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कृत्तिवास रामायण

योगेश्वर त्रिपाठी, प्रबोध कुमार मजुमदार, नवारुण वर्मा

प्रकाशक : भुवन वाणी ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :750
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2793
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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बंगला भाषा की कृत्तिवास रामायण का हिन्दी रूपान्तरण...

Krativas Ramayana



प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय

राम-कथा के संदर्भ में विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनेक रामायणों की रचना हुई है, जिनके सानुवाद देवनागरी लिप्यंतरण समय-समय पर भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ से प्रकाशित होते रहे हैं। भाषाई सेतुकरण के इस क्रम में विभिन्न भाषाओं के सद्ग्रंथों के साथ-साथ ट्रस्ट द्वारा वाल्मीकि रामायण, अद्भुत रामायण, मानस-भारती (संस्कृत), रंगनाथ रामायण (तेलुगु) कम्ब रामायण (तमिळ), कौशिक रामायण, तोरवे रामायण तथा अध्यात्म रामायण-उत्तर रामायण (कन्नड़) गिरधर रामायण (गुजराती), बैदेहीश बिलास, बिलंका रामायण, विचित्र रामायण तथा जगमोहन रामायण (ओड़िया), भानुभक्त रामायण (नेपाली) चन्द्रा रामायण (मैथिली) तथा श्रीराम विजय (मराठी) आदि के मूल एवं अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं।

इसी दिशा में बंगला भाषा की कृत्तिवास रामायण का हिन्दी रूपान्तरण प्रकाशित करने की भी योजना बनाई गई। ट्रस्ट के प्रतिष्ठाता पदमश्री पं. नन्द कुमार अवस्थी ने स्वयं ही इसके अनुवाद एवं लिप्यंतरण का दायित्व संभाला। उनके अथक परिश्रम के परिणामस्वरूप बंग-भाषा के इस महाकाव्य के पाँच काण्डों (आदि काण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्य काण्ड, किष्किन्धा काण्ड और सुन्दर काण्ड) के सानुवाद लिप्यंतरण का प्रकाशन संभव हुआ, जिसे देश के कोने-कोने से अपेक्षित सराहना मिली। बाद में लंका काण्ड का भी नागरी लिप्यंतरण प्रकाशित किया गया।

उल्लेखनीय है कि गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस के रचनाकाल से लगभग सौ वर्ष पूर्व कृत्तिवास रामायण का आविर्भाव हुआ था। इसके रचयिता संत कृत्तिवास बंग-भाषा के आदिकवि माने जाते हैं। वह छंद, व्याकरण, ज्योतिष धर्म और नीतिशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। और राम-नाम में उनकी परम आस्था थी।

सुधी पाठकों के आग्रह पर हम बंग-भाषा के इस महाकाव्य कृत्तिवास रामायण के सभी सात काण्डों का हिन्दी अनुवाद (एक साथ) इस ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। लंका काण्ड का अनुवाद श्री प्रबोध कुमार मजुमदार ने किया है जबकि उत्तर काण्ड के अनुवादक हैं श्री नवारुण वर्मा।
मकर संक्रान्ति
15 जनवरी, 2000 ई.
लखनऊ

-विनय कुमार अवस्थी
मुख्य न्यासी सभापति
भुवन वाणी ट्रस्ट

अनुवादकीय


जयन्तु ते सुकृतिना रस सिद्धा: कवीश्वरा:।
नास्ति येन यश: काया जरा मरण दु:खजम्।।

इस सिद्धान्त के अनुसार विभिन्न भारतीय भाषाओं के कवियों में काव्य भेद एवं विविध प्रकार का रस, सरल भाषा में भाव स्निग्ध विवरण उनकी रचनाओं में यत्र तत्र सर्वत्र प्राप्त होते हैं। सर्वप्रथम मैं इस ओर आपका ध्यान, आकर्षित करना चाहूँगा कि रामकथा के प्रति मेरा झुकाव बाल्यकाल से ही मुझे अपनी माता जी ने तथा अपने पितामह से विरासत में प्राप्त हुआ। मेरी माता जी स्व. श्रीमती रन्नो देवी बहुधा श्रावण मास भर नित्य रामचरितमानस का सम्पूर्ण पाठ करके ही भोजन ग्रहण किया करती थी। उसकी छाप मेरे बाल हृदय पर पड़ी। फिर मेरे पितामह स्व. महाराज शिवप्रसाद जी त्रिपाठी, जो कानपुर के एक लब्धप्रतिष्ठ जागीरदार थे, उनके साहचर्य ने रामभक्ति के बीज मेरे हृदय में बिखेर दिये। वह उर्दू फ़ारसी के निष्णात पंडित थे। हिन्दी उन्हें आती नहीं थी। गाँवों में कागजात हिन्दी में न पढ़ पाने के कारण उर्दू में लिखकर उनके सामने प्रस्तुत किये जाते थे। उनके यहाँ सन्तों का आगमन बहुतायत में होता रहता था। बहुत से साधु-संन्यासी तो उनके सुप्रसिद्ध शिव बाग में चातुर्मास बिताया करते थे। उन सबकी कृपा से सत्संग के प्रभाव से उन्होंने प्रौढ़ काल में ही हिन्दी का ज्ञान प्राप्त किया। सन्तों के आशीर्वाद से उन्हें रामचरित मानस तो एक प्रकार से सिद्ध ही हो गया था। उन्हें वेद पुराणों पर भी अच्छा दखल प्राप्त हो गया। यहाँ तक कि वह अपने निवास पर प्रतिदिन दो घण्टे सायंकाल श्री वाल्मीकि रामायण के आधार पर प्रवचन किया करते थे। पच्चीस-तीस लोग कथा सुनने आ जाया करते थे। वह नित्य गंगास्नान को मुझे साथ लेकर जाते थे। मार्ग में आते-जाते नित्य वह हमें अमर कोश के, या गीता के दो श्लोक रटा दिया करते थे। फिर लोगों को सुनवाया करते थे। उस समय मेरी आयु लगभग तीन-चार वर्ष की रही होगी। लाड़-प्यार से मैं लिखना-पढ़ना तो नहीं जानता था परन्तु मुझे पूरा अमरकोश, गीता, रामायण के विभिन्न प्रसंग तथा बहुत से कवित्त-सवैया घनाक्षरी छन्द कठस्थ थे। समय पाकर बड़े होने पर वह बीज अंकुरित होकर पल्लवित और पुष्पित हुए। उत्तरोत्तर मेरी रुचि रामकथा की ओर बढ़ने लगी। सन् 55 में बी.ए. पास किया फिर मैं कार्य के सिलसिले से जमशेदपुर चला गया। वहाँ कृत्तिवास रामायण के विषय में सुनने को मिला। परन्तु ग्रंथ न मिल पाने से पढ़ न सका।

उसी समय मुझे राउरकेला स्टील प्लांट (उड़ीसा) में नौकरी मिल गई। वहाँ कई उड़िया रामायणों का अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैंने उनमें से कुछ ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद भी किया। सौभाग्यवश मैं स्वनाम धन्य पद्मश्री नन्दकुमार जी अवस्थी मुख्य न्यासी सभापति भुवन-वाणी ट्रस्ट लखनऊ के सम्पर्क में आया। उन्होंने मेरे हिन्दी में अनुवादित तीन ग्रन्थों को, विलंका रामायण, विचित्र रामायण तथा जगमोहन रामायण का मुद्रण करा कर मेरा उत्साह-वर्द्धन किया। सन् 82 में मैं नौकरी से त्यागपत्र देकर कानपुर आ गया।

पिछले दिनों भुवन-वाणी ट्रस्ट के वर्तमान मुख्य न्यासी सभापति श्रीयुक्त विनय कुमार अवस्थी ने मुझसे कृत्तिवास रामायण (बंगला) का हिन्दी में गद्यानुवाद करने का आग्रह किया। मैं उनके अनुरोध को कैसे टाल सकता था ? मैंने इसे ईश्वरीय संयोग ही समझा। गुरुदेव का आशीर्वाद लेकर मैं इस कार्य में लग गया। अल्पकाल में ही कृत्तिवास रामायण का गद्यानुवाद तैयार हो गया और मूल ग्रन्थ के पढ़ने की चिर संचित अभिलाषा भी पूर्ण हो गई। आदिकाण्ड से सुन्दर काण्ड पर्यन्त गद्यानुवाद करने में मुझे दैवी सहायता प्राप्त होती गई। एतदर्ध उन्हें कोटिशः धन्यवाद। उन्होंने मुझ जैसे क्षुद्र व्यक्ति से यह महत्कार्य करा लिया ! कृत्तिवास रामायण बंग भाषा की आदि रामायण कही जाती है। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा बंगभाषा में रामायण की रचना की गई। तत्कालीन समाज के संस्कृत विद्वानों के अत्यधिक विरोध करने पर भी अन्तत: उनकी अमर कृति ने सर्वसाधारण बंगवासियों के हृदय को प्रभावित करके अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। रामचरित मानस की भांति इस ग्रन्थ में पौराणिक गाथाओं का प्रचुर समावेश हुआ है। इस हिन्दी अनुवाद के माध्यम से हिन्दी जगत् उनकी सरस रामकथा का आस्वादन करके तृप्ति प्राप्त करे तभी मेरे श्रम को सार्थकता होगी। भुवन-वाणी ट्रस्ट की साहित्यिक वाटिका का यह अनुपम सुमन आप साहित्यानुरागी भक्तों के कर-कमलों में समर्पित करते हुए मैं अपार हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ। साथ ही साथ इस कार्य में सहयोग देने वाले महापुरुषों का मैं हृदय से आभार प्रकट करता हूँ।
कानपुर
22-9-99

विनयावनत
योगेश्वर त्रिपाठी योगी
(हिन्दी अनुवादक)

।। श्रीगणेशाय नम:।।
कृत्तिवास रामायण
(हिन्दी पद्यानुवाद, बँगला मूल-सहित)

मंगलाचरण


श्लोक- यं ब्रह्मावरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै-
     र्वेदै: सांगपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:।
     ध्यानावस्थिततद्गतेनमनसा पश्यन्ति यं योगिनो
     यस्यान्तं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।। 1 ।।
     सर्वमंगलामांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
     शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते।। 2 ।।
     शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
     सर्वस्यर्तिहरे देवि नारायणि नमोस्तुते। 3 ।।
     कृष्ण कृष्ण कृपालुस्त्वमगतीनां गति: प्रभो।
     संसारार्णवमग्नानां प्रसीद पुरुषोत्तम ।। 4 ।।

(मूल ग्रन्थ)

श्लोक- रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुन्दरम्।
     काकुत्स्थं करुणामयं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्।।
     राजेन्द्रं सत्यसन्धं दशरथतनयं श्यामलं शान्तिमूर्तित्तम्।
     वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्।।
     दक्षिणे लक्ष्मणोधन्वी वामतो जानकी शुभा।
     पुरतो मारुतिर्यस्य तं नमामि दद्यूत्तमम्।।
     रामाय रामचन्द्राय रामभद्राय वेधसे।
     रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम:।।
<

ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार का परिचय


दोहा- विघ्नविनाशन गजबदन, ऋद्धि-सिद्धि की खानि ।
     मंगलवाणी भारती, जय भगवती भवानि ।। 1 ।।
     रामचरित-अमरित-सलिल, पाप-नसावनहार ।
     वाल्मीकि मुनि आदिकवि, कीन्हेउ जग विस्तार ।। 2 ।।

     विविध भाव भाषा भरे, धर्म अर्थ अरु काम ।
     मुक्ति नीति अरु प्रीत के, अनुपम छन्द ललाम ।। 3 ।।
     सोइ पुनीत विरदावली, रघुवर काव्य अनन्त ।
     युग-युग सों गावत रहे, मुनि मनीषि अरु सन्त ।। 4 ।।

     कालिदास वाणीवरद, अमर गिरा-अवतंस।
     बुधजन काव्य-विनोद हित, रचेउ ललित रघुवंस ।। 5 ।।
     देवनागरी बाटिका, मानस-पुहुप विकास ।
     सुरभित भारत भूमि चहुँ, धनि-धनि तुलसीदास ।। 6 ।।

     सजल शयामला बंग की, उर्वर भूमि पुनीत।
     जहँ चैतन्य रवीन्द्र सम, जन्मे जन-नवनीत ।। 7 ।।
     भक्ति-काव्य के स्रोत जहँ प्रकटे चण्डीदास ।
     तहाँ सरस धारा बही, ‘रामायण कृत्तिवास’ ।। 8 ।।

     कोकिल-कूजित सुधामय, अनुपम काव्य सुवास ।
     रचेउ, धन्य ! तुम धन्य मुनि ! महासन्त कृत्तिवास ।। 9 ।।
     भारतीय भाषा प्रमुख, सकल रसन की खानि ।
     देवनागरी माहिं सोइ, रचहुँ जोरि युग पानि ।। 10 ।।

     भाव रहित भाषा-विरस, कतहुँ न काव्य-प्रवीन ।
     इत-उत के सत्संग सों, विवस प्रेरना लीन।। 11 ।।
     कान्यकुब्ज-द्विज-गगन बिच, अवर प्रभाकर भास ।
     जनमि ‘प्रभाकर’ प्रवर किए, कुल-उपमन्यु प्रकास ।। 12 ।।

     विदित ‘अवस्थी’ आस्पद, बीते बरहीं साख ।
     विक्रम चौंसठ, शत-उनिस, पाँच कृष्ण वैशाख ।। 13 ।।
     रानीकटरा-लखनऊ, संज्ञा ‘नन्दकुमार’।
     तनय-दयाशंकर जनम, मम परिचय-विस्तार ।। 14 ।।

     निर्गुण-सगुण अनन्त छबि, जड़-जंगम जगरूप ।
     बन्दि सकल, रचना करहुँ ‘कृत्तिवास-अनुरूप ।। 15 ।।
     जतन भगीरथ अल्प बल, तबौं लगी यह साध ।
     गुनी-सन्त-सज्जन सकल क्षमहिं मोर अपराध ।। 16 ।।

आदि काण्ड
हिन्दी गद्यानुवाद


(नारायण का चार अंशों में जन्म लेना)
गोलोक वैकुण्ठ पुरी सबसे श्रेष्ठ है जहाँ लक्ष्मी के सहित गदाधर निवास करते हैं। वहीं पर देखने में सुन्दर कल्पवृक्ष नाम वाला एक अद्भुत वृक्ष है। उससे जो इच्छा होती है वही प्राप्त होता है। वहाँ पर चन्द्रमा तथा सूर्य निरन्तर प्रकाशित रहते हैं। उसी के नीचे उनका दिव्य एवं विचित्र आवास है। दिव्य वस्त्रों से युक्त सिंहासन पर बनमाली (नारायण) वीरासन में विराजमान है। प्रभु के मन में एक अंश से चार अंशों में प्रकट होने की अभिलाषा हुई। नारायण अपने एक अंश से श्रीराम भरत लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न चार अंशों में प्रकट हुए। उनके बाम भाग में लक्ष्मी के रूप में सीताजी विराजमान हैं। लक्ष्मण श्रीराम पर स्वर्ण-छत्र लगाए हैं। भरत और शत्रुघ्न उन पर चामर चालन कर रहे हैं। पवननन्दन हाथ जोड़कर स्तुति कर रहे हैं इस प्रकार गदाधर नारायण वैकुण्ठ में थे, उसी समय मुनि श्रेष्ठ नारद हाथों में वीणा लिए और हरि का गुणगान करते हुए उस स्थान पर जा पहुँचे जहाँ पर प्रभु विद्यमान थे। रूप देखकर नारद विह्वल अवस्था में उन्हें धैर्यपूर्वक ताकने लगे। नयनों के नीर से उनका वस्त्र भीग रहा था। नारायण ने ऐसा रूप किसलिए धारण किया है यह चलकर पंचानन शिवजी से पूछा जाय। शंकर जी भूत, भविष्य तथा वर्तमान के विषय में भलीप्रकार जानने वाले हैं। यह बात महेश्वर के स्थान में जाकर कहेंगे। ऐसा सोचकर मुनिवर चल दिये। सर्वप्रथम वह ब्रह्मा के सामने जा पहुँचे। फिर विधाता को साथ लेकर कैलाश-शिखर गए। शिवजी की वन्दना करके उन्होंने दुर्गाजी की वन्दना की। दोनों को देखकर महेश्वर ने सन्तुष्ट होकर उनसे पूछा ब्रह्मा तथा तपोधन नारद कहिए। क्या कारण है जो मैं आज दोनों को आनन्दित देख रहा हूँ। तब ब्रह्माजी ने कहा हे देव भोलेनाथ ! सुनिए ! आज गोलोक में जगन्नाथ के अपूर्व दर्शन हुए। पहले हम केवल नारायण को देखते रहे हैं। अभी चार अंशों में किस कारण से दर्शन हुए हैं ? ब्रह्माजी की बातें सुनकर शिवजी बोले कि वह इस काल में इसी रूप में प्रकाशित होंगे। गोलोक में श्रीहरि जिस रूप में हैं उसी रूप में जन्म लेने के लिए अभी साठ हजार वर्ष शेष हैं। भू-मण्डल में राक्षस रावण होगा जिसका वध करने के लिए वह पृथ्वी तल पर अवतार ग्रहण करेंगे। चारों लोग श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न दशरथ के घर में उत्पन्न होंगे। एक अंश से नारायण शुभ मुहूर्त में तीन गर्भ से चार अंशों में जन्म लेंगे। पिता का सत्य पालन करने के लिए श्रीराम जानकी तथा लक्ष्मण को साथ लेकर वन गमन करेंगे। रावण का संहार करके राम सीता का उद्धार करेंगे। लव-कुश नाम वाले सीता के पुत्र होंगे। जो कोई मनुष्य गोहत्या जितने भी पाप करे वह एक बार राम नाम लेने से सारे पापों से छूट जाएगा। महान् पापी भी यदि राम नाम में लीन हो जाएगा तो वह भी भवसागर से पार हो जाएगा। मुक्ति लाभ प्राप्त होगा। तब ब्रह्मा ने हँसते हुए कहा, त्रिलोचन ! सुनिए। क्या कोई ऐसा पापी पृथ्वी पर है ? धूर्जटी शिवजी बोले, हमारी बात ध्यान से सुनिए। भूतल पर एक ऐसा ही महापापी है। उसके पास जाकर उसे एक बार राम नाम का दान करो। उसके प्रभाव से उसे संसार से मुक्ति प्राप्त होगी। ब्रह्मा तथा नारद दोनों ही उसके विषय में विचार करने लगे कि वह पापी पृथ्वी पर है कैसे ? च्यवन मुनि का रत्नाकर नाम का पुत्र वन के भीतर दस्यु वृत्ति करता है।

तब ब्रह्मा और नारद दोनों संन्यासी के वेश में रत्नाकर के पास जा पहुँचे। विधि के विधान से रत्नाकर के पथ पर उस दिन किसी का आवागमन ही नहीं हुआ। वह ऊँचे वृक्ष पर चढ़कर चारों ओर दृष्टिपात करने लगा। तभी  मार्ग में उसने ब्रह्मा और नारद को देखा। वन में छिपकर मुनि रत्नाकर सोचने लगा कि इन संन्यासियों को मार कर इसी क्षण इनके वस्त्र ले लूंगा। विधाता और नारद लयलीन हुए उसी मार्ग से जा रहे थे। उसने ब्रह्मा को बाधा पहुँचाने के लिए लोहे का मुगदर उठाया। विधि की माया से उसका मुगदर चला नहीं बल्कि वह उसके हाथ में ही बद्ध होकर रह गया। प्रहार न कर पाने से वह दस्यु मन ही मन विचार करने लगा तभी ब्रह्मा ने पूछा अरे भाई ! तुम कौन हो ? रत्नाकर ने कहा कि तुम हमें नहीं जानते। हम तुम्हें मारकर तुम्हारे वस्त्र ले लेंगे ब्रह्मा ने कहा कि मारकर तुम्हें कितना धन मिलेगा। तुमने जो भी पाप किए हों वह अभी हमसे बताओ। सौ शत्रुओं को मारने से जो पाप होता है वही पाप एक गोवध का होता है। सौ गायों के वध से जो पाप होता है वही पाप एक नारी के वध से लगता है। सौ नारियों के वध से लगने वाला पाप एक ब्राह्मण के वध के बराबर होता है। सौ ब्राह्माणों के वध से जो पाप लगता है वह एक ब्रह्मचारी की हत्या के पाप के समान होता है। ब्रह्मचारी के वध से पापों के ढेर लग जाते हैं और फिर संन्यासी का वध करने पर तो अगणित पाप होते हैं। उन पापों की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। संन्यासी जिस मार्ग से गमन करता है वहाँ पर चार कोश की भूमि काशीपुरी के समान हो जाती है। यदि इन पापों के करने का विचार ही तुम्हारे मन में हो तो जितने पाप हमने अभी बताए हैं वह सब करो। यह सुनकर दस्यु रत्नाकर ने हँसते हुए कहा कि तुम्हारे जैसे न जाने कितने संन्यासियों का मैंने वध किया है। तब ब्रह्मा ने कहा यदि तुम मुझे नहीं छोड़ोगे तो फिर कोई अच्छा स्थान देखकर हमारा वध कर देना। जहाँ पर चींटी, कीट, पतंग गन्ध के लोभ से आकर हमारे मृत शरीर को आनन्द के साथ खा सकें। लौह दण्ड के मारने पर हमारा शरीर पृथ्वी पर गिरेगा। जिसकी चाप में आकर चीटियाँ मर जाएँगी। ब्रह्मा ने कहा कि तुम किसके लिये पाप करते हो। तुम्हारे इन पापों का भागीदार कौन बनेगा ? रत्नाकर ने कहा कि हम जितना भी धन ले जाते हैं उसे माता-पिता, पत्नी तथा हम चारों मिलकर खाते है। जो भी होता है उसे क्रय-विक्रय करके हम चारों खाते हैं। इस समय तो सभी लोग हमारे पाप में भागीदार है। यह सुनकर तभी ब्रह्मा ने हँसते हुए कहा कि तुम्हारे पाप में वह कैसे भागीदार होंगे ? तुमने अपने शरीर से जितने पाप किये हैं उस अपनी करनी को स्वयं ही भरना पड़ेगा अर्थात् जो जैसा करेगा वह वैसा भरेगा। यही नियम है। तुम निश्चय ही पूछकर आओ। यदि वह तुम्हारे पाप में भागीदार होवें तो फिर तुम नितान्त हमारा वध कर देना। हम इसी वृक्ष के नीचे तब तक बैठे रहेंगे। हर्ष और विषाद की स्थिति में दस्यु कहने लगा कि तुम्हारे भागने की इस युक्ति को समझ गया। ब्रह्मा ने कहा मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं भागूँगा नहीं। तुम माता-पिता पत्नी तथा बच्चों से पूछ आओ। इसके पश्चात् जाता हुआ दस्यु बार-बार मुड़ कर देखता था कि कहीं संन्यासी हमें चकमा देकर भाग न जाए।

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