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रफ्तार

दुर्वा सहाय

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2745
आईएसबीएन :81-7119-758-2

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आस-पास की बहुत सी परिचित दुनिया को लेकर दूर्वा सहाय की बेहद संवेदनशील कहानियाँ

Raftar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आस-पास की बहुत सी परिचित दुनिया को लेकर दूर्वा सहाय ने बेहद संवेदन शील कहानियाँ लिखी हैं। स्थितियों की जटिल नाटकीयता को पकड़ने की गहरी दृष्टि जानी पहचानी को स्थितियों को पठाक के लिए एकदम नया बना देती है। इन कहानियों से गुजरना निहायत निजी दुनियाँ को नई दृष्टि से देखना है। मौसम सफ्तार डर जिरह रिमोट कंटोल या सग्रह की हर कहानी अपने चरित्रों, उनके अन्द्वन्दों के कारण बहुत समय तक हमारी संवेदना का हिस्सा बनी रहती हैं।
दूर्या सहाय उभरती हुई नई लेखिकाओं में अपनी संवेदनशील भाषा और सूक्ष्म अन्तदृष्टि के कारण विशिष्य और आश्वास्तिदायक लेखिका हैं। वह उन जगहों पर कहानी खोज निकालती हैं जहां उनकी बारीक दृष्टि स्थितियों को आत्मीय क्षण में बदलने की कला बन जाती है। रफ्तार संग्रह साफ-सुथरे गद्य की चित्रात्मक अनुगूँजों को पाठक की चेतना का अन्तरंग बनाता हैं।
ये उस बेचैन नारी की निजी अन्द्वन्दों की कहानियाँ भी हैं जो दी हुई परिधियों को समझना और उनके पार जाना चाहती है... एक निःशब्द प्रतिरोध की धीमी रफ्तार के साथ, जहाँ हर स्त्री एक रिमोट कंट्रोल से बँधी है। दूर्वा सहाय का यह ग्रंथ नई सदी की नारी-चेतना का दस्तावेज है। सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित दूर्वा की कहानियाँ निरन्तर चर्चा में रही हैं।

दो शब्द

होश आया तो सामने जिन्दगी पसरी हुई थी।
जानने के लिए जिन्दगी को छुआ।
लगा, आसपास कुछ बरस रहा है।
तमाम तरह की अनुभूतियाँ थीं।
और लोग थे- बरसते हुए अहसास के बीच अकेले।
.यह समुदाय-बोध के कटने के कारण पैदा हुआ अकेलापन था।
.........पिता बँगला में कविता लिखते थे। माँ जिन्दगी और साहित्य को जानने की उत्सुकता पैदा करनेवाली उत्प्रेरक चरित्र थीं।
सास और श्वसुर समाज-सेवा के लिए समर्पित........
जो है इस संग्रह में, वह इस माहौल के दबाव से पैदा हुई अभिव्यक्ति के बीज हैं। इस बीज को पुष्पित-पल्लवित करने वाले तमाम लोगों के प्रति आभार- श्री विद्यानन्द सहाय, श्री संजय सहाय, श्री शैवालजी को विशेष धन्यवाद।
....जीवन आगे भी चलेगा। ताल और लय मिले तो स्वर भी जन्म लेंगे।
इसी विश्वास के साथ.....

माँ

‘गुड होप’ नर्सिंग होम के सामने गाड़ी आकर रुकी। दीदी ने घबराकर मुँह फेर लिया।
....‘विजिटिंग आवर’ के शुरू होने में अभी दस मिनट की देर थी। मैं, पिताजी और समस्त परिवार इन्तजार में खड़े थे। नर्सिंग होम की लॉबी की कुर्सियाँ भरी पड़ी थीं, मरीजों के सगे-सम्बन्धियों से। हमारे पास बाहर खड़े होने के सिवा और कोई चारा नहीं था। सुबह माँ को दोबारा आई. सी.सी. यू. में ले जाना पड़ा था। अन्दर वार्ड में जाने की मनाही थी। देखने के लिए शीशे की खिडकियाँ भर थीं। मरीज को देखा जा सकता था कि उसकी आन्तरिक स्थिति क्या है। हमें पहले भी कई बार गुजरना पड़ा था ऐसी स्थिति से। यह कोई नई बात नहीं थी। फिर भी पिताजी उद्विग्न थे। उनका रौबदार चेहरा मुरझाया हुआ था। माँ को एक बार फिर दिल का दौरा पड़ा था।
हवा तेज़ होकर गुजरी हमारे अन्दर से। मैंने दीदी से घबराहट का कारण पूछा। उसने अटकते हुए बताया, यह गाड़ी ‘डेड बाडी’ ले जाने के लिए आती है। उसके श्वसुर की मृत्यु के बाद, उनके पार्थिव शरीर को इसी तरह की गाड़ी से घर पहुँचाया गया था।
दिल काँप उठा था उसकी बातें सुनकर फिर वही स्मृतियों का जाल फहराया था अन्दर।हाँ चार दिनों पहले माँ की तबीयत अचानक खराब हुई थी। सही वक़्त पर ‘एम्बुलेंस’ न मिलने पर काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। कैसी विडम्बना थी ...जिन्दा इंसान को सही वक़्त पर अस्पताल पहुँचाने की व्यवस्था नहीं थी। पर मरे के पश्चात् शव के घर भेजने के लिए जैसे गाड़ी हर वक़्त तैयार रहती थी।
अन्दर जाने का समय हो गया था। एक साथ सिर्फ़ दो व्यक्तियों को अन्दर जाने की अनुमति दी जा रही थी। हम सुगबुगाए।
‘‘कोई फायदा नहीं, वे हमें अन्दर जाने नहीं देंगे,’’ पिताजी बुदबुदाए। जैसे उन्हें पहले से ही पता था।
अन्दर जाने के हजार तरीके़ हैं। मन में इच्छा होनी चाहिए।
मैंने खिड़की से झाँका। माँ सो रही थीं। नर्स को इशारा किया। चुपके से बीस का नोट बढ़ाया। मुट्ठियों में नोट कसते हुए उसने कठोर लहेजे में कहा, ‘‘ एक-एक करके जाइए। पर शोर न मचाना।’’
मैं तेज़ कदमों से माँ के पास पहुँची। मेरा हाथ उसके सिर तक पहुँचा। काँपती हुई छुअन। उद्विग्न भाव से पूछा, ‘‘कैसी हो माँ ?’’
माँ ने आँखें खोलकर देखा।
‘‘अभी क्या तकलीफ है ?’’ मैंने फिर टोह लेने के लिए पूछा। उसकी मुस्कुराहट थम गई। कहीं अतल गहराई से आवाज़ आई, ‘‘ठंड लग रही है...’’
कम्बल को गले तक खींचने की कोशिश में जैसे ही उसे उठाया, मैं सिहर उठी। माँ अन्दर से पूरी तरह निर्वस्त्र थीं। नर्स को बुलाया, पूछा। उसने सपाट-सा जवाब दिया, ‘‘दोनों जोड़े कपड़े गीले हो गये थे...’’
हद हो गई- इसका मतलब पिताजी कपड़े नहीं लाए कल शाम। अभी भी तो आए हैं खाली हाथ। जिद की भी एक सीमा होती है। इस उम्र में अकेले रहने का निर्णय जब दिमाग और शरीर दोनों ही थक रहा हो। किसी से मिलकर रहना आया ही नहीं आज तक। बेटों से एक मिनट के लिए नहीं बनती पर माँ को तो झेलना पड़ रहा है। माँ की तकलीफ से उन्हें क्या लेना-देना ! उन्हें तो बस अपनी जिद पूरी करनी है।

‘‘ये कम्बल भी गीला है,’’ मैंने गुस्से से कहा। नर्स पर कोई असर नहीं हुआ। उसने पूर्वत् अपने लहजे में कहा, ‘‘मैं कम्बल बदल दूँगी। आप घर जाकर कपड़े भिजवा दीजिए।’’
‘‘एक कम्बल से काम नहीं चलेगा। या तो ए.सी. बन्द करो या कम्बल डालो।’’
डॉक्टर लापता था। हदें टूट गई थीं लापरवाही की। जिसे कल ही दिल का दौरा पड़ा हो, उसे इस तरह निर्वस्त्र काँपता छोड़ देना....!!
पिताजी अन्दर आ चुके थे। नर्स ने मुझे बाहर जाने का संकेत दिया। मैंने कम्बल वाली बात दुहराई, तो उसने हाथ फैला दिया। मैंने फिर बीस का नोट थमा दिया। बाहर आकर शीशे से झाँका। नर्स कम्बल बदल रही थी। उसी वक़्त कहीं से डॉक्टर आया दवाइयों की लम्बी लिस्ट पिताजी के हाथ में पकड़ा दी उसने। मेरे सब्र का बाँध टूट चुका था। मैंने तनतनाती हुई आवाज़ में सवाल दागा, ‘‘यह सब कैसे हुआ डॉक्टर ?’’
‘‘कुछ खास बात नहीं,’’ उसने मुँह चुभलाते हुए समझाया, ‘‘मेरे कुलीग से गलती हो गई जरा सी....डिहाईडेटेड हो जाने की वजह से पेशेंट को डेक्सट्रोज चढ़ाना पड़ा...डेक्सट्रोज से सामान्य इंसान की शुगर भी हाई हो जाती है....बस प्राब्लम हो गई।’’
सिर हिलाने के सिवा और कोई चारा नहीं था। जीभ तालू से चिपक गई थी। बड़ी मुश्किल से मुँह से बोल फूटे, ‘पर डॉक्टर इतनी जल्दी-जल्दी अटैक पड़ते रहे तो..।’’
आप चिन्ता न करें। शी विल वी परफेक्टली ऑलराइट। यदि मैं होता उस वक़्त, तो कुछ भी न हुआ होता। वह तो कुलीग की जरा सी गलती की वजह से...’’ यह जरा सी गलती थी। इंसान की जिन्दगी के साथ इस कदर खिलवाड़।
...विदाई का वक़्त था। मैंने फिर एक बार शीशे से झाँका। चार नर्सें खड़ी थीं, माँ को घेरकर। उन्हें स्ट्रेचर पर डाला जा रहा था। मैंने पिताजी की ओर देखा।
‘‘पता नहीं, कहते हैं एक्स-रे करवाना पड़ेगा,’’ पिताजी का लहजा खीज भरा था। इस पर इन्हें खीजने की क्या ज़रूरत ? तकलीफ तो माँ को उठानी पड़ रही है। मैं भागी। माँ के स्ट्रेचर को थामे नर्स लिफ्ट का इंतजार कर रही थी। सिर को सहलाते ही दो बूँदें गालों पर लुढ़क पड़ीं।
‘‘अब और नहीं सहा जाता,’’ माँ की कमजोर आवाज़ निकली। लिफ्ट आ गई थी। दरवाजा बन्द होने तक हम वहीं खड़े रहे। पिताजी दीवार की ओर मुँह करके खड़े थे। मैंने खुद को सँभाला।
‘‘चलिए,’’ कहते ही पिताजी बुत की तरह चल पड़े।

...बचपन की याद करते समय मेरी सबसे प्रिय स्मृति माँ को रसोई में खाना बनाते हुए देखने की है। माता-पिता तथा हम पाँच बहनें एवं भाई, रेलवे कॉलोनी के एक छोटे से क्वार्टर में अपना गुजारा कर रहे थे। माँ को प्रतिदिन रोटी की चिन्ता करनी पड़ती थी। हमारी छोटी-सी रसोई में धुएँ से करिआया हुआ एक मिट्टी का चूल्हा अपना गोल मुँह लिये हमारा स्वागत करता था। एक कोने में कोयले और गोयँठे की ढेर रहती थी। समय-समय पर आँच को सही रखने के लिए चूल्हे में कोयला डालते जाना पड़ता था। जैसे-जैसे कोयला जलता, उससे एक सोंधी खुशबू निकलती। माँ खजूर के पत्तों के बने पंखे से चूल्हे को तेज़ी से हवा देती। आग धधकती और कोयला सुनहरे रंग का होने लगता। माँ दोबारा काली और भारी भरकम कड़ाही को चूल्हे पर रखकर तलना-भूनना शुरू कर देती। पूरी रसोई तलने की आवाज और मुँह में पानी लानेवाली खुशबू से भर जाती।
समय कठिनाइयों से भरा था,. इसलिए माँ हमारे लिए साधारण सा खाना ही ना पाती। मगर फर्श पर बैठकर, पूरे परिवार के साथ, उस साधारण से खाने का हर कौर हमें दिव्य लगता।
जब-जब पिताजी घर रहते, तब-तब माँ उनका सबसे प्रिय भोजन ‘मीट’ और भात पकाती और वाकई वह एक यादगार मौका रहता। एल्युमीनियम के पतीले में कोयले के चूल्हे पर चढ़ाकर, एक-डेढ़ घंटे तक बड़ी मेहनत से माँ हम लोगों के लिए मीट पकाती। जब तक मीट पकता, माँ को चूल्हे में कोयला डालना पड़ता, पंखा हाँकना पड़ता और जितनी बार वह पंखा हाँकती, उतनी ही बार चूल्हे की राख उड़कर माँ पर गिरती। ऐसा करते वक़्त उनके ललाट पर पसीना और गालों पर राख भर जाता। तंगी हमें बुरी तरह नीचे दबा चुकी थी। पर उस हाल में भी माँ ने अपने परिवार के संचालन का बीड़ा उठा रखा था।
पिताजी ‘स्टीम इंजन’ मालगाड़ी लेकर जाते और आते। हर चार दिन बाद उन्हें घर रहने का मौका मिलता। उस दिन वह सुबह से शाम तक सोकर गुजारते। किसी की हिम्मत नहीं होती कि शाम की चाय के लिए भी उन्हें जगाए। सबसे छोटी और दुलारी होने की वजह से माँ मुझसे ही चाय भिजवाती। और भाई-बहनों की तरह, पिटने का डर मन में लेकर मैं उन्हें उठाने जाती। वो जब जागते तो उनकी आँखों में गुस्सा होता, पर मुझे देखते ही गुस्सा गायब हो जाता और मेरे हाथों से चाय लेते हुए वो मुझसे माँ को बुलाने के लिए कहते। माँ जाकर उनके पास बैठतीं। जब थोड़ी देर में माँ की हँसी सुनाई देने लगती तब कहीं जाकर हल्के हो पाते। उस वक़्त बहनें रसोई सँभाल लेतीं। पर कभी-कभी इसका उल्टा भी होता पिता के जोर-जोर से चिल्लाने की आवाज के साथ माँ आँसू पोंछते हुए कमरे से बाहर आतीं। हम सभी जड़ हो जाते। मैं बिना खाना खाए ही सो जाती। स्वभाव से गुस्सैल और चिड़चिड़े थे पिता। एक बार किसी छोटी सी बात पर गुस्सा होकर, आँच से गनगनाते चूल्हे में बाल्टी भर पानी डालकर चलते बने थे वे। ऊपर से बरसात का मौसम। बचे हुए गर्म कोयले पर, सीली हुई माचिस की डिब्बी को गर्म कर। माँ ने किसी तरह आग सुलगाई थी। फिर जल्दी-जल्दी खाना तैयार कर, टिफिन में उनके तरीके से भरकर, माँ ने हमें पकड़ाया था। सत्तर डिब्बों वाली गाड़ी का ब्रेक, हमारे क्वार्टर के नजदीक ही खड़ा होता था। उन्हें टिफिन पकड़ाकर, बिना एक मिनट रुके हम भाग आए थे। वो भी बिना रुके ड्राइवर को हरी झंडी दिखाने लगे थे। उस दिन खाना खाते-खाते माँ रोई थी और हमारे लिए खाने का एक-एक कौर गले से उतारना मुश्किल हो गया था।

उस बार जब पिताजी घर लौटे तब उनके कंधे पर ‘स्टीम इंजन’ के जले हुए कोयले से भरा हुआ एक बोरा था। उनके घर लौटते ही हम सभी भाई-बहनें माँ से दबी जुबान पूछना शुरू कर देते कि ‘पिताजी कब दोबारा ड्यूटी पर जायँगे ?’’ जब ‘कॉल पियून’, कॉल बुक पर साइन करवाकर ले जाता तब हमें राहत मिलती। फिर शुरू होती पिता के जाने की तैयारियाँ, भाई गार्ड के बक्से की सफाई करने लग जाते, बहनें कपड़े प्रेस करने में, मैं जूते पॉलिश करने में और माँ खाना बनाकर टिफिन लगाने में। पिता को भी बस माँ के हाथ का लगा टिफिन ही पसंद आता। यदि किसी दिन माँ की तबीयत ठीक न होने की वजह से बड़ी बहनें टिफिन लगातीं तो वो घर लौटने के बाद मीन-मेख ही निकालते रह जाते। और क्यों न निकालें, माँ के टिफिन लगाने का तरीका भी तो कुछ खास ही होता था। एल्युमीनियम के चार बड़े-बड़े डब्बों में माँ उनकी पसंद की सारी चीजें एक-एक करके रखतीं। सबसे नीचे उड़द की दाल...फिर भात...फिर पोस्ते-आलू की सब्जी और सबसे ऊपर, केले का पत्ता रखकर बैंगन का भाजा। वो कभी भी नमक, अचार, प्याज के टुकड़े और हरी मिर्च रखना नहीं भूलती थीं। आदतें बिगाड़ रखी थीं उन्होंने पिताजी की।
उनके जाते ही साइबेरिया की तरह शान्त घर का वातावरण किसी समुद्र तट की तरह जोश से भर उठता। भाई क्रिकेट खेलने निकल पड़ते। बहनें ‘फुल वॉल्यूम’ से रेडियो सिलॉन सुनना शुरू कर देतीं। दूसरी कोर्स की किताब में छिपाकर ‘व्लादिमीर नावाकोव’ का उपन्यास ‘लॉलिता’ पढ़ती। माँ बुनाई लेकर बैठ जाती और मैं, उनके पास बैठकर उनके चेहरे को पढ़ने का प्रयास करती। उस वक़्त उसकी निर्मल और बड़ी-बड़ी आँखें, सुनहली धूप की तरह चमकतीं पर कुछ ही देर में चमक गायब होकर ललाट में सिकुड़न पैदा करने लगती। लगता शायद पिता की दी हुई यातनाओं से परेशान है या फिर शाम को क्या पकाएँ- इसकी चिन्ता उन्हें घेरने लगी है।
.....आज फिर हम नर्सिंग होम पहुँचे। माँ को घर लाना था। पिताजी ने मुझे वार्ड के बाहर छोड़ा और खुद बिल पे करने चले गए। मैंने शीशे से झाँका। माँ अभी भी सो रही थीं।
‘‘शी इज़ परफेक्टली आलराइट, आप इन्हें घर ले जा सकती हैं।’’
मैं चौंकी, यह डॉक्टर की आवाज थी। मैंने धन्यवाद दिया। डॉक्टर ने आगे जोड़ा, आप तो उनकी सबसे छोटी सन्तान हैं ?’’
‘‘जी !’’
‘‘हम लोगों ने रिसर्च किया है। दरअसल आपकी माँ चालीस साल की उम्र से ही लगातार बीमारियों से लड़ रही हैं। इनकी दोनों किडनी एफेक्टेड हैं। बाद के दोनों बच्चे न होते तो अच्छा होता,’’ डॉक्टर एक ही साँस में कह गया। ठीक ही तो है, इन्हें क्या जरूरत थी पाँच-पाँच बच्चे पैदा करने की। दिन-भर माँ खटती और साल-साल भर बच्चे भी पैदा करती जाती। उस जमाने में कॉन्ट्रासेप्शन के खास तरीके भी ईजाद नहीं हुए थे, फिर माँ तो ज़्यादा पढ़ी-लिखी भी नहीं थीं। पर पिता तो माँ से ज़्यादा पढ़े-लिखे थे। वो तो इन चीजों का ध्यान रख सकते थे। सहसा डॉक्टर की आवाज़ कौंध गई...‘आप तो इनकी छोटी सन्तान हैं न ?’ यदि बाद के दोनों बच्चे पैदा न हुए होते तो मैं कहाँ से आती ?

मैं अन्दर गई। देखा, माँ की नींद गहरी है। कुछ पूछा तो जवाब नहीं मिला। सुगबुगाहट भी नहीं हुई उनके शरीर में। मैंने आदतवश उसके शरीर पर हाथ रखा। सिर बर्फ की तरह ठंडा था। मुझे याद आया, माँ का शरीर हमेशा ही ठंडा रहता था। बचपन में मुझे जब ज़्यादा गर्मी लगती, मैं माँ से चिपक जाया करती थी।
एम्बुलेंस की व्यवस्था भाई ने कर दी थी, पर पिताजी लौटकर नहीं आए थे। उनको बिना लिये हम जा भी नहीं सकते थे। हम इन्तजार करने लगे। निःशब्द हवा हमें काटती हुई गुजर रही थी। वक़्त हमारे कन्धों पर सवार था।
काफी देर बाद पिताजी लौटे। उनका चेहरा गुस्से से भरा था। उनके हाथों में नर्सिंग होम का बिल था। मैंने देखा बिल बीस हजार का था। पता था मुझे, उनकी जेब में सिर्फ पन्द्रह हजार ही हैं। पूछने पर पता चला, बाकी के पाँच हजार शाम तक दे जाना है। शाम तक का वक़्त भी इसीलिए मिला क्योंकि जीजा से परिचित हैं डॉक्टर।
मैंने ‘डिटेल’ पर नजर डाली। आई.सी.सी.यू. के बेड का हर रोज का किराया डेढ़ हजार। करीब-करीब हर रोज़ ही अल्ट्रासाउंड और एक्स-रे। सबसे ज़्यादा अविश्वसनीय प्रतिदिन एक से डेढ़ हजार रुपयों की दवाइयाँ और इंजेक्शन। अन्ततः दूसरे डाइगोनेस्टिक सेंटर के कैट्स-कैन का बिल और रिपोर्ट।
माँ एम्बुलेंस में भी सोती रहीं। मुझे उनकी कृशकाय काया फ्रेम पर चिपकी किसी तस्वीर की तरह लग रही थी। पिताजी के चेहरे पर अवसन्नता का भाव था। मैं जानती थी, ऐसा क्यों है। चिन्ता माँ के हिस्से की चीज थी। वह उनकी आदत में शामिल थी। हमारे साथ वो अपना दुःख नहीं बाँटती थीं। न ही पिता से कोई शिकायत करती थीं। चार-पाँच दिनों बाद, जब वो ट्रेन लेकर लौटते तब माँ सारा दुःख भुलाकर उनकी तीमारदारी में जुट जाती। पिता को केन्द्र बनाकर ही उनकी दिनचर्या शुरू होती। हम कुढ़कर रह जाते। वो जब तक घर पर रहते, माँ का सारा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किये रहते। कभी-कभी ऐसा लगता जैसे पिता को खिला-पिलाकर खुश रखना ही उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य है। कभी-कभी तो इस विषय पर माँ से मेरी बहस भी हो जाती। पर माँ हमेशा एक ही वचन दोहराती, ‘देखो बेटी, तुम भी एक दिन औरत बनोगी, अपने पति को घर ही में इतना मत दबाना कि बाहर भी दबने लगे।’’ अजीबोगरीब थीं माँ। मन होता था दीवार से मार कर अपना सिर फोड़ लूँ।
...उन दिनों पिताजी का प्रमोशन हो गया था। मालगाड़ी की जगह पैसेंजर ट्रेन (वो भी डीजल इंजनवाली) लेकर जाने लगे थे। पर माँ की दशा वैसी ही थी। अब कई बार माँ खाना बनाकर हम लोगों के साथ ही खा लेतीं थोड़ा बहुत। पिताजी का हिस्सा एक बड़े बर्तन में अच्छी तरह ढककर रख देतीं।
पिताजी देर से घर लौटते। वे थके और भूखे होते। उनकी आँखें लाल होतीं। गाल धँसे हुए गढ़े की तरह दिखते। रात काफी गहरी हो चुकी रहती। दोबारा चूल्हा जलाकर खाना गर्म करना मुश्किल होता। ठंडे खाने पर ही हम टूट पड़ते। पर स्वाद तो अद्भुद प्रतीत होता था। पिताजी को भी शायद यही महसूस होता।

....घर आ गया था। हमने मिल-जुलकर माँ को बिस्तर पर डाला। उनकी दशा हम सबको द्रवित कर रही थी। हम सब चुपचाप बैठ गए। निःशब्द गुज़रा कुछ वक़्त। फिर फोन की घंटी बजी। डॉक्टर थे। वे एक-दो घंटे में आने वाले थे।
माँ सो रही थीं। जैसे किसी ने नींद का इंजेक्शन दे दिया हो। हमें अब फिक्र हो रही थी कि कहीं वह कोमा में तो नहीं है।
डॉक्टर आए। चेकअप किया। फिर कहा, ‘यदि शाम तक हालत न सुधरी तो फिर से एडमिट करना होगा।’’ ‘‘अब जो होगा घर ही में होगा,’’ पिताजी दूसरे कमरे में उत्तेजित हो उठे। निर्णायक स्वर में कहा, ‘चाहे जो हो जाए, अब मैं इसे नर्सिंग होम नहीं ले जाऊँगा।’’ मानसिक स्थिति के साथ-साथ शायद अब उनकी आर्थिक स्थिति भी चरमराने लगी है। पर जो भी हो उन्हें शान्त रहना चाहिए। इस प्रकार की प्रतिक्रिया देने से क्या फायदा। यदि डॉक्टर ने सुन लिया और घर पर भी आना बन्द कर दिया तो ?
उनके मित्र ने उनके कन्धे पर सान्त्वना भरा हाथ रखा। समझाया। बहन ने बिस्किट दूध में भिगोया। माँ का मुँह जबर्दस्ती खोला। अर्ध चेतन अवस्था में बिस्किट उनके गले से नीचे उतरा।
पाँच-दस मिनटों बाद माँ के बदन में हरकत हुई। हमने आश्वस्ति भरी साँस ली। उन्होंने आँखें खोलकर हमें देखा। फिर पलकें बन्द हो गईं।
मैंने पूछा, ‘‘सूप पियोगी ?’’
उसने जवाब में सिर हिलाया। बहन झटपट सूप बनाकर ले आई। माँ ने पिया। वह अब बेहतर स्थिति में आ गई थी।
‘‘नर्सिंग होम में तुम क्या खाती थीं ?’’ मैंने पूछा।
उसने रुककर बताया, दो दिनों से कुछ भी नहीं खिलाया गया। एक तो खाने में कोई स्वाद नहीं, तिस पर मना कर दिया, एक बार तो दोबारा नर्स पूछने तक नहीं आई। एक दिन खाने के समय वह सोती रह गई। जागी तो भूख का एहसास हुआ। माँगा तो नर्स सूखी हुई ब्रेड ले आई।
माँ की आदतों से हम वाकिफ थे। वह शान्त प्रवृत्तिवाली औरत थी। उसने पूरा जीवन बन्द दरवाजों के अन्दर गुजार दिया। कहाँ माँगा कुछ। बाहर निकली भी, तो अपने रास्ते पर चलती चली गई चुपचाप। सिर्फ अपने काम से मतलब रखा। जब पिता कई दिनों तक नहीं आते, तब माँ हमारा हाथ पकड़ बाहर निकलती। किराने से लेकर कोयले की दूकान तक चली जातीं। उनकी गति धीमी होती थकान और तंगी की बेड़ियों से जकड़ी।
डॉक्टर का फोन आया। पिताजी एकबारगी बिफर गए। भाई ने झट फोन ले लिया। सपाट लहजे में बताया ‘‘जी, अब उनकी तबीयत बिल्कुल ठीक है।’’
उसने फोन काट दिया, पिताजी तमक उठे, ‘‘मैं इस डॉक्टर पर केस कर दूँगा।’’ वे चिल्लाए। भाई ने समझाया। फिर सबने मिलकर तय किया। अब नर्सिंग होम नहीं जाना है। आक्सीजन सिलिंडर की व्यवस्था घर पर ही कर ली गई। इंजेक्शन के लिए कम्पाउंडर को तय कर लिया गया। सॉरबिटेट की शीशी सिरहाने रख दी गई।

माँ की स्थिति में मामूली सा सुधार था। या ऐसा हमें लगता था। मसलन अगर वह दो-एक वाक्य बोल उठती थी तो हम उम्मीद करने लगते थे कि वह ठीक हो चली हैं। कभी-कभी माँ निढाल होने लगतीं, तब दिल बैठने लगता। हमारे फैमिली डॉक्टर, जो पिता के मित्र भी थे, से एक बार पिता को कहते सुना था, ‘‘इतनी तकलीफ से तो अच्छा था, मुक्ति मिल जाती।’’ महसूस हम भी ऐसा करते पर उनके मुँह से ऐसी बातें शोभा नहीं देती थीं।
....सत्तर के दशक में हमारे परिवार की किस्मत कुछ सुधरने लगी थी। पिता माँ के लिए गैस चूल्हा ले आए थे और मीट बनाने के लिए एक प्रेशर कुकर भी। जब पहली बार मैंने माँ को गैस-चूल्हे के पास देखा था, मेरी आँखें गोल लपट पर स्थिर गई थीं। नीले रंग के कमल-फूल जैसी सम्मोहक लगी थी वह। कोयले के चूल्हे से निस्तार मिला था माँ को, चेहरे पर से राख की परतें विलुप्त हो गई थीं। नॉब खोलते ही खोलते गैस का जलना माँ को आश्वस्ति-भरे भाव से नहला जाता। वह हाथवाले पंखे की ओर देखती थीं, कभी-कभी, संकट के क्षणों के लिए कोयलेवाला चूल्हा बगल में ही रखतीं । क्या पता कब गैस खतम हो जाए !
हॉकिन्स प्रेशर कुकर के साथ मिले रेसिपी बुक के नए-नए नुख्से अब माँ को लुभाने लगे थे, वह अब उनका उत्साह के साथ प्रयोग करती। हम स्वाद की तारीफ करते,. तो वह तितलियों जैसी खुश होतीं। जिन्दगी में कुछ स्थिरता का बोध आ गया था तब तक। पिता भी छुट्टी के दिनों में माँ के साथ बाजार जाने लगे। हमें कभी-कभी लगता, वे प्रायशचित कर रहे हैं। जवानी के दिनों में की गई क्रोध-भरी कार्यवाइयाँ उन्हें नई शक्ल दे गई थीं। हम याद करते थे सब कुछ गनगनाते चूल्हे में पानी डाल देना, खाने से भरा थाल उठाकर फेंक देना। हमें खूब अच्छी तरह याद है वक़्त का बदलाव।
बीतते सालों के साथ और भी बदलाव आए। मसलन माता-पिता के बाल सफेद हो गए। पिता ए ग्रेड गार्ड हो गए। पैसेंजर ट्रेन की जगह अब वे राजधानी एक्सप्रेस लेकर जाने लगे थे। नया क्वार्टर भी बड़ा था। उसकी रसोई में अब सुविधाओं से जुड़ी हर चीज थी।
चीजों की आमद एक कठिन रास्ते से हुई थी। पूरा परिवार उससे नंगे पाँव गुजरा था। अब समय का पुल रेत पर टँगा हुआ नहीं था। उसके नीचे फूल थे, एक बगीचा था, शान्ति-भरा बरामदा था। माँ को यह बागीचा ज़्यादा दिन रास नहीं आया। फूलों पर धूल की परत जमने लगी। माँ बीमार रहने लगी।
पिता की रुक्षता ने हमें उनसे दूर कर दिया था। शायद कभी-कभी वे खुद हमारा साहचर्य चाहते थे। पर बेटे अपनी जिन्दगी को अपनी तरह जीना चाहते थे। उन्होंने एक अलग घर ले लिया था। बुढ़ापे में भी वे कमजोर नहीं पड़ना चाहते थे। माँ का मन छटपटाता। बहू-बेटों से मिलने की इच्छा अक्सर मन में जागती। भाइयों के मुँह से भी कठोर शब्द निकलते, ‘‘ऐसा कहीं नहीं देखा।’’ पर माँ के लिए सभी जान देते।

रात रिक्त होने की प्रक्रिया में थी। मैं अपने फ्लैट में थी। सुबह का इन्तजार जैसे जागता हुआ था मेरे भीतर। फोन की घंटी बजी। इन्तजार ने भय का रूप ग्रहण कर लिया। भाई की आवाज मेरे ऊपर पसर गई, ‘‘माँ को फिर से दिल का दौरा पड़ा है। हालत क्रिटिकल है। हॉस्पिटल ले जाना होगा।’’
‘‘कहाँ ?’’
‘‘दूसरे नर्सिंग होम में...जोधपुर पार्क के पास...कोई ‘क्योर सेंटर’ है। तुम वहाँ पहुँचो।’’
जब तक मैं स्वाभाविक स्थिति में पहुँचती, फोन कट चुका था। उस दिन किसी पॉलिटिकल पार्टी का बन्द था। कलकत्ते में बन्द का मतलब बन्द। पक्षियों की आवाज़ाही पर भी पाबन्दी। हवा का साँस लेना भर महसूस किया जा सकता है। बहन मुझे अपने पति के साथ मुझे लेने आ गई।
माँ कोमा में थी। तीन दिनों तक बस इसी तरह आना-जाना लगा रहा। यहाँ आई.सी.सी.यू. में और भी कड़ाई थी। खिड़कियों पर शीशे भी नहीं थे अन्दर जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। सिर्फ खबर मिलती थी कभी-कभी। चौथे दिन डॉक्टर ने बताया, ऑपरेशन करना पड़ेगा। बाईपास सर्जरी।’’ हम आधे तैयार थे, आधे नहीं। पिता को हमने नहीं बताया। उनके डॉक्टर मित्र को जानकारी दी गई। सलाह माँगी हमने। उन्होंने माँ को देखना चाहा एक बार। इजाजत नहीं मिली। डॉक्टर मित्र ने हमें परे कर दिया। झगड़ा किया डॉक्टर से। खुद के डॉक्टर होने की दुहाई दी। बेहद जद्दोजहद के बाद उन्हें अन्दर जाने दिया गया।
वे जब तक नहीं आए, हम अपने अन्दर की दुनिया में गुम रहे। रास्तों, पगडंडियों, घरों में...टुकड़ों में जागती स्मृति-छवियों की दुनिया।
देर गए बाद वे बाहर आए। हमारे पास खड़े हुए। पिता के कन्धे पर हाथ रक्खा। हमने देखा। उनका हाथ काँप रहा था। वे लरजती आवाज में बोले, ‘ऑपरेशन की जरूरत नहीं है।’’
‘‘फिर डॉक्टर ने ऐसा क्यों कहा ?’’ मेरी उद्विग्न आवाज़ उभरी। हम सँभलते उसके पहले ही उनका निर्णयात्मक स्वर हमें हिला गया, ‘‘उनकी मौत तीन दिन पहले हो चुकी है।’’
हमें लगा, यह अस्पताल नहीं, जहाँ हम खड़े हैं। यह सृष्टिखंड का वीरान-सा पड़ाव है, जो कोमा में है, लम्बे अरसे से।
हवा में अब साँस लेने की हिम्मत नहीं बची थी। सारा काम निपटाकर लौटते-लौटते दोपहर हो गई। अन्तिम समय में हम सभी उस ईधन की कमी झेलते चूल्हे को याद करते रहे। चूल्हा माँ के साथ हमारी स्मृतियों में आता रहा। प्यार की लपटें हमारे अन्दर कौंधती रहीं। हम अहसास कर रहे थे। बचपन की सारी खुशियाँ, माँ की दी हुई। बावजूद इसके कि घर में चीजों की कमी थी। इस कमी को माँ ने प्यार से भरा। हममें कुछ भरने के लिए वह अन्दर से रिक्त होती चली गईं।
‘‘मैं तीर्थ से लौटकर बेटों के पास रहूँगा,’’ पिताजी ने अपना निर्णय सुना दिया था। बहुओं का चेहरा उतर गया था। सही भी है, आज तक पिता की किसी के साथ तालमेल नहीं बैठ पायी थी। बेटे घबराए हुए थे कि लौटकर किस बेटे के पास रहेंगे- बड़े या छोटे ? पिता का सामान लगाते हुए एक बहू ने कह ही दिया, ‘‘पिताजी को कलकत्ता रास नहीं आया।’’ पर पिताजी थे कि कुछ समझना ही नहीं चाह रहे थे। पता नहीं मेरे पाँव कब रसोई की ओर बढ़ गए। पिताजी की ट्रेन शान को चार बजे की थी। घड़ी डेढ़ बजा रही थी। मैंने खाना बनाना शुरू कर दिया।

शमशान से लौटते हुए पिताजी ने अपने मित्र से कहा था, ‘‘मैं अब अकेला नहीं रह पाऊँगा, अकेले रहने में मुझे डर सा लग रहा है।’’ मेरे लिए उनकी सोच में यह एक अस्वाभाविक बदलाव था। वरना पिताजी और अकेले रहने में डर। यदि इसी तरह स्वभाव में भी बदलाव लाएँ तो शायद बेटे रख भी लें अपने पास। पर...! न जाने कब मैं पीछे के बगीचे से केले का पत्ता तोड़कर लाई थी। पर बेटों को भी ऐसा नहीं करना चाहिए, कम से कम माँ की आत्मा की शान्ति के लिए ही सही। माँ के जीते जी तो उन्हें बेटों से अलग रखा इन्होंने। बिचारी-माँ सारी जिन्दगी एक तलवार की धार पर चलती रहीं....उन्हें क्या पता कि पिता भी इस कदर मानसिक रूप से निर्भर थे उन पर ! मैंने टिफिन लगाना शुरू कर दिया...उड़द की दाल....भात....पोस्ते-आलू की सब्जी...फिर केले का पत्ता रखकर, बैंगन का भाजा। ठीक उसी तरह से...जैसे माँ लगाया करती थीं।


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