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निराला के सृजन सीमान्त

अर्चना वर्मा

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2807
आईएसबीएन :81-8361-011-0

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इस किताब की प्रमुख कोशिश निराला को उनकी अपनी भूमि पर देखने और समझने की है, इस आस्था के साथ कि यह अपने आप को भी समझने की शुरुआत है, अपनी परम्परा और परम्परा की आधुनिकता को...

Nirala Ke Srajan Simant

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जिस दुनिया में खड़े होकर आज हम निराला की परम्परागत अधुनिकता को देखते हैं वह उनकी मूल्यचेतना की सार्थकता और प्रासंगिकता की गवाही स्वंय देती है। जिसे वे जड़वादी दृष्टि कहते थे उसकी यात्रा की दिशा को वे दूर तक देख और समझ सकते थे तो इसलिए कि वे मानते थे कि अनियंत्रित उपभोग की यह जड़वादी दिशा ही विनाश की है।
‘कुकुरमुत्ता’ में निराला ने कुकुरमुत्ता के खात्में से उसी अंत की ओर, तथा ‘खजोहरा’ में अपनी ही खुजली से कूदती-फाँदती भगाई मचाती जड़वादी दृष्टि यानी माया की उपचारहीन जलन की ओर इशारा किया है।

अब उनकी सार्थकता और प्रासंगिकता के बार-बार अविष्कार का समय है। उस दिशा में यह छोटी-सी कोशिश उनकी कविताओ में व्यक्त संसार को मूल रूप से उनके अपने ही निबन्धों, कहानियों, समीक्षाओं आदि में निहित विचारों के सहारे सत्यापित करने की है क्योंकि इससे एक तो उनका अपना मंतव्य प्रमाणित होता है, दूसरे, आधुनिक आलोचना के पास निराला को जाँचने के लिए ‘अन्तर्विरोध’ के अलावा और कोई अवधारणा न होने के कारण और उस अवधारणा से मूलतः असहमत होने के कारण लेखिका के पास और कोई उपयुक्त कसौटी नहीं बचती।

निराला की कविता  का अनुभव खुलेपन का अनुभव है- अनुभवगत खुलापन और भाषिक खुलापन। रूप और घटना के भीतर संदर्भों को खोलने के लिए, उनकी सतह की जड़ता को तोड़ने के अलावा स्वयं अपनी दृष्टि को किसी भी सम्भाव्य जड़ता से मुक्त रखने की निरंतर जागरूकता से यह खुलापन जनमा है। अनुभव का ऐंद्रिय, मांसल और मायवी आकर्षण एक ओर ऐतिहासिक स्मृतियों, झंकृतियों तो दूसरी ओर परिवेशगत विस्तार से अंतर्विद्ध होकर जो ऐन्द्रजालिक छवि पाता है, वह निराला की अंतर्दृष्टि और मूल्यबोध का पूरा उन्मोचन करता है।

भूमिका

बात सन् 1983 की है। शोध की मौखिकी परीक्षा चल रही थी। परीक्षक थे डॉ. बच्चन सिंह, और परीक्षार्थी था मैं। शोध का विषय था- ‘बिम्बों के माध्यम से निराला की सृजन प्रक्रिया का अध्ययन।’ यह दरअसल एक भीतर तीन किताबें थीं। एक सृजन प्रक्रिया, दूसरी काव्यभाषा और तीसरी निराला की सृजनप्रक्रिया तक पहुँचने के लिए उनकी काव्यभाषा का विश्लेषण। यह किताब एक तरह से उसी शोध के तीसरे हिस्से का पुनर्लेखन कही जा सकती है। उस निश्लेषण में बिम्ब को केंन्द्र में रखते हुए काव्यभाषा का विश्लेषण था। बहुत घुमा-फिरा कर मूल तक पहुँचानेवाली इस प्रविधि के नतीजे में मैं निराला की कविता को समझने के लिए द्वन्द्वात्मक भौतिकवादिता की बजाय योग और अद्वैत की शब्दावली को ज्यादा उपयुक्त पा रही थी और ‘कुकुरमुक्ता’ और ‘नये पत्ते’ की व्याख्या भी उसी आलोक में कर रही थी और डॉ. बच्चन सिंह की आपत्ति इस मूल स्थापना से ही थी और उन्होंने वरिष्ठ पीढ़ी की यथोचित सदेच्छु सदाश्यता और अभिभावक भाव से समझाया भी था कि इस शब्दावली के इस्तेमाल से मैं अपने लिए मुसीबत खड़ी कर लूँगी, असली मुद्दा योग नहीं द्वन्द्व है। पंद्रह वर्ष बाद शिमला उच्च अध्ययन संस्थान में निराला जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में आयोजित सेमिनार में उनसे फिर मुलाकात हुई थी। तब तक भी वह बहस उन्हें याद थी और पहला सवाल उन्होंने यही पूछा था कि मैंने अपनी राय बदली या नहीं। मेरी राय तो नहीं बदली थी लेकिन उनका परचा सुना, तो पाया कि वे अपनी राय बदल चुके थे और इधर तो निराला की व्याख्या और आलेचना की सारी शब्दावली ही बदलती-सी दिख रही है।

दरअसल अभी हाल तक आलोचना में समग्र, अखंड, संपूर्ण शब्दावली लगभग निपिद्ध, और साहित्य की अपनी शर्तों को ध्यान में रखने की बात खासी संदिग्ध थी। अब भी कहीं सेंध कहीं दरार से अधिक उस नीरंध्र निषेध में खास फर्क पड़ता दिखाई नहीं देता और संभावना यही है कि निराला जल्दी ही अधिमूल्यन और अनुपार्जित महत्ता के भागीदार घोषित कर दिए जाएँ। लेकिन सेंध और दरार भी किसी शुरुआत के सूचक तो हैं ही। अपने शोध-प्रबंध में मेरा आग्रह अद्वैत के लिए किसी खास या अकारण पक्षधरता का नहीं, कवि उसकी रचना की शर्तों पर समझने और देखने का था, यह मानने का था कि यथार्थ पर किसी वाद विशेष का दावा या दखल नहीं है। लेकिन विचारों का भी रिश्ता वर्चस्व से होता है और उस समय साहित्यिक चिंतन में वर्चस्व और विचार का था। आलोचना में आज भी प्रकट वर्चस्व उसी एक विचार का है लेकिन सेधों और दरारों की गुंजाइश दिखने का अर्थ, चाहे जिस भी कारण से हो, खुलेपन को लिए अपेक्षाकृत अधिक प्रस्तुत भाव को माना जा सकता है।

उसी समय के आसपास आगरा विश्वविद्यालय में निराला जन्म के उपलक्ष्य में आयोजित सेमिनार में डॉ. नामवर सिंह ने श्री विष्णुकांत शास्त्री के सद्यः प्रकाशित किसी लेख का हवाला देते हुए बताया था कि उसमें निराला को भक्त साबित करने की कोशिश की गई है। और चेतावनी भी दी थी कि यह हिन्दूवादियों द्वारा निराला को दखल कर लेने की कोशिश है। शायद अब निराला कब्जे के लायक इलाका ही न रह जाएँ क्योंकि, न सिर्फ यह कि हिंदू तो वे हैं ही, बल्कि यह भी, कि ऐसे हिंदू हैं जिससे सीखा जा सकता है कि हिंदू कैसा होता है। यह बात केवल विवादास्पदता के लोभ में नहीं कहीं जा रही है बल्कि इस विस्मय के साथ महसूस की गई है कि निराला ने इस विचार को कितनी बहुआयमिकता में सर्जित और अर्जित किया है।
 
यह किताब विशेष रूप से उन छात्रों को ध्यान में रखते हुए लिखी गई है जिनके साथ लम्बे संपर्क के दौरान कविता के शब्द-विधान को एक-एक शब्द करके कुरेदने की जो आदत पड़ी थी वह निराला की कविता के पास जाने में बेहद मददगार हुई, हाँलाकि यह महज़ मेरा भ्रम भी हो सकता है कि मैं उसके पास जा सकी। शायद निराला के संस्कृत के संस्कार के कारण ऐसा हुआ हो कि शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थान्विति से उनके काव्यार्थों की सिद्धि होती है। निराला की कविता को पढ़ते हुए इस ओर भी ध्यान गया कि हिंदी की साहित्य शिक्षा में अद्वैत के साथ हमारा सैद्धांतिक परिचय कुल उतना ही है जितना भक्तिकाव्य के सिलसिले में, उसे सिर्फ अपर्याप्त और असिद्धि मानने के लिए ज़रूरी है। अधूरा और अपर्याप्त। जबकि निराला की कविता का आरंभ वही है और अन्त भी वही। छायावाद के संदर्भ में सामान्यतः और निराला व प्रसाद के संदर्भ में विशेषतः यह केवल गतानुगतिक किस्म का परंपरामोह नहीं और न केवल पराधीनता की स्थिति में भारत-व्याकुलता का सबूत है। इन दोनों के ही संदर्भ में यह देशकाल के साथ उनके गहरे संबंध की संरचना का पर्याय है। निराला का ‘जगन्मिथ्या’ का अर्थ और ‘माया’ की अवधारणा अद्वैत के पास जाए बिना पकड़ी ही नहीं जा सकती।
इस किताब की प्रमुख कोशिश निराला को उनकी अपनी भूमि पर देखने और समझने की है, इस आस्था के साथ कि यह अपने आप को भी समझने की शुरूआत है, अपनी परंपरा को, और अपनी परंपरा की आधुनिकता को। शायद यह निराला का एक बन्द पाठ है लेकिन ‘क्लोज़’ का एक अर्थ बंद तो दूसरा अर्थ निकट और गहन भी है।

 यह कुछ हद तक मेरी अयोग्ता का प्रमाण है और कुछ हद तक इस ज़िद का कि प्रायः पाठ को ‘खोलकर’ किया यह जाता है कि पाठ असिद्ध हो और कविता की संप्रेषण की अपनी ज़रूरत दरकिनार रह जाए। यह पाठक का दावा भले सिद्ध करता हो लेकिन प्रायः मूल रूप से या तो रचना के विरुद्ध होता है या फिर रचना के प्रति उदासीन। रचना में सर्वथा स्वतंत्र कुछ कहने के लिए पाठ में सेंध लगाने ज़रूरत क्यों होनी चाहिए, अगर किसी के पास सचमुच, स्वतंत्रतः कुछ कहने के लिए है तो, यह बात मैं अभी तक पूरी तरह से समझ नहीं सकी हूँ उससे आश्वस्त नहीं हूँ। ‘खुले पाठ’ का उतना ही विधान मुझे न्यायोचित लगता है जितना किसी-न-किसी स्तर पर रचना से जुड़ा और रचना को ही खोलने के लिए प्रतिबद्ध होता है। रचना में निहित संसार को खोलने के लिए पहले उसके भीतर बंद संसार का कोना-कोना झाँक लेना ज़रूरी है और जो परंपरागत टीका पद्धति से परिचित हैं, उन्हें मालूम है कि यह बंद पाठ कितना खुला हो सकता है।

पाठ की अस्पष्टता और अनिश्चितता से बहुत गहराई तक परिचित होने के कारण हमारे व्याकरण और काव्यशास्त्र ने अर्थ के निश्चय की पद्धतियाँ विकसित करने की ओर ध्यान दिया लेकिन इस संभावना को हमेशा केंद्र में बनाए रखा कि अंतिम रूप से कोई अर्थ कभी निश्चित नहीं किया जा सकता। व्यंजना शब्दशक्ति की कारगुजारियों ने महाभारत करवाए हैं। संप्रेषण की ऐसी दुर्घटनाओं से बचने के लिए भी रचना के पाठ के खुलेपन को रचना के अभप्रय से जोड़े रखना ज़रूरी है। अन्यथा जीवन तो सभी के पाठ के लिए खुला हुआ है, किसी और पाठ यानी रचना का वध अपने पाठ की स्थापना के लिए जरूरी होता ही क्यों है, सिवाय इसके कि आलोचक का रचनाद्वेष और वर्चस्व-भाव आलोचना को ही रचना की जगह पर स्थापित करने का आग्रही है।

जिस दुनिया में खड़े होकर आज हम निराला की परंपरागत आधुनिकता को देखते हैं वह उनकी मूल्यचेतना की सार्थकता और प्रासंगिता की गवाही स्वयं देती है। जिसे वे जड़वादी दृष्टि कहते थे उसकी यात्रा की दिशा को वे दूर तक और समझ सकते थे। उसके विपक्ष में वे आत्मवाद के साथ खड़े थे तो इसलिए कि वे मानते थे कि अनियंत्रित उपभोग की वह जड़वादी दिशा ही विनाश की है। यह और बात है कि यात्रा के अपने तर्क होते हैं और जिस दिशा में निकल पड़ा जाए, उसके चप्पे-चप्पे में निहित स्वार्थों के इतने बीज रोपे और फसलें उगाई जा चुकती हैं कि, अंत तक जाए बिना लौटा नहीं जा सकता है। ‘कुकुरमुत्ता’ में निराला ने कुकुरमुत्ता के खात्मे से उसी अंत की ओर, तथा ‘खजोहरा’ में अपनी ही खुजली से कूदती, फाँदती, भगाई मचाती ज़ड़वादी दृष्टि यानी माया की उपचारहीन जलन की ओर इशारा किया है। निराला ने जिसे ‘हिस्सा बाँट और विभाजन’ कहा है उसका नतीजा यानी अनियंत्रित उपभोग कामना से प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन, वर्चस्व की कामना से विनाश की दौड़ में ताबड़तोड़ होड़ाहोड़ी, धरती का ऐसा बँटवारा कि मनुष्य की निर्बाधता पर स्थायी अड़ंगे, जनसंख्या के विभाजन को देखें तो धरती उलार,-यह दुनिया अब खुद भी अपनी यात्रा की दिशा का अंत देखने की हद तक आ पहुँची है और अब जब उलटकर पीछे का रास्ता देखने की ज़रूरत आ पड़ी है, तो निराला की प्रतिमा खड़ी मुस्कराती, याद दिलाती-सी दिखती है कि, देखा ! हम न कहते थे !

अब उनकी सार्थकता और प्रासंगिता के बार बार अविष्कार का समय है। उस दिशा में यह छोटी-सी कोशिश उनकी कविताओं में व्यक्त संसार को मूल रूप से उनके अपने ही निबंधों, कहानियों, समीक्षाओं आदि में निहित विचारों के सहारे सत्यापित करती है क्योंकि इससे एक तो उनका अपना मंतव्य प्रमाणित होता है, दूसरे, आधुनिक आलोचना के पास निराला को जाँचने के लिए ‘अंतर्विरोध’ के अलावा और कोई अवधारणा न होने के कारण, और उस अवधारणा से मूलतः असहमत होने के कारण मेरे पास कोई उपयुक्त कसौटी नहीं बचती। सच है कि अंतर्विरोध की अवधारणा मानसिक संसार की जटिलता को समझने के लिए खास तौर से कारगर एक औजार है, लेकिन तभी तक, जब तक अंतर्विरोधी भाव के साथ भाव को लेकर या कि विचार के साथ विचार को लेकर या कि भाव के साथ विचार को लेकर मानसिक संसार की परत-दर-परत जटिल संरचना का कर्ता हो। मूल्य के साथ मूल्य के अंतर्विरोध का अर्थ या तो जीवन को जड़ से हिला देनेवाली कोई दुर्घटना हो सकती है या फिर मूल्य के ढोंग को सुविधा का सामान बना देने की मौकापरस्ती।

 मौकापरस्ती से निराला अछूते थे और अनेक दुर्घटनाओं के बावजूद निराला की आस्था टूटी नहीं, बार-बार उसी मूल्यचेतना के सत्यापित करती रही इसलिए मूल्यगत अंतर्विरोध की अवधारणा के सहारे उनके साथ केवल अन्याय किया जा सकता है।
इस कोशिश की मूल स्थापनाएँ आज भी वहीं हैं जो 1983 में पुस्तक मेरे शोध प्रबंध की थीं। तब इस कोशिश में एक ‘शायद’ का भाव था। आज एक निश्चय का। इस सिलसिले में कविताएँ अगर बंद हुई हैं, उनके वैचारिक मूलाधार में ही बेहद खुलेपन और नमनीयता के बावजूद, तो इसके लिए मुझे क्षमाप्रार्थी होने की कोई ज़रूरत महसूस नहीं होती।

विहग और मीन समग्र सौन्दर्य-चेतना के सर्जक निराला
निराला और आलोचक


सृजन-कर्म और सृष्टा व्यक्तित्व के बारे में जितनी परतों, उलझनों और गुत्थियों की कल्पना की जा सकती है निराला उसके प्रतिनिधि उदाहरण हैं। उनके प्रति आलोचकों के अदम्य आकर्षण का यह भी एक कारण है कि सुलझाने की भरकस कोशिशों के बावजूद यह अहसास बना ही रहता है कि अभी कहीं कुछ बाकी रह गया है। अपनी पकड़ और पहुँच से बाहर रह गए इस निराला को कभी अन्तर्विरोध तो कहीं भ्रान्ति की शब्दावली में समझने और कोई संगति-सूत्र तलाशने की कोशिश की जाती है।

निराला के व्यक्तित्व की पहचान में बाधाएँ  जितनी अधिक हैं उतनी ही बड़ी उन्हें पार करने की आलोचकीय कोशिशें भी हैं। यह निराला की सर्जना के अदम्य आकर्षण के अलावा उन चुनौतियों का प्रमाण भी है जिन्हें उनकी रचना के अर्थ को रहस्यमय स्वभाव आलोचक के सामने खड़ी कर देता है। हिन्दी का मौजूदा आलोचनात्मक विमर्श आधुनिकता बोध के विविध दायरों के भीतर ही संभव है और निराला की रचना में बहुत कुछ ऐसा है जो इन दायरों के पार जाता है लेकिन फिर भी वह गैर-आधुनिक या प्रति-आधुनिक हर्गिज़ नहीं। उनकी आधुनिकता वस्तुतः अपनी परंपरा के अंतरंग आधुनिक स्वाभाव के अविष्कार से रचित होती है। इसलिए परंपरा की अस्वीकृति से आरंभ करनेवाले उस ज़मीन पर पाँव रखने से ही चूक जाते हैं जिस पर खड़े होकर निराला शुरुआत करते हैं। निराला की अपनी आधुनिकता को समझ पाने के प्रयत्न में आलोचक के सामने पहले से मौजूद किन्हीं ही धारणाओं और विचारधाराओं का चौखटा अपर्याप्त साबित होता है। इस बात का आभास निराला के सुधी आलोचकों को है कि उनके जैसे कृती की रचनाओं के विश्लेषण से साहित्य के सिद्धान्त निचोड़े और निष्कर्ष की तरह पाए जाकर आलोचनात्मक समझ को समृद्ध करते हैं अन्यथा पहले से मौजूद कसौटियों के परिप्रेक्ष्य में बड़े-से-बड़े रचनाकार को विरोधाभासों का शिकार रफ़ा-दफ़ा कर देना और अपनी आलोचकता के लिए धन्य हो उठना खासा आसान काम है।

निराला नाम की गुत्थी को सुलझाने में अनेक सुधी आलोचकों की सहृदय कोशिशों का योगदान है। जितने लोग अब तक निराला के कवि और काव्य को अपना विषय बना चुके हैं उनकी गिनती भी शायद प्रामाणिक और सत्यापित रूप से न पेश की जा सकी। इस प्रबन्ध का विनम्र प्रयास निराला की काव्य-चेतना को उसकी समग्रता में समझने का है हाँलाकि आलोचना का मौजूद माहौल समग्रता के विरुद्घ-उसकी संभावना से भी इनकार की हद तक-और विखंडन के पक्ष में है। यहाँ उन्हीं आलोचकों के विचार उदधृत और परीक्षत हैं जिनका चिंतन इस प्रबन्ध के प्रयास के संदर्भ में न केवल प्रासंगिक है बल्कि अनिवार्य और सार्थक महत्त्व रखता है। अगले पृष्ठों में ऐसे ही कुछ प्रमुख विचारकों के निष्कर्षों के विश्लेषण और तुलना के द्वारा यह समझने का प्रयास है कि निराला के व्यक्तित्व में ऐसा क्या है जो अलग-अलग-परस्पर विरोधी र्भीविचारधाराओं के आलोचकों को अपनी ओर खींचता और निष्कर्षों की तरफ जाने के लिए बाध्य करता है
लेकिन बावजूद इसके प्रायः सभी अपनी-अपनी तरह से निराला के पक्ष में ही है,

निराला के सृजन की बहुमुखता को समझाने की कुंजी देते हुए श्री दूधनाथ सिंह का कहना है, ‘‘संसार की किसी भी भाषा में ऐसे कवि प्रायः बहुत कम होंगे जो रचना स्तरों के अनेक रूपों को साथ-साथ वहन कर सकें और लगातार अनेकमुखी अर्थोंवाली कविताएँ रचने में समर्थ हों। इसका प्रमुख कारण यही था कि निराला ने जीवन को एक साथ अनेक स्तरों पर जिया। शायद जीवन और काव्यरचना में एक साथ संघर्ष और सन्धान के इतने सारे फ्रन्ट लगातार खोलने और लगातार लड़ते रहने, रचते रहने की मानसिक और शारीरिक थकान को समझने के बाद ही उनके मानसिक असंतुलन को समझा जा सकता है।’’ (निरालाः आत्महंता आस्था’ , पृ.-17)

निराला के अध्येता के लिए उनके मानसिक असंतुलन को समझने से ज्यादा बड़ी और शायद असली भी उनकी स्वस्थ सबल रचनात्मक ऊर्जा के स्फोट को समझने की है। यह देखते हुए तो और भी अधिक कि भोक्ता निराला के जीवन में जो विक्षेप घटित हुआ, स्रष्टा निराला का कवि-कर्म उससे अछूता ही बना रहा और रचना आजीवन लगातार चलती भी रही।
उनकी रचनात्मक अनेक स्तरीयता और विषयगत विविधता को समटने और समझाने के लिए सही अध्ययन दृष्टि को लेकर दूधनाथ सिंह की प्रस्तावना है कि ‘कालक्रम के आधार पर लगातार एक ही समय के आसपास रची गई भिन्न-भिन्न ढंग की इन कविताओं में कोई तारतम्य और संगति बैठाना विचित्र लगता है।’ इसके स्थान पर ‘उनकी रचना–प्रक्रिया को, रचना-प्रक्रिया के अनेक स्तरों के हर समय क्रियाशील रहने के रूप में यदि देखा जाए तो उनकी कविता और उनके काव्यसत्य को समझने में ज्यादा सुविधा होगी।’ (‘निरालाः आत्महंता आस्था, पृ.-16)

इस प्रस्तावना में दिक्कत एक ही है कि इन सभी स्तरों वैविध्यों को एक दूसरे से स्वतंत्र मान लिया गया है और संगति या तारतम्य की खोज को विचित्र यानी शायद व्यर्थ भी घोषित कर दिया गया है। इसके सहारे ऐसी केन्द्रीय मूल्यभावना को पहचान पाना असंभव है जो उनकी सिसृक्षा का आदि और सभी दिशाओं का समान प्रस्थान बिन्दू है।
निराला के दूसरे महत्त्वपूर्ण और समर्थ आलोचक श्री धनंजय वर्मा हैं। श्री दूधनाथ सिंह के ठीक विपरीत वे निराला के अध्ययन के लिए कालानुक्रम को एक आवश्यक दृष्टि मानते हैं, ‘ऐसा कोई एक ही वृत्त या केन्द्र नहीं है जिसे लेकर कहा जाए कि यह निराला है यही निराला हैं। उनके व्यक्तित्व और काव्य में ऐसे विरोधी तत्त्वों का योग है जो हिन्दी के चिर-समन्वकारी साहित्यकारों के लिए एक पहेली बन गया है। वे उनके व्यक्तित्व और काव्य के प्रति सचेत नहीं रह पाए...निराला के काव्य और व्यक्तित्व के अनेक पहलू हैं, जिनमें तात्कालिक दृष्टि से एकता या तारतम्य नहीं मिलता। वे विरोधी और पृथक-पृथक भी हैं। उनका अनुक्रमिक भूमिका पर अध्ययन किए बिना उस निहित अन्तर्विरोध को नहीं समझा जा सकता, न उनके व्यक्तित्व, उनकी विचारणा या काव्य का समाहित चित्र मिल सकता है।’ (‘निराला काव्य : पुनर्मुल्यांकन’ , पृ.-21)

दोनों आलोचक कालानुक्रम संबंधी धारणा को लेकर एक-दूसरे के विपरीत होने के बावजूद एक अर्थ में एक-दूसरे के समान हैं। दोनों ही ऐसे किसी संगति-सूत्र की तलाश में है जिसके द्वारा निराला के व्यक्तित्व के अन्तर्विरोधों में कोई सामंजस्य बिठा सकें।

दूधनाथ सिंह के अनुसार रचना के माध्यम से निजता का साक्षात्कार और आत्ममुक्ति निराला की समस्त कविता का अविच्छिन्न सूत्र है। इस समझ को उन्होंने निराला की सभी प्रकार की कविताओं की व्याख्या में लागू भी किया है। इस तरह निराला का समूचा साहित्य-‘तुलसीदास’ और ‘राम की शक्तिपूजा’ समेत उनके प्रक्षेप का पर्याप्त बन जाता है। यह सत्य है। कि कवि का भोक्ता व्यक्तित्व ही वह यंत्र है जिसके द्वारा वह अपना अनुभव कोष संचित करता और सृष्टा व्यक्तित्व के सामने उसे सृजन-सामग्री में बदलने के लिए परसता है। कवि का आत्मांश इस रूप में कविता में सर्वत्र खोजा जा सकता है लेकिन इसका अर्थ वह तादात्म्य है जिसके द्वारा कवि अपने विषय के साथ अधिकतम निकटता हासिल करता है। दूधनाथ सिंह द्वारा प्रस्तावित आत्मप्रक्षेप कविता में कवि की जीवनकथा की तलाश का पर्याप्त बन गया है। काव्यमूल्य के रूप में ‘अपने निजत्व की पहचान’ उच्चतम शिखर पर सिसृक्षा मात्र का लक्षण है और निकृष्टतम रूप में कविता में आत्मकथा या जीवनी का स्थूल घटनात्मक बयान। दूधनाथ सिंह की व्याखा में ऐसी कोई विशिष्ट पहचान अलग से नहीं उभरती जो बताए कि वह क्या चीज़ है जिसके कारण यह निजत्व निराला का निजत्व है। सृजन-प्रक्रिया मूलतः अपने आप से तटस्थता की ओर यात्रा की प्रक्रिया है और यहाँ स्वयं आत्मकथा ही रचना होती है, वहाँ भी वह केवल आत्मकथा नहीं हुआ करती।


 

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