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गुरु नानकदेव

जसबीर सिंह

प्रकाशक : भुवन वाणी ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :381
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2804
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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यह पुस्तक क्रांतिकारी महामानव गुरुनानकदेव पर आधारित है...

Guru Nanakdev

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आमुख

मनिति विचित्र सुकवि कृत जोऊ ।।
राम नाम बिनु सोह न सोऊ ।।


(गोस्वामी तुलसी दास)


(अर्थात् राम नाम की महिमा के बिना अच्छे कवि की अनूठी कविता भी शोभाहीन हो जाती है।)
भाई जसबीर सिंघ ने ‘‘क्रांतिकारी महामानव-गुरु नानकदेव’’ नामक पुस्तक में ‘जगद्गुरु’ गुरु नानक देव की लीलाओं का अति सुन्दर वर्णन किया है। आधुनिक युग में जहां प्रचार के साधन इतने अधिक हैं और प्रचुर मात्रा में साहित्य उपलब्ध हैं, ऐसे समय में प्रस्तुत पुस्तिका का सरल एवं जनसाधारण की भाषा में जन मानस की पहुँच में आ जाना ही सराहनीय है। गुरुदेव जी ने अपनी चार उदासियों (यात्राओं) में जो भ्रमण किया है, उन स्थानों के बारे में सोच लेना ही अचम्भा सा लगता है। पुस्तक में भाषा की मधुरता, सरलता एवं वृत्तांत का प्रवाह ऐसे चलता है जैसे नदियां अपने उद्गम से निकल कर, अनवरत बहती हुई, अपने अंतिम लक्ष्य को पा लेती हैं।

किसी भी लेखक की स्व-रचित रचना का विश्लेषण एवं विवेचन करना बहुत ही कठिन काम होता है। फिर भी मैंने यथा-संभव एक छोटा सा प्रयास किया है। ऐसे में चंद शब्दों में इतनी बड़ी पुस्तक का विवेचन कर पाना और भी असंभव का कार्य लग रहा है। पाठक वर्ग से एक करबद्ध अनुरोध करता हूँ कि इन यात्राओं में, गुरुदेव के बारे में ‘कोई ! क्यों ? और किंतु ?’ आदि के लिए किसी भी तरह का समावेश न होने दें।

प्रथम अध्याय में लेखक ने सबसे पहले देव नागरी लिपि एवं गुरुवाणी के लिखित स्वरूप से सम्बंधित और आवश्यक जानकारी को प्रस्तुत किया है। यह जानकारी इतनी महत्वपूर्ण है कि उसकी सहायता से गद्य एवं पद्य के स्वरूप को समझने में काफी आसानी हो गई है। मेरा ऐसा मानना है कि लेखक का उद्देश्य कोई विद्धता दिखाना नहीं बल्कि इन यात्राओं की कथाओं को जन जन तक पहुँचा कर, गुरुदेव के प्रति अपनी सच्ची हृदय भावनाओं को प्रकट करना ही है।

गुरु महाराज की प्रथम यात्रा से पहले उनके बाल्य काल का संक्षिप्त रूप में दिया गया वर्णन बहुत ही प्रभावशाली ढंग से कहा गया है। इस वर्णन में गोपाल पंडित के साथ अक्षरों के आध्यात्मिक बोध का विवेचन, एक नया सिद्धांत पेश करता है। यज्ञोपवीत संस्कार, सच्चा सौदा, विवाह, मोदीखाना में नवाब की नौकरी, मस्जिद में नमाज पढ़ना आदि कुछ ऐसी घटनाएं हैं, जिनसे पाठक का मन और भी आगे ज्यादा जानने के लिए उत्सुक हो जाता है। इससे हटकर एक बात और भी है जो कि लेखक ने नाटकीय शैली का प्रयोग कर, परस्पर वार्तालाप दिखलाकर अपनी मौविकता का परिटय दिया है। यह घटनाएं, केवल घटनाएं मात्र न होकर, गूढ़ रहस्य को जन साधारण की भाषा में प्रस्तुत करने का सफल प्रयास भी है।
इसके पश्चात् द्वितीय अध्याय में ‘महा मानव’ की पहली उदासी (यात्रा) सुलतानपुर (लोधी) से 1497 ई.से 1509 ई. तक पूर्ण हो जाती है। इस यात्रा में उत्तरी भारत के पश्चिमी छोर से सुदूर पूर्व तक असम तथा चीन में शंघाई तक का विशाल-भू-भाग आ जाता है। मानचित्र पर नजर दौड़ाने से कई प्रकार के ऊट-पटांग प्रश्न मन में जरूर उठेगे, परन्तु जैसा कि मैं पहले ही अनुरोध कर चुका हूँ कि इस विषय में ‘किन्तु परन्तु’ के लिए कोई स्थान नहीं, क्योंकि पारब्रह्म परमेश्वर के लिए कुछ भी असंभव नहीं। गुरुदेव की यह यात्राएं कोई सैर सपाटे के लिए नहीं थीं बल्कि लोगों को सत्य से साक्षात्कार करवा कर गुमराह हुई जनता जनार्दन को यथोचित उपदेश हित में और सत्यमार्ग पर चलने को प्रेरित करने के लिए थी, क्योंकि उन दिनों समस्त समाज घोर अज्ञानाधंकार में फंसा हुआ था। गुरुदेव जी ने अपने साथ भाई मरदाना को लेकर अनेक तीर्थ स्थानों के भ्रमण किए जहां पर कर्मकांडी लोग जन साधारण को भ्रमित कर रहे थे। जैसा कि हरिद्वार में कुंभ मेले के अवसर पर सूर्य को जल अर्पण करने के ढोंग का परदाफाश कर समाज में नई चेतना का संचार करना।

गुरुदेव का सुमेरु पर्वत पर पहुँच कर सिद्ध-योगियों के साथ गोष्ठी करना भी अपना एक अलग महत्व है। इस गोष्ठी का वार्तालाप शैली में लेखक द्वारा वर्णन, एक सफल प्रयास है। यहां पर ही गुरुदेव ने गृहस्थ आश्रम की महत्ता को बताते हुए योगियों को अपने तीन सूत्री सिद्धांत-पहला, किरत करो, (काम करो), दूसरा, वण्ड कर छको (बांट कर खाओ) और तीसरा, नाम जपो (प्रभु चिन्तन करो) पर चलने को उत्साहित किया। इसी तरह उड़ीसा में पुरी नगर में भगवान जगन्नाथ के मन्दिर में उपस्थित जनसमूह के समक्ष परमेश्वर की सच्ची एवं प्राकृतिक आरती ‘गगनु मै थालु रवि चंद दीपकु बने...’ से परिचित करवाया। सिक्किम में पहुँच कर, वहां के बौद्ध लामाओं के साथ वार्तालाप कर, उनको असली भक्ति का मार्ग बताया और अनेक शंकाओं का समाधान करते हुए तिब्बत में ल्हासा नगर के बौद्ध अनुयायियों का मन जीत लिया। चीन के शंघाई नगर में अफीम जैसे नशीले पदार्थों के सेवन से लोगों को सावधान किया। गुरुदेव जी द्वारा, जगह-जगह पर दिया गया उपदेश और घटनाओं का क्रम ऐसा चलता है जैसे कोई चलचित्र चल रहा हो जो मस्तिष्क में गहरे तक समा जाता है, कुल मिलाकर यात्राओं का मार्ग, जो कि भारत के मानचित्र पर दर्शाया गया है, वह अति दुर्गम स्थानों से गुजरता हुआ भी, लुभावना जान पड़ता है और अन्वेषार्थियों के लिए संदेशवाहक भी है।

गुरु महाराज का दूसरा प्रचार अभियान 1510 ई.से 1516 ई. तक सम्पूर्ण होता है। अबकी बार यह यात्रा भारत के उत्तर पश्चिम से लेकर दक्षिण भारत को पार कर कन्याकुमारी, सिंगापुर और जर्काता आदि तक पहुंच गई थी। मानचित्र को देखकर तो बड़ा आश्चर्य होता है कि छ: वर्ष की इस यात्रा के दौरान गुरु महाराज ने कैसे कैसे लोगों का किस किस तरह से उद्धार किया होगा। उनके न्यारे खेलों का जवाब उन्हीं के पास है। आबू (राजस्थान) और गुजरात आदि प्रदेशों में जैनी-साधुओं से वार्तालाप करते हुए महाराष्ट्र और मैसूर से होते हुए गुरुदेव जी भारत की भौगोलिक सीमा को लांघकर कोलम्बो पहुँच जाते हैं। जहां पर राजा शिवनाभ को हठ-योग से हटा कर ‘सुरति शब्द’ के मार्ग पर चलने का उपदेश देते हैं। इस दौरान ही उन्होंने जैनियों, बौद्धों और वैष्णव-साधुओं के मठों एवं धर्म-स्थलों पर जाकर उन्हें सत्य-धर्म का उपदेश दिया। गुरुदेव का एक मात्र लक्ष्य, ‘‘सत्य का जीवन कैसे जीना है,’’ था और इसी बात पर उन्होंने सब से अधिक बल दिया। लेखक ने गुरुदेव को ‘महामानव’ की एक बहुत ही छोटी उपाधि से अलंकृत कर अपनी तुच्छ बुद्धि का परिचय दिया है।
गुरुदेव जी की तीसरी यात्रा अभियान केवल उत्तरी भारत तक सीमित रहा। यह यात्रा 1516 ई. से 1518 ई. तक चलती है जो कि दुर्गम पहाड़ियो, गहरी घाटियों और बीहड़-जंगलों आदि से होकर गुजरती है। इस यात्रा के दौरान हिमाचल के चंबा नरेश द्वारा गुरुदेव से दीक्षा प्राप्त करना, महत्वपूर्ण घटना है। पहाड़ी प्राकृतिक सौन्दर्य का जो मधुर संकीर्तन वर्णन आपने किया, वह आज भी जन-मानस का गीत बना हुआ है जिसे ‘‘बलिहारी कुदरत वसिया’’ कह कर वे आनंद विभोर हो जाते हैं। तिब्बत की धरती ज्ञार्सा नगर से होते हुए आपने लद्दाख और लेह में लामाओं को ज्ञान से लाभान्वित किया और कश्मीर की वादी में पहुँच कर भ्रमित समाज का मार्ग दर्शन किया। इस यात्रा में आपजी ने वली कंधारी का घमण्ड तोड़ते हुए उपदेश दिया ‘‘करते हो इबादत, परन्तु उस ख़ालक की ख़लकत को दो घूँट पानी, अल्लाह के नाम पर नहीं पिला सकते ?’’ इसी प्रकार स्यालकोट में हमज़ा गौस पीर को अमृतमयी वाणी से शांत किया और उपदेश दिया कि ‘‘मरना सच जीना झूठ।’’

आपकी चौथी यात्रा 1518 ई.से 1521 ई. तक पश्चिम की ओर के अरब देशों की थी। इस यात्रा के दौरान हिंगलाज से होते हुए सोनमयानी बंदरगाह से अदन (अरब) तक पहुंचना भी अपने आप में एक करिश्मा है। मक्का-शरीफ़ में जीवन नामक मौलवी को खुदा का घर चारों ओर दिखा कर अचंभित ही नहीं किया बल्कि मुख्य मौलवी रुकनउद्दीन का खुद महाराज के दर्शनों के लिए चले आना, अचम्भे की बात थी। बग़दाद के पीर दस्तगीर और उसके पुत्र को ‘‘पाताला पाताल लख अगासा आगास’’ के दर्शन करवाना, परमेश्वर की अपरंपार लीला का ही वर्णन था। इस तरह तेहरान, ताशकंद, कंधार, पेशावर आदि से होते हुए जब गुरुदेव ऐमनाबाद (पंजाब) पहुंचते हैं तब उस समय बाबर का आक्रमण हो जाता है। बाबर और गुरू साहब का वार्तालाप भी इतिहास और अध्यात्म स्रोत में बहुत ज्ञानवर्धक स्थान रखता है, और उच्च कोटि के पीर फ़कीरों से वार्तालाप आपकी चौथी यात्रा का लक्ष्य प्रस्तुत करता है।

अंतिम अध्याय में लेखक ने गुरू महाराज द्वारा दिये गये अमृतमयी उपदेशों से जन साधारण तथा विशिष्ट वर्ग के जो लोग उनके संपर्क में आए, उनका संक्षिप्त परिचय दिया गया है। जिसमें कत्थूनंगल के किसान, भाई सुग्धा जी के पुत्र बाबा बुड्ढा जी का प्रसंग अति रोमांचक है। इस तरह उनके मित्रों साथियों और प्रेमियों का उद्धार करते हुए आपकी मुलाकात भाई लहणा जी से होती है जिनको बाद में, गुरयाई प्रदान कर, गुरू अंगद देव का नाम देकर, अपना उत्तराधिकारी थाप दिया।
अंत में पुस्तिका की विवेचना करते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि गुरू महाराज का सम्पूर्ण संघर्ष, रोचक घटनाओं का श्रृंखलाबद्ध वर्णन है। बीच-बीच में गुरुबाणी तथा वार्तालाप, एक ऐसी ज्ञानवर्धक सामग्री है जिससे लाभ उठाकर साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपना जीवन सत्य मार्ग पर चलता हुआ देख सकता है। कौडा भील या सज्जन जैसे लोग आज भी समाज में देखे जा सकते हैं, जो कि समाज का शोषण निरंतर करते आ रहे हैं।

मैं आशा करता हूँ कि अगर इस पु्स्तक के माध्यम से किसी एक व्यक्ति के जीवन में सुधार हो जाए तो वह इस पुस्तक के रचनाकार की बहुत बडी उपलब्धि होगी।

डा. डी. के. पाण्डे
संपादक-मासिक पत्रिका आत्म मार्ग,
प्राध्यापक राजकीय कन्या महाविद्यालय,
सेक्टर 42, चण्डीगढ़


दो शब्द


भक्त-आत्मा और गुरुमत दर्शन के विश्वसनीय ज्ञाता मेरे मित्र सरदार जसबीर सिंघ जी ने मुझे अपनी लिखी पुस्तक ‘‘क्रांतिकारी महामानव-गुरू नानकदेव’’ सप्रेम भेंट में दी और उसे पढ़कर उसके बारे में दो शब्द लिखने की आज्ञा की। आप स्वयं शिरोमणि सिक्ख समाज की मूल प्रेरणा द्वारा स्थापित हुए अनेकों मिशनरी कालेजों की गतिविधियों से सम्बद्ध हैं तथा एक सच्चे-पन्थ हितैषी तथा गुरुमत दर्शन के जागरूक स्नातक हैं।

ज्यों-ज्यों मैं पुस्तक का अध्ययन करता गया, त्यों-त्यों मेरी अपने मित्र के बारे में बनी यह धारणा और दृढ़ होती गयी कि जहां एक ओर सिक्ख दर्शन, इतिहास तथा परम्पराओं का विश्वसनीय गम्भीर ज्ञान रखते हैं, वहां दूसरी ओर वे एक सच्चे श्रद्धालु के रूप में गुरुदेव के प्रति अगाध श्रद्धा और भक्ति-भाव से भी ओत-प्रोत हैं। साधारणतया जहाँ बुद्धि तत्व प्रधान हो वहाँ भावना अथवा श्रद्धा का पूर्ण अभाव हो जाता है, तथा जहाँ श्रद्धा प्रमुख हो, वहाँ अन्धविश्वास का आविर्भाव हो जाने के कारण विवेक और तर्क लुप्त हो जाते हैं। 1988 से मेरे लिए पक्के तौर पर मोहाली में बस जाने का योग बन जाने के फलस्वरूप अनेकों बार अपने लेखक मित्र के साथ मिशनरी कालेजों की गति-विधियों पर विचार करने के लिए गोष्ठियाँ करने का सुअवसर प्राप्त होता रहा, जिनसे यह निष्कर्ष निकालना आसान था कि मेरे इस लेखक मित्र का व्यक्तित्व बुद्धि (विवेक) तथा भावना (श्रद्धा) के दोनों पहियों को बखूबी एक साथ अभीष्ट विधि से चला सकने में दक्ष एवं सक्षम है।
मुल्कराज आनन्द के इस विचार से असहमत होने में कोई तुक नहीं कि ऐसी रचनाएँ लिख सकना लगभग असम्भव काम है, जो वास्तविक रूप में इतिहास कहला सकती हों, क्योंकि आमतौर पर लेखकजनों को तत्कालीन विश्वसनीय स्रोत उपलब्ध नहीं होते।

सतिगुरू नानक पातिशाह के जीवन वृत्तांतों को लिखने के लिए भाई गुरूदास जी को वाणी, गुरूवाणी, जन्मसाखी साहित्य टीका, साहित्य की विभिन्न भूमिकाओं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी सिक्ख सन्तों और प्रचारकों द्वारा प्रचारित घटनावलियों के अतिरिक्त और कोई चीज प्राप्त नहीं।
उपरोक्त मूल स्रोतों के पठन-पाठन के अतिरिक्त इस श्रद्धावान लेखक ने पंजाब के विभिन्न विश्वविद्यालयों की खोज कृतियों से लाभ उठाते हुए सरल भाषा और सादी शैली में गुरुदेव के जीवन वृत्तांतों को बड़े रोचक सजीव परन्तु अत्यन्त लाभदायी रूप में आधुनिकता का समावेश करते हुए सुगठित किया है। गुरुदेव गुरू नानक का व्यक्तित्व तथा धर्म सम्पूर्ण विश्व की साझी धरोहर हैं, वहाँ आप द्वारा प्रतिपादित सब सिद्धांत तथा विश्वास सार्वभौमिक और सर्व-कालीन ही नहीं, निश्चित रूप से अद्वितीय और सर्व-हितकारी भी हैं।

सिक्ख धर्म की प्रचार संस्थाएँ पाँच सौ वर्षों से अधिक का समय बीत जाने के बावजूद विश्व से सब मानवों तक गुरू-दर्शन को पहुँचाना तो दूर रहा, भारत के विभिन्न प्रदेशों के लोगों तक भी अभी तक गुरू नानक एवं उनके महानतम् मत को नहीं पहुँचा सकीं। गुरूदेव द्वारा प्रतिपादित महान कल्याणकारी विचारधारा का प्रचार एवं प्रसार केवल पंजाबी भाषा के माध्यम द्वारा सम्भव नहीं। उत्तरी तथा मध्य भारतीय समस्त प्रदेशों तक इस ज्ञान को पहुँचाना परमावश्यक प्रतीत होता था। अभी तक हिन्दी देवनागरी में न के बराबर सिक्ख साहित्य लिखा गया है। इस दिशा में मेरे लेखक मित्र का प्रयास निश्चित रूप से वांछनीय और प्रशंसनीय है।

‘‘दो शब्द’’ के इस लेखक सेवक’’ ने 1956 में अपने कुछ नवयुवक पन्थ-हितैषियों के सहयोग से दिल्ली में गुरूदेव के महानतम मत प्रचार के लिए एक संस्था स्थापित की थी जो कुछ वर्षों में ‘शिरोमणि सिक्ख समाज’ का कारगर रूप धारण कर गई थी। उस संस्था में मूलभूत विचारों से प्रेरणा लेकर तीन सौ के लगभग पुस्तिकाओं के अतिरिक्त, ‘‘जागो जागो सुत्यों’’, ‘‘गुरुमत मिशनरी’’ ‘‘सिख फुलवाड़ी’’, ‘‘मिशनरी सेधां’’ आदि मासिक पत्र गुरुदेव के मत के प्रचार में जुटे। इसी मूलभूत प्रेरणा द्वारा छ:सात मिशनरी कालेज और गुरुमत प्रसार ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट अस्तित्व में आए। क्योंकि मेरा सीधा सम्बन्ध सिक्ख मत के बारे में फैलती जा रही भ्रांतियों के निवारण तथा सिक्ख धर्म के व्यापक स्तर पर प्रचार करने की योजनाओं के साथ पिछले 40 वर्ष से भी अधिक समय तक रहा है जो अपनी इसी तजुर्बे के आधार पर हिन्दी भाषी क्षेत्रों के सिक्ख श्रद्धालुओं और गैर-सिक्ख लोगों तक गुरूदेव गुरूनानक और उनके महानतम् सन्देशों को पहुंचाने में इस पुस्तक का योगदान अवहेलना की दृष्टि से नहीं देखा जा सकेगा।

महिन्दर सिंघ जोश
संस्थापक, शिरोमणि सिक्ख समाज,
तथा
प्रचारक, गुरमत प्रसार सेवा सोसाइटी चण्डीगढ (रजि.)


प्रकाशकीय


विश्व वाङ्मय की अधिष्ठात्री, भगवती वाणी ने 1969 ई. के उत्तरार्ध में ‘भुवन वाणी ट्रस्ट’ में बीज के रूप में प्राण-प्रतिष्ठा की। ट्रस्ट के प्रतिष्ठाता मेरे पिता स्व. पं. नन्दकुमार अवस्थी (पद्मश्री) द्वारा 1947 ई. से ही राष्ट्र के भाषाई सेतुकरण की उपलब्धि हेतु की गई अनवरत साधना के प्रसादस्वरूप ट्रस्ट का अनन्तर यज्ञारम्भ हुआ।

भारत में व्यवहृत समस्त विदेशी भाषाओं सहित, राष्ट्र की सभी क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध सत्साहित्य को नागरी लिपि के कलेवर में हिन्दी अनुवाद सहित प्रस्तुत करते हुए बिना कटुता और स्पर्धा के राष्ट्र का सांस्कृतिक, धार्मिक तथा भाषाई सेतुकरण, एक का दूसरे में प्रतिबिम्बीकरण और इस प्रकार भाषा और लिपि के माध्यम से चिरस्थायी राष्ट्रीय एकीकरण की उपलब्धि हेतु विश्वभाषा सेतुकरण को आदर्श और सानुवाद लिप्यन्तरण को ‘करणीय’ मानकर हम कर्तव्य पथ पर अग्रसर हुए। विविध भाषाई क्षेत्रों से मातृभाषा एवं राष्ट्रभाषा के समानरूप से अधिकारी विद्वान् वाणी यज्ञ के इस अनुष्ठान में हविर्दान हेतु सन्नद्ध हो उठे। बस फिर क्या था-

विश्व वाङ्मय से नि:सृत अगणित भाषाई धारा।
पहन नागरी-पट सबने मिल भूतल भ्रमण विचारा।।


आसेतु हिमालय सारे देश के साहित्य, संस्कृति, आचार-विचार और सन्तों की वाणी को किसी एक क्षेत्र अथवा समुदाय तक सीमित न रहने देकर समस्त मानव-समाज की सामूहिक सम्पत्ति बनाना ही वास्तविक रूप से राष्ट्रीय एकीकरण की उपलब्धि है। फ़ारसी और उर्दू का विशाल गद्य-पद्य साहित्य, शायरों के दीवान, मसनवी, अदबी नवेल, नरसी मेहता के भजन, तिरुवल्लुवर का तिरुक्कुरल् और सन्त नानक की अमर वाणी अथवा वेद पुराण आदि उत्तर प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु और पंजाब को ही नहीं वरन् सारे देश को प्राण प्रदान करें। एतदर्थ देवनागरी लिपि में उस विपुल साहित्य भंडार को प्रकाशित कर देश के सुदूर सीमाप्रान्तों तक सरिता के अविरल प्रवाह के रूप में उपलब्ध कराया जाए-यही सर्वोचित समीयीन और समय की मांग है।

ट्रस्ट के इस वाणी यज्ञ में पंजाबी भाषा एवं गुरमुखी लिपि का योगदान अनुपम और अविराम रूप से प्रकाशित होता रहा है। सर्वप्रथम इस स्तम्भ में हमारा प्रयास ख्वाज: दिल मुहम्मद कृत श्री जपुजी सुखमनी साहब से आरम्भ हुआ। जिसके गुरमुखी मूलपाठ एवं उर्दू पद्यानुवाद के लिप्यन्तरण का श्रेय भुवन वाणी ट्रस्ट के प्रतिष्ठाता स्व.पं.नन्दकुमार अवस्थी को प्राप्त हुआ, परिणाम स्वरूप इसके कई संस्करण प्रकाशित हुए, जिससे जनता में लोकप्रियता एवं पठनीयता का संचरण हुआ। फलस्वरूप अगला कार्य ‘आदि श्री गुरू ग्रंथ साहिब’ पर आरम्भ हुआ। चार सैंचियों में विभक्त लगभग 3700 से कुछ अधिक पृष्ठों में सम्पूर्ण इस पवित्र कार्य को अंजाम दिया पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला के हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं मूर्धन्य विद्वान् डॉ. मनमोहन सहगल (एम.ए., पीएच. डी., डी.लिट्) ने। कार्य की सफलता ने उत्साहवर्धन किया, ईश्वर की अनुकम्पा हुई। सम्प्रति पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला के प्रकाण्ड विद्वान गुरुवाणी विशेषज्ञ डॉ. जोधसिंघ के अनन्त श्रम के फलस्वरूप चार सैंचियों में लगभग तीन हजार पृष्ठों में श्री दसम ग्रंथ की उपलब्धि नागरी लिपि में हिन्दी अनुवाद सहित तृतीय पुष्प-रूप में प्रस्तुत की जा सकी। परन्तु इतने से ही संतोष न हुआ। डॉ. जोधसिंघ जी ने एक नया प्रस्ताव भाई गुरदास जी के वारां (ज्ञान रत्नावली) के सम्बन्ध में रखा और शीघ्र ही उसको भी प्रकाशन जगत के सम्मुख लाया गया।
इस प्रकार पाँच अनुपमरत्न जनता जनार्दन के सम्मुख प्रस्तुत कर देने के बाद भी विराम की गुंजाइश कहाँ ! ट्रस्ट का वाणी यज्ञ तो वास्तव में एक मूकभाषाई आन्दोलन है जहाँ एक के बाद एक अनमोल रत्न इसी प्रकार प्रस्तुत होते रहेंगे।

हमारी पाँचवीं-प्रस्तुति-भाई गुरदास कृत कबित-सवैये सिक्ख-पन्थ के व्यास और गणेश रूप भाई गुरदास जी ने आदि ग्रंथ साहिब को लिपिबद्ध तो किया ही, उन्होंने अपनी वाणी से एक ऐसी अमृतधारा प्रवाहित की जिसने कबित्त-सवैयों के रूप में समस्त मानव जाति को उसके रसास्वादन हेतु आकर्षित कर लिया। कबित्त-सवैयों का मूल प्रतिपाद्य सतगुरू रूप में अवतरित साक्षात् ब्रह्म के एक ओंकार स्वरूप का दिग्दर्शन है। वास्तव में भाई गुरदास जी की रचनाओं को गुरुवाणी की कुंजी भी कहा जाता है। इस कार्य को पूर्णता प्रदान की दिल्ली के एक विद्वान मनीषी डॉ .राम प्रकाश जी (एम.ए.पीएच. डी) ने।

लम्बे अन्तराल के बाद अचानक एक दिन चण्डीगढ़ से भाई जसबीर सिंघ जी का प्रस्ताव प्राप्त हुआ, जगत्गुरु श्री नानक देव जी का जीवन वृ्तांत ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर रोचक शैली में तैयार है, इसका प्रकाशन भुवन वाणी ट्रस्ट करे-ऐसी मेरी इच्छा है संतों, महापुरुषों एवं विभिन्न धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन में संकल्पबद्धता के कारण प्रस्ताव आकर्षक प्रतीत हुआ। ट्रस्ट की सन्तसाहित्य के प्रचार प्रसार के प्रति आत्मरुचि तो ऊपर व्यक्त ही की जा चुकी है। बस कार्य आरम्भ हो गया। सिक्ख धर्म के संस्थापक, क्रान्तिकारी महामानव-गुरु नानक देव जी का इतिहास गुरुमुखी लिपि में तो प्रचुरता से उपलब्ध है किन्तु सर्व सुलभ भाषा में किसी सिख विद्वान द्वारा पंथ की सेवा भावना से शोधपूर्वक प्रस्तुत किया गया यह अद्वितीय प्रयास है। महान् संत की सम्पूर्ण विश्व के भ्रमण का रोचक वृत्तांत यात्रा मानचित्रों सहित प्रस्तुत करने में भाई जसबीर सिंघ पूर्णतया सफल रहे हैं, ऐसी मेरी अपनी सोच भी है।

पाण्डु लिपि का पूर्वालोकन करने वाले गुरुमत प्रचार सेवा सोसायटी चण्डीगढ़ से सम्बद्ध एवं सिक्ख मिशनरी कालेज, लुधियाना की लिटरेरी कमेटी के अध्यक्ष सरदार महेन्द्र सिंघ जोश का मैं आभारी हूँ, पुस्तक पर आमुख देने हेतु चण्डीगढ़ के प्रोफेसर डॉ. डी. के. पाण्डेय का भी मैं कृतज्ञ हूँ. इन दोनों सदाशयों के विचार इस ग्रंथ की प्रामाणिकता की पुष्टि करने हेतु पर्याप्त हैं।
इसके अतिरिक्त भी इस कार्य में सहयोगी भाषा-संशोधक कुशल शिल्पियों एवं अपने शुभचिन्तकों का भी मैं आभारी हूँ जिन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मुझ अकिंचन को सहयोग एवं आशीर्वाद प्रदान कर प्रकाशनरूपी यज्ञ पथ पर चलने की प्रेरणा दी।

अमर भारती सलिल मंजु की, ‘‘पंजाबी’’ पावन धारा।
पहन नागरी तट सुदेवि ने भूतल-भ्रमण विचारा।।


मैं आशा करता हूँ कि पाठक गण इसको एक विशेष उपलब्धि मानते हुए प्रसन्नतापूर्वक अंगीकार करेंगे एवं भाई जसबीर सिंघ जी को प्रोत्साहित करेंगे जिससे निकट भविष्य में ही सिख धर्म के अन्य गुरू साहिबान के जीवन वृत्तांत सफलतापूर्वक प्रस्तुत कर सकें।
दीपावली, 26 अक्तूबर सन् 2000
                                विनय कुमार अवस्थी
                            मुख्य न्यासी सभापति,
                        भुवन वाणी ट्रस्ट, मौसमबाग,
                        लखनऊ-226020




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