लोगों की राय

कहानी संग्रह >> यात्रिक

यात्रिक

यशोधरा मिश्र

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2826
आईएसबीएन :81-7119-497-4

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

376 पाठक हैं

प्रतिष्ठित ओड़िया कथाकार यशोधरा मिश्र का ‘यात्रिक’ हिन्दी में अनूदित दूसरा कहानी-संग्रह है।

Yatrik

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रतिष्ठित ओड़िया कथाकार यशोधरा मिश्र का ‘यात्रिक’  हिन्दी में अनूदित दूसरा कहानी-संग्रह है। प्रस्तुत संग्रह की कहानियों में व्यक्ति की निजता, मानवीय गरिमा और उसके सुख-दुःख की कहानियाँ हैं। व्यवस्था और विकास के नित नये रूपों, उनके कारण उदभूत अमानवीयता और विकट स्थितियों के बावजूद हमारा समय, समाज, परिवार और सभी व्यक्ति के लिए एक समान नहीं है परंतु उसके मानवीय गुण और जीवनी शक्ति लगभग एक जैसे ही हैं। जीवन और मानवता के जो तत्त्व लगातार बदलते जा रहे हैं, उन तत्त्वों और उनकी संवेदनाओं की आहटें इन कहानियों में भी मिलती हैं। यशोधरा मिश्र की भाषा उन आहटों के पीछे अदृश्य करुण को मूर्त करती है और उनसे नैतिक साक्षात्कार भी कराती है।

यात्रिक संग्रह में ऐसी कई कहानियाँ हैं जो ऐसे समय, चरित्र और उनकी अन्तर्कथाओं को उद्घाटित करती है, जहाँ ऊपरी तौर पर समय स्थिर लगता है, परन्तु भीतर ही भीतर बदलते हुए समय के जबर्दस्त अंतद्वंर्द्व, बेचैनी और तड़प है। कुछ ऐसी जगह और स्थितियाँ भी हैं जहाँ लोग अनिर्णय और असमंजस के बीच व्यक्तित्व को गढ़ने और रचने में लगातार सक्रिय हैं, जहाँ जीवन की सादगी और उसकी जटिल रहस्यात्मकता है। कुछ कहानियाँ तो ऐसे व्यतीत से लगते काल का पुनराख्यान करती हैं, जो सचमुच हमारा वर्तमान है। ऐसा वर्तमान जिससे हम जाने-अनजाने किनारा कर गये हैं या जो हमसे विस्मृत हो गया है। यात्रिक संग्रह इस विपुल और विविध संसार को संपूर्णता के साथ व्यक्त करता है।

यशोधरा मिश्र की अधिकतर कहानियाँ कुछ हद तक जानी-बूझी चीजों, स्थितियों और लोगों के अतिरिक्त अबूझ और अप्रकट भावभूमियों, अन्तर्द्वंद्व, विडम्बना और तार्किकता के नये बदलते जटिल रूपों को सार्थकता और विनम्रता से अभिव्यक्त करने की क्षमता रखती है, बने-बनाये ढर्रे, शिल्प और कथन की जड़ता को तोड़ती हैं। सतही आधुनिकता का निरापयोजन प्रतिवाद और मर्यादा का मोहमुक्त निर्वाह करती हुई, परिणाममूलक और आपेक्षित अंत को अस्वीकार करती हुई, मानवीय गरिमा, सहनशीलता की मनोदशा और समझ के सहारे रूपाकार ग्रहण करती हुई ये कहानियाँ उम्मीद और भरोसा देती हैं।

आभार


‘यात्रिक’ में संकलिक कहानियाँ समय-समय पर ‘समकालीन भारतीय साहित्य’, ‘हंस’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘साक्षात्कार’, ‘वसुधा’, ‘कहानियाँ मासिक चयन’, ‘कबीर’ एवं ‘कथादेश’ पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। मैं इन सभी पत्रिकाओं के प्रति आभारी हूँ।

श्री पूर्णचन्द्र रथ ने मेरी उड़िया कहानियों को हिन्दी में रूपायित किया; ‘प्रच्छद’ पर कलाकार डॉ. शिवदत्त शुक्ल के चित्र व श्री चंदनसिंह भट्टी की आवरण-सज्जा से पुस्तक का यह रूप संभव हुआ। उनके प्रति मैं कृतज्ञ हूँ।
दो नाम और हैं जिनके उल्लेख बिना यह पुस्तक अधूरी है-मेरे साहित्यिक मित्र श्री सुरेश पांडे, जिन्होंने उड़िया न जानते हुए भी ‘एक राजा की कहानी’, ‘मेक-अप’ और ‘बोनसाई’ के अनुवाद में गहरी रुचि ली। दूसरे हैं मेरी सहकर्मी शशिबाला श्रीवास्तव जिन्होंने इन कहानियों के प्रस्तुतीकरण में बेहद उदारतापूर्वक अपना समय दिया।

-यशोधरा मिश्र

यात्रिक


मुड़कर देखने से दिखता है अबकी पृथ्वी की पीठ से वे लोग कुछ ऊपर आ चुके हैं। आगे सब कुछ दिखाई नहीं देता, सिर्फ चढ़ाव और यात्रियों के झुंड सामने, पीछे, पास-पास। मीरा को लगा अब सचमुच थोड़ा सा हलकापन महसूस हो रहा है, कुछ दिनों से कैसी एक तरह की घुटन बाँध चुकी थी उसे, वही उतरने लगी है अब देह से। यहाँ आने से पहले डर लग रहा था, इतनी दूर का रास्ता, फिर पहाड़ का चढ़ाव पल जाएगी कि नहीं। अब लेकिन परेशानी नहीं हो रही है, लग रहा है इतने लोग चल रहे हैं, चल लेंगे हम भी।

रेणु से उसने कहा, ‘‘इस वक्त हम क्या कर रहे होते बता तो ? दफ्तर खत्म कर पसीना धूल धुँआ होकर बस में लटक रहे होते। परसों तक किसे मालूम था किस्मत में यह यात्रा भी है।’’
रेणु के पास रहा था संवित। उसकी ओर एक बार देखकर मीरा के कान के पास झुकती रेणु बोली, ‘‘कौन जानता था सच ? देवी की महिमा।’’
पीछे से रेणु की भाभी सुनीता की मीठी सी डपट सुनाई दी, ‘‘तुम दोनों सखियाँ अब इतना खिलखिलाओ मत। देवी माँ के बुलावे पर आए हो, उनमें ही ध्यान लगाओ।’’

रेणू ने जीभ काट ली, हाथ जोड़कर माफी माँग ली देवी से अपनी गलती के लिए। मीरा ने भी हाथ जोड़ लिये। मन को काबू में न रखने पर इतनी दूर आना, मुश्किल से पहाड़ चढ़ना भी फिजूल है। फिर एक बार उसी घर-दफ्तर, उलझी-सुलझी जिंदगी में लौट जाना है। अब कुछ नहीं तो दो दिन छुट्टी दी जा सकती है मन को। और क्या मालूम, देवी माँ की कृपा हो जाए तो सचमुच मिल जाए कुछ वरदान।

ऑफिस में छुट्टी, घर में माँ-बाबूजी की मंजूरी मिलने में कोई परेशानी नहीं हुई। सभी को थोड़ा बहुत विश्वास है कि वैष्णोदेवी का बुलावा ऐसे ही आता है, पहले से अनसोचा अचानक ही आता है ऐसा मौका। सिर्फ दफ्तर का सुरजीत चौपड़ा, खादी झोले मोटा चश्मा शोभित बुद्धिजीवी ने कहा था, ‘‘एहतियात से जाना। पिछले साल गंगाराम बेचारा भी गया था देवी के बुलावे पर। अत्यधिक वात्सल्य से बुलाया था उसे देवी-माँ ने, रख लिया अपने पास परमानेंटली।’’
रेणू ने अतिरंजना से सिहर कान पर हाथ धर दिया था। नाक सिकोड़कर कहा, ‘‘आपके जाने-माने घटिया रुचि के जोक से कृपया हमें स्पेयर करेंगे प्लीज़ ?’’

अन्य सारे कुलिग फिर बात नहीं बढ़ने दिए थे। गंगाराम चपरासी पिछले वर्ष गया था अपने बेटे के साथ वैष्णों देवी, जम्मू के पास किसी नाले में बस गिर पड़ी थी। बाप-बेटे फिर दोनों वापस नहीं लौटे। दफ्तर के सभी लोग श्मशान गए थे। उसके परिवार की सहायता के लिए जब चंदा जमा किया जा रहा था तब इसी रेणू ने कहा था, ‘‘कहते हैं देवी माँ साक्षात हैं। ये भक्त लोग फिर उनके दर्शन के लिए जाते हुए ऐसी दशा भोगते हैं कैसे ?’’
सबसे वयस्क चपरासी बरसू ने अपने झुर्रीदार चेहरे को और भी सिकोड़कर जवाब दिया था, ‘‘सब उनकी ही माया है। कौन-सी चीज किस कर्म का फल है आप हम क्या जानें ?’’

घर से निकलते समय मीरा की माँ भावुक हो उठी थी। मीरा को आशीष देते हुए बोली थी, ‘‘मन को शांत करके जा बेटी, देवी माँ को पुकार। वह जरूर तेरी सुनेगी। तेरी मनोकामना पूरी करेगी, तू देखना।’’
मीरा को लगा मानो अपमान जैसे कुछ छुपा हुआ था उस आशीष में। माँ की आँखों को न देख वह बाहर निकल आई थी। लेकिन गिरीश से आखिरी तक बता नहीं पाई थी। सिर्फ घर में कह आई थी, फोन आने पर बता देना। गिरीश ने फिर पूछा होता, ‘‘अचानक ये वैष्णों देवी की यात्रा कैसे ?’’
क्या उत्तर देती मीरा, ‘‘बुलावा आया है देवी का।’’

गिरीश पूछता, ‘‘मेरे लिए नहीं आया बुलावा ? मैं साथ चलूँ ?’’ मीरा हां नहीं कह पाती लेकिन कहना पड़ता, ‘‘तुम्हारे लिए काफी मेहनत हो जाएगी, चढ़ाव भरा रास्ता, उस पर ठंड।’’ या गिरीश शायद पूछता, ‘‘मन्नत माँगी थी तुम्हारी खातिर, जब अस्पताल में पड़ी थी तुम। अच्छा हो जाने पर दर्शन के लिए जाऊँगी कहकर।’’ संतुष्ट हो जाता गिरीश या नतीजा उल्टा होता ? गिरीश शायद सोच लेता कि मीरा का यह एक और अस्त्र है, एहसानमंदी जताने का।
सुनीता भाभी अब साथ चलने लगी, बोली, ‘‘कितना पवित्र लग रहा है। किसी के कैसेट से सुरीले मंत्रों का उच्चारण सुनाई दे रहा है। पूरी आबोहवा गद्गद् भक्ति भावमय, अनजाने में जो भेदे जा रहा मन के भीतर तक मीठी चाशनी की तरह।
पहाड़ के ऊपर धीरे-धीरे उतर रही साँझ। अद्भुत अतिवास्तव सा लग रहा है सब कुछ। चलते-चलते अचानक दुनिया प्रेममय, आशीर्वादमय लगने लगी है।

काश, गिरीश साथ में होता। हो सका तो कभी साथ मिलकर आएँगे एक बार, दोनों चलेंगे साथ इस रास्ते पर। छाती के भीतर भारी सा हो जाता है यह बात सोचते ही।
सुनीता भाभी कोशिश करते हुए भी साथ कदम मिला नहीं पा रही, न ही भक्ति भाव ही बरकरार रख पा रही है। वह आगे-पीछे दौड़ते दोनों लड़कों और अपने भारी शरीर को चढ़ाव वाले रास्ते में सम्हालने में अभी से परेशान-सी दिखाई देने लगी है। उनके साथ होने के लिए देर से धीमे चर रही मीरा भी अब अकेली चल रही थी। आगे से संवित पुकारता है, ‘‘मीरा जल्दी चलो, इतने धीमे क्या है भाई ?’’
रेणू ने मजाक में कहा, ‘‘उसे अकेले चलना अच्छा लगता है, आप समझेंगे नहीं।’’
जनाब अब नई उत्सुकता के साथ देख रहे थे मीरा की ओर। जरा रूककर साथ-साथ चलते हुए बोले, ‘‘अच्छा फिर इतने लोग जब पास-पास चल रहे हैं, हमें भी अपने साथ-साथ चलने दें।’’

रास्ते में बस के सफर में, फिर पहाड़ के नीचे रेस्ट-हाउस में कुछ देर के लिए जब सभी रुके थे तब भी मीरा समझ गई थी कि छोटी सी इस टोली के सभी एक तरह से यह कोशिश कर रहे थे कि रेणू और संवित एक दूसरे के आसपास रहें। वास्तव में यह पूरा तीर्थायात्रा का आयोजन रेणू के परिवार का था। अचानक रेणू के बुलाने पर मीरा भी निकल पड़ी थी। तो भी सफर के कुछ देर में ही उसे लगने लगा था कि सारी हार्दिकता के बावजूद यहाँ उसकी स्थिति कुछ बिन-बुलाए मेहमान सी है। यहाँ तक कि रेणू की माँ ने उससे पूछ ही लिया, ‘‘तुम ऐसे अचानक कैसे चली आयी बेटी ? यही हमारी रेणू तुम्हें जबरन खींचकर लाई होगी, नहीं ? अच्छा किया चली आई।’’

सभी से परिचय होने के बाद मीरा भाँप गई थी कि संवित हर तरह से एक योग्य वर है और दोनों एक दूसरे के परिवार से अनुमोदित। अब रेणू और संवित की एक-दूसरे को पसंद करने की बारी है। लगता है इस उद्देश्य से ही इस यात्रा का कार्यक्रम बना है। हो सकता है रेणू की माँ वैष्णों देवी के पास इसी मन्नत को लेकर आई हों।
एक साथ कदम बढ़ाते-बढ़ाते रेणू की कही बात से मीरा तय नहीं कर पा रही है कि उनकी बातों में कितना शामिल होना ठीक होगा और सोचती है, ये दोनों भी क्य़ा तैयार हो चुके हैं, एक दूसरे के लिए वही भाव दिखाने को, जैसी कि उनसे उम्मीद है ? रेणु कहती है, ‘‘मीरा मिस कर रही है किसी को। उनका आना बेहद जरूरी था, शायद मुझे ही उन्हें निमंत्रित करना चाहिए था।’’

मीरा सहज उत्तर देती है, ‘‘वे आ नहीं पाते। उसके पैर के फ्रेक्चर की जगह अभी भी तकलीफ है।’’ और सोचती है, रेणू क्यों इस तरह बात-बात में बताना चाहती है कि मीरा की शादी लगभग तय है ?  
बारह-चौदह साल के दोनों लड़के एक वॉकमैन के इयरफोन लगाकर गाना सुन रहे हैं बारी-बारी से; छीना-झपटी, खींचतान भी चल रही है।
गिरीश एक बार नया कैसेट लेकर आया था। मीरा पहुँचकर बैठी भी न थी कि उसके कान से इयरफोन लगाकर ऑन कर दिया था। गिरीश के टेबल के कागजात हमेशा की तरह उलट-पुलटकर देखती मीरा उस पुराने गाने के भीतर खिंची चली जा रही थी जब फिर गिरीश ने उसके कानों से उसे खींच लिया था टप से।
‘‘यह क्या ? दो मुझे, कितना अच्छा गाना था, क्या किया।’’
‘‘मेरी बात नहीं सुनती जो।’’

‘‘कैसे सुनूँ।’’
‘‘क्यों नहीं सुनोगी ?’’
गिरीश के हाथों से झपटती हुई खुद ही खिंच जाती मीरा, उसकी देह के ऊपर।
आँखें बन्द कर उसने मन से हटा दिया वह सब। अब नहीं, बस। फिर भी उसे आश्चर्य होता है कि इस समय उसे सब कुछ इस तरह याद आ रहा है जैसे पहाड़ के ऊपर से दृश्य देख रही है-बिलकुल साफ और दूर।
संवित मीरा से पूछता है, ‘‘बताइए, सिर्फ चेंज की खातिर चली आई हैं आप या सचमुच धरम-करम की ओर झुकाव भी है कुछ ?’’
मीरा वैसे ही उसकी हँसी लौटाती हुई बोली, ‘‘आप अपने बारे में बताइए।’’
रेणू कहती है, ‘‘सावधान। देवी माँ सबके मन की बात जान लेती हैं।’’

संवित ने फौरन उत्तर दिया, ‘‘हम भी जान लेते हैं थोड़ा-थोड़ा।’’
उन दोनों की तुलना में रेणू की हँसी कम पड़ जाती है। वह चटपट अपने दोनों ओर के दो चेहरों की तरफ देख पूछती है, ‘‘क्या है वो सुनें तो। टेलीपैथी चल रही है क्या यहाँ ?’’

पीछे से कीर्तनियों की टोली बढ़ी चली जा रही है। मीरा बात टालकर गुनगुनाती है उनके बोल। अँधेरे की छाया घिर रही है। पहाड़ी रास्तों में लैंप कतार से जल उठते हैं। गीत, बाजों सहित समवेत जयजयकार होती है देवी माँ की। और कुछ सुनाई नहीं दे रहा शोर के अलावा। यही एक रास्ता है। दूसरी बातें, दूसरी चिंताएँ, दिमाग में आने का सवाल ही नहीं। स्वर मिलाकर हर कोई पुकार रहा है देवी माँ को, जो चाहे माँग रहा है, मनौती लेकर। मीरा आँखें बंद करके एकाग्र होती है, तभी उसे दीख जाता है वह भयावह रूप, अस्पताल के बेड़ में बैंडेज, प्लास्टर से ढका हुआ निस्तेज गिरीश। दृश्य को मन से निकालकर स्तुतिगान करने लगती है वह कृतज्ञ भाव से। और मन के भीतर से अपने आप जुड़ जाती है एक और मन्नत। फिर एक पहचाने भय, चिंता में कातर हो जाती है वह, उसके अन्दर कहीं मेघ जैसा उठता हुआ एक क्षोभ, आक्षेप छा जाता है।

भक्तों की टोली गाते-गाते उन्हें पार कर चुकी है। थोड़ा खाली-खाली सा फिर हो गया आसपास। मन में शांति, आश्वासन, शक्ति सब कुछ तो उतर आना था न यहाँ खुद-ब-खुद !

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book