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महान व्यक्तित्व >> भारत के प्रधानमंत्री

भारत के प्रधानमंत्री

भगवतीशरण मिश्र

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :250
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2679
आईएसबीएन :81-7028-656-5

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इस पुस्तक में भारत के प्रधानमंत्रियों के जीवन परिचय का वर्णन किया गया है...

Bharat ke Pradhanmantri a hindi book by Bhagwati Sharan Mishra - भारत के प्रधानमंत्री -भगवतीशरण मिश्र

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विश्व राजनीतिक मानचित्र पर आज भारत का स्थान जिस प्रमुखता से उभरा है, श्रेय भारत के प्रधानमंत्रियों की कार्यकुशलता, नेतृत्व और निर्णय की क्षमता को जाता है। इसी दृष्टि से इस पुस्तक में प्रथम प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह तक सभी 14 प्रधानमन्त्रियों के कार्यकाल और उपलब्धियों का विस्तृत और सचित्र परिचय दिया गया है। सुपरिचित लेखक और कथाकार डॉ. भगवतीशरण मिश्र ने पर्याप्त शोध अनुसंधान और अध्ययन के पश्चात्य यह पुस्तक लिखी है। अपनी सरल सुबोध भाषा और उपन्यास-सदृश्य रोचक शैली के कारण यह पुस्तक सूचनात्मकता से आगे जाकर पठनीय भी बन पड़ी है। सन्दर्भ ग्रंथ जैसे महत्व वाली यह पुस्तक पाठकों, पत्रकारों और विद्यार्थियों के लिये समान रूप से उपयोगी है।

आज़ादी के बाद, शासन की जो प्रणाली भारत में
अस्तित्व में आई, उसमें एक राष्ट्र और उसके
जन-जीवन का सारा दारोमदार प्रधानमन्त्री पर होता
है। इस प्रकार एक राष्ट्र के रूप में भारत की
सफलताओं और उपलब्धियों का समूचा इतिहास
अब तक के सभी प्रधानमन्त्रियों की कार्यशैली और
नैतृत्व क्षमता में ही निहित है।
इस पुस्तक में पं.जवाहरलाल नेहरू से लेकर
डा. मनमोहन सिंह तक सभी 14 प्रधानमन्त्रियों के
जीवन चरित्र, उनके व्यक्तित्व, कार्यशैली और
उपलब्धियों के जरिये स्वतन्त्र भारत के साठ सालों
की गति-प्रगति का विवेचन किया गया है।
उपन्यासों जैसी सुबोध और रोचक शैली में, दुर्लभ
और खोजपूर्ण जानकारियों के साथ लिखी गई यह
पुस्तक एक सचित्र सन्दर्भग्रन्थ भी है।


आमुख



भारतीय गणतन्त्र में राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री के पद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। प्रधानमन्त्री के हाथों में राष्ट्र का सत्ता-सूत्र है, तो राष्ट्रपति भारत का प्रथम नागरिक है और एक तरह से उसी के आदेश से देश का प्रशासन चलता है।

‘भारत के राष्ट्रपति’ नामक पुस्तक मैंने एक वर्ष पहले लिखी, उसी समय भारत के प्रधानमन्त्री लिखने की योजना मेरे मन में आयी और इस योजना पर मैं कार्य करने लगा। भारत के प्रधानमन्त्रियों पर शोधपूर्ण सामग्री एकत्रित करने का कार्य श्रम-साध्य तो था ही, समय-साध्य भी था। संसद के अभिलेखों और पुस्तकालयों की पुस्तकों के अध्ययन मनन में ही 6 महीने से अधिक का समय निकल गया। शेष समय सामग्री को यथास्थान सजाने संवारने और इसके परिमार्जन में लगा। इस तरह यह पुस्तक पूरा एक वर्ष ले गयी।

राष्ट्रपतियों पर लिखना प्रधानमन्त्रियों पर लिखने की अपेक्षा आसान था। यह बात इस पुस्तक को लिखते समय स्पष्ट हुई। कारण यह है कि राष्ट्रपति तो प्रायः अपना कार्यकाल समाप्त करते रहे या कार्यकाल के दौरान ही दिवंगत हो गये। राष्ट्रपति की कुर्सी को लेकर खींचातानी की राजनीति सम्भव नहीं थी। सक्रिय राजनीति से दूर किसी भी राजनीतिक पार्टी से असम्बद्ध राष्ट्रपति राजनीतिक उथल-पुथलों से न के बराबर ही प्रभावित होता है।

प्रधानमन्त्रियों के साथ यह बात नहीं है। अब तक का भारतीय स्वातन्त्र्योत्तर इतिहास, जो प्रायः छह दशकों का है यही कहानी कहता है। उथल-पुथल इन्दिरा गाँधी के समय भी हुई, राजीव गाँधी के समय भी। पं. नेहरू और इन्दिरा गाँधी तो तीन-तीन चार-चार बार तक निरन्तर प्रधानमन्त्री पद पर आसीन रहे,

किन्तु राजीव गाँधी की अकाल मृत्यु की बात छोड़ दें, तो उनके बाद के प्रधानमन्त्रियों में एक दो ही पाँच वर्षों का कार्यकाल पूर्ण कर सके। ऐसे लोगों में मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशेखर, देवगौड़ा, इन्द्र कुमार गुजराल, में कोई कुछ महीनों तक रहा, तो कोई एक-डेढ़ वर्षों तक ही। राजनीति का चक्रवात इन्हें झकझोरता तथा स्थापित-विस्थापित करता रहा। ऐसे में इन पर लिखना और इनका सम्यक् मूल्यांकन करना कठिन कार्य हो जाता है।
यह सत्य है कि राष्ट्र की स्थिरता, सुरक्षा एवं समृद्धि प्रधानमन्त्रियों के स्थायित्व पर बहुत हद तक निर्भर करती है। इनके अस्थिर होने पर देश भी अस्थिर हो जाता है।

दुर्भाग्यवश भारत में ऐसी अस्थिरता के दौर कई बार आये। प्रधानमन्त्री भी कितनी बार अपने-अपने प्रकार के हुए। इनमें से कुछ स्थिर राष्ट्र को भी संचालित करने मैं सक्षम नहीं थे, अस्थिर को क्या संभालते ? ये सब बातें यथावसर इस पुस्तक में आनी थीं और आयी हैं।

इस पुस्तक का लेखक कभी किसी राजनीतिक पार्टी से सम्बद्ध नहीं रहा, अतः किसी प्रधानमंत्री के प्रति किसी प्रकार के पक्षपात की आशंका इस पुस्तक में नहीं करनी चाहिए।

सारा अध्ययन तटस्थ है। अगर किसी प्रधानमंत्री में अधिक खूबियाँ या किसी में उनकी कमी दृटिगोचर होती है, तो इसका आधार इतिहास है न कि लेखकीय परिकल्पना। पुस्तक में किसी प्रधानमन्त्री पर अधिक पृष्ठ दिये गये हैं और किसी पर कम। पृष्ठ संख्या का सम्बन्ध किसी की विशिष्टता अथवा अविशिष्टता से कदापि नहीं है। यह बात पृथक, है कि जो प्रधानमंत्री अति संक्षिप्त काल के लिए पदासीन रहे,

उन पर अधिक सामग्री देने की सम्भावना नहीं थी। पुस्तक के किसी चरित्र-नायक पर अधिक सामग्री जाने का एक महत्त्वपूर्ण कारण उसकी पृष्ठभूमि, राजनीति के क्षेत्र में अनुभव, ज्ञान एवं प्रशिक्षण, तथा स्वतन्त्रता संग्राम में उसका योगदान भी रहे। निश्चित ही किसी प्रधानमन्त्री से सम्बन्धित आलेख उसका पदावधि का आनुपातिक नहीं है। सामग्री की उपलब्धता और अनुपलब्धता भी चरित्र-नायकों से सम्बन्धित पृष्ठ संख्या के निर्धारण का एक महत्त्वपूर्ण कारक रहा है।

इस पुस्तक के कई चरित्र-नायक ईश्वर की कृपा से अभी जीवित हैं। कभी-न-कभी उनमें से किसी की दृष्टि इस पुस्तक पर पड़ेगी अथवा आकृष्ट की जायेगी। ऐसी स्थिति में अगर किसी की दुखती रग पर लेखक की उँगली पड़ जाती है, तो इस हेतु वह विनम्रतापूर्वक अपनी क्षमा-याचना प्रस्तुत करता है।

इस पुस्तक की उपयोगिता के सम्बन्ध में लेखक अपनी ओर से कुछ कहे, यह उचित नहीं प्रतीत होता। वह मूलतः एक ऐतिहासिक उपन्यासकार है। इस पुस्तक को भी एक इतिहास अथवा ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में देखा जा सकता है।
इतिहास को देखने और लिखने का भी अपना एक दृष्टिकोण होता है। सभी एक ही दृष्टि रखें यह आवश्यक नहीं। लेखक अपने विचारों को किसी पर थोपने का आग्रही नहीं। प्रबुद्ध पाठक अपने-अपने रूप में इस पुस्तक के चरित्र-नायकों का आकलन करने को स्वतन्त्र हैं।
पुस्तक की भाषा जानबूझकर सरल एवं सुबोध रखी गयी है, जिससे राजनीति एवं इतिहास के अध्येताओं के अतिरिक्त इनके छात्र और पाठक भी इससे समान रूप में लाभान्वित हो सकें।
इस पुस्तक के लेखन में जिन लोगों का भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सहयोग प्राप्त हुआ है, लेखक उनका हार्दिक आभार मानता है।


दिनांक-1 जून 2006

डॉ. भगवतीशरण मिश्र


पंडित जवाहरलाल नेहरू।
(1889-1964)



जवाहरलाल नेहरू, जिनको लोग पंडितजी, चाचा नेहरू, नेहरूजी आदि सम्बोधनों से भी पुकारते थे, भारत के प्रधानमन्त्रियों में प्रथम स्थान तो रखते ही हैं, सर्वश्रेष्ठ स्थान भी रखते हैं। इसके अतिरिक्त सर्वाधिक अवधि तक प्रधानमन्त्री के पद को सुशोभित करने वाले भी यही थे; क्योंकि वह स्वतन्त्रता प्राप्ति से लेकर अपने निधनकाल तक, अर्थात् 1947 (15 अगस्त) से 1964 (27 मई) तक प्रायः 17 वर्षों तक निरन्तर प्रधानमन्त्री रहे।

पंडित नेहरू की ऊँचाई का कोई और प्रधानमन्त्री यह देश नहीं दे सका। नेहरू एक ऐसे विराट् राजनीतिक शिखर थे, जिसकी ऊँचाई को स्पर्श करना न उनके समकालीन राजनीतिज्ञों के लिए सम्भव हुआ न उनके बाद के।

अभी तक तो स्थिति यही है, भविष्य में भी नेहरू की ऊँचाई का कोई राजनेता भारत में उत्पन्न होगा, इसकी सम्भावना भी क्षीण है। इसका विशेष कारण यह है कि नेहरू ऐसी परिस्थितियों की उपज थे, जैसी परिस्थितियाँ पुनः नहीं बन सकतीं। नेहरू के समय स्वतन्त्रता संग्राम अपने चरम पर था। महात्मा गाँधी इसका नेतृत्व कर रहे थे। उनका साथ देने वाले कुछ और नेता भी थे, किन्तु नेहरूजी उनकी दायीं भुजा थे।

स्वयं गाँधी खुलेआम उनकी प्रशंसा करते थे और उन्हें पुत्रवत् मानते थे। महात्मा गाँधी एक महान् त्यागी पुरुष होने के फलस्वरूप किसी पद के आकांक्षी नहीं थे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् गाँधी चाहते, तो प्रधानमन्त्री या राष्ट्रपति बन सकते थे, किन्तु उन्होंने कोई पद ग्रहण करने की इच्छा प्रकट नहीं की। ऐसी स्थिति में गाँधी के बाद जो सबसे विराट व्यक्तित्व था, वह था पंडित जवाहरलाल नेहरू का। अतः स्वभावतः प्रधानमन्त्री के पद पर वही आसीन हुए।

नेहरू अपने समकालीन नेताओं से कई अर्थों में भिन्न और श्रेष्ठतर थे। चाहे वह पारिवारिक पृष्ठभूमि हो अथवा लिखाई-पढ़ाई या लोकप्रियता। स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान ही नेहरू की लोकप्रियता अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की हो चुकी थी। यह छवि उनके किसी समकालीन नेता की नहीं बनी। यह सब उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि तथा उनकी विद्वता एवं वकृत्ता के फलस्वरूप था।
पंडित नेहरू के पिता पंडित मोतीलाल नेहरू स्वयं एक स्वतन्त्रता सेनानी तो थे ही, एक बहुत योग्य एवं धनाढ्य वकील भी थे। इलाहाबाद में उनसे बड़ा और सम्पन्न कोई और वकील नहीं था।

इसी मोतीलाल नेहरू के घर उनके एकमात्र पुत्र के रूप में जवाहरलाल 14 नवम्बर 1889 को पैदा हुए। बालक जवाहरलाल जन्म के समय ही इतने सुन्दर थे कि उनका नाम ही मोतीलाल ने जवाहर रख दिया। जवाहरलाल का यह शारीरिक आकर्षण उनके जीवन के अन्त-अन्त तक बना रहा।

इनकी माता का नाम स्वरूप रानी था। नेहरू परिवार मूलतः कश्मीर का था और उसके नाम के साथ कौल जुड़ता था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद फर्रुखशियर दिल्ली का शासक बना, तो संस्कृत फारसी के कश्मीरी विद्वान पंडित राज कौल को दीवान बनाकर दिल्ली ले आया। उन्हें एक जागीर दी गयी और रहने के लिए नहर के किनारे बनी एक हलेवी। तभी से वे कौल नेहरू कहलाये। बाद में कौल शब्द पूरी तरह गायब हो गया, रह गया सिर्फ नेहरू। यही राज कौल जवाहरलाल के प्रथम ज्ञात पुरखे थे।

जवाहरलाल का जन्म तो इलाहाबाद में, मोतीलाल नेहरू के पैतृक घर में ही हुआ था, पर बाद में उनके पिता ने एक अच्छा-सा महल ही खरीद लिया था, जिसका नाम आनन्द भवन पड़ा। बाद में इस भवन काँग्रेस पार्टी के दान कर दिया गया। स्वतन्त्रता आन्दोलन का संचालन एक तरह से इसी भवन से होने लगा और यह आनन्द भवन से स्वराज्य भवन का नाम प्राप्त कर गया।


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