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कहा सुनी

दूधनाथ सिंह

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2796
आईएसबीएन :8183610269

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इसमें चार साक्षात्कार और चार आलोचनात्मक निबन्ध संकलित है....

kaha-suni

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस किताब में दूधनाथ सिंह के चार साक्षात्कार और आलोचनात्मक निबन्ध संकलित हैं।
साक्षात्कार एक तरह का विशिष्ट शास्त्रार्थ होता है। प्रश्नों के आलोक में यह शास्त्रार्थ लेखक तरह-तरह से करता है। कभी आत्म-मंथन, आत्म-प्रकाश, कभी अपने  समय, समाज, इतिहास, साहित्य, कला आदि पर टिप्पणियाँ और प्रतिक्रियाएँ, कभी मतभेद-सहमति और सौमनस्य, कभी अपनी क्षुब्धता, उदासी या ख़ुशी का इज़हार कभी अपनी ही आस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह कभी कलह, वैमनस्य और फिर प्रेम; कभी गहन विश्लेषण और आत्म-स्वीकृति एक अच्छे साक्षात्कार में एक कलाकार के विविधवर्णी छटाओं वाले रूप के दर्शन पाठक को होते हैं। इस तरह ‘साक्षात्कार’ तर्क-वितर्क की असमंजसपूर्ण, वक्र भाषा का लिपटा हुआ कलाकार के औचक पकड़े गए चिन्तन का निचोड़ है, एक नए किस्म का भाष्य है, आलोचना का एक खिलंदरा राग है।

‘कहा-सुनी’ के चारों आलोचनात्मक निबन्ध लेखक के उपर्युक्त साक्षात्कारों के शास्त्रार्थों का ही फैलाव और वितान हैं। बातों और विचारों का अन्तिम तर्क-सिद्धि, परिणति और समापन हैं। फिर भी आलोचना की विधागत माँग के कारण उनमें तटस्थ और निर्वैयक्तिक विश्लेषण, तर्क-वितर्क के घात-प्रतिघात, नियमन-अनुशासन यहाँ अधिक हैं।
आशा है, यह किताब एक नए बौद्धिक आस्वाद के साथ पढ़ी-गुनी जाएगी।

‘एक लेखक के रूप में बुरे लोगों  का चित्रण उसकी ज़्यादा बड़ी ज़िम्मेदारी है। अच्छे लोग प्रेरणा नहीं देते, न गुस्सा पैदा करते है, न समाज का कुछ बिगाड़ते हैं, न जीवन में कुछ गतिरोध या हलचल पैदा करते हैं। ये सारे काम बुरे लोग करते हैं। इसलिए मेरा ध्यान बतौर लेखक उन पर ज़्यादा जाता है। लेकिन मैंने अच्छे लोगों का भी चित्रण किया है। क्योंकि वे हमें प्यार करना और आत्मीयता सिखाते हैं। वे हमें उदास करते हुए बड़ा बनाते हैं। क्योंकि वे हमेशा ट्रेजिक पात्र होते हैं।  ईसामसीह को देखो और जूदा को देखा। एक आत्म-बलि का शिकार होता है तो दूसरा आत्मघात का मुझे जूदा ज्यादा आकर्षित करता है, क्योंकि धोखा और जटिल ग्रंथि उसका पीछा नहीं छोड़ती और अन्ततः वह आत्मघात करता है। कौन हमें किस तरह सुरक्षित रखता है और मानवीय बनाता है-यह एक लेखक बुरे को चित्रित करके जितना उपलब्ध करता है, उतना अच्छे को चित्रित करके नहीं।....अच्छे चरित्र एक क्लासिक श्रृंगार की तरह। बुरे चरित्र बनती-बिगड़ती पतित दुनिया के भँवर में फँसे हुए एक जटिल ग्रन्थि की तरह।’

 

-इसी पुस्तक से

 

लिखत-पढ़त

 

इस किताब का नामकरण सुधीर ने किया है। उसी हिसाब से सामग्री का चयन किया गया। बहुत सारे साक्षात्कार छोड़ दिए गए, क्योंकि उनमें नई बातें नहीं थीं। एक ही तरह के सवाल थे और कुछ निकलता नहीं था। दुहराव और वैचारिक अन्तर्विरोध इन साक्षात्कारों में भी है, लेकिन कुछ नई बातें भी आ गई हैं। मेरे लेखन के मौन-मुखर दिनों की मानसिक वैचारिक प्रक्रिया, इस तरह यहाँ संकलित है।

इस किताब का पहला साक्षात्कार लेखक को ‘चश्मा’ नहीं पहनना चाहिए’ सन् 1973 में लिया गया था। श्री रमेश शौनक अब कहीं विदेश में (सम्भवतः) बस गए हैं पहले भी विदेश में ही रहते थे। वे फ़ोर-ट्रैक टेप रिकार्ड ले कर आए थे। सालों की एक लम्बी सूची थी। बड़ा ताम-झाम था। लेकिन साक्षात्कार शुरू होने से ऐन पहले मेरे कुछ मित्र दिल्ली से आ गए—सर्वश्री आनन्द प्रकाश, सव्यसाची, रमेश उपाध्याय, सुधीश पचौरी, कर्णसिंह चौहान, सनत कुमार और श्री हर्ष। नामों में कुछ भूल-चूक हो सकती है। सन् 1972 के ‘बाँदा सम्मेलन’ के बाद का माहौल था। मेरे ये मित्र सिर्फ़ मिलने-जुलने और हालचाल लेने आए थे। बातें होती रहीं। मैंने अपनी नई-नई लिखी दो कविताएँ—‘उत्तराधिकार’ और ‘कृष्णकान्त की खोज में दिल्ली-यात्रा’ सुनाईं। दूसरी कविता सव्यसाची ले गए और ‘उत्तरार्ध’ में छपने पर वह बहुत पसन्द की गई।
इन बातों का ज़िक्र इसलिए कि यह साक्षात्कार उसी काव्य-पाठ की चर्चा से शुरू होता है। लेकिन यह शुरुआत फिर दूसरे दिन हुई।

दूसरे दिन सवालों की सूची काफ़ी बदली हुई थी। लगा, श्री रौनक मेरे वामपंथी मित्रों की बातचीत से कुछ भड़क-से गए। इस साक्षात्कार में मार्क्सवाद, प्रगतिशीलता, भारत और वामपंथ और सेंसरशिप को लेकर जो ‘घेराघेरी’ है, उसकी वजह यही है।
पिछले 30-32 वर्षों से यह साक्षात्कार मेरी घनघोर उदासीनता के कारण मेरी फ़ाइलों में पड़ा रहा। कुछ तो बहुत लम्बा होने के कारण। कभी-कभी उत्साह और जीवन जागता है तो छपने-छपाने का मन करता है। ‘कहा-सुनी’ की पांडुलिपि प्रकाशक को देते वक्त इसका ख़याल आया।
बस इतना ही। बाकी साक्षात्कार, सब, छपे हुए हैं
आलोचनात्मक निबन्ध भी।

 

-दूधनाथ सिंह

 

लेखक को ‘चश्मा’ नहीं पहनना चाहिए

 

 

रमेश शौनक : दूधनाथ जी, आपने जो कविताएँ अभी-अभी सुनाईं, उनमें पहली कविता ‘उत्तराधिकार’ में सम्बोधित ‘तुम’ और दूसरी कविता ‘कृष्णकान्त की खोज में दिल्ली-यात्रा’ के ‘कृष्णकान्त’ में क्या अन्तर है ? क्या दोनों दो अलग-अलग युगों का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति हैं ?

दूधनाथ सिंह : बाहरी तौर पर आपकी बात ठीक है। पहली कविता में अपने से पहले की पीढ़ी के एक व्यक्ति को—एक रचनाकार को—ऐतिहासिक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण रचनाकार कवि को सम्बोधित करते हुए, अपनी स्थिति को, अपनी वास्तविकताओं को, अपनी समस्याओं और अपनी रचनात्मकता को पहचानने और परिभाषित करने की कोशिश है। यह ठीक है कि यह ‘तुम’ सम्बोधन एक व्यक्ति के लिए होते हुए भी उसे एक अमूर्तन तक उठा ले जाता है जहाँ वह व्यक्ति—व्यक्ति न रहकर बंजर रचनात्मकता का एक प्रतीक बन जाता है। दूसरी कविता में अपने ही समकालीन का रचनात्मकता से कटकर, व्यवस्था में शामिल हो जाने और रचनात्मक दृष्टि से दिवालिया होते जाने की विडम्बना का चित्रण है। यह भी कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि व्यक्ति के भीतर से उभरने वाला एक अमूर्तन है जो एक प्रतीक बन जाता है—एक ऐसा प्रतीक जिसका मुख्य कन्सर्न रचना नहीं रह जाती। सत्ता और सुविधा का भयावह स्पंज कैसे भारतीय लेखक को सोख लेता है—शायद मैं दूसरी कविता से यह व्यक्त करना चाहता होऊँगा। इस संक्रामकता के शिकार अधिकांश भारतीय लेखक हैं—इसलिए इस दुखद विषय ने मुझे आकर्षित किया। व्यक्ति कोई भी हो सकता है, वह मेरे लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है। लेकिन, जैसा कि मैंने शुरू में कहा, बाहरी तौर पर ही इन दोनों व्यक्तियों में यह अन्तर है। भीतर से शायद दोनों उसी मीडियाक्रिटी, हिपोक्रेसी, अवसरवाद, सुविधापरस्ती के दो लिबास है। एक कल तक फ़ैशन में था—एक आज फ़ैशन में है।

रमेश शौनक : पिछली पीढ़ी और समकालीन पीढ़ी की विभाजन-रेखा आप कैसे खींचते हैं ?
दूधनाथ सिंह : यह उम्र से तो नहीं खींची जा सकती। पीढ़ियों का विभाजन संवेदना के आधार पर होना चाहिए। मतलब कि नया-से-नया लेखक भी अगर अपनी मानसिकता और रचना की दृष्टि से पुरानी बनी-बनाई मान्यताओं से परिभाषित होता है, अगर वह कुछ नया नहीं जोड़ता, अगर वह प्रयोगधर्मी नहीं है तो नया नहीं माना जाएगा। ऐसा अक्सर होता है। ऐसे अनेक लेखक हैं जिन्हें प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, बच्चन और पन्त के युग में रखा जा सकता है। जो कि उनकी उम्र में बराबर या मुझसे भी कम हैं। लेकिन वे मेरी पीढ़ी के लेखक नहीं हैं। इसके ठीक उलटे उदाहरण भी हैं। भुवनेश्वर का ‘कारवाँ’ सन् 1935 में प्रकाशित हुआ था, लेकिन संवेदना के लिहाज से वे सन् 60 के बाद के लेखक हैं। मेरा ख़याल है मैं साफ़ हूँ।
लेकिन एक बात और। उम्र भी पीढ़ी की विभाजन-रेखा में कहीं-न-कहीं एक भूमिका ज़रूर अदा करती है। क्योंकि हर लेखक अपने समय, अनुभव, आत्मचिन्तन, व्यवहार से अपनी एक रूढ़ि, मतलब कि अपना एक निजत्व गढ़ता है। इस रूढ़ि या इस निजत्व से ही वह साहित्य के इतिहास में पहचाना जाता है।

एक ख़ास उम्र के बाद अपने इस स्वयं निर्मित निजत्व को तोड़ना लेखक के लिए अक्सर सम्भव नहीं होता। क्योंकि इससे उसकी बनी-बनाई पहचान ख़तरे में पड़ जाती है। और पहचानहीन, अवसरवादी या निजत्वहीन होने का ख़तरा किस लेखक को नहीं डराता ! क्योंकि नया निजत्व गढ़ना इतना आसान नहीं। इसलिए अधिकाँश लेखक तो कोशिश ही नहीं करते। बुढ़ापा वैसे भी ख़तरा मोल लेना नहीं चाहता। वे अपनी पुरानी लेखकीय पहचान को, एक तरह की सेवानिवृत्ति की मनःस्थिति में छड़ी लेकर सुबह की सैर की तरह इस्तेमाल करते हैं। और जो अपने निजत्व को तोड़कर फिर से एक नई पहचान रचने की कोशिश करते हैं उनमें भी अधिकांशत असफल होते हैं। क्योंकि उनकी स्वनिर्मित वैचारिक, कलात्मक रूढ़ियाँ नए विचार, नए अनुभव और नई कलात्मकता के समझने-पचाने में बाधक होती हैं। गीतकार बच्चन की ‘दो चट्टानें’, दिनकर की ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ या पन्त के इधर के अधिकांश संग्रह, जैनेन्द्र के अधिकांश इधर की कहानियाँ मेरी बात की गवाह हैं। इसलिए मैंने कहा कि उम्र भी पीढ़ी के विभाजन में एक भूमिका तो अदा करती ही है। यह दूसरी बात है कि भयानक प्रतिभाशाली व्यक्ति अपनी पहली पहचान को तोड़कर फिर पहचान रच ले।

रमेश शौनक : समकालीन साहित्यकारों में से किन्हीं ऐसे साहित्यकारों का उदाहरण दे सकेंगे जो अपनी ही बनाई हुई रूढ़ि को तोड़ पाए हैं ?
दूधनाथ सिंह : मेरी नज़र में यह काम निराला करते थे। ख़ैर, वह तो अब जीवित हैं नहीं।
रमेश शौनक : कुछ दिन पहले बातचीत के सिलसिले में आपने कहा था कि पिछले दस साल से आपने अपने जिन विचारों को पाला-पोसा और सहेजा है—उन्हें बदलने की नौबत नहीं आई। क्या इस बीच कोई ऐसी ऐतिहासिक घटना नहीं घटी, कोई ऐसा अनुभव नहीं हुआ कि आपको नए सन्दर्भों से जोड़ने के लिए अपनी रचनात्मक रूढ़ियों को बदलने की ज़रूरत महशूस हुई हो !

दूधनाथ सिंह : इस बीच से आपका क्या मतलब है ? रचना का अनुभव दिनचर्या से छनकर ज़रूर आता है लेकिन वह दिनचर्या की तरह प्रतिदिन बदल तो नहीं सकता। और इस बीच क्या, या दस साल पहले क्या, घटना तो 25 वर्ष पहले घटी थी। लेकिन वह एक सुखान्त नहीं थी जैसा कि समझा गया। काफ़ी दिनों तक उस ऐतिहासिक घटना (आज़ादी) के सुखान्त होने का भ्रम लोग पालते रहे। लेकिन वे वही लोग थे जिन्होंने इस घटना के सुखान्त होने की कल्पना की थी, आशा की थी। हम उनमें नहीं थे। उन लोगों द्वारा स्वतन्त्रता  के सुखान्त होने का भ्रम पालते रहना उचित भी था। क्योंकि उन्होंने उसके लाने में सक्रिय सहयोग किया था, उसे रचा था, उसे एक पवित्र आदर्श के रूप में अपने मन-मस्तिष्क में सँजो रखा था। हम उनमें इसलिए नहीं थे क्योंकि हमने—यानी कि हमारी पीढ़ी ने आज़ादी की लड़ाई देखी नहीं थी। इसे इतिहास में पढ़ा-सुना, उसे उत्तराधिकार में पाया, उसके योद्धा-अवशेषों के दर्शन मात्र किए। इन अवशेषों में जवाहरलाल नेहरू प्रमुख थे। वे राजनीतिज्ञ से अधिक, एक स्वप्नदर्शी, भावुक, दार्शनिक किस्म के गुस्सैल, आत्माभिमानी व्यक्ति थे। आप उनका चेहरा निकट से देखकर उनके इस व्यक्तित्व को अन्दर तक आसानी से पढ़ सकते थे।

बहरहाल, जो आज़ादी लाने वालो ने आज़ादी को जिस पवित्र धारणा और आदर्श के रूप में सँजो रखा था, दरअसल आज़ादी के बाद भारतीय समाज, राजनीति और व्यक्ति का विकास उस रूप में नहीं हुआ। लेकिन उस धारणा का खंडन इतनी जल्दी तो हमारे सामने (और हमारी पहली पीढ़ी के सामने भी) प्रकट नहीं हुआ। सदियों की गुलामी से मुक्ति की बाहरी चकमक में उसके अन्तर्विरोध काफ़ी दिनों तक छिपे रहे। जब तक जवाहरलाल थे, वह चकमक बाकी रही। हालाँकि अपने अन्तिम दिनों में भारतीय राजनीति, समाज और व्यक्ति का दुखद विघटन-शायद-उन्हें भी नज़र आने लगा था।

तो आपने जो कहा कि दस साल में कोई ऐसी घटना नहीं घटी, उसी सन्दर्भ में मैं यह कहता हूँ कि घटना तो पच्चीस साल पहले घटी थी, लेकिन उसके अन्तर्विरोध-वैचारिक और व्यवहारिक—देर में सामने आए। वे अन्तर्विरोध भी उसके सामने साफ़-साफ़ नज़र नहीं आए जिन्होंने, फिर से कहूँगा, आज़ादी को एक पवित्र आदर्श के रूप में सँजो रखा था। क्योंकि यह उनकी वैचारिक रूढ़ि थी, उनका वर्षों से संचित पवित्र निजत्व था जिसे तोड़कर वे वास्तविकता का सात्क्षात्कार करने में असमर्थ थे।

लेकिन सन् 60 तक आते-आते, जब मैंने और मेरे समकालीनों ने लिखना शुरू किया तो वास्तविकताएँ हमारी समझ में आने लगीं थीं। कुहासा हमारे सामने से छटने लगा था। इसलिए मैं कहता हूँ कि हमने अपने लेखन से एक नए परिवर्तन की सूचना दी। क्योंकि हम पिछले वैचारिक कुहासे से ग्रस्त नहीं थे, इसलिए स्थितियों और वास्तविकताओं की सीधी, सहज पकड़ हमारे लिए आसान थी। हमारे सामने आज़ादी का दुखान्त ही ज़्यादा प्रमुख था—और आज भी है। इसी को मैं आज के लेखक का मोहभंग कहता हूँ जिसकी तरह उसने, और उसी ने क्यों, सारे भारतीय जनमत ने आज़ादी के अर्थ को, अपने इतिहास, प्रज़ातन्त्र, अपनी संसद को, गाँधीवाद को, नेहरू की पवित्र स्वप्नदर्शिता को—नए सिरे से पुनः परिभाषित करने का जोखिम उठाया। यही जोखिम आज के भारतीय साहित्य और भारतीय जीवन का मूल स्वर है।
रमेश शौनक : स्वतन्त्रता के आदर्श के बारे में मोहभंग होने के लिए 17 वर्षों की आवश्यकता क्यों पड़ी ? और आज़ादी मिलने के साथ-साथ देश का जो बँटवारा हुआ और लाखों लोग बेघर हुए और भीषण रक्तपात हुआ तभी आज़ादी के बारे में हमारा मोहभंग क्यों नहीं हुआ ?

दूधनाथ सिंह : इसकी भी वजह वही है जिसका ज़िक्र मैं अभी कर चुका हूँ। आज़ादी के झलमलाते विचार की चकमक। जिसमें इतनी बड़ी त्रासदी को नज़रअन्दाज़ कर दिया गया। इसके बारे में आपने लोहिया की किताब ‘भारत विभाजन के अपराधी’ पढ़ी होगी। वह कुछ व्यक्तियों, पूँजीपतियों के न्यस्त स्वार्थों तथा साम्राज्यवादी शक्तियों की मिली-जुली साजिश का फल था कि बँटवारा हुआ। लोहिया के अनुसार तो इसका कारण आज़ादी की लड़ाई में योद्धाओं की थकान, डर और इतिहास में रहने की महत्त्वाकांक्षा थी। विभाजन के सम्बन्ध में यह एक तरह की मनोवैज्ञानिक व्याख्या है—लेकिन है बड़ी दिलचस्प। लेकिन मेरे विचार से जब तक भारतीय जनता पच्चीस साल पूर्व सफलता की सीमा तक पहुँचाई गई, साम्राज्यवादियों की इस साजिश को नेस्तनाबूत नहीं कर देती, उसका तनाव-मुक्त होना लगभग असम्भव है।
रमेश शौनक : साहित्य के सन्दर्भ में क्या आप मानेंगे कि पाँचवें दशक का पूरा-का-पूरा साहित्य किसी-न-किसी अर्थ में जन-सम्पर्क विभाग से जारी किए जाने वाले प्रचार-पत्रों को ही प्रतिबिम्बित करता है ?
दूधनाथ सिंह : इस नजरिए से तो मैंने पाँचवें दशक का सम्पूर्ण साहित्य को नहीं देखा। हाँ, मेरा यह पक्का विचार है कि पाँचवे दशक का सम्पूर्ण साहित्य स्वतन्त्रता-पूर्व की मानसिक बनावट की उपज है। और छठे दशक का भी। गो कि वह पूरा साहित्य प्रकाश में आया आज़ादी के बाद।

रमेश शौनक : स्वतन्त्रता-पूर्व की उस मानसिक बनावट को परिभाषित करेंगे ?

दूधनाथ सिंह : मैं तो सन् 1885 से 1960 तक की भारतीय मानस की बनावट को एक ही मानता हूँ। यह एक ही तरह की इतिहास-लहर है जिसमें आज़ादी हमारा सबसे पवित्र आदर्श रहा है। इसलिए लगभग 75 वर्षों का सम्पूर्ण भारतीय इतिहास इसी पवित्र, आदर्श मानसिक बनावट की देन है। मेरे ख़याल से भारतेन्दु से शुरू करके राकेश और निर्मल और मुक्तिबोध तक एक ही पीढ़ी के अन्तर्गत आते हैं। भारतेन्दु यदि शुरुआत हैं तो राकेश, निर्मल और मुक्तिबोध उपलब्धि। गो कि राकेश, निर्मल या मुक्तिबोध का सारा उत्कृष्ट साहित्य आज़ादी के बाद आया लेकिन उसकी वैचारिक और कलात्मक रुझान आज़ादी के पहले की मानसिक बनाट की ही देन है।

आज़ादी के पूर्व यह भारतीय मानस अत्यन्त अकुंठित, आस्थावान, पवित्र, त्यागमय और एक ख़ास तरह की आभामय गरिमा और गौरव की अनुभूति से भरपूर है। इसे आप श्रीधर पाठक के ‘एकान्तवासी योगी’ में भी पाएँगे, मैथिलीशरण गुप्त की ‘वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे’, प्रसाद की ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’ प्रेमचन्द के उपन्यासों के अन्त में होने वाली कायाकल्पों अज्ञेय के ‘शेखर : एक जीवनी’ या जैनेन्द्र के ‘त्यागपत्र’, राकेश के ‘अपरिचित’, ‘निर्मल के ‘परिन्दे’, मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस’, के लगातार मैल धोने में-सर्वत्र पाएँगे।

यानी की व्यक्तिगत तौर पर थोड़े-बहुत शिल्पगत वैशिष्ट्य के बावजूद यह सारा साहित्य एक ही तरह की मानसिक बनावट की देन है। इस मानसिक बनावट  की तह में जवाहरलाल का वही स्वप्नदर्शी व्यक्तित्व है, आज़ादी की वही पवित्र, निर्मल चेतना है। इसीलिए पिछले  75 वर्षों का यह साहित्य अपनी तमाम खामियों के बावजूद एक गम्भीर कोटि का साहित्य है।
क्या आप समझते हैं कि जैनेन्द्र का अपने परिवार को छोड़ कर जेल जाना और सौमित्र मोहन का अपनी पत्नी से बोर होकर एकाएक घर छोड़कर भाग जाना एक ही तरह की मानसिक प्रेरणा से उद्भूत है ? क्या आप समझते हैं कि भारती की कहानी ‘यह मेरे लिए नही’ की करुणा को ‘रक्तपात’  की क्रूर करुणा से मिलाया जा सकता है ? क्या राकेश की ‘एक और ज़िंदगी’ की पवित्र, कारुणिक सफ़रिंग को ‘आइसवर्ग’ या ‘रीछ’  की क्रूर सफ़रिंग और घुटन को एक जगह रखकर देखा जा सकता है ? क्या ‘अँधेरे में’, में की ‘आत्म-सम्भावना अभिव्यक्ति’ की खोज को ‘लुकमान अली’ के ‘वल्गराइज़्ड’ डिस्टा्र्शन’ से छोड़ा जा सकता है ?
दरअसल यह फ़र्क लड़ाई के मुद्दों का फ़र्क है। लड़ाई जब तक एक बाहरी साम्राज्यवादी शक्ति से थी—उसमें एक त्याग, एक गौरव, एक पवित्र आदर्श की भावना थी। लेकिन हमारे लिए तो लडा़ई अपने ही लोगों से थी। अंग्रेज़ तो हमारे लिए इतिहास था। लेकिन लाला मुसद्दीलाल ज़रूर दो रपये घूस के लिए चश्मे के भीतर से झाँक रहे थे। लड़ाई जब बाहर वालों से होती है तो आदमी घूँसा तान कर खड़ा हो जाता है। लेकिन जब वह अपने में होती है तो वह अक्सर वह घूँसा अपनी ही नाक पर मार लेता है। हमारी पीढ़ी की यह अन्तरमुखता, घुटन, यह चुप इसी परिवर्तित मानसिक बनावट की सूचना देती है।

उसे आप हर जगह—कविता की शब्द-रचना में, सम्बन्धों के विचित्र से विघटन में, स्थितियों और समस्याओं के अश्लील डिस्टार्शन आज़ादी के पूर्व की मानसिक बनावट में नहीं है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि वास्तविकताओं की जो पहचान हमारे पास है—वह उन लोगों के पास नहीं है। उनका निजत्व ही एक दूसरे ढंग का है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि लगभग 75 वर्षों बाद इतिहास-लहर फिर पलटा खा गई है। एक नई शुरुआत हुई। एक नए तरह के तनाव में हम वास्तविकताओं का साक्षात्कार कर रहे हैं।
देखिए, इसके पीछे अगर आप जाएँ तो आज़दी के पहले की इस पवित्र, त्यागमय, आकुंठित मानसिक बनावट को समझने के लिए आपको भारतीय मनुष्य के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता उसकी अन्तरमुखता है ‘पैसिविटी’ है। भारतीय मनुष्य का प्रमुख चरित्र उसके घर का चरित्र है। इसे वह अपने बाहर के चरित्र से अक्सर नहीं जोड़ता। दिल्ली में क्या होता रहा, सेनाएँ और सम्राट् क्या करते रहे, कौन अत्याचारी कब भारत को रौंदती रहा, इसकी भारतीय मनुष्य ने ज़्यादा चिन्ता कभी नहीं की। इसकी जगह भगवान बुद्ध या महावीर क्या करते रहे, तुलसीदास क्या करते रहे, रामकृष्ण परमहंस क्या करते रहे, इसे भारतीय मानस ने ज़्यादा बड़ी अहमियत दी। क्या आप समझते हैं कि अजातशत्रु, अशोक, पृथ्वीराज चौहान, तैमूरलंग, चंगेज़ खाँ, औरंगज़ेब या क्लाइव उन मनीषियों या सन्यासियों तथा कवियों से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण रहे ? कभी नहीं, कतई नहीं।

भारतीय समाज की यह एक अजीब बनावट है। उसका अपना सामाजिक चरित्र राजनीतिक चरित्र से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। उसको वह राजनीतिक चरित्र से जोड़ने का आदी नहीं रहा है। उसके इसी चरित्र को समझे बिना विदेशी इतिहासकार अक्सर यह फ़तवा दे डालते हैं कि भारत वर्ष एक संगठित राष्ट्र कभी नहीं रहा। यह अनेक इकाइयों का समूह था। दरअसल जब वे फ़तवा देते हैं तो भारतीय जन-मानस में बसे इस ‘अन्तर्वर्ती राष्ट्र’ (इनर नेशनहुड) को नहीं समझते जो साम्राज्यों या सल्तनतों की उठा-पटक के भीतर कभी नहीं टूटा, कभी विश्रृंखलित नहीं हुआ। बहरहल, तो पहली बार अपने इस ‘अन्तरवर्ती राष्ट्र’ को, अपने इस आन्तरिक चरित्र को, भारतीय जनमानस ने राष्ट्र की बाहरी परिकल्पना से जोड़ा। इसकी मुख्य प्रेरणा महात्मा गाधी थे। उन्होंने ही भारतीय मनुष्य के इस आन्तरिक चरित्र को बाहर निकालकर सम्पूर्ण राष्ट्र के चरित्र से जोड़ दिया। यानी की तीन हज़ार साल में पहली बार हमारे गाँव का चरित्र दिल्ली के चरित्र से सम्पर्कित हुआ।
गांधीजी को भारतीय मानस की बड़ी गहरी परख थी। वे जानते थे कि एकदम शुष्क, ठस राजनीतिक स्तर पर भारतीय मनुष्य को पकड़ा नहीं जा सकता। उसकी अन्तर्मुखता को एकदम वाचाल नहीं बनाया जा सकता। इसीलिए उन्होंने भारतीय संस्कृति और जन-मानस में व्यापक रूप से प्रचलित नैतिक आस्थाओं को राजनीति से संयुक्त किया। पहले सत्य, फिर अहिंसा, फिर असहयोग, फिर आत्म-निर्भरता, फिर कर्मयोग, फिर पवित्र और अकुंठित त्यागमयता।
राजनीति को इन नैतिक निष्ठाओं से संयुक्त कर देने के कारण ही आज़ादी की लड़ाई में वे भारतीय जन-समुद्र को खींच लाने में सफल हुए। इसका फल यह हुआ कि भारतीय मनुष्य की ‘आन्तरिक राष्ट्रीयता’ बाहर की राष्ट्रीयता से एकमेक हो गई। उसके घर और बाहर का चरित्र एकमेक हो गया। पहले भारतीय मनुष्य पर राजनीतिक घटनाओं का प्रभाव सेनाओं द्वारा रौंदे जाने1 और रक्त-कर वसूलने
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1.    जाना जाता है कि इस राह से लश्कर गुज़रा।–मीर

तक सीमित था। अब उसका प्रभाव भारतीय मानस की सम्पूर्ण भीतरी निष्ठा पर तक सीमित था। अब उसका प्रभाव भारतीय मानस की सम्पूर्ण भीतरी निष्ठा पर, उसकी नियति पर, उसके स्वभाव और व्यवहार पर पड़ने लगा है।
यानि की अब हम दिल्ली को ताक पर नहीं रख सकते। वह हमें खँखोलती है हमें तोड़ने या बनाने में उसका पूरा हाथ है। यानी कि अब हम दिल्ली को तोड़ सकते हैं या दिल्ली हमें तोड़ सकती है। और क्या आप नहीं समझते की दिल्ली हमें तोड़ सकती है। और इस प्रक्रिया में उसे भी टूटना पड़ेगा। क्योंकि आज़ादी का जो आदर्श था वह पिछले पच्चीस वर्षों में पूरा नहीं हुआ। एक अजीब-सी उपलब्धहीनता की स्थिति में हिन्दुस्तान का आदमी खड़ा है। उसके पीछे उसकी ‘सेंक्चुअरी’ उसका शरण्य नहीं है, जिसे हमने घर का चरित्र’ कहा है। जिस आशा और स्वप्न दर्शिता में वह बाहर निकल आया था। वह पूरी नहीं हुई। इसीलिए भारतीय आदमी एक पहचानहीनता की नियति से पीड़ित है।
आज उसकी सबसे बड़ी पीड़ा उसकी यही पहचानहीनता है।
मैंने जो शुरू में कहा था कि पिछले दस साल में अपने को मैंने बिलकुल नहीं बदला, उसकी वजह यही है। पिछले दस साल इसी पहचानहीनता की दुखद नियति के विस्तार हैं। फिर बदलने का सवाल ही कहाँ उठता है।

रमेश शौनक : सम्बन्धों के इस मोहभंग की स्थिति का चित्रण आप या आपके किसी लेखक की कहानी अथवा उपन्यास में हुआ है ? यदि हुआ है तो किस रूप में ?
दूधनाथ सिंह : जैसे ज्ञानरंजन की एक कहानी है ‘पिता’। बहुत ठोस उदाहरण है, इसलिए मैं दे रहा हूँ। दोनों चरित्र दो पीढ़ियों के हैं। पिता अपने उसी आशीर्वादी माहौल में कि कोट भी सिलाएगा तो अपने उसी पुराने, ‘आउट आव डेट’ दर्जी से सिलाएगा। घर की रक्षा करने के लिए सारी-सारी रात जागना, और अपने पुत्रों के अच्छे-से-अच्छे विचारों को भी, उनकी अच्छी-अच्छी बातों को भी एक अजीब से हठ से नज़रअन्दाज़ करते रहना। यह जो सम्बन्धों के बीच में एक टूटन-सी आ गई है, यह जो न समझने की हठपूर्ण स्थिति है, यह ज्ञानरंजन की कहानी में है।

एक कहानी रवीन्द्र कालिया की है ‘त्रास’। उसमें भी लगभग इसी तरह की स्थिति है। माँ सारी स्थितियों को जानती है। वह चाहती है लड़कों को अपनी तरह से बनाना और लड़का उस स्थिति से भागने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाता है। और उस बहाने में दोनों के बीच की एक खाई है, एक-दूसरे को न समझने की और समझकर भी ‘ऐडजस्ट’ न कर पाने की। न तो माँ उसकी स्थिति में अपने को ढाल सकती है और न लड़का अपने को उतना पीछे ले जा सकती है। इन दोनों स्थितियों में जो अन्तराल है, अन्ततः एक प्रकार के मोहभंग, एक प्रकार के अजीब से नैराश्य को अभिव्यक्त करता है-हमारे सामने।



 
 

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