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आधी रात की सन्तानें

सलमान रश्दी

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :586
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2830
आईएसबीएन :81-7055-536-1

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यह आधी रात की संतानों की सहूलियत भी है और उनका शाप भी है कि वे अपने वक्त के मालिक है और उसके शिकार भी...

Aadhi Rat Ki SantanAdhi Rat Ki Santanein a hindi book by Salman Rushdi - आधी रात की सन्तानें - सलमान रश्दी

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

यह आधी रात की संतानों की सहूलियत भी है और उनका शाप भी है कि वे अपने वक्त के मालिक है और उसके शिकार भी-सलमान रश्दी के इस विश्व प्रसिद्ध उपन्यास की ये आखिरी पंक्तियाँ भारतीय उपमादेश की ट्रेजेडी को बहुत ही सटीक और मार्मिक ढंग से रेखांकित करती हैं। 14-15 अगस्त की आधी रात को भारत आजाद हुआ और दो हिस्सों में बंटा भी। उसी रात सलीम सिनाई का जन्म हुआ था, उनके जीवन का महाकाव्यात्मक विवरण यह अदभुत उपन्यास है, जिसे यथार्थ और कल्पना, इतिहास और व्यक्ति तथा घटनाओं और स्वप्नों के एक सम्मोहक इन्द्रजाल के रूप में बहुत ही बारीकी और करीने के साथ बुना गया है। लगभग आधी शताब्दी में फैले हुए इस किस्से से नेहरू और शेख अब्दुल्ला आते हैं तथा इन्दिरागाँधी भी अपने आपातकाल और नसबंदी का अभियान चलाने वाले संजय गाँधी के साथ एवं आयूब खाँ, जुल्फिकार अली भुट्टो, और शेख मुजीब तथा उस अलोड़न भरे दौर के कई और नायक और खलनायक भी, हालाँकि कहानी बहुत पहले से शुरू होती है, जब कश्मीर में उस शताब्दी के शुरू में एक नौजवान डॉक्टर चादर के पीछे खड़ी उसकी सुराखों के बीच से एक दोशाजा की डॉक्टरी जाँच और इलाज करता था, जो बाद में उसकी माशूका और पत्नी बनी। इस डॉक्टर के बेटे ने जलियाँवाला बाग हत्याकांड देखा, भारत विभाजन की दहशत देखी और उसकी निजी जिंदगी भी कम उथल-पुथल से नहीं गुजरी। तीसरी पीढ़ी यानी सलीम की पीढ़ी के लिए तो सबकुछ अनवरत भूकम्प की तरह था। लेकिन लाल किला और उसके आस पास की संस्कृति मुम्बई का रूपान्तरण, ऊँची जिन्दगी के नशे का फैलाव, रावलपिंडी और कराची का खूनी तनाव भरा माहौल, भारत-पाकिस्तान और उत्तर-बांग्लादेश युद्ध, सांप्रदायिक जुनून का उभार सुन्दरवन के दलदल-एक पूरे ऐतिहासिक घटनाक्रम से गुजरती हुई यह बहुपरतीय कहानी सिर्फ एक राजनीतिक या सामाजिक वृत्तांत भर नहीं है। इसका मर्म तो उस पूरी पीढ़ी के मनोविज्ञान की गहराई से-और उसके पूरे विस्तार में भी-समझना है, जिसने राजनीतिक स्वतंत्रता के माहौल में अपनी चौंधियाई हुई आँखें खोलीं और अपने को हर प्रकार की घुटन के बीच पाया। ये सभी आधी रात की संताने थीं और रश्दी के शब्दों में ‘हिंसा, भ्रष्टाचार, गरीबी, जनरल उथल-पुथल, लालच और मिर्चदानियाँ..मुझे जलावतन होकर यह सीखना पड़ा कि आधी रात की संताने उससे कहीं ज्यादा बहुरंगी थीं जितने का मैंने-यहाँ तक कि मैंने भी ख्वाब देखा था।’ उभरती हुई उम्मीदों और टूटते हुए सपनों के इसी भँवरीले माहौल में कई ऐसे पात्र पुरुष-स्त्रियाँ और किशोर-किशोरियाँ उभरते हैं, जो अपनी खामोशी, अपने प्यार, अपनी विचित्रताओं और अपनी उमंगो के कारण लंबे समय तक हमारा पीछा करते रहते हैं तथा मानव स्वभाव की हजारों हजार संभावनाओं और असंभावनाओं का दिलचस्प कथात्मक उदघाटन करते हैं। बेशक ‘आधी रात की संताने’ एक बेहद उलझा हुआ अफसाना है, जिसमें संकेत और प्रतीक भी उतने ही महत्वपूर्ण और निर्णायक हैं, जितनी छोटी या बड़ी घटानाएँ, लेकिन यही इसकी स्तब्ध कर देने वाली खूबसूरती भी है और रश्दी की चौतरफा मार करने वाली तथा यथार्थ को धुंध में और धुंध को चमक में बदल देने वाली जादुई भाषा का कमाल है कि हर चीज मानी खेज हो जाती है-उससे कहीं ज्यादा जितना शुरू में लगता है और अन्त में सारे मायने मिलकर एक महाअर्थ में बदल जाते हैं, जिससे रू-ब-रू होना हम सबके अपने आपसे रू-ब-रू होने का दूसरा नाम है। आजादी की पचासवीं वर्षगाँठ पर हिंदी पाठकों के लिए इससे बेहतर तोहफा और क्या हो सकता है।

सूराखवाली चादर


मैं बम्बई शहर में पैदा हुआ था...यह काफी पहले की बात है। नहीं, इतने से नहीं चलेगा। तारीख से बचने का कोई रास्ता नहीं है। मेरी पैदाइश 15 अगस्त, 1947 को डॉ. नार्लिकर के नर्सिंग होम में हुई थी। और वक्त ? वक्त की भी अहमियत है। तो ठीक है, रात को। नहीं, यह जरूरी है कि आप इससे भी ज्यादा...ठीक आधी रात को, बिल्कुल बारह बजे। जैसे ही मैं आया, मेरे स्वागत में घड़ी की हथेलियाँ अदब के साथ जुड़ गईं ! अरे इसका मतलब समझो ! इसका मतलब समझो। ठीक जिस पल भारत को आजादी मिली, उसी पल मैं इस दुनिया में आ गिरा। चारों ओर अफरा-तफरी थी। और खिड़की के बाहर भीड़-भाड़ और आतिशबाजियाँ। कुछ ही लमहे बाद मेरे अब्बाजान अपना अंगूठा तुड़ा बैठे, मगर उनके साथ हुआ हादसा उसके मुकाबले एक छोटी-सी बात थी जो उस अँधेरे लमहे में मेरे ऊपर गुजरा था, क्योंकि अदब के साथ आदाब करती उन घड़ियों के छिपे हुए जुल्म का शुक्रिया, मुझे बहुत ही रहस्यमय ढंग से इतिहास के साथ नत्थी कर दिया गया था, मेरी किस्मत अटूट रूप से मेरे मुल्क की किस्मत के साथ जकड़ दी गयी थी। अगले तीन दशकों तक इससे बचने का कोई रास्ता नहीं था। नजूमियों ने मेरी भविष्यवाणियाँ  कीं, अखबारों ने मेरे आने का जश्न मनाया, राजनीतिज्ञों ने मेरी प्रामाणिकता की तस्दीक की। इस समूचे मामले में मुझे एक शब्द भी कहने का मौका नहीं मिला। मैं सलीम सिनाई, जिसे बाद में तरह-तरह से दगियल, गूंज, सुँसुआहा, बुद्ध और यहाँ तक कि चाँद का टुकड़ा भी कहा गया, अपनी किस्मत के साथ बुरी तरह उलझा हुआ था—बेहतरीन वक्त में भी यह एक खतरनाक किस्म का लगाव था। और उस वक्त मैं अपनी नाक तक नहीं पोंछ सकता था।
बहरहाल, अब वक्त (जिसका अब मेरे लिए ज्यादा इस्तेमाल नहीं रह गया है) भागा जा रहा है। मैं जल्दी ही इकत्तीस साल का हो जाऊँगा, अगर मेरा थका-माँदा, बेहद इस्तेमाल किया हुआ जिस्म इसकी इजाजत देगा। लेकिन मुझे अपनी जिन्दगी के बचने की कोई उम्मीद नहीं है, यहाँ तक कि मैं अपने लिए एक हजार एक रातें होने का भरोसा भी नहीं कर सकता। मुझे तेजी से काम करना होगा, शहजादी से भी ज्यादा तेजी से, अगर मुझे किसी-हाँ, किसी मतलब का होकर खत्म होना है। मैं कुबूल करता हूँ : सबसे ज्यादा मैं बेतुकेपन से डरता हूँ।

और इतनी सारी कहानियाँ हैं कहने को—बहुत सारी—एक दूसरे से गुँथी हुई इतनी सारी बेशुमार जिंदगियाँ, घटनाएँ, करामातें, जगहें और अफवाहें, नामुमकिन और दुनियावी की बेहद घनी मिलावट ! मैं जिन्दगियों को निगलने वाला रहा हूँ और मुझे जानने के लिए, आपको भी बहुत सारा कुछ निगलना होगा। मुझमें जज्ब भीड़ मेरे भीतर धक्कम-धक्का, रेलम पेल कर रही है, और महज एक बड़ी-सी उजली चादर की याद को थामते हुए, जिसके बीचोबीच लगभग सात इंच के व्यास का एक गोल सा-छेद है, उस कटे-फटे, चौकोर और छिदे हुए कपड़े के ख्वाब को जकड़ते हुए-जो मेरा जंतर है, मेरा ‘खुल जा सिमसिम’, मुझे अपनी जिन्दगी को ठीक उसी नुक्ते से पेश करने का काम शुरू करना चाहिए, जहाँ से यह वाकई शुरू हुई थी, लगभग बत्तीस साल पहले, जब सबकुछ इतना ही साफ था जितना यह वर्तमान है और जितनी घड़ी की मारी हुई जुर्मों से मैली हुई मेरी पैदाइश।
(इत्तिफाकन वह चादर भी मैली हो गयी है और उस पर धुँधली पड़ रही तीन लाल-सी बूँदें हैं : कुरान हमें कहता है : ‘खुद को बनाने वाले उस खुदा के नाम पर पढ़, जिसने लहू के थक्कों से इंसान को बनाया’)
1915 के शुरुआती वसंत की एक कश्मीरी सुबह मेरे नाना आदम अजीज की नाक इबादत करने की कोशिश में बर्फ से सख़्त हुई ज़मीन से टकरा गयी। उनके बायें नथुने से लहू के तीन कतरे निकले, भुरभुरी हवा में फौरन सूख गये और उनकी आँखों के सामने मुसल्ले पर लाल मोतियों में ढलकर टपक पड़े। दुबारा सर झुकाने से पहले जब वे पीछे होकर सीधे खड़े हुए तो उन्होंने पाया कि उनकी आँखों में उमड़ आए आँसू भी ठोस हो चुके थे, और अपनी पलकों से इन हीरों को तिरस्कार के साथ हटाते हुए उन्होंने कसम खायी कि आइंदा वे कभी किसी खुदा या इंसान के लिए धरती नहीं चूमेंगे। बहरहाल इस फैसले ने उनके भीतर एक सूराख कर दिया, उनके एक भीतरी धड़कते हुए खाने में एक खला रह गयी जिसकी वजह से वह इतिहास और औरतों से गैरमहफूज रह गये। शुरू में अपनी हाल ही में पूरी हुई मेडिकल ट्रेनिंग के बावजूद इस बात से अनजान वह उठ खड़े हुए, अपने मुसल्ले को गोलाकार लपेटा और उसे अपनी दायीं काँख के नीचे दबाते हुए साफ, हीरा-विहीन आँखों से पूरी घाटी का जायजा लिया।

दुनिया एक बार फिर नयी हो गयी थी। बर्फ के अंडे में पूरे जाड़े भर रहने के बाद घाटी उसे फोड़कर बाहर आ गयी थी और नम और पीली थी। नयी घास भूमिगत होकर अपने वक्त का इंतजार कर रही थी। पहाड़ गर्म मौसम के लिए अपने हिल-स्टेशनों के लिए लौट रहे थे (जाड़े में जब घाटी बर्फ से सिकुड़ जाती थी, पहाड़ भी खुद को बंद कर लेते थे और झील पर बसे शहर के आस-पास अपने नाराज जबड़े खोले गुर्राते थे।)
उन दिनों रेडियो का टावर नहीं बना था और एक खाकी पहाड़ी पर काले फफोले-सा शंकराचार्य का मंदिर अभी भी श्रीनगर की गलियों और झील पर तारी था। उन दिनों झील के किनारे फौजी छावनियाँ नहीं हुआ करती थीं, छिपे हुए ट्रकों और जीपों के न खत्म होनेवाले साँप सँकरी पहाड़ी सड़कों को जाम नहीं रखते थे, बारामुला और गुलमर्ग के पार पहाड़ों की चोटियों के पीछे फौजी छिपे हुए नहीं होते थे। उन दिनों पुलों की तश्वीरें लेने वाले सैलानियों को जासूस समझकर मार नहीं दिया जाता था, और मुगलों के वक्त से ही झील में अंग्रेजों के शिकारों के अलावा वसंत के समय घाटी के नयेपन में शायद ही कोई बदलाव आया था। मगर मेरे नाना की आँखें—जो उनके बाकी हिस्सों की तरह ही पच्चीस साल की हो चुकी थीं—चीजों को नये ढंग से देख रही थीं और उनकी नाक में खुजली शुरू हो गयी थी।

मेरे नाना की बदली हुई निगाहों का रहस्य खोलने के लिए : उन्होंने पाँच साल, पाँच वसंत घर से बाहर गुजारे थे। (हालांकि धरती का वह गूमड़ जिस तरह मुसल्ले पर संयोग से पड़ी सिलवट के नीचे दबा हुआ था, उस तरह उसका होना जरूरी था, मगर असलियत में वह एक उत्प्रेरक से ज्यादा कुछ नहीं था।) अब, वापस लौटकर, उन्होंने खूब घूमी हुई आँखों से चीजों को देखा। विशालकाय दातों से घिरी हुई उस छोटी-सी घाटी की सुन्दरता की जगह उनका ध्यान क्षितिज की नजदीकी, उसके सँकरेपन पर गया। और वह घर में होने और इतनी बुरी तरह बंद होने के खयाल पर उदास हो गये। उन्होंने-बयान के बाहर-कुछ ऐसा महसूस किया जैसे कि यह पुरानी जगह इस पढ़े-लिखे, स्टेथोस्कोप लटकाकर लौटे हुए आदमी से नाखुश है। सर्दियों की बर्फ के नीचे यह ठंडे ढंग से उदासीन रही थी, मगर अब इसमें कोई शुबहा नहीं था कि जर्मनी में गुजारे गए सालों ने उन्हें एक विरोधी माहौल में लौटाया था। बहुत सालों बाद, जब उनके भीतर की खाली जगह नफरत से भर दी गयी थी और वह पहाड़ी पर के मंदिर में बने काले पत्थर के देवता की वेदी पर कुरबान होने के लिए आये थे, उन्होंने कोशिश की थी और अपने ‘जनन्त’ में बिताए गये बचपन के खुशनुमा दिनों को याद किया था, जैसा कि वह सफर के और गूमड़ के और फौजी टैंकों द्वारा सब-कुछ तहस-नहस किये जाने के पहले हुआ करता था।
उस सुबह जब घाटी ने मुसल्ले के दस्ताने पहने उनकी नाक पर मुक्का जड़ा था, वह बेतुके ढंग से खुद को यह दिलाशा देने की कोशिश कर रहे थे कि कुछ भी नहीं बदला है। इसलिए वह सवा चार बजे की कटकटाती सर्दी में उठे थे, रिवाज के मुताबिक नहाया और कपड़े पहने थे, अपने अब्बा की ऊनी टोपी पहनी थी; इसके बाद वे लपेटे हुए मुसल्ले का गोल चुरुट उठाकर अपने पुराने गहरे रंग के मकान के सामने झील की बगल में बने छोटे-से बागीचे में ले गये थे और उसे इंतजार कर रही जमीन के गूमड़ पर बिछाया था। अपने पाँवों के नीचे उन्हें वह जमीन भ्रामक ढंग से कोमल लगी थी और इसने उन्हें एक ही साथ बेखबर और अनिश्चित दोनों बना दिया। ‘‘परवरदिगार के नाम पर, उसकी इनायत, उसका करम...’’—अपने सामने एक खुली हुई किताब की तरह हाथ जोड़कर कही गयी इस आयत ने उनके एक हिस्से को सुकून दिया और दूसरे ज्यादा बड़े हिस्से को बेचैन बना डाला—‘‘...अल्लाह की तारीफ है, कायनात के मालिक...’’-मगर अब हीडेलबर्ग ने उसके दिमाग पर हमला कर दिया था, यहाँ इन्ग्रिड थी, बस उनकी इन्ग्रिड, उसका चेहरा उन्हें इस मक्का से आए तोतारटंत के लिए झिड़क रहा था, उनके अराजकतावादी दोस्त ऑस्कर और इल्स लुबिन अपने विचारधारा-विरोध के साथ उनकी इबादत का मजाक उड़ा रहे थे—‘‘...रहीम, दयालु, कयामत के दिन के बादशाह...’’—हीडलबर्ग, जहाँ उन्होंने सियासत और दवाओं के साथ-साथ यह भी सीखा कि हिन्दुस्तान—रेडियम की तरह ही—यूरोपीय लोगों द्वारा ‘खोजा’ गया था; यहाँ तक कि ऑस्कर के दिल में भी वास्कोडिगामा के लिए गहरी तारीफ का जज्बा था, और यही वह चीज थी जिसने आखिरकार आदम अजीज को अपने दोस्तों से अलग कर दिया, उनका यह यकीन कि वह भी किसी शक्ल में उनके पुरखों की खोज हैं—‘‘...हम सिर्फ तुम्हारी इबादत करते हैं और बस तुम्हीं से मदद की अर्ज करते हैं...’’—इसलिए अपने दिमाग में उनकी मौजूदगी के बावजूद यहाँ वह खुद को एक पुरानी खुदी से जोड़ने की कोशिश कर रहे थे जो उनके असर को नजर-अंदाज करती थी, मगर वह सब कुछ जानती थी जो उसे जानना चाहिए था, मसलन बेखुदी के बारे में, मसलन अभी जो वह कर रहे हैं, उसके बारे में, जैसे उनके हाथ पुरानी यादों की हिदायत मानते हुए ऊपर की ओर मँडरा रहे हैं, अँगूठे कान को दबाए हुए हैं, उँगलियाँ फैली हुई हैं, जैसे वह घुटनों पर बैठे हुए हैं—‘...हमें सही राह दिखा, उनकी राह, जिन्हें तेरा फजल हासिल है...।’’ मगर इसका कोई लाभ नहीं था, वह एक बीच की जमीन पर पकड़े गए थे, यकीन और नायकीनी के बीच फँसे हुए, और आखिरकार यह एक पहेली थी—‘‘...उनकी नहीं जिन्होंने तेरी नाराजगी मोल ली है, उनकी भी नहीं, जो भटक गये हैं।’’ मेरे नाना ने अपनी पेशानी धरती की ओर झुकायी। उन्होंने आगे झुकायी, और मुसल्ले से ढँकी हुई धरती उनकी ओर उठ आयी। और यही गूमड़ का वक्त था। एक ही साथ इल्स-ऑस्कर-इन्ग्रिड-हीडलबर्ग, तथा इसके साथ-साथ घाटी और—खुदा की झिड़की, इसने उनकी नाक को जख्मी कर दिया। तीन बूँदें टपकीं। मणियाँ और हीरे। और मेरे नाना ने उठकर फैसला कर लिया। खड़े हुए। मुसल्ला मोड़ा। झील के पार देखा। और हमेशा के लिए बीच की जगह में अटक गये, उस खुदा की इबादत करने में असमर्थ हो गये जिसके वजूद से वह पूरी तरह इनकार नहीं कर सकते थे। एक स्थायी बदलाव : एक सूराख।

वह नौजवान डॉक्टर आदम अजीज बदलाव की महक को सूँघता हुआ वसंत के समय की झील के सामने खड़ा था, जबकि उसकी रीढ़ (जो पूरी तरह सीधी थी) ज्यादा बड़े बदलावों की ओर मोड़ दी गयी थी। जब वह विदेश में था, उसकी गैरमौजूदगी में उसके अब्बाजान को दिल का दौरा पड़ा था और उसकी माँ ने यह खबर उससे छिपाये रखी थी। उसकी माँ की फुसफुसाती हुई आवाज में एक सूफिया लहजा था ‘‘...क्योंकि तेरी पढ़ाई बहुत जरूरी थी, बेटे !’’ यह माँ, जिसने अपनी जिंदगी घर में बन्द रह कर परदे में गुजारी थी, अचानक बेहद मजबूत हो गयी थी और मोतियों और कीमती पत्थरों (फिरोजा, मणि, हीरे) की छोटी-सी दुकान चलाने निकल पड़ी थी जिसके सहारे वजीफे की मदद को मिलाकर आदम की मेडिकल की पढ़ाई पूरी हुई थी : इसलिए जब वह लौटा तो उसने अपने परिवार के नावदल लगने वाले तौर-तरीकों को पूरी तरह उलटा हुआ पाया, उसकी माँ काम करने के लिए बाहर जाती थी और उसके अब्बा उस पर्दे के पीछे छिपे बैठे रहते थे जो दौरे ने उनके दिमाग पर डाल दिया था...एक अँधेरे कमरे में लकड़ी की कुर्सी पर बैठे वे चिड़ियों की आवाजें निकाला करते थे। तीस अलग-अलग किस्मों की चिड़ियाँ उनके पास आती थीं और उनकी टूटी हुई खिड़की के बाहर की दहलीज पर बैठकर यहाँ-वहाँ की बातें किया करती थीं। वह काफी खुश लगते थे।
(...और मैं अभी से दुहरावों को शुरू होता देख सकता हूँ, क्योंकि क्या मेरी नानी ने भी काफी मजबूती नहीं...और दौरा भी सिर्फ...और ब्रास बंदरिया की भी चिड़ियाँ थीं...और शाप बाकायदा शुरू हो जाता है, और हम अभी नाकों तक भी नहीं आये हैं।)
झील बहुत समय तक जमी नहीं रह पायी थी। हमेशा की तरह उसका पिघलना तेजी से शुरू हो गया था। बहुत सारे बोट और शिकारे झपकी लेते हुए पकड़े गये थे, और यह भी बहुत आम था। मगर जबकि ये आलसी सूखी जमीन पर अपने मालिक के बगल में शांति से खर्राटे लेते हुए सोये रहते थे, सबसे पुरानी नाव दरारों के बीच होती थी, जैसे पुराने लोग अक्सर हुआ करते हैं, और इसलिए यह पिघली हुई झील में घूमनेवाली सबसे पहली नाव हुआ करती थी। ताई का शिकारा...और यह भी हमेशा से था।

देखो, किस तरह अपनी नाव के पिछले हिस्से पर खड़ा, झुकी हुई अदा में बूढ़ा मल्लाह, ताई कुहासा मिले पानी से होकर शानदार ढंग से गुजर रहा है ! कैसे उसकी पतवार, पीली छड़ी पर लकड़ी के दिल-सी, सिवारों को झटके से चीरते हुए निकल रही है ! इन मामलों में उसे बहुत अजूबा समझा जाता है क्योंकि बाकी वजहों के साथ एक यह भी है कि वह खड़े होकर नाव खेता है। डॉ. अजीज के पास एक जरूरी फरमान लाता हुआ ताई इतिहास को हरकत में लाने के मोड़ पर है...जबकि आदम पानी में देखता हुआ वह याद करता रहा है जो ताई ने बरसों पहले उसे सिखाया था : ‘‘ठीक पानी की त्वचा के भीतर, बर्फ हमेशा इंतजार करती रहती है, आदम बेटे।’’ आदम की आँखें साफ नीली हैं पहाड़ों के आकाश का जादुई नीलापन, जो कश्मीरी लोगों के बच्चों की आँखों में टपक पड़ने का आदी है; वे देखना नहीं भूले हैं। वे—वहाँ देखते हैं ! डल झील की सतह के ठीक नीचे, एक भूत के कंकाल की तरह !—बारीक नक्काशियाँ, रंगहीन रेखाओं का सूक्ष्म आड़ा-तिरछापन, भविष्य की ठंडी इंतजार करती नसें। जर्मनी में बिताए गये उसके बरसों ने उसके भीतर का बहुत कुछ धुँधला कर डाला था, मगर नजर के नजराने से उसे महरूम नहीं किया था यह ताई का दिया हुआ नजराना था। वह ऊपर की ओर देखता है, ताई की नजदीक आती हुई नाव ‘V’ पर नजर पड़ती है, वह स्वागत में हाथ हिलाता है। ताई की बाँहें भी उठती हैं—मगर यह एक हुक्म है। ‘‘इंतजार करो।’’ मेरे नाना इन्तजार करते हैं और इसके अंतराल के दौरान जैसे वह अपने जीवन में आखिरी बार सुकून का अनुभव करते हैं, एक धुँधला अशुभ किस्म का सुकून। बेहतर है मैं उनके बारे में बताना शुरू करूँ।
एक बेहद असरदार शख्सियत के लिए एक कुरूप आदमी के भीतर जो सहज ईर्ष्या हो सकती है, उसे अपनी आवाज से हटाते हुए मैं दर्ज करता हूँ कि डॉ. अजीज एक लंबे आदमी थे। अपने घर की दीवार से लगकर खड़े होने पर उनका कद 25 ईंटों का होता था, (एक ईंट उनके जीवन के एक साल के लिए) या कहें, छः फुट दो इंच से थोड़ा-सा ऊपर था। वह मजबूत भी थे। उनकी दाढ़ी घनी और लाल थी और इससे अक्सर उनकी माँ चिढ़ती थीं, जिनका कहना था कि बस हाजियों को, जो मक्का से हज करके लौटते हैं, लाल दाढ़ी रखनी चाहिए। बहरहाल उनकी दाढ़ी कुछ ज्यादा गाढ़ी थी। उनकी आसमानी आँखों के बारे में आप जानते हैं। इन्ग्रिड ने कहा था, ‘‘रंगों ने उन्हें मतवाला कर दिया था जब उन्होंने तुम्हारा चेहरा बनाया।’’ मगर मेरे दादाजान के शारीरिक गठन की मुख्य चीज उनका रंग या कद नहीं था, न ही उनकी बाहों की ताकत या रीढ़ की सिधाई थी। वह यहाँ थी, पानी में अक्स बनाती हुई, उनके चेहरे के बीचोबीच एक बौराये हुए केले की तरह लहराती हुई...आदम अजीज ताई का इन्तजार करते हुए अपनी लहराती हुई नाक देखता है। यह आसानी से उसकी तुलना में कम नाटकीय चेहरों पर हावी हो जाती। यहाँ तक कि उसके चेहरे पर भी यही चीज है जिसे कोई भी सबसे पहले देखता है सबसे ज्यादा याद रखता है। ‘‘एक भारी भरकम नाक’’ इल्स लुबिन कहता था और ऑस्कर जोड़ता था, ‘‘हाथी के सूँड जैसी।’’ इन्ग्रिड ने एलान किया था, ‘‘इस नाक पर तुम एक नदी पार कर सकते हो।’’ (इसका पुल चौड़ा था।)
मेरे नाना की नाक : नथुने उभड़े हुए और नर्तकियों की तरह घुमावदार। उनके बीच उभरता है नाक का विजयी तोरण, पहले ऊपर और बाहर, फिर नीचे और भीतर, और एक शानदार और वर्तमान में लाल सिरे से युक्त झटके के साथ उनके ऊपरी होंठ तक पहुँचती है। एक ऐसी नाक जो आसानी से जमीन से टकरा जाये। मैं इस ताकतवर चीज के प्रति अपना एहसान दर्ज करना चाहता हूँ—अगर यह न होती तो कौन मुझे अपनी माँ का असली बेटा, अपने नाना का नाती मानता ?—यह विशाल औजार, जिस पर मेरा जन्मजात हक भी होना था। डॉ. अजीज की नाक ने—जिसकी तुलना सिर्फ हाथी के सिर वाले देवता गणेश से की जा सकती है बिना किसी विवाद के परिवार का मुखिया होने के उनके हक को स्थापित कर दिया। यह ताई ही था जिसने उन्हें यह बताया था। जब डॉ. अजीज की मसें भीगनी ही शुरू हुई थीं, तब उस बूढ़े थके-माँदे मल्लाह ने कहा था, ‘‘यह नाक तो एक खानदान चलाने के लिए है। किसी को शुबहा नहीं होगा कि ये किसकी संतानें हैं। मुगल बादशाहों ने तो ऐसी नाक के लिए अपना दायाँ हाथ दे दिया होता। इसके भीतर शाही खानदान इंतज़ार कर रहे हैं।’’ और यहाँ ताई बेहूदगी पर उतर आता—‘‘नकटी की तरह।’’
आदम अजीज पर इस नाक ने एक मालिकाना पहलू अख्तियार कर लिया था। मेरी माँ पर यह नेक और थोड़ी तकलीफ झेलती हुई लगती थी, मेरी एमेराल्ड मौसी पर नकचढ़ी, मेरी आलिया मौसी पर बौद्धिक, मेरे हनीफ मामू पर यह एक असफल ‘जीनियस’ की निशानी थी, मेरे मुस्तफा मामू ने इसे दोयम दर्जे का सुँसुआहा बना डाला था; ब्रास बंदरिया इससे पूरी तरह बच निकली थी; मगर मुझ पर—मुझ पर यह फिर कुछ और थी। मगर मुझे अपने सारे राज एक साथ नहीं खोल देने चाहिए।

(ताई नजदीक आ रहा है। वह, जिसने नाक की ताकत उजागर की थी और जो मेरे नाना के लिए वह पैगाम ला रहा है जो उन्हें उनके भविष्य की ओर प्रक्षेपित कर देगा, सुबह की झील में अपने शिकारे के साथ चला आ रहा है...)
किसी को याद नहीं है कि ताई कब जवान था। वह हमेशा से डल और नगीन झीलों के बीच उसी कुबड़ी अदा में खड़ा वही पुरानी नाव खेता आ रहा था...। जहाँ तक किसी को पता है। वह लकड़ियों के मकानवाले पुराने मुहल्ले में कहीं एक गंदी-सी झोपड़ी में रहता था और उसकी बीवी वसंत और गर्मियों में पानी की सतह पर लहराते एक ‘तैरते बगीचे’ में कमलककड़ी और दूसरी दिलचस्प सब्जियाँ उगाया करती थी। ताई खुद भी हँसते हुए कुबूल करता था कि उसे अपनी उम्र का अंदाजा नहीं है। न ही उसकी बीवी को ही— वह कहती थी कि जब उनकी शादी हुई थी, तब ही वह चीमड़ हो चुका था। उसका चेहरा पानी पर हवा की कारीगरी था : खाल की बनी हुई लहरें। उसके मुँह में बस सोने के दो दाँत थे, और कुछ नहीं। शहर में उसका कोई दोस्त नहीं था। जब वह शिकारा बाँधनेवाले घाटों से, या किसी झील के किनारे बनी टूटी-फूटी चाय गुमटी या किराना दुकानों से गुजरता तो कोई भी मल्लाह या व्यापारी उसे एक साथ हुक्का गुड़गुड़ाने का न्योता नहीं देता।
ताई के बारे में जो आम राय थी, वह काफी पहले आदम अजीज के अब्बा जान जाहिर कर चुके थे : ‘‘उसके दाँतों के साथ उसका दिमाग भी झड़ गया था।’’ (मगर अब बूढ़े अजीज साहब चिड़ियों की चहचहाहट में खोये हुए हैं और ताई का काम सीधे-सादे शानदार ढंग से जारी है।) इस राय को इस मल्लाह ने अपनी बड़बड़ाहट से बढ़वा दिया था जो बड़ी अनोखी, भारी-भरकम शब्दों से भरी हुई और न खत्म होने वाली होती थी, और अक्सर यह सिर्फ अपने-आपको संबोधित नहीं होती थी। आवाज पानी के साथ बहती और झील के लोग उसके एकालापों पर खिलखिलाते, मगर अक्सर उसमें एक और श्रद्धा यहाँ तक कि डर भी छुपा होता। श्रद्धा इसलिए कि पहाड़ों और झीलों को यह अधपगला बूढ़ा अपने निंदकों से कहीं ज्यादा जानता था, डर इसलिए कि अपने पुरानेपन को लेकर उसका दावा इतना बड़ा था कि वह गिनती को बेमानी बना डाले और इससे भी बढ़कर उसकी चूजे-सी गर्दन से इतने हल्के ढंग से टंगा रहता था कि उसे एक बेहद प्यारी बीवी पाने और उसके चार बच्चों का बाप बनने में कोई मुश्किल पेश नहीं आयी...और कहानी यहाँ तक जाती थी कि झील के उस पार की बीवियों से उसके और भी बच्चे थे। शिकारा घाटों के जवान छैलों को लगता था कि उसके पास कहीं दूर छुपा हुआ सारा पैसा है—शायद सोने के बेशकीमती दाँतों का खजाना, एक बोरे में आखरोट की तरह खड़खड़ाता हुआ। बरसों बाद जब अंकल पफ्स ने अपनी बेटी को उसके दाँत निकलवा कर सोने से मढ़वाने का लालच दे मुझसे बेचने की कोशिश की, तो मुझे ताई के भूले हुए खजाने का खयाल आया...और एक बच्चे के रूप में आदम अजीज को ताई से मुहब्बत थी।
खजाने की सारी अफवाहों के बावजूद वह एक आम मल्लाह के रूप में गुजारा करता था—फसलों, बकरियों और लकड़ियों और सब्जियों को वह नगद के बदले झील के इस पार से उस पार ले जाया करता था और लोगों को भी। जब वह अपना काम कर रहा था तो उसने अपने शिकारे के बीचोबीच एक मंडप बनवाया था जो फूलों की डिजाइन के पर्दे और तंबू से किया गया एक सुन्दर काम था और इसमें इनसे मैच करते हुए कुशन थे और वह अपनी नाव को हमेशा लोबान से पवित्र रखता था। लहराते हुए परदों और ताई के शिकारे के निकट आने का मंजर डॉ. अजीज के लिए हमेशा वसंत का आगमन बतानेवाली छवियों में एक रहा था। जल्दी ही अंग्रेज साहब लोग आते और हमेशा बड़बड़ाता, नुकीला और झुका हुआ ताई उन्हें शालीमार बाग और चश्मे शाही ले जाता। वह परिवर्तन की अपरिहार्यता में ऑस्कर इल्स-इन्ग्रिड के यकीन का जीवित प्रतिसिद्धांत था...घाटी की विचित्र जुझारू और जानी-पहचानी रूह। पानी का एक कैलिबन, जो सस्ती कश्मीरी ब्रांडी का बहुत शौकीन था।

मेरे नीले बेडरूम की दीवार की यादें : जिस पर प्रधानमंत्री की चिट्ठी के बगल में बहुत सालों तक ‘ब्वॉय रैलीफ’ टँगा रहा, लाल धोती की तरह का कुछ पहने एक बूढ़े मछुआरे की ओर गहरी खुशी के साथ देखता हुआ जो एक—क्या ?—डोंगी ? पर बैठा हुआ—और उसे मछलियों से जुड़ी कहानियाँ सुनाते हुए समुद्र की ओर इशारा कर रहा है...और बालक आदम, मेरे होने वाले नाना सिर्फ उसी न खत्म होने वाली बड़बड़ाहट की वजह से मल्लाह ताई को प्यार कर बैठते थे जिसके चलते बाकी सब उसे पागल मानते थे। यह एक जादुई बातचीत थी, उसके मुँह से शब्द मूर्ख के खजाने की तरह निकलते थे, उसके सोने मढ़े दाँतों से होते हुए, ब्रांडी और हिचकियों से भरपूर, अतीत के सुदूरतम हिमालय तक पहुँचते हुए और सहसा चालाकी से किसी ताजा ब्यौरे तक उतर आते हुए, मसलन आदम की नाक तक, चूहे की तरह उसके मानी की चीर-फाड़ करने लिए। इस दोस्ती ने बड़ी नियमितता के साथ आदम को बड़ी मुश्किल में डाल दिया। (उबलते हुए पानी में। शब्दशः। जब उसकी माँ ने कहा, ‘‘हम उस मल्लाह के बच्चे को मार डालेंगे, अगर वह तुझे मारता है।’’) फिर भी वह अपने आपसे बात करनेवाला बूढ़ा अपनी नाव में बगीचे के झील से सटे हिस्से में आवारगी करता रहता और अजीज उसके पाँवों के पास बैठा रहता, जब तक कि उसे भीतर बुलाती आवाज नहीं आती और उसके बाद उसे ताई की गंदगी पर लेक्चर पिलाया जाता और कीटाणुओं की लुटेरी फौज से सावधान किया जाता जिसे उसकी अम्मा ने उस पुराने जिस्म से अपने बेटे की धुली हुई उजली शेरवानी पर छलांग लगाते देखा था। मगर हमेशा आदम सुबह की सम्मोहित झील में अपनी जादुई नाव खेकर आते हुए उस फटीचर पापात्मा की कुबड़ी आकृति को कुहरे के बीच तलाशने के लिए पानी के किनारे लौटता था।
‘‘मगर आप वाकई कितने बूढ़े हैं, ताई जी ?’’ (वयस्क, लाल दाढ़ी वाला डॉ. अजीज, भविष्य की ओर झुकते हुए, उस दिन को याद करता है जब उसने यह नहीं पूछने लायक सवाल पूछ लिया था।) एक लमहे के लिए, झरनों से भी ज्यादा शोर करती खामोशी। एकालाप बाधित हुआ। पानी में पतवार की छपछपाहट। वह ताई के साथ शिकारे पर जा रहा था, पुआल के ढेर पर बकरियों के बीच उकड़ूँ बैठा हुआ, इस बात की पूरी जानकारी के साथ कि घर पर छड़ी और बाथ टब उसके इंतजार में होंगे। वह कहानियों के लिए आया था—मगर उसने एक ही सवाल से कथावाचक को खामोश कर दिया।
‘‘नहीं, बताइए ताई जी, कितनी उम्र है आपकी ?’’ और अब पता नहीं, कहाँ से हासिल की गयी ब्रांडी की बोतल, बड़े गर्म चोगे की तह से निकली सस्ती शराब। फिर एक सिरहन, एक डकार, एक कौंधती हुई निगाह। सोने की चमक ! और—आखिरकार ! आवाज निकली। ‘‘कितना बूढ़ा ? तुम पूछते हो कितनी उमर है ? तुम छोटे नासमझ बच्चे, नक्कू...।’’ ताई मेरी दीवार पर टँगे मछुआरे से पहाड़ की ओर उँगली उठाए हुए। ‘‘उतना बूढ़ा नक्कू !’’ आदम, नक्कू, नाकवाला उनकी तनी हुई उँगलियों की ओर देखता। ‘‘मैंने पहाड़ों को जन्म लेते देखा है। मैंने बादशाहों को मरते देखा है। सुनो ! सुनो नक्कू...।’’ फिर ब्रांडी को बोतल, और फिर ब्रांडी से भीगी आवाज, शब्द शराब से भी नशीले—‘‘...मैंने ईसा को, क्राइस्ट को देखा है जब वह कश्मीर आये थे। हँस लो, हँस लो। यह तुम्हारा इतिहास है जिसे मैं अपने दिमाग में रखे हुए हूँ। एक समय यह पुरानी खोयी हुई किताबों में लिखा हुआ था। एक समय मैं जानता था कि कहाँ वह कब्र है जिसके पत्थर पर छिदे हुए पाँव खुदे हुए थे, जिनसे साल में एक बार खून निकलता था। मेरी याददाश्त भी खत्म हो रही है, मगर मैं जानता हूँ, हालाँकि मैं पढ़ नहीं सकता।’’ एक ही पैंतरे में निरक्षरता बर्खास्त हो गयी, उसके झटकते हुए हाथों के गुस्से में साहित्य चरमरा गया। यह तेजी से फिर चोगे की जेब में जाता है, ब्रांडी की बोतल तक पहुँचता है और फिर ठंड से फटे हुए होंठों तक। ताई के होंठ हमेशा औरतों की तरह थे। ‘‘सुनो नक्कू, सुनो ! मैंने बहुत कुछ देखा है ! यारा, तुम्हे देखना चाहिए था जब ईसा यहाँ आये थे, दाढ़ी अंडकोष तक नीचे, गंजे जैसे कि खोपड़ी पर अंडा हो। वह बूढ़े और थके हुए थे, मगर अपना सलीका वह नहीं भूले थे। ‘पहले आप ताई जी’ वह कहते थे, और ‘बैठकर खुशी हुई’, हमेशा अदब से भरी जुबान, उन्होंने कभी मुझे सनकी नहीं कहा, कभी ‘तू’ भी नहीं कहा, हमेशा ‘आप’। समझे ? कितने विनम्र थे। और क्या भूख थी ! इतनी जबरदस्त भूख कि मैंने तो अपने कान पकड़ लिये ! संत थे या शैतान, कसम से, वह एक ही बार में एक मेमना खा सकते थे ! मगर इससे क्या ! मैंने कहा खाओ, अपना पेट भर लो, आदमी कश्मीर आता है तो जिंदगी का मजा लेने के लिए या फिर इसे खत्म करने के लिए, या फिर दोनों के लिए।’’ इस गंजे, पेटू क्राइस्ट की ब्रांडी के बीच बनाई गयी तस्वीर से चकित अजीज सुनता रहा और बाद में इसका सारांश बताते हुए अपने अब्बा-अम्मी के सामने उसने एक-एक शब्द दुहराया जो मोतियों और पत्थरों का धंधा करते थे और जिनके पास इस बकवास के लिए समय नहीं था।        

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