लोगों की राय

विविध उपन्यास >> सूत्रधार

सूत्रधार

संजीव

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :343
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2751
आईएसबीएन :9788171198146

Like this Hindi book 15 पाठकों को प्रिय

101 पाठक हैं

दलितों के जीवन पर आधारित उपन्यास....

Sootradhar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

अपनी रचनात्मक ज़मीन और लेखकीय दायित्व की तलाश करते हुए एक ईमानदार लेखक प्रायः स्वयं को भी रचने की कोशिश करता है। अनुपस्थित रहकर भी वह उसमें उपस्थित रहता है; और सहज ही उसे देश-काल को लाँघ जाता है जो आकर उसे देता रहा है। समकालीन कलाकरों में संजीव की मौजूदगी को कुछ तरह देखा जाता है। आकस्मिक नहीं कि हिंदी की यथार्थ कथा-परम्परा को उन्होंने लगातार आगे बढ़ाया है।

‘सूत्रधार’ संजीव का नया उपन्यास है, और उनकी शोध परक कथा-यात्रा में नितान्त चुनौतीपूर्ण भी। केन्द्र में हैं भोजपुरी गीत-संगीत और लोक नाटक के अनूठे सूत्रधार भिखारी ठाकुर। वही भिखारी ठाकुर। जिन्हें महापण्डित राहुल सांकृत्यान ने ‘भोजपुरी का शेक्सपीयर’ कहा था और उनके अभिनंदनकर्त्ताओं ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र। लेकिन भिखारी ठाकुर क्या सिर्फ यही थे ? निश्चय ही नहीं, क्योंकि कोई भी एक बड़ा किसी दूसरे के समकक्ष नहीं हो सकता। और यों भी भिखारी का बड़प्पन उनके सहज सामान्य होने में निहित था जिसे इस उपन्यास में संजीव ने उन्हीं के आत्मद्वन्द्व से गुजरते हुए चित्रित किया है। दूसरे शब्दों में, यह एक ऐसी धूप-छाहीं कथा-यात्रा है, जिसे हम भिखारी जैसे लीजेंडरी लोक कलाकार और उनके संगी-साथियों के आंतरब्राह्म संघर्ष को महसूस करते हैं। काल्पनिक अतिरेक की यहा कोई गुंजाइस नहीं। न कोई जरूरत। जरूरत है तो तथ्यों के बावजूद रचनात्मता को लगातार साधे रखने की, और संजीव को इसमें महारथ हासिल है यही कारण है कि सूत्रधार की शक्ल में उतरे भिखारी ठाकुर भोजपुरी समाज में रचे-बसे लोकराग और लोकचेतना को व्यक्त ही नहीं करते, उद्दीप्त भी करते हैं। उनकी लोकरंजकता भी गहरे मूल्यबोध से संबलित है; और उसमें न सिर्फ उनकी बल्कि हमारे समाज और इतिहास की बहुविधा विडम्बनाएँ भी समाई हुई हैं। अपने तमाम तरह के शिखरा रोहण के बावजूद भिखारी अगर अंत तक भिखारी ही बने रहते है तो यह यथार्थ आज भी हमारे सामने एक बड़े सवाल की तरह मौजूद है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि देश, काल, पात्र की जीवित-जाग्रत पृष्ठभूमि पर रचा गया यह जीवनीपरक उपन्यास आज के दलित-विमर्श को भी एक नई ज़मीन देता है। तथ्यों से बँधे रहकर भी संजीव ने एक बड़े कलाकार से उसी के अनुरूप रसशक्ति और आत्मीय संवाद किया है।

 

सूत्रधार के सूत्र

 

 

आग्रहों के बेतरतीब उलझाव और रंग-बिरंगी बुनावट से सत्य का सन्धान कर पाना कितना दु:साध्य कर्म है, यह मैंने लीजेंड बन चुके भिखारी ठाकुर पर लिखते हुए मर्म-मर्म में महसूसा। देश, काल और किंवदन्तियों, साक्षात्कारों तथा पर्यवेक्षण के अन्दर बाहर की यात्रा कर जो चित्र उकेर पाया हूँ, आपके सामने है। पक्का दावा नहीं कर सकता कि सत्य सिर्फ वही उतना ही है, यह सहज मेरे शोध और रचनात्मक विवेक की अभिव्यक्ति है।

जीवनी लिखना इससे कहीं सरल कार्य होता, कारण, तब आप परस्पर विरोधी दावों के तथ्यों का उल्लेख कर छुट्टी पा सकते हैं। जीवनीपरक उपन्यास में  आपको औपन्यासिक प्रवाह बनाते हुए किसी मुहाने तक पहुँचना ही पड़ता है, यहाँ द्वंद्व और दुविधा की कोई गुंजाइश नहीं है। दूसरी तरफ उपन्यास लिखना भी जीवनीपरक उपन्यास लिखने की अपेक्षा सरल होता है, कारण आप तो तथ्यों में बँधे नहीं रहते। यहाँ दोनों ही स्थितियाँ नहीं थीं।

भिखारी ठाकुर तीस वर्ष पहले जीवित थे; उन्हें देखने और जानने वाले लोग अभी भी हैं। सो, सत्य और तथ्य के ज्यादा से ज्यादा करीब पहुँचना मेरी रचनात्मक निष्ठा के लिए अनिवार्य था। इस प्रक्रिया में कैसी-कैसी बीहड़ यात्रा मुझे करनी पड़ी, ये सारे अनुभव बताने बैठूँ तो एक अलग पोथा तैयार हो जाए। संक्षेप में कहूँ तो कम असहयोग भी मुझे कम नहीं मिले, और सहयोग भी....। इन तमाम मित्रों, सहृदों, दूर-दरास्थ ग्रामवासियों, कला-मर्मज्ञों का मैं ऋणी हूँ, (जिनमें से कुछ नामो का ही ‘आभार’ में उल्लेख कर सका हूँ), जिनके सहयोग के बिना यह उपन्यास सम्भव न हो पाता।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय (संस्कृति विभाग) भारत सरकार का कृतज्ञ हूँ जिसकी आर्थिक सहायता और प्रोत्साहन ने मुझे संबलित किया।

 

-संजीव

 

सूत्रधार

1


निचाट दुपहिया वैशाख की। तपता हुआ दूर-दूर तक दियारा। न कोई आदमी है, न चिरई, न जिनावर। बरम्ह बाबा के पीपर के बाद उत्तर चिराँद तक एक भी पेड़ नहीं जहाँ, रुककर छँहाया जा सके। बस हैं तो इक्की-दुक्की कँटीली झाड़ियाँ- वह भी बबूल की। छोटे-छोटे बवंडर उठते हैं तो इन झाड़ियों में उलझ कर फनफना उठते हैं, जैसे मरकहे भैंसे की नाथी पकड़ ले कोई। फिर जिन्न की तरह नाचते हुए आगे निकल जाते हैं। सारा जीवन (सीमांत) आँवा की तरह धधक रहा है। लंबे-चौड़े उस गोरे-गँठीले जवान ने गमछे से कस कर सिर को लपेटा और उस धँधकते आँवे में प्रवेश कर गया।

कंठ सूख रहा है। पाँव झुलस रहे हैं। मनमनाती दुपहिया में कोई इक्का भी तो नहीं दिखता। इक्का मिल भी गया तो पैसे कहाँ ?-चलो, ऐसे ही चलो और जरा तेज-तेज चलो। एक-डेढ़ घंटे चलते रहने के बाद कहीं सरजू जी की छाड़न मिलेगी। तब तक चलना है, चलते ही रहना है। वहाँ भी पानी होगा क्या ? गर्मी में तो सूख जाती है ‘छाड़न’। लगता है, पाँव में फँफोले पड़ रहे हैं। किसी मरे हुए बाभन की फेंक दी गई पनही लेते आए थे बाबूजी। वही पहनता रहा अब तक। इसका तल्ला बिल्कुल ही घिस चुका है। पाई-पाई वसूल लिया था बभना ने। मक्खीचूस कहीं का ! बाबूजी अपनी बहादुरी को बखानते नहीं थकते कि किस तरह घाट के डोम से लड़कर ला पाए थे वे इस ‘दुर्लभ चीज’ को। नरक में भी ठेलाठेली। क्या करे इसका ? खिसियाकर निकाल कर फेंक देता है, मगर फिर मजबूर नजरों से देखता है। ऊपर तो ठीक-ए लगता है, तल्ला लगवा ले तो चार-छह महीने आराम से खींच ले जाएगा। उठा लेता है, मगर पैसा...? ऊँह ! चिराँद में केले के थम्ब की छाल या छाक के पात काट कर तल्ला बना लेगा..., लेकिन तब तक...? कम से कम पानी ही मिल जाता ! मर जाएँगे क्या ?

मर ही जाता तो अच्छा होता। मुक्ति तो मिल जाती ! बाप ने कैसे फटकारा था उसे ! वही बाप जो बिगड़ैल बाभन राजपूतों के आगे कितने नरम स्वर में बोलता है, उसे काट खाने को दौड़ता है।
‘‘मगर बाबूजी करते भी क्या ? और तुम भी खिसिया कर चल ही दिए। पानी तक नहीं पिए।’’ अन्दर से कोई टुहुँकता है।
‘‘पानी पूछा किसी ने ? वे तो बाहर से आते ही सीता माई कह कर पिल पड़े।’’
‘‘जिद नहीं करनी चाहिए थी। तुम्हारी ही तरह कई और लोगों ने जिद की और दियारा पार नहीं कर सके, बीच में ही ‘टें’ बोल गए। साँझ तक झुलसती पड़ी रही देह। उन्हीं की पियासी आत्माएँ खींच कर ले आती हैं तुम जैसों को यहाँ मरने के लिए।’’
‘‘ऐसी गर्मी ! बाप रे !.... नहीं ‘बाप’ को नहीं पुकारना था।’’ मन को दूसरी ओर मोड़ता है, ‘‘कल लालाजी कौन तो एक ठो गाना, कि का तो कहते हैं, ‘कविता’ सुना रहे थे.......’’

‘भरी दुपहरी जेठ की, छाँहौ चाहति छाँह !’ माने कि छाँह भी छाँह माँगती है। वाह ! क्या कहा है ! मगन मन चला जा रहा है। चल नहीं, दौड़ रहा है। उसकी चाल सियारों की तरह। बस आ गए। सामने ही तो है उँचास पर चिराँद गढ़-मोरध्वज की नगरी ! धरम के लिए अपने बच्चे तक को चीर दिया आरा से। तब से यह कहानी कितनी बार दोहराती जाती रही। चीर-रहें है माई-बाप बच्चों को दूसरों के लिए। कहीं इसी बात के तलते आरा का नाम आरा तो नहीं पड़ा ?
क्या वह इस विश्व ब्रह्माण्ड में अकेले ही भटक रहा है ? नहीं, उसी की तरह कितने नाई न्यौता पहुँचाने के लिए भटक रहे होंगे ! कितने-कितने कँहार काँवर भर-भर कर बोझ से दबे आ-जा रहे होंगे। और भी कितने-कितने परजा-पउनी मर-खप रहे होंगे इस बज्जर दुपहरियाँ में ! पुरूब जनम की कमाई !
अरे ये तो कँहार जा रहे हैं गाते हुए डोली लेकर-


जेठवा बैसखवा की पाकली भुमुरिया

 

...............................................
वाह ! पाँव सुलग रहा है। देह झुलस रही है लेकिन मन हरियाली है। अचानक रस की कौन-सी फुहार झर उठी है अन्दर से ! भुमुरिया को कई प्रकार से अलापता है- भू-मुरिया.....भु-मू-उ-उ-ऊ रिया, भुमुरि-इ-इया। धम्म-से बैठ गया-बबूल की छैंया में ! कितनी अच्छी पकड़ है। भूमुर माने गरम भउर राख। जिनगानी जे-ठ ऊपर कोई छाह नहीं। हाय के जनम ! बाबू साहब और बाबाजी लोग और बाकी सुखी गिरहथ्थ (गृहस्थ) ड्योढ़ी और पलानी में बैठे होंगे। बेनिया डुलाया जा रहा होगा उनके लिए। और हम ? हमें मरने के लिए यहाँ हाँक दिया गया है।
‘‘अतना सुन्दर देह धजा !’’ पूछते हैं कहार, ‘‘कौन बिरादर हो भाई ?’’ कहारों ने डोली रख दी है।
‘‘नाई !’’ जवाब देता है, फिर राजजुहारी होती है।
‘‘तनी लोटा-डोरी मिली ?’’

‘‘रुको-, पीठ सीधी कर लें पहले।’’
मन-ही-मन भिनक रहा है जवान, बैठे-बैठे लोग गती से दस आना दबा के बैठ जाएँगे और नाई को कितना मिलेगा ? छौ आना ! सिरिफ छौ आना ! सिरिफ छौ आना के लिए जान संकल्प कर देना है।
कोई सजीला घुड़सवार आकर खड़ा हो गया है।
‘‘किसको लोटा-डोरी दी जा रही है ?’’
‘‘नाई है मलिकार !’’
‘‘ए नाई ठाकुर, तनी दुलहिन को भी पानी पिला दो न !’’
कितना ठंढ़ा है कुएँ का पानी ! लोटा भर ओहार से आए मेहंदी रचे गोरे-गोरे हाथों में थमाता है और तबियत हरी हो जाती है। सलोना हाथ लोटा थमाने फिर बाहर निकलता बाहर निकलता है। लोटा भर-भर कर मलिकार और कहारों को पिलाता है, फिर खुद। उसका बस चलता तो नाक, मुँह, आँख ही नहीं रोएँ-रोएँ में भर लेता पानी। ऐसी पियास ! घुड़सवार ने जो बड़का बतासा दिया था वह कभी फुतहे की जेब में धरा रह गया। चल पड़ा। चलता ही चला गया।
अरे इतनी जल्दी आ गया सागर ! पता ही न चला। पहुँचता क्यों नहीं ?

दो मेहँदी रची गोरी हथेलियों पर सवार जो था !
महातम सिंह की ड्योढ़ी के बारे में पूछने की जरूरत नहीं, वो जो किले-सा मकान है, जिसके आगे हाथी झूमता है.....!
पियास फिर से उगी आ रही है छिली हुई दाढ़ी की तरह। चलो अब तो वहीं चल कर पानी पीना है। बड़का बतासा आएगा। मउनी भर कर चबेना गमछे में उलट दिया जाएगा नमक-मिर्च अलग से.....‘‘अरे वो सब रहने दो ठाकुर, गमछे में बाँध लो। अभी तो भोजन तैयार है। इतनी देर से आए हो, पहले भोजन कर लो, थकान मिटा लो, फिर सनेश (संदेश) कहना।’’ चौड़ी चकली पूड़ियाँ ! दो किसिम की तरकारी, बुनिया, चटनी......’’ अरे थोड़ा दही नहीं दे दिए !’’ मन-ही-मन भोजन का आस्वाद लेते हुए बैठके से थोड़ी दूर पर आकर खड़ा हो जाता है युवक !
‘‘बाबू साहेब !’’ धड़कते दिल से गुहार लगाता है। दरवाजा अन्दर से बन्द है। दो-तीन गुहार के बाद अन्दर से कोई खीझा हुआ नारी कंठ, ‘‘का है ?’’

‘‘नाई है कुतुबपुर के। बाबू गजाधर सिंह का न्यौता लेकर आए हैं।’’
‘‘बाबूसाहब तो विदाई कराने बरसठी गए हैं, तब तक रुको।’’
शायद कोई पनिहारिन है। अच्छी लगी-साँवली, सलोनी, तीखे नैन-नक्श ! पियासे अमदी (आदमी) को तिरिया भी नजर आई तो किस रूप में- पनिहारिन !
तो इसी से क्योम न कहें कि .....! लो दरवाजा बन्द हो गया !
‘‘ऐ ऽऽऽ ! सुनीं जी !....सुनीं तनी।’’
‘‘चूड़ियाँ खनककर शांत हो जाती हैं। कुछ पलों का सन्नाटा, फिर कोई खौखिआयी मरदानी भौंक, ‘‘कवन ह-अ रे ?’’
अरे बाप ! डर के मारे बकार नहीं फूटती। अब इस नीम की छाह में अगोरने के सिवा चारा ही क्या है !
नीम की छाँह के तले भी लू की लपटे हैं-छाहौं चाहति छाँह ! चेहरे को गमछे से ढँक लेगा, मगर इस पियास का क्या करे वह ? पल-पल बीत रहे हैं जुग बनकर ! तो एक-दू जना इधर ही आ रहे हैं। शकल सूरत से मजूरा लगते हैं। इनसे पानी माँगा जा सकता है। माँगे ? न, पता नहीं कौन जात के हों ! झपकी आ रही है जमीन पर।

घंटों की घहराती आवाज पर कुत्ते की तरह कनमना कर उठ खड़ा होता है। हाथी आ रहा है। साथ-साथ चार आदमी आगे, चार आदमी पीछे पाँव पैदल लाठी लिए हुए दुलकी चाल से चलते हुए। फिर कोई पालकी है, पालकी पर ओहार पड़ा हुआ है-नीला, लाल, मखमली। दुलहिन आ रही है। पीछे-पीछे कोई घुड़-सवार भी है।
ड्योढ़ी पर औंरतें इकट्ठी होने लगी हैं। भागमभाग मच गई है। एक भले से दिखने वाले आदमी से निहोरा करता है नाई युवक, ‘‘बाबू साहेब को खबर करवा न दीजिए कि कुतुबपुर का नाई आया है न्यौता लेकर।’’
‘‘आन्हर हो ? इतनी देर से आ रहे हैं मलिकार। पहले पानी-धानी पीएँ, नहाएँ-धोयें कि पहले तुमरी ही बात सुन लें।’’
जो आदमी हाथी के पास ‘‘हाँ मलिकार’’, ‘‘हाँ हजूर’’ कह कर बिछा जा रहा था, वही कैसे फुफकार उठा ! सिटपिटा जाता है युवक।

‘‘अगत ! अगत ! अगत !’’ हाथी बैठ रहा है। बैठ गया। क्या खुद ही जाकर कह आए ? नहीं, बुरा मान जाएँगे। सारी भीड़ सामान उतारने, दुलहिन की अगवानी, परछन, धार, गीत, भिलभिलाहट और मलिकार की सेवा में जुट गई है। नाई की कौन सुने ?
एक मजूर-से दिख रहे आदमी से पूछने की हिम्मत होती है, ‘‘ए बाबू, नउआन कहाँ है इस गाँव में ?’’
‘‘नाई हो ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘वो जो मन्दिर देख रहे हो दक्खिन में, उसके दक्खिन !.....लेकिन नाई-नाउन तो एहिजे (यहीं) मिल जाएंगे, काम का है ?’’
‘‘पानी पीना है।’’
‘‘पानी ना पूछा कोई ?’’
‘‘अब का कहें !’’
‘‘हाय राम, देख-अ तो ई अनियाव ! का करोगे भैया ! हियाँ तो बड़ लोगन का खातिरदारी होता है, परजा-पउनी के के पूछी ! मिली, मगर सबका बाद में-ऊहो जूठन-काछन।’’


   

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book