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बीस रूपए

दया पवार

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :99
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2795
आईएसबीएन :81-7119-815-5

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इन कहानियों में समाज के दलित,पिछड़े और बुनियादी मानव-अधिकारों से वंचित तबके के लोगों के जिए और भोगे हुए यथार्थ का चित्रण...

Bees Rupaye a hindi book by Daya Pawar - बीस रूपए - दया पवार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मराठी कहानी का अपना संस्कार आज वैशिष्ट्य है। दया पवार की मराठी से अनूदित इन कहानियों में समाज के दलित पिछड़े और बुनियादी मानव-अधिकारों से वंचित तबके के लोगों के जिए और भोगे हुए यथार्थ का चित्रण है जो पाठक के मानस को उद्वेलित करने की क्षमता रखता है।
‘फ़िदेल’ जहाँ व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले युवक के चरित्र पतन की कहानी कहता है, वहीं अकाल ग्रस्त भूखे-नंगे विवश लोगों की दयनीय और शोषित जीवन की मार्मिक कहानी है। ‘रजस्वला’, ‘विधायक साहब’, ‘कठफोड़वे’ शीर्षक कथा ‘बीस रूपए’ इस संग्रह की उल्लेखनीय एवं चर्चित कहानियाँ हैं। इन कहानियों में दलित जीवन की व्यथा, पीड़ा, घृणा, प्रेम, विद्रपताओं एवं बिडम्बनाओं की तीक्ष्ण और मार्मिक अभिव्यक्त हुई है।
निश्चय ही इस संग्रह की भाषायी प्रवाह और अन्तर्वस्तु की तीक्ष्णता पाठकों को सर्जनात्मक आन्नद की अनुभूति कराएगी और दलित जीवन की व्यथा-कथा एवं मराठी साहित्य के नए क्षितिज से परिचय भी।

‘वैसे वे शर्म धोकर पिए बैठे हैं, मास्टर ! दस वर्षों से उनको देख रहा हूँ मैं (सदा का इशारा प्रशासन अधिकारियों की ओर होता), उनको अपने दुःख की कोई अनूभूति नहीं होती है। आप तो खुद ही देखते होंगे, कारखाना के बाहर वाले मन्दिर में वे सुबह शाम माथा नवाते हैं। उनको लगता है, सब कुछ वही करता है। और कुछ न करते हुए भी पुजारी संडमुसंड होता जा रहा है।’’ सदा यहाँ तर्क अकाट्य प्रतीत होता।
‘‘केला बेचना क्यों बन्द कर रहे हो ?’’ मैं उसको बोलता सुनने के लिए पूछता हूँ’’
‘‘मास्टर ! आपको ऐसा लग रहा होगा कि मुझे केला बेचने की शर्म रही होगी। मुझे कष्ट उठाने में भी शर्म नहीं आती। मगर सुबह देख रहा हूँ, केले बेचने वाली बाई का धन्धा ठप्प हो गया है’’ पेट पर लात मारना मुझे ठीक नहीं लगता।’’
जीवन के विषय में इतने गहन विचार करते रहने वाला सदा। सम्पूर्ण व्यवस्था तन्त्र ही उसके जीवन के विरूद्ध खड़ा था, फिर भी उसे अपनी नहीं दूसरों की चिन्ता है। कैसे जीवन सभलेगा उसका ?

रजस्वला’ से इतर

हाथ की उँगलियों पर गिनी जाएँ, कुल इतनी ही कहानियाँ मैंने लिखी हैं। वैसे देखा जाए तो ‘कहानीकार’ के रूप में मराठी में मुझे कोई नहीं पहचानता। कोंडबाड़ा (काँजी हाउस) और बलुतं (अछूत) के धूम मचा देनेवाले दबदवे के कारण, मेरा कथाकार, अपने अंग समेट ही बैठा रहता था। आज तक समय-समय पर दलित कथाओं पर समीक्षकों द्वारा जो कुछ भी अच्छा बुरा लिखा गया, उसमें मेरा कहीं कोई जिक्र नहीं हुआ। हिन्दी या मराठी में ‘दलित कहानी’ के जो भी संकलन निकले, उनमें मुझे शामिल नहीं किया गया। जैसे सौतेले बेटे को दूर ही रखा जाता है, कुछ वैसा ही बर्ताव मेरी कहानियों के साथ भी हुआ है।
रजस्वला के मौन दुःखों को भोगते हुए मेरे मन में कई प्रश्न उबलते रहते। या तो अपने राम को कहानी लिखनी नहीं आती, उसे ‘जिला-दलित’ कहानी के रूप में संबोधित किया जाता रहा। या फिर, कहानी का जो बना-बनाया साँचा है, उन पटरियों पर यह कहानी ‘फिट’ नहीं बैठती होगी ! ऐसे ही कई शंका भरे प्रश्न मेरे मन में आज भी कुलबुलाते हैं।
इस संग्रह में ऐसी ही चार-पाँच कहानियाँ हैं, जिनको शामिल नहीं किया गया है।

ये कहानियाँ ‘अनुराग’ मासिक पत्रिका में छपी हैं। मेरे प्रारम्भिक कथा जीवन की कहानियाँ हैं ये ! उन कहानियों का स्वरूप रोमान्टिक है। मुझे सम्प्रेषित करनेवाली दलित जीवन-स्तर सोच की कहानी पंख है। यह कहानी ‘आम्ही’ (हम लोग) पत्रिका में छपी थी जिसका सम्पादन श्री बाबूराव बागूल ने किया था। इसी बीच, ‘साधना’ (सन् 1972) ने ‘काला स्वातन्त्र्य दिन’ अंक निकाला जिसमें दलित लेखकों को प्रधानता दी गई थी। इस विशेषांक का सम्पादन डॉ. अनिल अबचट ने किया था। उसी अंक में बिटाळ (रजस्वला) कहानी छपी थी। इस अंक में श्री राजा ढाल का झंडे पर सनसनी भरा लेख छपा था,

जिससे उस लेख की विशाल चर्चा-कुचर्चा में विटाळ का स्वर दबा ही रह गया। हालाँकि जान पहचान वाले लेखकों ने कहानी की प्रेम और आग्रह पूर्वक चर्चा की। पर विटाळ के कारण एक बात तो हुई। मुझे स्वयं अपनी ही खोज हुई। जिसे लेखक की अपनी पहचान कहते हैं वैसी ही पहचान की शुरुआत इस कहानी से हुई। इसी खोज की जिज्ञासा ने बलुतं (हिन्दी में अछूत नाम से प्रकाशित उपन्यास) को जन्म दिया। हिन्दी-अंग्रेजी में विटाळ की बावत अजीब प्रतिक्रियाएँ रहीं। टाइम्स ऑफ इंडिया के सम्पादक श्री दिलीप पाडगाँवकर ने टाइम्स का दलित साहित्य पर पूरक अंक निकाला। सन् 1973 में निकले इस अंक में बिटाल (हिन्दी में रजस्वला) का अंग्रेजी अनुवाद छपा। हिन्दी में ‘सारिका’ में भी कहानियाँ छपीं।
लेखकों के पास अनुभवों का असीम जखीरा होने के बाद, उसका गत्यावरोध टूट ही जाएगा, ऐसा निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता।
अपने स्कूल कॉलिजों में सिखाई जानेवाली भाषा का अन्तर कैसे लिखा जाए, क्या लिखा जाए, लिखने के एकदम प्रचलित साहित्यिक मानदंड, मध्यवर्गीय प्रवंचनाओं के शिकार लोग अपने कटु अनुभवों को छिपाने की ही भरसक ज्यादा कोशिश करते हैं, जैसे अनेक कारणों के असर से, जीवन के उतार-चढ़ावों के स्वानुभवों और उनकी तीव्रता के अहसास से भी नए लेखकों का रचनाकार फूटता होगा। शुरुआत में, मुझे भी ऐसा ही संयोग मिला।
दलित साहित्य के आन्दोलन के साथ-साथ हिन्दी में ‘समानान्तर’ साहित्य का आन्दोलन भी फूट पड़ा था, जिससे मुझे अनमोल मदद मिली। दस वर्ष पूर्व कमलेश्वर जी के साथ उनके समानान्तर आन्दोलनों की बैठकों में भाग लेने के निमित्त मैं भारत के दूर दराज इलाक़ों में घूम पाया। हिन्दी में तब अनजाने कई लेखकों की कहानियाँ पढ़ने का मौक़ा मिला। उनकी हिन्दी कहानियाँ पढ़कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। हिन्दी के इन परिचित कथाकारों की कहानियों एक अजीब सोच से भर जाती थीं मुझे।

मैंने सोचा, मराठी कहानियों को पढ़कर आत्मा को झिंझोड़नेवाला अहसास क्यों पैदा नहीं होता ? यह भी मुझे कुछ अजीब बात ही लगी। जो सांस्कृतिक और सामाजिक प्रश्न मुझे झिंझोड़ते और परेशान करते हैं, वे ही प्रश्न इन हिन्दी के कहानीकारों को भी मुँह चिढ़ा रहे हैं, यह सम सोच आश्चर्यचकित करनेवाला लगा। इस समानान्तर सोच से ही अपनी नाल जुड़ती है, ऐसा असहास तीव्रता से होने लगा। हालाँकि ओम गोस्वामी कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में जन्मे कहानीकार हैं,

मगर उनके लिए भी बिरादरी और दर्जे से गिरा दिया जाना एक हैरतअंगेज बात थी। उनकी कथा पढ़कर लगता, यह तो मेरी अपनी कहानी है। तमिलनाडु के इब्राहिम शरीफ, उदयपुर के आलमशाह खान के सोच, लगता कि मेरे अपने ही तपते हुए सोच हैं। अपने यहाँ सामाजिक सम्बद्धता एक बदनाम शब्द है। सामाजिक प्रतिबद्धता के मायने यही हैं। प्रचार साहित्य लिखनेवाले लोग। यह मातम मनानेवाला साहित्य बिना पढ़े ही लिखा जाता है। देश, धर्म अथवा शरीर, या फिर शाश्वत मूल्यों की दुहाई देते हुए केवल मृत्यु, मैथुन, भोजन, निद्रा, सुकोमल प्रकृति, अज्ञात शक्ति की खोज, जैसे शीर्षकों के तहत लेखन की उच्च दर्जों की सीढ़ियाँ बना ली जाती हैं। इन सब वायवीय तत्त्व ज्ञानों के बीच ‘मनुष्य’ कहीं भी दृष्टिगत नहीं होता।

उसको अनदेखा कर दिया जाता है। वर्तमान समाज में रहनेवाले मनुष्य को यह सामाजिक व्यवस्था असुरक्षा के घोर वर्तुले में फँसा देती है। वह घबराया हुआ रहता है। वैसे भी वह अभावग्रस्त समाज में जन्मा है, अतः पहले से ही घबराया हुआ होता है वह। परन्तु हमारे मराठी साहित्य में इस जिन्दगी छीन लेने और भयावह कर देनेवाले साहित्य का कहीं भी चित्रण नहीं मिलता। जितनी पेट की भूख की अहमियत होती है, उतना ही महत्त्व सांस्कृतिक भूख का भी है।
अपने आस-पास फैली हुई प्रकृति, बोली जानेवाली भाषा, उस जमीन के रहनेवाले आदमियों का रंग-रूप, आशा-निराशा में बिखरते उनके भाग्य का क्रूर खेल, जगह-जगह सामाजिक बन्धनों से पैदा होने वाली तुच्छता का बोध, एक तरह उपेक्षित और दुत्कारे लोगों की तरह जीने का अपमान-बोध, वह सब मुझे समानान्तर साहित्य के ही कारण पहली बार देखने-पढ़ने को मिला। हमारे यहाँ जो प्रगतिशील साहित्य है, वह दो तरह का लिखा दिखता है। जो देखा-पढ़ा है मराठी में, उसमें परस्पर विरोधाभास नजर आया। मराठी का प्रगतिशील साहित्य दो पक्षों में बँटा मिलता था। सर्वहारा या दलित, जो क्रान्ति का नेता है, उसकी विकृतियाँ, उसके विकृत यथार्थ का चित्रण करना मनाही है वहाँ।
उसका उदात्तीकरण किया जाता है। यानी वह क्रान्ति के पास आ रहा है। ऐसी भोंडी कल्पनाओं से अपना साहित्य भरा पड़ा मिलता है। अपने कटु अनुभवों के बजाय उनसे ऊँची अपनी कथा, अपने पात्र जो काल्पनिक हैं, वे वहाँ महान दिखाए गए हैं। यह सब थोथा प्रचार है। माना कि लेखक की दृष्टि में क्रान्ति होती है, पर उसका समाज तो उसकी नियति बना रहता है। कहानियों का पात्र लेखक के ही तत्त्वों और विचारों को लगातार उच्चरित करता रहता है। यह सब प्रचारात्मक वितंडावाद है। इनसे तो मुझे दूर ही रहना चाहिए।

अपने अनुभव से उपजी कहानी द्वारा नए अनुभवों और सोचों को बताने का मूलभूत कार्य कहानी कर सकती है। प्रेमचन्द जी की कफन, कमलेश्वर जी की मांस का दरिया, सुदीप की अन्तहीन या फिर जितेन्द्र भाटिया की सिद्धार्थ का लौट जाना जैसी कहानियों ने मेरे अनुभव विश्व का परिष्कार किया है, मेरे संस्कार बनाए हैं, यह मैं भूल जाऊँ, यह कैसे हो सकता है। हमारे मराठी में, कलावादी लेखक केवल अनुभवों की विकृतियों पर जोर देते हैं, जबकि सामाजिक प्रतिबद्धता को माननेवाले तथाकथित मराठी साहित्यकार केवल अनुभवों के उदात्तीकरण पर ही जोर देते हैं। इन दोनों का समन्वय कर दिया जाए तो ही वास्तविकता नजर आ सकती है। किसी एक वाद या सोच का एकालाप किया जाए, तो यह आत्मा को विद्रूप करने जैसी बात ही होगी।
इन्हीं सब सोचों के स्तरों पर मेरी कहानी ने जन्म लिया। मेरे अनुभवों हिन्दी पाठकों के अपने जाने पहचाने अनुभव हैं, अतः इनमें से सभी कथाएँ हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छपी हैं। ऐन आपातकाल के दौरान मैंने घुसमट (हिन्दी में बीस रुपए नाम से प्रकाशित) कहानी लिखी थी। मराठी की ‘सत्यकथा’ ने यह कहानी नकार दी।

नकारने का दुःख नहीं है, मगर ऐसे कितने ही अंकुर अपने गर्भ में ही दबा दिए जाते होंगे। बाद में यह कहानी, ‘राजस’ पत्रिका में छपी। इस कहानी का भाग्य यही है कि यह कहानी हिन्दी में ‘धर्मयुग’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छपी और वहाँ से कन्नड और तेलगू में उसका अनुवाद छपा। इस बारे में ‘सत्यकथा के सम्पादक महोदय ने एक सार्जवनिक स्पष्टीकरण दिया था। वह यह है कि, ‘एकाध लेखन बहुत सारा तूफान और हलचल मचा चुका होता है, उसे नोबल पुरस्कार भी मिल चुका होता है, मगर वह साहित्य में हमें पसन्द आएगा ही, ऐसा नहीं कहा जा सकता।"

बिटाळ को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की कल्पना श्री अनिल मेहता की है। वे मेरे घर आए। गर्मी के तपते दिनों में सीमेन्ट पतरे की तपती दीवारों वाले गर्मी के चैम्बर बन गए घर में, दो तीन घंटे बैठकर उन्होंने सभी कहानियों की कतरनें ढूँढ़ने में भी सहायता की। उनका हृदय से आभारी हूँ।


5.5.83

-दया पवार


अनुवाद का विनम्र निवेदन



होता यह है कि किसी भी भाषा के अनुवादक को अनुवाद के साथ अपनी ओर से भी बहुत कुछ देना पड़ता है। रचना के अनुवाद के साथ-साथ यह भी टूटता बिखरता और सँवरता चला जाता है। भाई श्री दया पवार जी की इन कहानियों का अनुवाद करते समय मुझे भी ऐसे ही कई अवसरों से दो-चार होना पड़ा है।
मराठी भाषा का अपना संस्कार और वैशिष्ट्य है। मगर पिछड़े गाँवों और क्षेत्रों की भाषा और तहजीब मराठी होते हुए भी भिन्न हो जाती है। मराठवाड़ा ही क्यों, यह भिन्नता और विशेषता हर प्रान्त के सुदूर पिछड़े गाँव में भी देखी जा सकती है।
दया पवार जी ने उन गाँवों और दलित, पिछड़े कुचले समाज के लोगों को अपनी कलम की नोक पर उतारा है, जिनका उद्धार कदापि न होता, अगर बाबा साहब अम्बेडकर का जन्म न हुआ होता।

वे लोग, जिनको चलने पर अपनी कमर में पिछले भाग पर रस्सी से एक झाड़ू लटकाकर चलना होता, ताकि उनके पैर जहाँ-जहाँ पड़ें, वहाँ की मिट्टी साफ होती चले, उस लटकती झाड़ू से। जितना अन्याय, जितने जुल्म, दुःख और शोषण तथाकथित पिछड़े लोगों के साथ हुआ है, उसका अंदाजा लगाना मुश्किल है।
अशिक्षा और अन्याय के गर्त में सड़ते-पिसते उन लोगों के संस्कार, संस्कृति और भाषा-बोली भी अलग-थलग हैं। शब्द-कोष में उनके शब्द-कहन के खास अर्थ मुश्किलों से मिल जाए। कई बार मैंने कई दोस्तों शशि बाम्बर्डेकर, वासुदेव प्रभू, शकुन्तला काम्बले, प्रशान्त पवार आदि के अलावा स्वयं दया पवार जी से भी अर्थ ग्रहण करने का प्रयास किया है। मुझे याद है, ‘सारिका’ में उनकी कहानी का अनुवाद छपा तो वे बोले थे, "यार! मैंने आठवले को नाम के रूप में प्रयोग किया था, अनुवादक ने उसे ‘याद किया’ के अर्थ में ले लिया। आप को कहीं ऐसा लगे, तो मुझसे पूछ लेना !"

और मैंने बिना झिझक उनको खूब सताया। 18 सितम्बर, 1996 की शाम को उनको फोन किया कि मिलना जरूरी है, विटाळ को रजस्वला नाम देना ही ठीक रहेगा, तो उनकी सहमति मिल गई। उससे पहले उनको पत्र भी लिखा था। वे औरंगाबाद से आए थे। तबीयत नासाज थी। बोले, दिल्ली जाना है, पाँच की फ्लाइट है, रविवार 22 सितम्बर को तुम्हारे बान्दरा वाले घर में आऊँगा, तब बैठेंगे। मैं प्रतीक्षा ही करता रहा।
20 सितम्बर को दिल्ली में ही हृदयगति रुक जाने से वे असमय काल कवलित हो गए थे। अभी तो उनको बहुत काम करना था। एक होता है साहित्य जीना। साहित्य सहना। दया जी ने बहुत-बहुत सहा था। साहित्य भोगा था। अनुपात में वे कम लिख पाए थे। लिखने के अनुपात में उनको सम्मान काफी मिला था। दुत्कार और संत्रास भी उतने ही मिले थे। पर अभी तो मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव भी लड़ना था। सब रह गया।
कहते हैं, सब्र का फल मीठा होता है। अपने राम ने हमेशा उलटा ही पाया है। हम सब्र करते रहे, बाक़ी अब्र बरसाते रहे। यह पांडुलिपि ही खो गई। कुछ कहानियाँ दुबारा अनूदित कीं।
कहानी के चरित्र विधान और उसकी आत्मा को संगति देने के लिए मैंने स्वयं दया पवार जी की सहमति से हर कहानी का शीर्षक बदला है। भरसक कोशिश की है कि मराठवाड़ा और महारवाड़ा की देसी कहावत के बदले कहावत ही दी जाए !
ये कहानियाँ हिन्दी में इतनी जल्दी न आतीं, अगर राधाकृष्ण प्रकाशन के निदेशक भाई अशोक माहेश्वरी जी का बराबर इसरार न होता ! मैं तो उनको धन्यवाद देना चाहता हूँ, बड़बोलेपन के लिए क्षमा और दया पवार जी की आत्मा को शान्ति मिले इसी प्रार्थना के साथ-

28 सितम्बर 1997

रतीलाल शाहीन,


फ़िदेल



फ़िदेल कास्त्रों बनावटवाली टोपी को उसने सिर पर कसकर लगाया और आईने में निहारने लगा। अपनी सूरत का जायजा लेते हुए उसे अच्छा लगा। पहले इसी टोपी को लगाकर वह बिल्कुल कास्त्रो जैसा दिखता था। सभी उसे ‘गुडसे’ नाम से पुकारते थे। उस समय वह इकहरे बदन का था। बेंत जैसी लचक वाली चाल थी उसकी चीते की सी तेज़ी थी उसमें। पूरी मुम्बई में उसका बोलाबाला था। सभी जगहों से उसे आमन्त्रण आया करते। कोई भी दिन ऐसा न होता, जबकि उसका नाम अखबारों में न छपता। चौराहे-चौराहे पर उसी की चर्चा चल रही होती।
वह जमाना याद आने लगा उसे। साले जितने ‘गुडसे’ थे, सब तितर-बितर हो गए। नहीं तो एक नया इतिहास बनता...दरअसल ‘गुडसे’ की परिकल्पना भी उसी की थी। इसके लिए उसने न जाने कितने ग्रन्थ पढ़े, सामाजिक अत्याचारों का घड़ा न भरा होता। अधनंगी औरतों के जुलूस न निकले होते तो वह नेता भी न बना होता।
उसकी आवाज़ के साथ ही मुहल्ले के सारे लड़के मधुमक्खियों की तरह उठ खड़े हुए थे, आखिर गुड़से ने अपने से ही विद्रोह कर दिया। वह उजबक तो झंडे के कारण ही प्रसिद्ध हुआ। सब उस पर अपना अधिकार जमाए हुए थे। ‘गुडसे’ शब्द तो उसकी ही खोपड़ी की उपज है। एक बार सखाराम (पुलिस) पीछा करने लगा था। एक ऊँची दीवार से अपन कूद गए। ‘चोर ! चोर’! कहते हुए कुछेक लोग पीछे पड़ गए। झोंपड़पट्टी में पहुँचते ही ‘गुडसे’ वाला पेटेंट लफ्ज उनकी ओर फेंक मारा। कोड वर्ड सुनते ही सब भौंचक रह गए। तुरत-फुरत उन लोगों ने अपन को एक सुरक्षित जगह में छिपा लिया।

उसने एक बार फिर आईने में स्वयं को घूरकर देखा। अब उसके अपने उभरे हुए गाल भले नहीं लगते। कहाँ तो खुद ही नेताओं के फूले हुए गाल की सार्वजनिक सभाओं में मुद्रा उतारते थे। और अब कहाँ अपना ही गाल फूलने चला है। वह घंटों रास्तों को पैदल नापना बन्द हो चला है न ! हरदम टैक्सी। अब तो थोड़ा पैदल चलने पर ही अपनी जाँघें एक-दूसरे से सट जाती हैं। बीयर और चिकन कम कर देना चाहिए। डॉक्टर कहते हैं, चरबी बढ़ गई है। गठिया रोग हो जाएगा। साली गठिया की अजीब बीमारी है, हमेशा महापुरुषओं को ही होती है। शिवाजी अम्बेडकर वगैरह-वगैरह। थोड़ा कमाठीपुरा (चकले में) जाना चाहिए।
सहसा उसकी विचार-श्रृंखला टूट जाती है। उसने मुड़कर देखा। अन्दर के कमरे से उसका बूढ़ा बाप उसी तरफ आ रहा है। धोती-कुरता और पिछली दिवाली वाली काली टोपी पहने। बाप के कपड़े देख उसे अपने कपड़ों पर खयाल जाता है। दोनों के कपड़ों में कहीं कोई ताल-मेल नहीं बैठता दिखता। उसके मन में विचार कौंधता है, "साले बाप को भी मॉर्डन बनाना होगा।"
घर के भीतर यहाँ-वहाँ बिखरी किताबें देख बूढ़े को अपने बेटे पर गर्व महसूस होने लगता है, ‘बेटा रात भर सोया नहीं है। (बैल) गाड़ी-भर किताबें पढ़ता है। न जाने इनमें क्या कुछ लिखा होगा।’ बूढ़े के लिए यह एक अनबूझ पहेली बन जाती है। मगर इतनी बात सच है कि अपना बेटा बड़े-बड़ों के संग उठता बैठता है। मुट्ठियों को जोर से पटककर उनसे बहस मुबाहिसा करता है। घर-भर में छितराई किताबों को समेटते हुए उसे सिगरेट के टुकड़े भी दिखते हैं।
"बेटा ! सिगरेट पीना अच्छा नहीं है। क्षय रोग हो जाता है।"
"बाप ! तू नहीं समझेगा। सारी रात पढ़ना पड़ता है।" कुछ कहना चाहिए, इसीलिए वह जुमला उछाल देता है। वरना इस भोले बाप से क्या कहे ! पीने के लिए कुछ भी तो बाकी नहीं रखा है उसने। जब भी गुडसे हार गए थे तो उनसे भी कहा था, "बेटा ! क्रांति चाहते हो न। तो अफीम, चरस गाँजा भी पीकर दिखाओ।" कूल्हे हिलाते वे सभी भाग खड़े हुए।
वह बूढ़े का हाल-चाल पूछने लगा। बूढ़ा सिगरेट के टुकड़े ही बिनने में लगा हुआ था। उसे बूढ़े पर तरस आती है। सारी उमर तो दानाबन्दर गोदी में बोझ ढोने में बीत गई। कमर भी झुक गई है। बूढ़ा कभी भी चल बसेगा, उसे यह अहसास कुरेदने लगता है।
"बाप। तुझे इस शहर ने निहायतमामूली दर्जा दिया है। तेरी तरफ हमेशा उपेक्षा से ही देखा है उसने। तू इस व्यवस्था की बलि चढ़ गया है। जिस तरह तुझे नकारा गया है, मैं उस तरह बर्दाश्त नहीं करूँगा। कीड़े-मकोड़ों की मौत मैं नहीं मरने वाला। हरामखोरों की छाती पर चढ़कर मूँग दलूँगा...।"
बाप की आवाज़ से उसकी तन्द्राभंग हो उठी, "बेटा ! कुछ तो काम धन्धा देख, ऐसे कब तक चलता रहेगा।"
"बाप ! तू पगला है रे ! तू कहा करता था न ! कि बेटा होवे ऐसा जाँमर्दा। तीनों लोकों में गाड़े झंडा। देख फहराया न अपना झंडा।"
"बाढ़ के पानी की तरह है रे तू। कभी न कभी तो कम होगा। धूप में सफेद नहीं हुए हैं मेरे बाल। इसीलिए कहता हूँ, कहीं धन्धा पानी ढूँढ़ ले।" बूढ़ा अब आजिजी पर उतर आया था।
"नौकरी करके क्या मिला आखिर। न फंड, न सर्विस। मुँह से खून थूकने की बीमारी होने तक मर-मरकर तूने काम किया, बाप ! देखते रहना। जो सत्तरह पीढ़ियों में नहीं हुआ, वह घटने जा रहा है। क्रान्ति करने जा रहा हूँ मैं।"
बूढ़ा अब सचमुच चिढ़ गया। चीखते हुए वह बोलता रहा, "ठेंगे की क्रान्ति होगी। डींगमार ! खर्चने को एक धेला नहीं, चला है क्रान्ति करने।"
"बाप ! क्या पैसा-पैसा करता है। पैसा रंडी भी कमाती है। तत्त्वज्ञान की बातें कर। भौतिक द्वंद्ववाद का पता है तुझे। बुद्ध के अनात्मवाद और इसमें क्या फर्क है, पता है तुझे। टॉर्च ऑफ लिबर्टी लानेवाला कौन था। गिलोतिन (फ्रांस की क्रान्ति) की जानकारी है क्या तुझे ? गुलामों का व्यापार समझता है ? अम्बेडकर का सुधारवाद जानता है।.."

और उसने इसी तरह रात-भर पढ़ा हुआ समस्त ज्ञान बूढ़े के सामने झाड़ दिया। बूढ़ा पराजित-सा फटी-फटी आँखों से बेटे की ओर देखने लगा। उसे अब अपना सपूत किसी फरिश्ते की तरह दिखाई देने लगा....एक तरफ ऐसे सुपुत्र का गौरव और दूसरी तरफ उसके भविष्य की चिन्ता, बूढ़ा इन दोनों कैंचियों के बीच फँस-सा गया।

बूढ़ा इन्हीं विचारों में उलझा था कि दरवाज़े की कॉलबेल बज उठी। घंटी की आवाज़ से सिहर उठा वह। दरअसल इस प्रकार की कॉलबेल सुनने की उसकी आदत नहीं थी, सारी उम्र तो झोंपड़पट्टी में बीती थी। शुरू-शुरू में इस फ्लैट की इतनी खुली जगह को लेकर ही वह परेशान था कि इसका क्या किया जाए ! यह प्रश्न उसे सतत सताता रहा था।
"बाप ! देख तो कौन आया है ?"

बूढ़ा एक हाथ से फर्श का सहारा लेते हुए उठ खड़ा हुआ। दूसरे हाथ में सिगरेट के टुकड़े भरे थे। वह सोच रहा था, "कौन आया होगा ?" पहले जब इस प्रकार की घण्टी बजती थी तो सखाराम (पुलिस) का अंदेशा रहता था। अब सब ठीक हो गया है। वह बिनधास्त खुले हुए दरवाज़े की ओर देखता है...उसका बॉडीगार्ड भिम्या आया है।
पहले तो वह बॉडीगार्डों की एक पूरी टोली रखती था। तब चन्दे की भी अच्छी बरसात होती थी। ऐसे आठ दस बॉडीगार्ड पालना उसके बाएँ हाथ का खेल था।
"क्यों रे भिम्या ! पोस्टर्स छपकर आ गए हैं !"
"हाँ, वस्ताद ! कल मिल जाएँगे। मगर कम पड़ेंगे।"

"साले क्या अख्खी मुम्बई का ठेका ले रखा है। सचिवालय और फोर्ट में लगवा दिए तो काफी हैं।"
"पर आर्डर तो पाँच हजार का...।"
"वो तो कागज पर है। हाँ, बिल मगर पाँच हजार का ही लेना।"
"वस्ताद ! आप का दिमाग वाक़ई तेज है। आज कहाँ का दौरा है वस्ताद ?’
"आज कड़की (कंगाली) है, अच्छी याद आई। गोडबोले के पास गया था क्या ?"




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