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हलफनामे

राजू शर्मा

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :252
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2821
आईएसबीएन :81-8361-078-1

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इसमें भारतीय समाज का असाधारण आख्यान एक तरफ शासनतंत्र की निर्दयत और उसके फरेब का वृत्तान्त है.....

Halafname

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

साहित्यिक अफवाहों, षड्यंत्रों, छोटी अकांक्षाओं से सचेत दूरी बनाने वाले राजू शर्मा विरल प्रतिभा के कथाकार हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में यथार्थ और उसकी अभिव्यक्ति की प्रचलित रूढ़ियाँ परिपाटियों को परे हटाते हुए कथन की सर्वथा नई संरचना अर्जित की है। उनका यह पहला उपन्यास हलफनामें की रचनात्मकता को चमत्कृत कर देने वाला विकास है।

हलफनामे को समकालीन हिन्दी उपन्यास लेखन की विशिष्ट उपलब्धी के रूप में देखा जा सकता है। एक मुख्यमंत्री किसान के वोट बटोरने के इरादे से किसान आत्महत्या योजना की घोषणा करता है। इधर मकई राम सूचना मिलती है कि कर्ज के बोझ से पिस रहे उसके किसान पिता ने खुदकुशी कर ली है।

मकई किसान आत्महत्या योजना से मुआवजा हासिल करने के लिए हलफनामा दाखिल करता है। कथा के इस घेरे में राजू शर्मा ने भारतीय समाज का एक असाधारण आख्यान रचा है। यहाँ एक तरफ शासन तंत्र की निर्दयता और उसके फरेब का वृत्तान्त है तो दूसरी तरफ सामान्यजन  के सुख-दुख संघर्ष की अनूठी छवियाँ हैं। साथ में हलफनामें पानी के संकट की कहानी भी कहता है और इस बहाने वह हमारे उत्तर आधुनिक समाज के तथाकथित विकास के मॉडल का गहन मजबूत प्रत्याख्यान प्रस्तुत करता है। न केवल इतना कि, बल्कि हलफनामें में भारत के ग्रामीण विकास की वैकल्पिक अवधारणा का अद्भुत सर्जनात्मक पाठ भी है।

हलफनामें इस अर्थ में भी उल्लेखनीय है कि इसमें न यथार्थ एक रेखिक है न संरचना। यहाँ यथार्थ के भीतर बहुत सारे य़थार्थ हैं, शिल्प में कई-कई शिल्प हैं, कहानी में न जाने कितनी कहानियाँ हैं। इसकी अभिव्यक्ति में व्यंग्य है और काव्यात्मकता भी। वास्तविकता की उखड़ी-रूखी जमीन है और कल्पना की ऊँची उ़ड़ान भी। अर्थ की ऐसी व्यंजना कम कृतियों में सम्भव हो पाती हैं।
संक्षेप में कहें , हलफनामें पाठक की दुनिया को अपनी उपस्थिति में विस्मित कर देने की सामर्थ्य रखता है।

हलफनामे

1
अगर दस महीने पहले


तुम मकईराम प्रसाद से पूछते कि मकई दस महीने बाद तुम क्या कर रहे होगे, तो जवाब देने में उसे रत्ती भर भी हिचक नहीं होती। एक गुनगनी मुस्कान उसके होंठ के एक सिरे से दूसरे सिर तक सन्तरे की फाँक की तरह फैल जाती। वह हरे रंग की नन्ही खुर्द बीन अपनी मिचमिचाती आँख से उतारता और हाथ इस तरह फैला देता, मानो सबको आगोश में भर रहा हो : दूकान के सामने के हिस्से में तीन तरफ दीवार से सटे, एक-दूसरे में झाँकते, लड़की-काँच के शो-केस, उसमें सजे-सँवरे तमाम बिजली और इलेक्ट्रॉनिक के साज-सामान, उनके पीछे मुँह बगारता तंग, धुँधला, गलियारा जहाँ लैम्प की रोशनी के तीन अलग घेरों में किन्हीं खराब मशीनों पर पागल आशिकों की तरह झुके तीन अदद कारीगर और गलियारे से सटा सीलन भरा गोदाम, जिसमें भूली- बिसरी यादों की तरह, दुनियाभर के नेक, लावारिस, दमतोड़, दुरुस्तीवाले बिजलीखोर, यन्त्र-उपयन्त्र बिखरे पड़े हैं। और तब वह निपट मासूमियत और दिलतोड़ आत्मीयता से कहता-‘मेरे दोस्त, मैं यहीं मिलूँगा, यही कर रहा हूँगा। मैं जन्मजात बिजलीसाज हूँ। यही, निमित्त है मेरा, यही भगवान का घर।’

तुम्हारे अचरज का ठिकाना न रहा, जब उसने तुम्हारे घिसे-पिटे बाबा आदम के जमाने के वीडियो रिकार्डर को चन्द मिनटों में ठीक कर दिया। तुम मुँहबोली बेहद कम कीमत अदा कर जाने को हुए, उसने मुलायम स्पर्श से तुम्हें रोक लिया और कहा-दिल को छू लेनेवाली बात तुमने पूछ ली दोस्त, कुछ सुनने सुनाने की फर्द भी बननी चाहिए। खिंचे से, तुम वहीं मोढ़े पर बैठ गए और उसकी आवाज तुम्हें सुनाई दी, झील के किनारे हल्के छपकते पानी सी। उसने बताया कि उसका बाप स्वामीराम प्रसाद एक किसान है, सरकारी भाषा में एक लघु कृषक। अट्ठारह पुश्तों से वे एक गाँव में रहते आए, पुरखों ने इसी जमीन की मुगलों को लगान दी। यह समझ तो अब आया है कि सरकार ने छोटे काश्तकारों की वसूली माफ कर दी, पर जमीन परिवार में बँटकर धीरे-धीरे घटती गई, वह इकलौती औलाद है, यह गनीमत है क्योंकि खेती अब कुल दस बीघे बची होगी, वह भी तीन अलग चकों में। खानदान में वह पहला है जिसने गाँव से बाहर, इस कस्बे में घर बसाया और खेती से अलग धन्धा शुरू किया।

जल्दी ही तुम्हें मालूम हुआ कि तीन चकों में दस बीघे जमीन के मायने क्या है ? समझ लो, एक चक लम्बाई में डेढ़ सौ गज और चौड़ाई में तीस, ऐसा हिसाब कि मेड़ अगर कम ज्यादा चौड़ी हो जाए तो फसल के तोल पर साफ असर पड़े। तुमने सुना है भगवान विष्णु के वामनावतार थे, जिन्होंने दो पैर में संसार नाप दिया था और तीसरा पग असुरों के राजा बालि के सिर पर रख दिया था। न मालूम वह राजा बालि ही था या ब्रह्माजी खुद पर बापू के चक की चौड़ाई को अंजू बॉबी जॉर्ज चार कूद में पार कर दे। जिस परतुर्रा ये कि वह बेचारी ओलम्पिक खेलों में काँसे तक का पदक न पा सकी, पर बापू को यह ठिठोली पसन्द न आई थी या शायद रास न आई हो...।

इससे पहले तुम कुछ पूछते, वह उँगलियों पर गिनती, गुणा करते हुए कहता कि बापू ने तब भी जमीन से इतना पैदा किया कि परिवार को भूख और ना उम्मीदी नहीं झेलनी पड़ी, अमूमन छोटी-छोटी चाहतें हमेशा पूरी हुईं।
तुम्हारा ध्यान बँटने लगा, तुम्हें उबासी आने लगी, क्योंकि मकईराम की बातें आदर्श नैतिक आचरण का पाठ सी सुनाई दे रही थीं। तभी उसने हँसते हुए कहा कि आखिरी बार जब वह खेत पर गया था, वह पन्द्रह बरस का था। उसके बाद से उसने दादा- परदादाओं की जीवनदायी जमीन नहीं देखी। यह सुनकर तुम चौंक। क्यों नहीं गया बीस साल से तुमने सोचा। उसकी हँसी में एक तरफ रहस्य छिपाने का बहकता अन्दाज था और दूसरी तरफ दर्द और दूरी का अवसाद भी...अबूझा सा दर्द जिसमें अन्तरंग रिश्ते की गूँज है और असंग के आहत कण...जैसे बदन का नामालूम दर्द, जिसे एक जगह सहलाओ तो कहीं और सरक जाता है, पर जिन्दा रहता है।

तब तुमने उसे कहते हुए सुना-‘खेत तक जाने को कोई चकरोड नहीं थी। अपने-अपने दुस्साहस के अनुपात में हर किसान ने उन्हें जब्त कर लिया था।  मेड़ों पर चलते हुए पहुँचा। बचपन में खूब किया था। कभी अम्मा आगे होती कभी मैं। पर मुझे आगे रहना ज्यादा अच्छा लगता, तब अम्मा के गुनगुनाने की आवाज पीछे से आती उस शाम पानी पड़ा था, बारिश थम गई थी, मिट्टी की प्यास अकूत। राँधी, उलटाई मिट्टी के बीच से मेरा बाप उठा। ऊँचा कद, चौड़ा सीना-मेरे जैसा पतला, मुलायम नहीं-सने हुए हाथ-पैर के बीच भी उसका आकार और फौलाद सनसनाहट पैदा करता था। उसके चमकदार दाँत की पक्तियाँ कह रही थीं, मेरे लाल, मकई के दाने अगले साल तेरी पढ़ाई पूरी हो जाएगी फिर हम दोनों मिलकर इस माटी से चौगुनी नहीं, तो दूनी पैदावार लेंगे। तब मेरे मुँह से खुद ब खुद निकला-मैं काश्तकारी नहीं कर सकता बापू, मेरा मन इसके लिए तैयार नहीं। मेरे हाथ खेती के लिए बेकार हैं। मैं तेरी तरह कभी किसानी नहीं करूँगा। इसे मेरी विनती समझ ले या फैसला।’

तुम्हारे दिमाग में यह सवाल कौंधा कि क्या मकईराम ने अपने पिता के खिलाफ पन्द्रह साल की उमर में विद्रोह कर दिया ? उस शाम की घटना के बाद क्या हुआ, यह जानने के लिए तुम उतावले हो उठे। तुम्हें पता चला कि उस शाम जितनी बातें स्वामीराम अपने बेटे को खेती के गुर और आनन्द के बारे में कहना, चाह रहा था, वह बेचारे ने अपने पेट में दफन कर लीं। पर झरझर आँसू बहने लगे मकई की आँखों से। इस वजह से नहीं कि उसने बाप का दिल दुखाया। हुआ ये कि उतावली में उसके हाथ से खाने का थैला औंधे मुँह मिट्टी में गिर गया, बापू को रात भर खेत पर रुकना था। अब बापू बेचारे को भूखा रहना पड़ेगा।

पर किस्मत और मुस्तकबिल की लकींरें खिंच चुकी थीं। बाप ने उस दिन का जिक्र दोबारा कभी नहीं किया। न ही मकई पर अपना इरादा बदलने के लिए जोर डाला। मानो यह विषय अब अछूत हो गया था। स्वामीराम पर इतना ही असर हुआ कि खेतों की पिराई-कुटाई करते या फसल उतारते उसका जबड़ा कुछ अधिक भिंचा रहता। मानो बेटे की मेहनत का हिस्सा वह खुद की मांसपेशियों से अदा कर रहा है। दूसरी तरफ बेटे की मेहनत का हिस्सा वह खुद की मांसपेशियों से अदा कर रहा है। दूसरी तरफ धूमकेतू के नियत, पथ की तरह एक दिन मकईराम कस्बे का बल्कि गौर किया जाए तो प्रदेश ही नहीं, पूरे उत्तर भारत का सबसे बेहतरीन अपूर्व बिजलीसाज बन गया।

बाहर शाम गहराने लगी थी और तुम्हें बचे काम पूरे करने का ख्याल दबोचने लगा। पर यह माहौल मकई का दोस्ताना मिजाज, कारीगरों की तल्लीन खामोशी हुनर की नुमाइश और एक अधूरे कथानक का आतुर सम्मोहन तुम्हें रुकने का आग्रह कर रहा था। पर लौटाना जरूरी था। लौटते हुए मकईराम की छवि तुम्हारे दिल के एक सजग कोने में दाखिल हो गई।

फिर तुम्हारी एक हसीन आदत बनते देर नहीं लगी। घर में बिजली से चलनेवाले तमाम उपकरण थे, जिनकी मरम्मत कराना तुम हमेशा मुल्तवी करते थे। अब अकसर तुम उन्हें लेकर मकई की दूकान पर पहुँच जाते। वह उन्हें ठीक करता और तुम उसकी बातें सुनते। चन्द्र दिनों में ही तुम जान गए कि ऐसे तुम अकेले नहीं हो, वह तजुर्बा बहुत से लोगों का है और सबका एक मत है कि मकईराम और स्वामीराम बिरले तरह के बाप-बेटे हैं और अपने-अपने हुनर के अगाध ज्ञानी..ढूँढ़े ऐसा किसान नहीं मिल सकता, जो स्वामीराम की जादुई काश्तकारी से टक्कर ले सके और मकई का तो कहना ही क्या, तुम कोई ऐसी बिजली की मशीन दिखा दो जिसे मकई पूरा खोलकर दोबारा न जोड़ दे, तो हम पूँछ मुड़वा दें।....मकईराम का रुतवा ज्यादा है क्योंकि जनपद में किसान ज्यादा हैं, बिजलीसाज कम।

मकईराम बिजलीसाज का तसवीरी बयान तुम्हें बहुत जल्दी कंठस्थ हो गया। मसलन तुमने उसकी ऊँगलियाँ देखी हैं; भिंडी या फली की तरह पतली। चूसने या सहलाने को मन करे। हमेशा थिरकन उनमें, छू भर देने से बिजली की तरंग बहने लगती है अपने आप, बार रे बाप करंट-सा लगता है...।

यह सच है कि मकई ने कभी संस्थागत तरीके से बिजली का काम नहीं सीखा। माना जाता है कि बचपन में वह आवारगी में बिजली बोर्ड के एक पियक्कड़ लाइन मैन के पीछे-पीछे घूमने लगा था। उसकी देखा-देखी मकई भी बिजली के खम्भों पर चढ़ जाता। लाइनमैन की जेब से एक बार उसने पेचकस जैसा ‘टेस्टर’ चुरा लिया और तब उसके सामने तार, बिजली सर्किट और कट-आउट की एक नई, अनोखी, दुनिया खुलती चली गई, परत दर परत, जिसका छोर अछोर था। यह आम राय बनते देर नहीं लगी कि एक मामले में मकई न समय देखता है, न जगह, न आदमी। जो कहीं चिप या तार के सर्किट मकई के सामने आ गए तो वह तन से और मन से उसमें प्रवेश कर जाता है। उसके बाद हमें बस उसके शरीर का खोल ही दीखता है, उसकी रूह तो चिप और तारों के भीतर विचरने लगती है।

इलेक्ट्रॉनिक्स की दुनिया विकल तेजी से बदलती रही, पर मकई के लिए यह कोई दिक्कत नहीं थी। भिखारी और मजदूरों के जख्मी, पुरातन ट्रांजिस्टर रेडियो से लेकर इलाके के सांसद का मठरी के आकार का डीवीडी प्लेयर और आई पॉड जो उसने हाल में ही विदेश से मँगवाए थे, ये सब सर्विस और मरम्मत के लिए पहले या आखिर में मकई के पास पहुँचते थे। आखिरी इलाज के रूप में मकई की मरम्मती को बेपनाह ख्याति मिली। ऐसे अफसानों को सुनकर एलजी और सैमसंग जैसी कम्पनियों ने दो-तीन बार अपने तकनीशियन मकई की दूकान पर भेजे। वे किसी तरह उसका व्यावसायिक रहस्य चुराना चाहते थे। पर प्रमुखतः अंग्रेजी-भाषी होने के कारण उन्हें मकई की अपनी तरह की हिन्दी बोली और प्रौद्योगिकी के बारे में उसकी प्रतीक शब्दावली न समझ में आई न रास आई। वे गुस्से में पैर पटकते हुए चले गए और उनका निष्कर्ष था कि जब मकईराम स्टेट ऑफ आर्ट नई मॉडल की इलेक्ट्रॉनिक्स मशीनें मरम्मत के लिए खोलता है तो वे, ऐसा लगता है, तब खुद ही ठीक हो जाती हैं। यह ‘सेल्फ हीलिंग’ सिद्धान्त का उदाहरण लगता है यह उनका चिड़चिड़ा निचोड़ था।

रेडियो, टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, सीडी प्लेयर, हर तरह के लैम्प और इस्त्री, हीटर, गीजर, विद्युत शेवर, ड्रायर, वैक्यूम क्लीनर और वोल्टेज स्टेबालाइजर; बिजली से चलते खिलौने, कम्प्यूटर और हर तरह का फोन और मोबाइल-कस्बे के लोगों में यह मजाक होता कि ये सारी सुसरी चीजें, ऐसे यन्त्र, संयन्त्र, तन्त्र और समझ लो इनके सारे जायज-नाजायज सगे सम्बन्धी मकईराम के बिजलीनुमा हरम के मेस्बरान हैं।
यह सब बताने के बाद तुम अकसर अपनी बात यह कहकर खत्म करते, ‘तो यह है मकईराम प्रसाद का जनप्रिय, सर्वसम्मत बायोडेटा और इस पर कस्बे के हर बाशिन्दे के बाकायदा दस्तखत हैं।

पर एक बात तुमने अपने तक ही सीमित रखी क्योंकि उसके बारे में तुम इत्मीनान नहीं बना सके थे। तुम्हें लगा था हो सकता है यह तुम्हारा बहम या कम समझी ही हो। तुम बाप और बेटे के रिश्ते के अबूझपन को लेकर उलझे थे। तुम्हें उसमें अनकहा रहस्य दिखाई दिया, लगा कि यह पहेली की तरह भँवरजाल है जिसके संकेत धुँधले और गहरे हैं। एक हद पर दोनों के बीच अपार स्नेह था, खून के रिश्ते की उछाल और दूसरी तरफ जुदाई और अजनीबियत की ऐसी दूरी थी जो नक्षत्रों के बीच होती है लाजिमी शर्त की तरह। उनके हुनर की चमक ने जैसे उन्हें समानान्तर रेखाओं पर चलने के लिए मजबूर कर दिया था जिनका क्षितिज की सीमाहीनता पर भी एकमेक होना असम्भव लगता था। इस सहज और दुर्लभ पीड़ा को तुमने साफ महसूस किया था पर तुम्हें खतरा बना रहा कि कहीं यह महज कल्पना तो नहीं ? और तुमने जिस तरह पिछले बीस सालों में मकई कभी खेत पर नहीं गया, उसी तरह इस चौथाई सदी के बराबर काल खंड में स्वामीराम भी कभी दूकान पर नहीं आया होगा। पर तब भी दोनों निरन्तर एक-दूसरे की याद करते नहीं थकते थे और जिस तरह मकई दूकान में बैठा बाप की निराली कहानियाँ सुनाता था, स्वामीराम भी जरूर घर के आँगन में अम्मा से, पास-पड़ोसियों से मकई के बिजली कारनामों का गुणगान करते नहीं अघाता होगा।

तुम समझ नहीं पाए कि यह योग का वियोग है या वियोग का योग। ऐसी बातें सोचकर तुम भावुक हो जाते पर एक सर्द, आतंक पैदा करता सा उद्गार बहुत पीछे नहीं रहता-जिस बाप की बातें मकई करता है। वह बीस साल पहले का स्वामीराम है ! शायद पिता की आँखों के सामने भी पन्द्रह साल का मकई स्थिर प्राण हो गया था। विस्मृति को झिल्ली ने उनके वर्तमान का गबन कर लिया था। वे एक-दूसरे को उतना ही जानते थे और उसी तरह बीस साल पहले। और दोनों इस कातर सच्चाई से अनजान थे।

क्या ऐसा है, तुमने अपने आप से पूछा था, फिर पूछना छोड़ दिया था। कुछ सवाल होते हैं जिनके जवाब नहीं होते...कुछ सवाल, सवाल के भेद में गहन, अमोल सच्चाइयाँ होती हैं।
यह दस महीने पहले की बात है। दस महीने बाद मकई की जिन्दगी एकाएक इतनी बदल गई और इतने अप्रत्याशित अनूठे रास्तों पर चल निकली कि जब तुम उससे एक बार मिले, तो उसे एक क्षण के लिए पहचान भी न पाए थे। दस महीने का समय कोई ज्यादा नहीं है, कुछ मायनों में कम भी नहीं। पर मकईराम के लिए यह समय-खंड न कम था, न ज्यादा। वह अन्तहीन था और आद्यंत समय उसके लिए ठहर गया था; बीते, बीतने का अहसास खत्म हो गया था। वह समय था ही नहीं जिसके मध्य मकई अब गुजर रहा था, उसे पीड़ा और भावशून्यता की सुरंग कह सकते हैं। जहाँ स्मृति-विस्मृति वजह- नतीजे, अपराध-पश्चात्ताप यथार्थ-कल्पना की विरोधी कटारें आपस में टकरा रही थीं। और उसे लग रहा था वह कट मिट रहा है, न जाने इस घटना चक्र का अन्त क्या होगा।

एक सुबह अचानक यह दहलाने वाली खबर आई कि स्वामीराम नहीं रहा। उसकी मौत हो गई है। किसी वक्त रात में उसने जहर पी लिया। जब तक पता चला बहुत देर हो चुकी थी। स्वामीराम ने खुदकुशी कर ली थी।


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