ण कुशलता होगी।’
शरत् बाबू ने भी गांधीजी को तार से ही उत्तर दिया है-
‘सुभाष की योजना और गंतव्य के विषय में हम भी उतने ही अनभिज्ञ हैं, जितनी जनता। प्रस्थान करने का ठीक समय भी ज्ञात नहीं। तीन दिन के अथक प्रयत्नों के बावजूद कोई खोज नहीं। स्थितियों से संन्यास का आभास मिलता है।’’




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