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ऐतिहासिक >> रसकपूर

रसकपूर

आनन्द शर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2711
आईएसबीएन :81-267-0292-3

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एक तवायफ पर आधारित उपन्यास....

Raskapoor

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इतिहास कथा लेखन के दौरान में साहसी-सामर्थ्यवान नारियो का अभाव मुझे रह-रहकर सालता था। एक प्रश्न हर बार उठता था कि मीराबाई, पन्नाधाय, हाडीरानी, कर्मवती आदि अँगुलियाँ पर गिनी जाने वाली नारियों के बाद, राजस्थान की उर्वरा भूमि बाँझ क्यों हो गई ?’’ इस दिशा में खोज आरम्भ करने के चमत्कारी परिणाम निकले। एक-दो-नहीं, दो दर्जन से भी अधिक नारी पात्र, इतिहास की गर्द झाड़ते मेरे सम्मुख जीवित हो उठे।

‘‘एक तवायफ के प्रेम से अनुरक्त हो, उसे जयपुर में आधा राज्य दे डालने वाले महाराज जगतसिंह की इतिहासकारों ने भरपूर भर्त्सना की थी लेकिन वस्त्रों की तरह स्त्रियाँ बदलने वाले अतिकामुक महाराज का, एक हीन कुल की स्त्री में अनुरक्ति का ऐसा उफान, जो उसे पटरानियों महारानियों से पृथक, महल ‘रसविलास’ के साथ जयपुर का आधा राज्य प्रदान कर, अपने समान स्तर पर ला बैठाएं, मात्र, वासना का परिणाम नहीं हो सकता ।’’
उपन्यास होते हुए भी रसकपूर अस्सी प्रतिशत इतिहास है, उपन्यास के सौ से लगभग पात्रों पर केवल पाँच-सात नाम ही काल्पनिक हैं।

 

अपनी बात

उपन्यास-लेखन के बारे में कभी सोचा नहीं था। तथ्यों-प्रमाणों के कठोर धरातल पर जीनेवाले पत्रकार का, कल्पना के इंद्रधनुषी स्वप्नलोक में विचरनेवाले उपन्यासकार से कैसा भी संबंध कल्पनातीत था। भ्रष्टाचार, अपराध, घोटाले राजनीतिक दावँपेचों को देखते लिखते, युवावस्था के दो दशक गुजार देने के बाद, जीवन अकस्मात् दोराहे पर आ खड़ा हुआ। एक ओर नवभारत टाइम्स के स्थानीय संपादक श्री श्याम आचार्य मुझे जयपुर के इतिहास पर शोध के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर दो दशकों में पत्रकारिता से बनी पहचान बनाए रखने का मोह भी था। पत्रकारिता से प्राप्त सम्मान प्रभाव का सम्मोहन छोड़ पाना आसान नहीं था।

इतिहास मुझे किशोरावस्था से ही आकर्षित करता रहा है। अग्रज समान श्री श्याम आचार्य का चुनौती भरा परामर्श मुझे जयपुर के अतीत में ले गया। फिर तो जयपुर की प्राचीन राजधानी आंबेर का इतिहास मंदिर शिल्प हवेलियो से लेकर जयपुर की संस्कतिक पर्व मेले, त्योहार, संगीत, परंपरा आदि पर धर्मंयुग साप्ताहिक हिन्दुस्तान दैनिक हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स राजस्थान पत्रिका सहित देश भर की पत्र-पत्रिकाओं में लिखने का सिलसिला आरंभ हो गया। कलम का विस्तार शनैःशनै पूरे राजस्थान को अपने में समाहित करने लगा। पत्रकारिता में लीक से हटकर किया लेखन, मेरे व्यक्ति का अंग बन गया था। प्रमाणों से प्राप्त यथार्थ को ही प्रस्तुत करना अब आदत में शामिल हो चुका था। यही आदत इतिहास कथालेखन में भी मेरी अलग पहचान बनाने लगी। राजस्थान के इंद्रधनुषी अतीत में बिखरे शौर्य साहस षड्यंत्र राजनीति पलायन समझौते श्रृंगार प्रेम बलिदान के रंग मुझे अच्छे लगने लगे। पत्रकारिता का प्रभाव इन सबकी खोज में मेरे लिए ऐसी सुविधाएँ जुटा जाता था, जो किसी सामान्य शोधार्थी को आसानी से उपलब्ध नहीं हो पातीं। जयपुर ही नहीं; जोधपुर उदयपुर के राजमहलों में भी मेरे पेशे ने मुझे पूरी सहायता दिलाई।

इतिहास कथा लेखन के दौरान इतिहास में साहसी सामर्थ्यवान नारियों का अभाव मुझे रह-रहकर सालता था। एक प्रश्न हर बार उठता था कि मीराबाई पन्ना धाय हाड़ी रानी कर्मवती आदि अँगुलियों पर गिनी जानेवाली नारियों के बाद राजस्थान की उर्वरा भूमि, बाँझ क्यों हो गई ? उसने सामर्थ्य को नई परिभाषाएँ देनेवाली नारियों का प्रसव बंद क्यों कर दिया ? इस दिशा में खोज आरंभ करने के चमत्कारी परिणाम निकले। एक दो नहीं, दो दर्जन से भी अधिक नारी पात्र इतिहास की गर्द झाड़ते मेरे सम्मुख जीवंत हो उठे।

 घर से शुरुआत हुई। जयपुर की अर्धराजिन रसकपूर का कथानक धर्मयुग संपादक श्री गणेश मंत्री को लिख भेजा। आशा के विपरीत अगले सप्ताह ही इस पर तत्काल आलेख भेजने की स्वीकृति आ गई। खोजबीन का सिलसिला आरंभ हुआ। एक तवायफ के प्रेम में अनुरक्त हो, उसे जयपुर का आधा राज्य दे डालने वाले महाराजा जगतसिंह की इतिहासकारों ने भरपूर भर्त्सना की थी। राजस्थान के प्रथम इतिहास लेखक कर्नल जेम्स टाड के बाद कविराजा श्यामलदास से लेकर आधुनिक इतिहासकार जगदीशसिंह गहलोत तक सभी से इसे धिक्कार भर्त्सना का विषय माना था। किसी ने पाँच दस पंक्तियों में, तो किसी ने आधा एक पृष्ठ में अपनी घृणा को अभिव्यक्ति दी। अच्छा मुझे भी नहीं लगा था। वासनाभिभूत हो अपने पूर्वजों का राज्य तक दे डालनेवाले राजा को, मेरी भी सहानुभूति नहीं मिल पाई थी। किंतु खोजबीन के बाद अनेक नए तथ्य सामने आने लगे। वस्त्रों की तरह स्त्रियों बदलनेवाले अति कामुक महाराजा का, एक हीन कुल की स्त्री में अनुरक्ति का ऐसा उफान, जो उसे पटरानी महारानियों से पृथक महल रसविलास के साथ जयपुर का आधा राज्य प्रदान कर, अपने समान स्तर पर ला बैठाए, मात्र वासना का परिणाम नहीं हो सकता था।

तब वह क्या था ? इस गुत्थी को सुलझाने में मेरा पत्रकार जुट गया। धर्मयुग को भेजी कथा 17 दिसंबर, 1991 के अंक में पाँच पृष्ठों में विस्तारपूर्वक प्रकाशित होने के बाद भी मेरी खोज समाप्त नहीं हुई थी। गुत्थी अपनी जगह थी। रसकपूर के अंत को लेकर प्रचलित अनेक दंतकथाएँ भी इसे रहस्यमय बना रही थी। किसी ने भी रसकपूर के अंत की प्रामाणिकता का दावा नहीं किया था। उसे दीवार में चिनवाया गया, विषपान कराया गया अथवा मराठों या स्वयं के बल पर ही वह किले से फरार हो गई थी ? सबकी अपनी-अपनी अटकलें थीं।
इतिहास के अन्य नारी-पात्रों के साथ-साथ रसकपूर पर भी मेरी शौधकार्य चलता रहा। अक्तूबर 1991 में मेरी इतिहास कथाओं का संकलन इतिहास के नूपुर प्रकाशित हुआ। मेरे अग्रज समान मित्र कानपुर विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय को उसमें प्रकाशित रसकपूर कथा इतनी पसंद आई कि उन्होंने इस पर सौ डेढ़ सौ पृष्ठों का उपन्यास लिखने का आदेशात्मक परामर्श दे डाला। इनकार तो नहीं कर पाया लेकिन ऊलजलूल कल्पनाओं को शब्दों में ढालकर पाठक को काल्पनिक संसार में भ्रमण करानेवाली उपन्यास विधा से स्वयं को जोड़ पाना भी संभव नहीं था। मेरा तो अब तक का संपूर्ण लेखन प्रमाणों की तुला पर तुलता आया था। पत्रकारिता में अनुमानों कल्पनाओं का कोई स्थान होता ही नहीं। डॉ. उपाध्याय इस विषय के प्रति गंभीर थे। कानपुर जाकर भी पत्रों के द्वारा वे मुझ पर स्नेहिल दबाव डालते रहे। सो 18 दिसंबर, 1992 माँ शारदा का स्मरण कर, अपना प्रथम उपन्यास लेखन आरंभ कर दिया।

मदिरा के प्रत्येक घूँट के साथ बढ़नेवाले नशे की तरह, पृष्ठों-अध्यायों के साथ में रसकर्पूरी सम्मोहन में डूबता चला गया। लेखक का पात्रों के साथ ऐसा जीवंत तादात्म्य मेरे लिए नितांतनया अनुभव था। प्रत्येक पात्र जैसे मैं स्वयं ही जी रहा था। लेखन के दौरान आँसू, हर्ष तनाव पीड़ा में डूब जाने का यह मेरा प्रथम अवसर था। मेरी पत्नी मनीषा शर्मा गृहकार्य से समय निकालकर आ बैठती और तब तक का लिखा नया अंश सुनकर अपनी सहज प्रतिक्रिया से अवगत करा जाती। उस अल्पशिक्षित सामान्य गृहिणी की प्रतिक्रिया मेरे लिए आम पाठक की प्रतिक्रिया थी। उपन्यास के दूसरे श्रोता होते थे-राजस्थान के भूतपूर्व एडवोकेट जनरल श्री नाथूलाल जैन। एक अध्याय पूरा होते ही वे मुझे अपने घर बुला लेते और तन्मयता से सुनने के बाद, अंत में पीठ थपथपा जाते थे। ये दोनों श्रोता ही मेरे लेखन के परीक्षक थे। एक सामान्य पाठक और दूसरा विशिष्ट साहित्य-प्रेमी।

रसकपूर लेखन के दौरान मेरे साहित्यकार पर पत्रकार अधिक प्रभावी रहा। वह मुझे इतिहास के दायरे से बाहर नहीं निकलने देता। मैं तो आम आदमी के अपने अतीत से परिचित कराने का प्रयास ही करता आ रहा था। पहले लेखों-कथाओं के रूप में और अब उपन्यास के द्वारा भी वही कार्य संपन्न कर रहा था। इस कारण शोध श्रम तो बहुत अधिक हुआ, लेकिन परिणाम भी चमत्कारी निकले। उपन्यास के लिए आवश्यक समझे जानेवाले सभी तत्त्व इतिहास की घटनाओं के द्वारा ही सामने आने लगे। श्रृंगार प्रेम, संगीत, षड्यंत्र, शौर्य, पीड़ा, बिछोड़ उत्कर्ष आदि सभी कुछ तो इस कथा में थे। हाँ, उन्हें खोजने में श्रम अवश्य करना पड़ा।

उपन्यास होते हुए भी रसकपूर अस्सी प्रतिशत इतिहास है ! मात्र बीस प्रतिशत ही। उपन्यास के सौ के लगभग पात्रों में भी पाँच-सात नाम ही काल्पनिक हैं। ये भी इतिहाससिद्ध तो हैं, लेकिन उसमें उनके नामों का उल्लेख नहीं हुआ है। जयपुर जोधपुर के सामंतों, तत्कालीन राजनीति में उनका रोल महारानियों के नाम, उनका पितृवंश स्थानों का वर्णन आदि ही नहीं, युद्ध में प्रयुक्त तोपों के नाम और मारक क्षमता तक वास्तविक हैं। जयपुर के जयगढ़ में ये सभी तोपें आज भी देखी जा सकती है। दूनी ठाकुर चाँदसिंह की भरे दरबार महाराज जगतसिंह को चुनौती और परिणामस्वरूप उन पर भारी जुरमाना जगतसिंह का जोधपुर पर आक्रमण सामंती विद्रोह के कारण जोधपुर महाराजा मानसिंह का पलायन, मेहरानगढ़ का लोमहर्षक युद्ध अमीरखाँ की लूट उसका जयपुर हत्या रसकपूर का चिता में कूदकर सहहमन आदि सभी घटनाएँ इतिहाससिद्ध हैं। घटनाओं की प्रामाणिक का निर्वहन जोधपुर महाराजा के विद्रोही और पक्षघर सामंतों के नाम और उनके आचरण तक में बारीकी से हुआ है। पं. दीनाराम बोहरा और बोहरा राजा खुशालीराम का चरित्र भी पूरी तरह इतिहास की सीमाओं में ही रहा है।

नृत्य और संगीत में भी इतिहास का पूर्ण निर्वाह हुआ है। मुगल बादशाह मुहम्मद शाह द्वारा

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