लोगों की राय

विविध उपन्यास >> दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता

दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता

सुरेन्द्र वर्मा

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :248
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2823
आईएसबीएन :81-7119-312-9

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

228 पाठक हैं

सफेदपोश अपराधी और माफियों के जीवन पर आधारित उपन्यास...

Do Murdon Ke Lie Guldasta

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उपभोक्ता समाज में जीने की एक ही शर्त है-अपनी किसी योग्यता को बाजार में बेच पाना। छोटे बाजार में छोटी कीमत, बड़े बाजार में ऊँची कीमत। अच्छी कीमत पाने के लिए बाजार की समझ जरूरी है। ऊँची कीमत से सरप्लस, अधिशेष बनेगा और धन का संचय हो सकेगा। इससे सुख और ऊँची जीवन शैली तो प्राप्त हो जाता है, लेकिन बाजार अपनी पूरी कीमत वसूलता है-चाहे गन्ने की तरह सुरक्षा और समृद्धि का सपना सँजोए शिक्षित-सुन्दर नील और अल्प शिक्षित भोला अवसर और समृद्धि के महानगर मुम्बई पहुँचते हैं। भोला को अन्डरवर्ड पनाह देता हैतो नील मिसेज दस्तूर का शोध सहायक बनता है। अन्डरवर्ड भला पर विश्वास बढ़ाता है और भोला तरक्की तरता जाता है।

दो पैसे भी जोड़ता है। बार में नाचने वाली शालू के साथ घर भी बसाता है। उधर सजाली, शालीन, जहीन नील असंतुष्ट अधेड़ धनाढ्य महिलाओं के लिए पुरुष-वैश्या बन जाता है। उसका सितारा ऊँचा चढ़ता जाता है। फ्लैट. टेलीफोन, कार, विदेशा प्रसाधन औक काम सिर्फ आत्म को दबाकर शरीर बेचना। कुमुद से शुरू हुई यात्रा ब्लॉसम, यास्कीन, कुंतल, स्टेला, रंभा, कृष्णा, सौदामिनी, शिल्पी, पारुल, करुणा, फ्रांसीसी, स्विस औरतें, तुंतल राव वैशाली, उर्वशी, पारुल, नैन तक जाती हैं। सोमपुरिया सेठ की बेटी पारुल नील से प्रेम कर गर्भवती हो गयी है और नील नैन के प्रेम में पागल।

नील नैन से विवाह की सोचता है तो पारुल घराना उसे कुचल देता है। और भोला के जरिए माफिया तक जाता है तो माफिया भी हत्या की सुपारी लेकर नील को मार डालता है। भोला हत्प्रभ और सुन्न हो जाता है। साँस रोककर पढ़ी जाने वाली इस कथा में सफेदपोश अपराधी और माफिया दोनों हैं। दो जिन्दादिव मुम्बई गये थे-मुर्दा बनकर रह गये। उपन्यास दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता में सुरेन्द्रवर्मा एक नई कथा भूमि लेकर उपस्थित हुए हैं। यह कृति न केवल पाठकों के मोहेगी वरन चौंकाएगी भी।

दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता

लम्बी सीटी देकर गाड़ी नई दिल्ली स्टेशन से खिसकने लगी, तो नील माथुर गहरी साँस लेकर पीछे टिक गया। पटरियों की खट्-खट् के साथ पहले बाहरी सिगनल निकले, फिर मिंटो और तिलक ब्रिज...सिकंदरा रोडवाले चौराहे से फिसलती उसकी दृष्टि हाईकोर्ट, अप्पू घर और प्रगति मैदान की भव्य ऊँचाइयों पर पल-भर अटकी रही, फिर आँखों में नमी की बारीक परत झलक आई।
उसने जेब से रुमाल निकाला और आँखों से लगा लिया। मन का रुदन तो एक साल से चल रहा था, पर बाहरी दरार आज पहली बार पड़ी।
यकायक लगा कि वह रुलाई के आवेग से फफकने वाला है। आसपास सहयात्री थे। उसने दाँत भींचते हुए अपने पर काबू पाने की कोशिश की।
अनायास ही न चाहते हुए भी पाँच वर्ष पहले का वह दिन याद आय़ा, जब वह उमंग से भरा हुआ अपने बक्से और बिस्तरबंद के साथ इसी स्टेशन पर उतरा था। फिर न चाहते हुए भी बाइफोकल चश्मा लगा डॉक्टर शर्मा का सख़्त चेहरा सामने आ गया।

आँख का आँसू पल-भर में सूख गया। नमी की जगह क्रोध और प्रतिहिंसा की चिनगारी सुलग उठी।
‘‘एक दिन मेरा भी आएगा डॉक्टर शर्मा !’’ उसने बुदबुदाकर कहा, ‘‘मैं नए सिरे से अपने को जमा कर दिखा दूँगा।’’
फिर उसके सामने किरन की छवि आ गई—शोख़ी से उसे देखते हुए, कामना के आमंत्रण से हलकी अँगड़ाई लेते हुए।
उसने ठंडी साँस भरी। अगर अपने पर नियंत्रण रखा होता, तो आज का यह दिन क्यों आता...
उसने बैग से टटोलकर पैकेट व माचिस निकाली, तो साथ में लिपटा अंतर्देशीय भी हाथ में आ गया।
वह अचकचा उठा। अपनी व्यग्र मनःस्थिति में चिट्ठी डाक में डाली ही नहीं। सुबह ही तो कमरा खाली करते हुए जल्दी-जल्दी लिखा था, ‘‘प्रिय माँ, दिल्ली छोड़ रहा हूँ। नई नौकरी मिलते ही लिखूँगा। तुम मेरी चिंता मत करना। इससे तुम्हारे लिए मेरी चिंता कम हो जाएगी।’’

फिर माँ का वह प्रफुल्लित चेहरा याद आया, जो रामजस कॉलेज में उसे प्राध्यापिकी मिलने पर देखा था। अभी नियुक्ति अस्थायी पद पर थी। पर डॉक्टर शर्मा ने चिन्ता न करने का आश्वासन दिया। उसे एम.ए. में पहली श्रेणी के साथ पहली पोजीशन मिली थी, पर इससे भी बड़ी बात यह थी कि वह प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्ष का सबसे प्रिय छात्र था। एम.ए. के दूसरे साल में ही वह नियमित रूप से कैवलरी लाइंस के उनके बंगले पर जाने लगा था। वह अनौपचारिक रूप से उनका शोध-सहायक हो गया था—उनके दिए गए बिन्दुओं के सहारे शोध-पत्र का प्रारूप तैयार करना, संदर्भ-ग्रंथों से अपेक्षित उद्धरण ढूँढ़ना, प्रेस कॉपी के प्रूफ़ देखना। एम.ए. पूरा होते ही उसने डॉक्टर शर्मा के निर्देशन में डॉक्टरेट का रजिस्ट्रेशन करवा लिया था।

माँ शिकोहाबाद से बीच-बीच में आती रहती थी। उसके बहू लाने के कीर्तन को उसने पी.एच.डी. के बहाने रोक रखा था, ‘‘डॉक्टरेट होने दो माँ ! यूनिवर्सिटी में घुस जाऊँ, फिर बैंड बजवाना।’’
इसी लक्ष्य के चलते आई.ए.एस. में उसका रुझान नहीं था। लिखित परीक्षा में क्वालीफ़ाई करने के बावजूद वह इंटरव्यू के लिए नहीं गया था। उसे अध्यापन और सुकून पसंद था, सरकारी अफ़सर की प्रभुता और तनाव नहीं।
अगर होता, तो आज वह डॉक्टर शर्मा की गिरफ्त से बाहर होता...
उसने सिगरेट सुलगाई। फिर तीली बाहर फेंक दी।
सामने बैठी किशोरी आँखों में मिठास लिये उसे देख रही थी।
उसने निगाह फेर ली और खिड़की से बाहर देखने लगा।
उसे पता था, नारी जाति का बड़ा वर्ग आमतौर से उसके शरीर में आक्रामक आकर्षण पाता था। वह गोरे रंग और गठीले बदन का ऊँचा, स्वस्थ युवक था। नाक-नक़्श तीखे, तराशे। आँखें गहरी, काली। लम्बे घने बाल, जो उसकी आभा में कविसुलभ कोमलता जोड़ देते थे।

किरन के अल्हड़ यौवन की लगाम उसे देखते ही हाथों से छूट गई थी।
पर वह तो अल्हड़ नहीं था। संजीदा और चिंतनशील था। बहुत होनहार था। खुद उसे और आसपास के लोगों को उससे कितनी उम्मीदें थीं। पहले सत्र का एक-तिहाई ख़त्म होते ही वह कॉलेज के सबसे लोक-प्रिय अध्यापकों में गिना जाने लगा था। स्टडी सर्किल में पढ़ा गया उसका पर्चा ‘कुषाण युग की मुद्राओं का सांस्कृतिक अध्ययन’ बहुत सराहा गया था। डॉक्टर शर्मा ने एक भाव विभोर क्षण में कह दिया था, ‘‘तुम मेरे एकेडेमिक उत्तराधिकारी हो।’’
तभी पिता का तबादला अंडमान-निकोबार हो जाने पर किरन चाचा के पास कैवलरी लाइंस के बंगले में आ गई। अगर किरन के पिता का तबादला नहीं होता, तो नील का जीवन अपने सुनिश्चित पथ पर चलता रहता। संसार की जीवन-शैली कितनी जटिल और रहस्यमयी है।

धरती के एक कोने से एक अणु आकर दूसरे से टकराता है और सारी व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है....
‘‘आप क्यों मुझसे छिटकते रहते हैं।’’ किरन ने कॉफ़ी का प्याला मेज़ पर रखते हुए कहा।
वह बिल्कुल सामान्य छुट्टी का दिन था। अलस, गर्म, खामोश दोपहर। ऐसे सैकड़ों दिन उसने इस स्टडी में बिताए थे। आज आते हुए किंग्सवे कैंप के स्टॉप पर पल-भर को उसके मन में कमज़ोरी आई थी कि नेहरू यूनिवर्सिटी जाकर गौतम से मिल ले। फिर कर्तव्य के तकाज़े ने जोर मारा था। कलकत्ता और मैसूर विश्वविद्यालयों से दो शोध-प्रबंध आए हुए थे, जिन्हें उसने पढ़ लिया था और डॉक्टर शर्मा के साथ विवेचना भी हो गई थी। आज उसे दोनों पर टिप्पणियों का पहला प्रारूप लिखना था। डॉक्टर शर्मा इंडियन काउंसिल ऑफ़ हिस्टॉरिकल रिसर्च की एक चाय-पार्टी में पत्नी के साथ गए हुए थे। रात को लौटकर वे मसविदों को देखेंगे।
‘‘नहीं तो...’’ वह अचकचाकर बोला।

वह मेज़ पर काम कर रहा था। सामने एक शोध-प्रबंध खुला था और पर्यायवाचियों का शब्दकोश। डॉक्टर शर्मा को चमक-दमकवाली, सजावट शब्दावली पसंद थी। उसका रुझान सीधी, सरल अभिव्यक्ति पर था, पर डॉक्टर शर्मा को खुश करने के लिए मन को मारना पड़ता था। धीरे-धीरे कामयाबी मिलने लगी।
‘‘आपको देखते ही मेरे तन-मन में फुरहरी-सी उठने लगती है।’’ उसकी ओर तिरछी चितवन से देखते हुए किरन ने निचला होंठ दाँतों तले दबा लिया।
अचानक नील को लगा, आज का दिन सामान्य नहीं है। मन में कहीं किरन की घोषणा से गुनगुनी-सी खुशी हुई, पर दूसरे ही पल आशंका की झुरझुरी भर गई।
‘‘देखो...’’ उसने अटककर कहा।
‘‘तुम एक नज़र उठाकर मुझे देखो।’’ किरन के स्वर में कामोद्दीपन का तनाव था। नील ने आदेश का पालन किया।
किरन का चेहरा गोरा तमतमा रहा था। उसने नील का हाथ थामा और अपने गाल पर दबा लिया।
नील को हल्की शक्ति के बिजली के प्रभाव का अनुभव हुआ, पर उसकी क़िस्म झटका देनेवाली नहीं थी। उसे लगा, जैसे किरन के स्पर्श में चुम्बक-जैसा खिंचाव है—कमनीय, मोहक।
किरने ने दोनों बाँहों में उसे भरते हुए अपने फड़कते होंठ उसके होंठ पर रख दिए।

‘‘यह गलत हो रहा है....’’नील ने कहा, पर उसके जिस्म ने जवाब देना शुरू कर दिया।
बाग की ओर खुलने वाली सामने की खिड़की के बगल में दीवान था। ऊपर की दीवार पर टोकियो से लाया गया कांसे का बुद्ध का सिर था। दाईं चौकी पर सम्राट अशोक के सिक्के बिखरे थे। बाईं ओर रामटेक की खुदाई में मिली गुप्तयुग की मणिमाला थी।
किरन ने उसका मुँह अपने वक्ष पर दबाते हुए उसे दीवान पर खींच लिया...
पिछले एक साल में उसने अपने-आपको कितना धिक्कारा है...काश, वह अभी भी हाथ छुड़ाकर बाहर भाग जाता....पर नहीं, वह तो किरन की चिकनी पीठ पर हाथ फिसलाते हुए बढ़ती थरथराहट के साथ चुंबनावेग में डूब रहा था....
‘‘यह गाड़ी हर स्टेशन पर रुकती है ?’’ किशोरी पूछ रही थी।
चाय के कुल्हड़ से घूँट भरते हुए उसने निगाह उठाई, ‘‘पैसेंजर है,’’ और फिर नजर बाहर फेर ली।
किफ़ायत के अलावा आत्मपीड़न भी जनता पैसेंजर का टिकट लेने का कारण था। एक साल से यही दो बातें ज़िंदगी का स्थायी भाव बनी हुई थीं।
मार्च में जब उसे कॉलेज से नोटिस मिला, तो मन के एक हिस्से की तैयारी के बावजूद वह हिल उठा। उसे धुँधली-सी आशा थी कि उसकी शर्मिंदगी, पश्चात्ताप और दोष-मुक्ति के प्रस्ताव को मद्देनजर रखते हुए डॉक्टर शर्मा इस हद तक नहीं जाएँगे।
‘‘नीच...कुकर्मी....लम्पट...’’ डॉक्टर शर्मा दहाड़े, ‘‘जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद कर दिया ?’’
‘‘चाचाजी, आधा अपराध मेरा है।’’ रुलाई से सूजी आँखों वाली किरन बोली।
‘‘मुँह खोला, तो जीभ उखाड़ लूँगी कुलबोरन !’’ श्रीमती शर्मा दहाड़ीं।

‘‘सर, मुझसे बहुत भयंकर पाप हुआ है।’’ नील का स्वर रुँध गया।
‘‘अब इस अभागिन के पेट में जो पल रहा है...’’श्रीमती शर्मा ने झुलसती नज़र से उसे देखा।
‘‘यह मेरी जिम्मेदारी है।’’ नील बोला, ‘‘मैं ब्याह करने के लिए तैयार हूँ।’’
‘‘मुझे मंजूर है।’’ किरन ने उसकी ओर देखते हुए मुस्कान नहीं दबा पाई।’’
‘‘कायस्थ को बेटी दान देकर हमें ख़ानदान की नाक कटवानी है ?’’ डॉक्टर शर्मा ने दाँत पीसे।
जिस घर में उसने इतना स्नेह पाया था, उसी के वातावरण की तरंगों में उसके लिए भर्त्सना की ऐसी चिनगारियाँ सुलग रही थीं। नील सह नहीं पाया।

‘‘सर, आप ही बताइए, मैं क्या करूँ ? मैं जैसे नरक की आग में जल रहा हूँ।’’
बाइफ़ोकल के पीछे की आँखों ने सुलगते हुए उसे देखा, ‘‘उसमें तो तुम अब जलोगे।’’
दो महीने में उसे पता चल गया कि वे किस हद तक चले गए हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय तो छोड़ो, जे.एन.यू., जामिया मिलिया, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, इंडियन काउंसिल ऑफ़ हिस्टॉरिकल रिसर्च—सबके दरवाज़े उसके लिए बंद होते गए।
‘‘वो लड़की अपना कुँआरापन हथेली पर लिये घूम रही थी, लेकिन तुम्हें क्या हो गया था ?’’ गौतम ने झाड़ लगाई, ‘‘कंडोम लेकर जाते, विड्रावल मैथड अपनाते। उसे पिल्स दे देते, नहीं थी, तो मुझसे माँग लेते, पर तुम प्राचीन भारतीय इतिहास वाले साले पोंगा पंडित ही तो होते हो।’’
नील चुपचाप देखता रहा।’’

‘‘शर्मा ने प्रोफ़ेसर लाहिड़ी से कहा है, मैं दिल्ली से उसकी जड़ें खोदकर मट्ठा डाल दूँगा और देश के किसी विश्वविद्यालय में दुबारा रोपने नहीं दूँगा।’’
दिल्ली की अकादमिक दुनिया में वह देखते-देखते हमदर्दी और दया का पात्र बन गया, लेकिन बाहरी तौर पर उसे सहारा देने वाला कोई नहीं था। अकादमिक सल्तनत में दिल्ली विश्वविद्यालय का विभाग लाल किला था और प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष तख़्तेताऊस पर बैठा मुग़ल बादशाह। पूरे देश में नौकरियों के सबसे ज़्यादा अवसर तो राजधानी में ही थे और बादशाह हर कमेटी में होता था। ऐसे अकादमिक औरंगज़ेब की नाक के नीचे कौन उसकी ओर सहारे का हाथ बढ़ाता...
‘‘मैं आपके निष्कर्षों से सहमत नहीं हूँ।’’ डॉक्टर शर्मा ने उसके शोध-प्रबंध के पहले तीन अध्यायों की फ़ाइल लगभग फेंक दी, ’’ ‘रजतरंगिणी के आधार पर इतनी बड़ी स्थापनाएँ नहीं की जा सकतीं। मूर्तियों और सिक्कों का साक्ष्य भी विश्वसनीय नहीं है। उन्हें विशेषज्ञों के पास पुनर्मूल्यांकन के लिए भेजना होगा।’’
‘‘सर...’’ वह भौंचक्का रह गया।
किरन-प्रकरण के पहले उनकी राय बिलकुल उलटी थी।
‘‘बिना डॉक्टरेट के तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता।’’ गौतम बोला, ‘‘पर स्कॉलरशिप के बिना रिसर्च कैसे करोगे ? फिर शर्मा क़दम-क़दम पर रुकावट डालेगा। मान लो, सात-आठ साल में खून के आँसू बहाते हुए पी.एच.डी. हो भी गए, तो नौकरी कौन देगा ? यह रास्ता या तो तुम्हें आत्महत्या तक ले जाएगा या पागलखाने तक !’’
‘‘तो क्या करूँ ?’’ नील हताश हो गया।
‘‘पेशा बदल लो।’’

एक संभोग ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी, देर रात को बस से लौटते हुए उसने सोचा। विश्वामित्र जैसे कितने ही ऋषियों का ब्रह्मचर्य स्खलन हुआ है, पर कोई अपना कैरियर बदलने के लिए तो मजबूर नहीं हुआ !
अगले महीने कमला नगर के एक जनरल स्टोर में आठ सौ रुपए महीने के वेतन पर उसे नौकरी मिली थी। उससे पहले मॉडल टाउन का अपना आरामदेह फ़्लैट छोड़कर गली कायस्थान में तीन सौ मासिक का कमरा लेना पड़ा। अपनी जिंदगी का परिवर्तन कई स्तरों पर त्रासद था, पर सबसे संगीन मुद्दा था माँ को समझाना। जब डॉक्टर शर्मा के साथ वैचारिक मतभेद की दलीलें कारगर नहीं हुईं, तो उसने हिम्मत करके सच बता दिया। इतनी बड़ी दुनिया में माँ के अलावा और कोई था भी तो नहीं।
‘‘यह सुनने से पहले मैं मर क्यों न गई ?...इसी दिन के लिए पेट काट-काटकर तुझे पाला था...सोचा था, खानदान का नाम रोशन करेगा। तूने तो मुँह पर ऐसी कालिख पोत दी कि बाहर कहीं दिखा नहीं सकती...’’
छह महीने के भीतर वह जिंदा लाश हो गया था।
सुबह नौ से रात नौ तक साबुन, टूथपेस्ट और क्रीम की बिक्री करता। सस्ते ढाबे में दो रोटियाँ निगलता। सड़क किनारे के चायवाले से गिलास लेता। पचास पैसे और एक रुपया बचाने के निरंतर तनाव से भीतर आक्रोश-भरी लिजलिजाहट भर गई थी।

रिज़र्व बैंक से छपे नोटों की ऐसी गहरी अर्थवत्ता लगभग पहली बार उजागर हुई। अगर उसके पास पर्याप्त द्रव्य हो, तो वह सुविधाओं के साथ बेहतर ढंग से जी सकता है। स्कूल की नौकरी छुड़वाकर माँ को भी अपने पास रख सकता है।
लेकिन पर्याप्त द्रव्य आए कहाँ से ?
बेहतर नौकरी के कोई आसार नहीं थे। उसके पास न इस तरह की डिग्री थी, न अनुभव। कनाट प्लेस के एक डिपार्टमेंटल स्टोर में उसने बात की थी। वे बारह सौ के आसपास दे सकते थे, पर इतने से उसके जीवन में वह गुणवत्ता नहीं आ सकती थी, जिसकी आकांक्षा अब बार-बार सिर उठाने लगी थी।
‘‘जोखिम के बिना कुछ नहीं हो सकता।’’ कमला नगर के स्टोर मालिक के चचेरे भाई घनश्याम ने गर्व से कहा, ‘‘मैं मामूली पूँजी के साथ बंबई गया था। क्या करना है, कुछ पता नहीं था। सूरत से एक सज्जन डिब्बे में चढ़े—बोहरा मुसलमान। उन्होंने बताया, वे लोहे की तमाम तरह की छोटी-बड़ी, पतली-मोटी ज़ंजीरों का कारोबार करते हैं। दूसरे दिन मैं उस बाजार में पहुँचा, यहाँ-वहाँ बैठकर धंधे की मोटी-मोटी बातें जानीं और शाम को एक दुकान किराये पर ले ली। अब चौथे साल में ग्यारह लाख सालाना का टर्नओवर है।’’
‘‘मेरे पास पूँजी नहीं।’’ नील बोला।
‘‘अक्ल तो है।’’ घनश्याम ने आत्मविश्वास से दीप्ति मुस्कान फेंकी, ‘‘सोचो तुम्हारे पास कौन-सा गुण है, जिसकी बाज़ार में ऊँची कीमत मिल सकती है।’’
‘‘कौन-सा गुण है मेरे पास ?’’

‘‘जवान हो, खूबसूरत हो, ज़हीन हो। बाजार में अपने लिए स्लॉट बनाओ।’’
‘‘एक साल से सिर मार रहा हूँ,’’ उसने कड़वी मुस्कान से कहा, ‘‘अपने स्लॉट का कुछ अता-पता ही नहीं मिलता।’’
‘‘यह सरकारी नौकर और नेताओं का शहर है। यहाँ तुम कौन-से तीर मार लोगे ? बंबई संभावनाओं का समुंदर है...तुम्हारे हाथ में हुनर हो, तो हवा के झोंकों से नोटों की बारिश हो सकती है। वहाँ पान की दुकानों की तरह एस्टेट एजेंट हैं। सिर्फ़ दो रजिस्टर रखने होते हैं—एक बेचनेवाले का, एक ख़रीदने वाले का। हफ़्ते में एक सौदा भी हो गया, तो बीस-पच्चीस हज़ार कहीं नहीं गए...बंबई में रोज़ाना लाख रुपये की तो रद्दी बिकती है। सिर्फ़ दो छोकरे चाहिए, जो बिल्डिंगों में जाकर पुराने अखबार खरीदें....अब कितनी तो कुरियर सर्विसेज़ हैं। सफ़र न करना चाहो, तो पढ़े-लिखे को रात को दफ़्तर सँभालने के लिए भी काम मिल जाता है...या मंदिरों में जाकर नए सिक्के पुरानों में बदल लो और उन्हें प्रीमियम पर बेच दो...ज्योतिष की दो किताबें पढ़ लो और करोड़पति घर की औरतों के मुलायम हाथ देखो..’’घनश्याम कुटिलता से मुस्कुराया, ‘‘खूबसूरती के साथ तुम्हारा कुँआरापन भी तो एक गुण है। कार्माइकेल रोड की कोई लड़की रीझ गई, तो फिर ज़िन्दगी-भर कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। घरजमाई बनकर पलंग पर लेटे रहो।’’

बंबई-विरुदावली उस पर छा गई।
उसी शाम को कनाट प्लेस जाकर उसने बंबई पर एक किताब खरीद ली। यों शहर पूरी तरह अजनबी नहीं था। एम.ए. के पहले साल की गर्मी की छुट्टियों में यू जी सी के छोड़े से पैसे के सहारे पूना की भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट को जाते हुए उसने एक दिन का पड़ाव डाला था और चर्चगेट, विक्टोरिया टर्मिनल, गेटवे ऑफ इंडिया तथा ताजमहल होटल इत्यादि के दर्शन कर लिये थे।
‘‘आजकल बंबई में हूँ।’’ दो दिन बाद कॉफ़ीहाउस में अचानक जयंत टकरा गया, ‘‘कुछ बड़े ज्वैलर्स का कमीशन एजेंट हूँ। पाँच सितारा होटलों में जाकर गोरों से संपर्क करता हूँ। हफ़्ते में पाँच-आठ हज़ार बन जाता है—सीज़न में दोगुना।’’
नील को एहसास होने लगा कि उसकी नियति का संकेत क्या है।
प्रेरणा उसे मिली अपने विकराल वर्तमान से, जो अब सहा नहीं जा रहा था। यूनिवर्सिटी कैम्पस से नाता टूट गया था। दया का बोझ ढोने में कचोट होती थी। वैसे भी अपने विभाग के लोग खुले में मिलने से कतराते थे। अब पछतावे की जगह धीरे-धीरे आक्रोश आने लगा था।

शर्मिंदगी सिर्फ़ दो व्यक्तियों के सामने रह गई थी—माँ और बीना।
मॉडल टाउन का कमरा छोड़ने के बाद उसने बीना को फोन नहीं किया था। इंद्रप्रस्थ कॉलेज के सामने से निकलते हुए झिझक होती थी।
निर्णय लेने में शक्ति मिली अनजाने भविष्य की उम्मीद-भरी चमक से। वर्तमान दूर हो जाता रेल की पटरियों-सा साफ़ दिखाई दे रहा था। भविष्य मोड़ के बाद की हरी-भरी वादी थी, जहाँ मीठे सुरों में शहनाई बज रही थी।
अगर मैं कुछ खोऊँगा, तो सिर्फ़ दो साल, जिनकी वैसे भी कोई कीमत नहीं, उसने उदास मुस्कान से सोचा।
कोई निश्चित रूपरेखा उसके सामने नहीं थी। लक्ष्य सिर्फ इतना था—दो साल में पर्याप्त द्रव्य। बस, इतना समझ में आ गया था कि जो भी काम वह करेगा, पारंपरिक नहीं होगा।
मैं दो साल में एक लाख कमाने के लिए बंबई जा रहा हूँ।’’ बीड़ी जलाते हुए भोला पंडित बोला।
वह भोला की तरफ देखता रह गया।

मथुरा स्टेशन पर धोती, बंडी पहने, कंधे पर पोटली रखे भोला डिब्बे में दाख़िल हुआ था। दो-तीन जगह उसने बैठने की कोशिश की, तो ‘बर्थ रिज़र्व्ड है’ सुनने को मिला। वह गिरे मनोबल के साथ पल-भर अनिश्चित-सा खड़ा रहा, तो नील ने अपनी बर्थ की ओर इशारा कर दिया।
आधे घंटे में भोला ने अपनी आपबीती सुना दी।
मथुरा से पचपन किलोमीटर दूर गाँव में थोड़ी-सी जमीन थी। पिता के देहांत के बाद काका अकेले खेती-बाड़ी सँभालने लगे। भोला मथुरा की हेयर ऑयल फ़ैक्टरी में चौकीदारी कर रहा था। फिर माँ-बहन भी साथ ले आया। इस बार हर बार की तरह फसल की कटाई के बाद हिस्सा लेने गया, तो उसे घर में भी नहीं घुसने दिया गया। दो दिन गाँव के बड़े-बूढ़ों के बीच गुहार लगाता रहा, पर लगा कि सभी काका के हाथों बिक गए हैं।
कुछ महीनों के ऊहा-पोह के बाद उसने निश्चित वर्तमान की बजाय अनिश्चित भविष्य का वरण करने का निर्णय ले लिया।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book