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गमे हस्ती का हो किससे

विजयमोहन सिंह

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :117
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2770
आईएसबीएन :81-7119-558-x

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानी-संग्रह...

Game Hasti Ka Ho Kaisese

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस संग्रह में कुल सात कहानियाँ हैं जो पिछले चार वर्षों के दरम्यान लिखी गई हैं। ‘अगंरक्षक’ अपेक्षाकृत लंबी कहानी है और मेरी पिछली तमाम कहानियों से पृथक किस्म की है-शिल्प अथवा कला-कौशल की दृष्टि से नहीं, बल्कि शुद्ध ‘अंतर्वस्तु’ की दृष्टि से। प्रत्यक्षतः यह ‘विषय’ स्थूल-सा प्रतीत हो सकता है क्योंकि इधर बड़े पैमाने पर ‘स्त्री देह के उपयोग की विधियों का जैसा विधवत और विपुल वर्णन होता रहा है, उससे लग सकता है कि यह उसी क्रम में एक कड़ी है, किंतु इसमें एक ‘विशेष समुदाय’ के बीच स्त्री की स्थिति का लगभग यथावत बयान है जिसमें मैंने किसी छेड़-छाड़ की आवश्यकता महसूस नहीं की। संभवतः इससे कहानी में ऐसा ‘इकहरापन’ आ गया हो जो सामान्यतः न मेरी प्रवृत्ति है और न लेखन-पद्धति। अतः कोई चाहे तो इसे एक ‘दस्तावेज’ मानकर पढ़ सकता है।

‘ओघ’ भी मेरी पद्धति तथा प्रविधि से पृथक एक ‘मिथकीय स्वप्न’ है जिसका सूत्र मैंने जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ से ग्रहण किया है लेकिन ओघ को एक समकालिक प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया है : श्रद्धा नाम भी प्रायः एक परिहास अथवा चुहल के रूप में ही प्रयुक्त है। कामायनी में मनु का एक स्वागत कथन है-‘प्यासा हूँ मैं अब भी प्यासा हूँ। संतुष्ट ओघ से मैं न हुआ।’ यह जल-प्रलय के तत्काल बाद का कथन है। कहानी में इस शब्द का रूपक के रूप में ही उपयोग है।

बाकी कहानियाँ-जैसी मेरी कहानियों की एक श्रृंखला-सी पिछले दशक से बनती आई है-उसी क्रम की हैं या संभवतः उस क्रम में एक विराम की कहानियाँ हैं क्योंकि अब शायद उस ‘अवशेष’ का जितना उत्खनन मैं कर सकता था, कर चुका। ‘एक बँगला बने न्यारा’ से लेकर इन कहानियों तक !

-विजयमोहन सिंह


ग़मे-हस्ती का हो किससे...!


नगर में यह कहना चाहिए उस संपूर्ण प्रभाग में उनका बहुत सम्मान था। प्रायः सभी प्रतिष्ठित व्यक्ति उनके सौध में कभी-न-कभी आतिथ्य सुख प्राप्त कर चुके थे।

प्रत्येक दिन संध्या होते ही वहाँ चहल-पहल प्रारंभ हो जाती। ऐसा प्रतीत होता मानो कोई विशेष उत्सव हो रहा हो। ग्रीष्म ऋतु हरी दूर्वा वाला वह विशाल प्रांगण शीतल जल से भली-भाँति सिंचित कर दिया जाता था। उस पर यत्र-तत्र अनेक मेजें सुव्यवस्थित ढंग से स्थापित कर दी जाती थीं। प्रत्येक पर दुग्ध धवल आवरण पड़ा होता था और उन पर अनेकानेक वर्णों वाले पुष्पस्तबक पीतल के पात्रों में स्थित कर दिए जाते थे। चतुर्दिक खस, केवड़े तथा गुलाब आदि की सुगंध वातावरण में व्याप्त होती। उनके चारों तरफ उस समय की प्रचलित ऊँची पीठाधारों वाली कुर्सियाँ रखी होतीं। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लम्बे डैनों वाले यंत्रचालित पंखे लगे होते। एक स्थल-विशेष पर त्रिकोणात्मक काष्ठ-वेदी बना दी जाती जिस पर भाँति-भाँति के विदेशी मद्यपात्र तीव्र प्रकाश में झिलमिलाते रहते। 

..क्रमशः अतिथियों का आगमन प्रारंभ होता। कहने की आवश्यकता नहीं कि वे किस वर्ग या वृत्ति के व्यक्ति होते थेः अभिजात वर्ग के राजपुरुष, उच्च शासन-अधिकारी जिनमें नगर-संचालक जिलाधीश आदि से लेकर न्यायाधीश, प्रमुख अधिवक्ता, दंडाधिकारी, आदि, सभी होते थे। चूँकि उस नगर में इस भद्रलोक के अनुरूप कोई स्तरीय आमोद-गृह नहीं था, इसलिए इस सौध के सहज-सुलभ आतिथ्य-आप्लावित स्थल से अधिक श्रेष्ठ प्रमोद-गृह और क्या हो सकता था !....यह कहना भी व्यर्थ होगा कि इस अतिथि-समूह में सभी व्यक्ति देशज ही नहीं होते थे गौरांग महाप्रभुओं का भी अभाव नहीं होता था।

..शनैः शनैः वातावरण में बहुमूल्य तंबाकू वाले पाइप, सिगार, 555 तथा ‘स्टेट एक्सप्रेस’ की सिगरेटों विभिन्न प्रकार के मद्यों, प्रसाधन उपकरणों तथा नाना प्रकार के भोज्य पदार्थों-केसरयुक्त बिरियानी रोगनजोश आदि-की सुंगधि से युक्त अपूर्व गंध-संभार निर्मित होकर वातावरण में हिलोंरे लेने लगता था।

वार्तालाप अपवादहीन रूप से आँग्ल भाषा में ही होता था। यदि भूल से कोई हिंदी शब्द आता भी था तो ‘हाइकू’ काव्य में मेढ़क की भाँति ही। आयोजन के प्रारंभ में तो ये भद्रजन यूडीकोलोन, लैवेंडर आदि की सुंगधि के बावजूद कार्यालयीय दिनचर्या के पश्चात किंचित श्लथ ही दिखते थे। उनकी वार्ता भी अत्यंत औपचारिक होती थी। किंतु उनके बीच विचरते मद्यचषक लिये परिचारकों की दो-तीन आवृत्तियों के पश्चात उन्हें अपने ही स्वरों के आरोह-अवरोहों का स्वयं भान नहीं रह जाता। एक मेज की वार्ता दूसरी मेज की वार्ता को काटती हुई परस्पर उलझने लगती थी। कभी कोई दूसरी मेज की बात को अपनी मेज की बात समझकर उत्तर देने लगता था, फिर अपनी कही हुई बात भूलकर दूसरे की बात को अतिरिक्त गंभीरता से सुनने का यत्न करने लगता। फिर सभी मेजें एक-दूसरे में उलझकर गड्ड-मड्ड हो जातीं। शब्दों और दृश्यों के बीच एक धुँधलका-सा घिर आता। कुछ ऐसे भी होते थे जो अपने पद तथा स्तर का ध्यान आते ही अधिकारपूर्ण विनम्रता से विदा लेकर प्रस्थान कर जाते।

किंतु इससे सांध्य-सभा में कोई व्यतिक्रम उपस्थित नहीं होता था। वह रात्रि होते : शासन-प्रशासन, स्वतंत्रता, गाँधी-नेहरू, जीवन मरण आदि से लेकर ‘दिस डैम सिटी’ और ‘रेचेड लाइफ’ तक।

विलंबित से द्रुत होती हुई यह वार्ता तराने पर आकर तान तोड़ने लगती। शब्दों, वाक्यों के बीच मौन के अंतराल आने लगते, उच्चरित शब्दों खंडित वाक्यों के साथ देह-दोलन आदि भी सम्मिलित हो जाते : ‘आई डैम केयर,’ ‘डैम इट’, ‘हेल’, ‘हू बॉदर्स’, ‘नथिंग मैटर्स’, आदि शब्दों के बाद शरीर की भल्लूक-नृत्यवत मुद्राएँ भी सहभागिता करती रहतीं।
क्षुधावर्धक सुगंधित भोज्य पदार्थ बिखेर दिए जाते अथवा उन्हें ग्रहण करने का रोचक प्रयास भी चलता रहता: यथा, उद्देश्य तो यह होता कि पैंट या कोट की जेब से रूमाल निकाला जाए, किंतु हाथ में बिरियानी से भरी चम्मच होने के कारण रूमाल तो वर्हिगत होता नहीं, बिरियानी अवश्य जेब के अंतर्गत हो जाती।

सांध्य-प्रमोद के इस स्तर तक आकर सभा प्रायः विरल होने लगती। लोग यह परिलक्षित करने में भी असमर्थ होने लगते कि कौन किस दशा या स्थिति में विदा हो रहा है सांध्य-सभा का अर्धरात्रि में समापन कर अपने वस्त्रों को मद्य तथा भोज्य पदार्थों की विविधवर्णी गंध से विभूषित कर अतिथिगण अपने वाहन-चालकों अथवा परिचारकों के कंधों को भुजाओं से आवेष्टित कर पाँवों से प्रायः हवा में कदम रखते हुए और उनके पाँवों से चलते हुए वाहनों तक पहुँचते। परिचालक सांध्य-सभाओं के इस पटाक्षेप की कुतूहल से प्रतीक्षा करते। उस रंगमंच पर इसे अभिनीत देखने की अभिलाषा में वे मद्य-वितरण की आवृत्तियों को अधिक त्वरित कर देते।

गृहस्वामी की सामान्य दिनचर्या का यह प्रिय खिलवाड़ था। वे स्वयं इन ‘नित्य विलासी’ व्यक्तियों से प्रायः तटस्थ ही रहते। ऐसे आयोजनों का आनंद वे कम उठाते, उपयोग ही अधिक करते। वे सभी उच्च अधिकारी इन आयोजनों से उपकृत तथा कृतकृत्य होकर प्रतिदान के लिए निरंतर प्रस्तुत रहते। फलतः गृहस्वामी को अपने अधिकार-क्षेत्र में आने वाली संपत्ति और संपदा के संचालन में कोई असुविधा नहीं होती थी। कभी उदारमना होकर यदि अपनी प्रजा के उपकार या उद्धार के लिए कुछ करना चाहते थे तो अधिकारी वर्ग का संपूर्ण सहयोग सहज ही प्राप्त हो जाता था। बल्कि ऐसा करके उन्हें कृतज्ञता-ज्ञापन का सुअवसर ही मिलता था।

दिन ऐसे ही हर्षोल्लास के वातावरण में व्यतीत हो रहे थे। बाहर यदि स्वतंत्रता-प्राप्ति का संघर्ष अपनी परिणति तक पहुँच रहा था तो गृहस्वामी को चिंता केवल इस बात की थी कि देश की स्वतंत्रता के पश्चात उनके इस कुटीर उद्योग का क्या होगा। ऐसी अशुभ सूचनाएँ दिन-प्रतिदिन आ रही थीं कि स्वतंत्रता के पश्चात उनके इस स्वायत्त संपत्ति-संस्थान का केंद्र-शासन में विलयन हो जाएगा।

यह कुटीर उद्योग उन्हें बिना किसी उद्यम के ही प्राप्त हो गया था। इसकी भी एक लंबी कथा है जिसे मैं अति संक्षेप में बताने का यत्न करूँगा : वे मूलतः सुदूरपूर्व के निवासी थे। उनके पिता भक्त प्रकृति के धार्मिक व्यक्ति थे। तीर्थाटन करना और लंबी अवधि तक तीर्थस्थलों पर रहना उनका प्रिय व्यसन था। इसी क्रम में उन्हें इस प्रांतर में पीठासीन एक समृद्ध संत प्राप्त हो गए थे जिन्हें उस शिक्षित तथा राजर्षि, समर्पित भक्त के प्रति अनुराग हो गया था। वृद्धावस्था में उन्हें जब ज्ञात हुआ कि वे एक असाध्य रोग से पीड़ित हैं तो उन्होंने उस भक्त से अनुरोध किया कि वे उनके पश्चात इस पीठ के स्वामी हो जाएँ। किंतु उस भक्त को किसी भी भाँति यह प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं था। अतः अनुरोध-प्रतिरोध की अनेक आवृत्तियों के पश्चात उन्होंने अपने इस किशोर पुत्र को इस गुरु-दायित्व को वहन करने के लिए प्रस्तुत किया। पीठाधीश संत को भी यह प्रस्ताव उचित ही प्रतीत हुआ और कालांतर में वे अपना ‘गुरुधाम’ इस मेधावी किशोर को सौंपकर स्वर्गवासी हो गए। दैव-दुर्विपाक से इस किशोर के पिताश्री भी शीघ्र ही उसी पथ के अनुगामी हुए।

उस किशोर ने अपनी प्रतिभा तथा अध्यवसाय से उस पीठ का ऐसा आधुनिक रूपांतरण किया।
वे साधना से अधिक शासन में रुचि लेने लगे और इस भाँति शासन-तंत्र के निकट आकर यशस्वी हुए।
गृहस्वामी को युवराज के अतिरिक्त दो पुत्रियाँ भी थीं: प्रथमा और चपला। गृहस्वामिनी अत्यंत शालीन, मृदुभाषिणी तथा प्रायः अलक्षित ही रहकर गृह-संचालन करने की कला में कुशल थीं। उस समय की परंपरा के अनुरूप ही वे विशेष शिक्षित नहीं थीं, किंतु कुलीनता के कारण इसका अभाव उनके व्यक्तित्व में कहीं परिलक्षित नहीं होता था।

राजकाज की व्यस्तताओं के बावजूद स्वाभाविक रूप से गृहस्वामी को पुत्रियों के विवाह की चिंता भी लगी ही रहती थी। प्रथमा और चपला के वय में विशेष अंतर नहीं था और दोनों ही विवाह के योग्य हो चली थीं। चपला का शारीरिक विकास अधिक द्रुत गति से हुआ था। प्रथमा के पीतवर्ण, क्षीण वपु के विपरीत उनमें आवेग, ऊष्मा तथा यौवन की अरुणाभा थी। उनमें जीवन के प्रति उल्लास का भाव भी अनुक्षण परिलक्षित होता रहता था। प्रथमा यदि पीत कनेर थीं तो चपला रक्त-करवी। पुस्तकों से चपला को परहेज था। संगीत प्रिय था, किंतु शोख, थिरकते हुए तथा उच्च स्वर में गाए जाने वाले गीत ही उन्हें प्रिय थे।

विशाल बैठक खाने के कोने में रखे उसके आकार के अनुरूप ही विशाल आबनूसी काले पियानो की ध्वनि उन्हें प्रिय न थी, जिसे प्रथमा कभी ग्रीष्म की शांत निश्चल दोपहरी में अनजाने ही धीमे से छेड़ देती थीं। स्वरों का चयन भी वे इस प्रकार करती थीं जो आघातहीन से नीरव-प्राय: छोटे-छोटे बुलबुलों की भाँति तरंगें उठाते और विलीन होते रहते थे। उन्होंने किसी श्रोता के सम्मुख पियानो कभी नहीं बजाया और उनके अतिरिक्त उस गृह में किसी ने पियानो बजाना सीखा भी नहीं था। किंतु पियानो का होना ऐसे घरों की अनिवार्यता थी।

चपला को कोई विशेष वाद्ययंत्र प्रिय नहीं था। हाँ, अंतःपुर के प्रांगण में ही निर्मित कोर्ट में वे बैडमिंटन नियमित रूप से खेलती थीं। वह खेल उनके चपल स्वभाव से मेल भी खाता था। अपनी सखियों के संग वे उसे मात्र शारीरिक संचलन द्वारा ही नहीं खेलती थीं, बल्कि मौखिक रूप से अपनी जिह्वा को भी उसी गति से संचालित रखती थीं। शब्दों तथा स्वर-फुहारों से गुंजित यह क्रीड़ा दृश्यमान न होने वाले लोगों को भी बाहर से कर्णप्रिय लगती थी।

सहसा सौध में यह सूचना बड़वाग्नि की भाँति फैल गई कि प्रथमा का विवाह शीघ्र होने वाला है। प्रायः सबने इस सूचना के स्रोत तक पहुँचने का प्रयास किया। पता चला कि उसी क्षेत्र के एक राजकुल के एक पितृविहीन राजपुत्र के साथ प्रथमा का विवाह होना निश्चित हुआ है। स्वाभाविक रूप से इस संबंध में सर्वाधिक जिज्ञासा प्रथमा को ही रही होगी। सर्वप्रथम तो वे इस सूचना से ही प्रसन्न नहीं थीं। वे अपनी वर्तमान स्थिति से इतनी आश्वस्त तथा संतुष्ट थीं कि इससे पृथक किसी अन्य परिवेश में जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती थीं। वे सूचना से खिन्न तथा अप्रसन्न हुईं।

उन्हें इस राजपुत्र के अनेक चित्र दिखाए गए। प्रत्येक चित्र में वह राजपुरुष ही दीख रहा था : गले तक बंद शेरवानी में अकड़कर बैठी हुई सुपुष्ट देह-यष्टि, अंडे के आकार वाला तथा प्रफुल्ल कपोलों वाला मुखानन, विशाल नेत्र, धनुषाकार भौंहें लघु कुंचित केश। चित्र की सबने सराहना की। केवल प्रथमा को उसमें अभाव ही अभाव दीखा। अर्थात् एक तो उस मुखानन में कोई भावाभिव्यक्ति, नहीं थी, मात्र एक दर्पयुक्त उग्रता ही थी। प्रथमा को उसमें अपनी पुस्तकों के सहज संवेदनशील ‘स्वप्न पुरुष’ कहीं नहीं दिखाई पड़े। प्रथमा ने अपनी अनिच्छा को व्यक्ति भी किया। स्वभावतः वे अपनी माँ से ही यह कह सकती थीं। इसे गृहस्वामी ने भी सुना तथा अन्य परिजनों ने भी। किंतु गृहस्वामी के अतिरिक्त सबके विचार थे कि कुलीन कन्या द्वारा ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक तथा प्रशंसा के योग्य ही है परंतु इससे कोई विशेष अर्थ नहीं निकलना चाहिए, न इसे गंभीरता से ग्रहण करना चाहिए। गृहस्वामी अपनी पुत्री को जानते थे, उसका प्रतिरोध असंगत तथा अकारण नहीं हो सकता। कुछ दिन इसी उधेड़बुन में व्यतीत हो गए। तत्पश्चात परिजनों ने अपना असंतोष व्यक्त किया : राजपुत्र उत्तम कुल-गोत्र का है, यथेष्ट भूमि तथा संपत्ति का स्वामी है, स्वस्थ युवा एवं रूपवान है। विवाह जैसे सनातन संबंधों के लिए इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं देखा जाता। प्रथमा अब पूर्ण युवती हैं। व्यर्थ समय गँवाने की आवश्यकता नहीं है। इसके अतिरिक्त भारत की स्वतंत्रता का संकट आसन्न है। उसके पश्चात न श्वासन रहेगा, न यथेष्ट धन-जन। दो-दो अविवाहिता पुत्रियों का पिता होकर जीना कठिन हो जाएगा। शुभ कार्य में विलंब नहीं होना चाहिए। राजपुरुषों तथा अन्य शास्त्र-पारंगत पुरुषों ने भी यही राय दी।...पश्चिमी परिवेश तथा शिक्षा-दीक्षा में पले-पनपे गृहस्वामी के जीवन में पहली बार उसकी निस्सारता का अनुभव हुआ। याद आए पिताश्री तथा उनके ज्ञानी गुरु जिनकी ‘थाती’ उनके सुपुर्द है। उन्होंने स्वयं को प्रताड़ित किया। व्यर्थ गया वह ज्ञान, शिक्षा-दीक्षा, उदार विकासशील विचारों का जगत। वास्तविक युद्ध तो तुम्हें इस भूमि पर इन प्रश्नों, संकटों तथा समस्याओं से करना है। वह सब मानो अवास्तविक तथा मरीचिका थी। निरंतर उन्मथित तथा उद्विग्न रहने के पश्चात अंततः गृहस्वामी ने प्रथमा का विवाह उसी सुयोग्य राजपुरुष से करने का निर्णय किया।

इसके बाद कथा में थोड़ा व्यवधान है। कुछ प्रामाणिक सूचनाओं का भी अभाव है, फिर भी चपला के साथ घटी घटनाओं के पश्चात हम पुनः कथा के इस सूत्र को पकड़ने के लिए प्रत्यावर्तित होंगे।
प्रथमा के विवाहोपरांत स्वभावतः चपला का विवाह भी होना ही था: अनेक स्थलों पर पंडित, पुरोहित, नापित आदि भेजे गए। अनेक स्थलों से चित्रों आदि का आदान-प्रदान हुआ। वैवाहिक संबंध निश्चिय रूप से ईश्वर के यहाँ ही निर्धारित होते हैं-कभी तो चट मँगनी पट ब्याह, और कभी वर्ष के उपरांत वर्ष व्यतीत होते रहते हैं लेकिन संबंध नहीं जुड़ते। गृह-नक्षत्र जुड़ भी गए तो कुछ ऐसे व्यावहारिक व्यवधान होते हैं जो अनुलंघ्य ही बने रहते हैं।

चपला के विवाह के संबंध में भी कुछ ऐसा ही हुआ। चपला रूप तथा शरीर-विकास की दृष्टि से श्रेष्ठतर थीं, किंतु उनकी चाल-ढाल में अज्ञात-यौवना बने रहने का भाव था, एक खिलंदड़ापन भी था जो उन्हें इन चर्चाओं से विरत ही रखता था।
अंततः वह ‘काल-दिवस’ आ ही पहुँचा। समाचारपत्रों तथा आकाशवाणी आदि से ज्ञात हुआ कि भारत स्वतंत्र हो गया। अनेकानेक गृहस्वामियों के लिए यह ‘देव संस्कृति’ का विनाश था। उन्हें इस सूचना में ‘...गया सभी कुछ गया...’ का हाहाकार सुनाई पड़ा। ऐसे गृहस्वामियों की संख्या लाखों-करोड़ों में थी। उन पर आश्रित परिवारों, संबंधियों आदि को मिलाकर एक तत्कालीन इतिहासकार के अनुसार, यह संख्या एक करोड़ तीस लाख थी। यानी देश की इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए उनकी स्वतंत्रता का अपहरण था। अनेक नगरों, उपनगरों, ग्रामों में अनेकानेक गृहस्वामियों के लिए यह...दंभ के महायज्ञ में सब कुछ हो गया हविष्य’...था।

गृहस्वामी भी अपना सब कुछ होम होता हुआ देख रहे थे। स्वामित्व की सीमाएँ सहसा अत्यंत सीमित हो गई थीं। राजकरों, शुल्कों आदि का आगमन समाप्त हो गया था। पीत सौध बंद और वीरान-सा हो गया। नित्यविलासी व्यक्तियों का आगमन भी समाप्त हो गया और सांध्य-समारोह का वह गुंजरित सुवासित परिवेश भी शून्य में विलीन हो गया। ‘विकल रागिनी तथा हाहाकार स्वर’ ही शेष रह गया। परिचारक-परिचारिकाओं की संख्या कृष्णपक्ष के चंद्रमा की भाँति घटती जा रही थी। हरित प्रांगण की दूब पीली पड़कर सूखे तृणों में परिवर्तित होने लगी। चहल-पहल, चुहल का हर्षोल्लासमय वातावरण नीरव होकर सौध को भयावह बनाने लगा। सौधवासी अकाल-वृद्ध होकर विभिन्न कोटरों में पंख-विहीन पक्षियों की भाँति सिकुड़े हुए इस ‘प्रलय-प्रवाह’ को देख रहे थे।


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