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धर्म एवं दर्शन >> योगवासिष्ठ - 2

योगवासिष्ठ - 2

सुधाकर मालवीय

प्रकाशक : भुवन वाणी ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :591
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2828
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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योगवाशिष्ठ का द्वितीय भाग। इस द्वितीय खण्ड में निर्वाण प्रकरण का वर्णन है। मौलिक सूत्रों के साथ व्याख्या सहित।

Yogvasishtha 2

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्री परमात्मने नम:।।

श्रीयोगवासिष्ठ
द्वितीय भाग
निर्वाण प्रकरण- पूर्वार्द्ध


सर्ग-1 : दिवस-रात्रि व्यवहार वर्णन


वाल्मीकिजी ने कहा हे भरद्वाज ! उपशम प्रकरण के पश्चात अब तुम निर्वाण प्रकरण भी सुन लो जिसका ज्ञान तुमको निर्वाणवाद प्राप्त करा देगा। मुनिवर ने श्री राम से बड़े सुन्दर वचन कहे और राम जी ने सब ओर से मन समेटकर मुनीश्वर की वाणी में लगाया। राजगण भी नि:स्पन्द हो गये, मानों कागज पर अंकित चित्र हों और वसिष्ठ जी के उपदेश पर विचार करने लगे। राजकुमार भी विचारते, गला हिलाते और अपने सिर पर हाथ फेरते चकित रह गये। उन्हें यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि जिस जगत् को सत्य जानकर वे लीन हो रहे थे उसका अस्तित्व ही नहीं। तब दिन का चतुर्थांश ही शेष था मानो वशिष्ठजी के वचन सुनकर भगवान् सूर्य भी कृतार्थ हो गये। उनका ताप क्षीण हो गया और शीतलता प्राप्त हुई। स्वर्ग से आये सिद्ध और देवताओं कंठों में मन्दार आदि वृक्षों के पुष्पों की मालाएँ थीं। उनसे वायु के द्वारा सभी स्थान सुरभित हो गये। भ्रमर फूलों पर गुंजार करने लगे। झरोखे से प्रस्फुटित सूर्य की किरणों से सूर्यमुखी कमल, जो राजा और देवताओं के शीशों पर थे, वैसे ही सूख गये, जैसे मन की जगत् की सत्ता निवृत्त हो जाती है और वृत्ति सिमटती जाती है। सभा में बैठे बालक और पिंजरों में बैठे पक्षियों के भोजन का समय हुआ। माताएं बालकों को भोजन कराने के लिए उठीं। जब चौथे पहर राजद्वार पर नौबत, नगाड़े, भेरी, शहनाई आदि वाद्यध्वनित हुए और उच्च स्वर से कथा कहने वाले वशिष्ठजी का शब्द नगाड़े और बाजों से दब गया, तब-जैसे वर्षाकालीन मेघ गर्जता है और मोर बोलकर चुप हो जाते हैं, वैसे ही वशिष्ठजी चुप हो गये। ऐसा शब्द उत्पन्न हुआ जो आकाश, पृथ्वी और सब दिशाओं में व्याप गया।

पिंजड़ों में पक्षी पंखों को फैलाकर भड़-भड़ शब्द करने लगे जैसे भूकम्प में लोग काँपते और चीत्कार करते हैं। बालक माताओं के शरीर से चिपट गये।
इसके पश्चात् मुनिपुंगव वशिष्ठजी ने कहा, हे निष्पाप, रघुनाथ ! मैंने तुम्हारी चित्तरूपी पक्षी को फँसाने के निमित्त अपना वाक्पाश फैलाया है, इससे अपने चित्त को वश करके तुम आत्मपद में रमों हे राम ! यह जो मैने तुमको उपदेश दिया है, उसके सार में कुमति को त्यागकर आत्मपद में लगाओ। जैसे हंस जल को त्यागकर दुग्ध पान करता है, वैसे ही आदि से अन्त तक सब उपदेश बारम्बार विचार कर सार को ग्रहण करो। इस प्रकार संसार-सिंधु से तरकर परमापद को प्राप्त करोगे अन्यथा कदापि नहीं ! हे राम ! इन वचनों को अंगीकृत करने वाला यह संसार समुद्र पर तर जायेगा और जो अंगीकृत न करेगा वह अधोगति को प्राप्त होगा। जैसे विन्ध्याचल पर्वत की खाई में गिरकर हाथी कष्ट पाता है, वैसे ही वह संसार में कष्ट पायेगा। हे राम ! मेरे वचनों को यदि ग्रहण न करोगे तो वैसे ही अधोपतित होगे जैसे पथिक हाथ से दीपक त्यागकर रात्रिकाल गर्त में गिरता है। जो असंग होकर व्यवहार में विचरोगे तो आत्मसिद्धि-लाभ प्राप्त होगा यह जो मैंने तुमको तत्त्वज्ञान, मन का दमन और वासना का क्षय कहा है, इसके अभ्यास से सिद्धि प्राप्य है। यह शास्त्रीय सिद्धान्त है। हे सभासदो ! हे महाराजो ! हे राम, लक्ष्मण और भूपति लोगों, जो कुछ मैंने तुमसे कहा है उस पर तुम विचार करो, शेष कथ्य मैं प्रात:काल कहूँगा।

इतना कह कर वाल्मीकि जी बोले, हे साधो ! मुनीश्वर के इस प्रकार कहने पर तब सब सभा उठ खड़ी हुई और वशिष्ठजी के वचनों को सुनकर सब वैसे ही खिल उठे, जैसे सूर्योदय से कमल खिल उठता है। वशिष्ठ और विश्वामित्र दोनों एक साथ उठे। वशिष्ठ जी अपने मित्र को अपने आश्रम में ले गये। आकाशचारी देवता और सिद्ध वशिष्ठजी का पूजन करके अपने अन्त:पुर में चले गये। श्रोता जन भी आज्ञा लेकर और वशिष्ठजी का यथेष्ट पूजन करके अपने-अपने स्थान को गये। राजकुमार अपने मण्डल को गये, मुनीश्वर वन में और राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न वशिष्ठ जी के आश्रम गये फिर पूजा करके अपने गृह में आये। सब श्रोता अपने-अपने स्थान में जाकर सन्ध्यादिक कर्म करने लगे। पितरों और देवताओं की पूजा और ब्राह्मणों से लेकर भृत्यों तक सबको भोजन कराकर उन्होंने अपने-अपने मित्रों और भाईयों के साथ भोजन किया और यथाशक्ति अपने वर्णाश्रम धर्म को साधा। सूर्य भगवान् अस्त हुए, दिन की क्रिया निवृत्त हुई। निशा आने पर निशाचर विचरने लगे। तब भूचर, राजऋषि और राजपुत्र आदि श्रोता रात्रि को एकान्त में अपने-अपने आसन पर बैठकर विचारने लगे। राजकुमार और राजा अपने-अपने स्थान पर बैठे। ब्राह्मण, तपस्वी कुशासन आदि बिछाकर बैठे विचारते थे कि वशिष्ठजी ने संसार से उद्धार का क्या उपाय कहा है। वशिष्ठजी ने कहा था उसमें चित्त को एकाग्र कर और और भले प्रकार विचार कर निद्रित हो गये। जैसे सूर्योदय होने पर कुमुद मुँद जाते हैं, वैसे ही वे सब सो गये, पर राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न तीन पहर वशिष्ठजी के उपदेश को विचारते रहे और आधे पहर सोकर फिर उठ बैठे।


सर्ग-2 : चित्त के विनाश और श्रीराम की ब्रह्मरूपता का निरूपण



वाल्मीकि जी बोले, हे साधो ! इस प्रकार सारी रात बीतने तथा तिमिर नष्ट होने पर राम, लक्ष्मण, शत्रुघ्न आदि स्नान-सन्ध्यादि कर्म करके वशिष्ठ जी के आश्रम में उपस्थित हुए। वशिष्ठजी भी संध्यादि करके अग्निहोत्र निरत हुए। जब वे नित्यकर्म कर चुके तब राम आदि ने उसकी अर्घ्य-पाद्य से अर्चना की और चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया। जब राम जी गये थे, तब वशिष्ठ जी के पास कोई न था; पर एक घड़ी में अनेक सहस्र प्राणी आ पहुँचे। वशिष्ठजी राम आदि को साथ लेकर राजा दशरथ के भवन में आये। तब राजा दशरथ उनके स्वागत और अगवानी को आगे बढ़ आये। उन्होने वशिष्ठ जी का आदर एवं पूजन किया। दूसरे लोगों ने भी समुचित पूजन किया। निदान नभचर-भूचर श्रोता सब आये और नमस्कार करके नि:स्पन्द और एकाग्र होकर बैठे। जैसे वायु न चलने पर कमलों की पंक्ति अचल होती है वैसे ही निश्चल होकर वे सब विराजे। स्तुति करने वाले भाटजन भी एक ओर बैठे। सूर्य की किरणें झरोखों के मार्ग से आयीं, मानों वे वशिष्ठजी के वचन सुनने को आयी हैं। तब वशिष्ठजी जी की ओर रामजी ने वैसे ही देखा, जैसे स्वामिकार्तिक शंकर की ओर, कच बृहस्पति की ओर प्रह्लाद शुक्र की ओर देखें। जैसे भ्रमर भ्रमण करते-करते आकाशमार्ग से कमल पर आ बैठता है, वैसे ही राम की दृष्टि औरों को देखते-देखते वशिष्ठजी पर आ टिक गई।

तब वशिष्ठजी ने राम जी की ओर देखा और कहा- हे रघुनन्दन ! मेरे उपदेश क्या है तुमको कुछ स्मरण है ? वे मेरे वचन परामार्थ बोध के कारण, आनन्दरूप और महागम्भीर हैं। अब और भी बोध दायक और अज्ञानारि विनाशक वचनों को सुनो। निरन्तर आत्मसिद्धान्त-शास्त्र मैं तुमसे कहता हूँ। हे राम जी ! जीव वैराग्य और तत्त्व के विचार से संसारसागर को तरता है। सम्यक् तत्त्वबोध से जब अज्ञान निवृत्त हो जाता है, तब वासनावेश नष्ट हो जाता है और परमानन्द की प्राप्ति होती है। वह पद देशकाल और वस्तु के परिच्छेद से रहित है। वही एकमात्र ब्रह्म जगद्रूप होकर स्थित है और भ्रम से द्वैत की भाँति भासता है। वह सब भावों से अविच्छिन्न सर्वव्याप्त ब्रह्म है, इस प्रकार महत्स्वरूप जानकर शान्ति पाओ। हे राम ! केवल ब्रह्मतत्त्व अपने आप में संस्थित है।




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