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वो आदमी

फजल ताबिश

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2846
आईएसबीएन :81-267-1186-8

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इसमें एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कालखण्ड के प्रामाणिक दस्तावेजों का वर्णन है...

Vo Aadmi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उपन्यास ‘वो आदमी’ एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक कालखण्ड का प्रामाणिक दस्तावेज है जिसमें भोपाल से सम्बन्धित कथाएँ और किंवदन्तियाँ बहुत खूबी और बिना किसी दिखावे के, बचपन की यादों के साथ खासतौर पिता और परिवार के अन्य सदस्यों की यादें जो समय के साथ खामोश बदलाव के पात्र भी हैं और साक्षी भी, बुनी गई हैं। सॉमरसेट मॉम का भावार्थ उधार लेकर कहें तो किसी कीमती गलीचे के रहस्यमय पैटर्न में बुनी गई हैं।
यह उपन्यास दरअसल एक प्लॉट-रहित गाथा है, जो कि शायद जिंदगी की असलियत भी है। इसे पढ़ते समय एहसास होता है कि बढ़ना और बदलना एक-दूसरे के बिना सम्भव नहीं, और कुछ होने के लिए बहुत सारी कभी रह चुकी चीजों का खो जाना जरूरी है। ‘वो आदमी’ पाठक को एक ओर जहाँ नॉस्टेल्जिया से भरता है, वहीं दूसरी सतह पर उससे मुक्त होने को सचेत भी करता है।
सबसे महत्वपूर्ण, यह बताता है कि दुनिया किधर से आ रही है और किस दिशा में बढ़ रही है, और पाठक को अपने भीतर झाँक सकने के साहस के साथ जिंदगी में भागीदारी का न्योता देता है।

आभार


‘वो आदमी’ उपन्यास फ़ज़ल ताबिश ने उर्दू में लिखा था। उनकी ज़िन्दगी में ही इस उपन्यास का पहला अंश ‘साक्षात्कार’ पत्रिका में लिप्यान्तर के बाद छपा था। यह उपन्यास हिन्दी लिप्यान्तर में प्रकाशित हो, यह उन्हीं का चुनाव था। उपन्यास की जो मौजूदा सूरत है उनको बनाने में मंजूर एहतेशाम, की अहम भूमिका रही है। जिसमें मैंने उन्हें सहयोग देने की कोशिश की है। लिप्यान्तर के काम में मंजूर एहतेशाम, मनोहर वर्मा, रमाकांत श्रीवास्तव और मेरे बड़े भाई हाशिर ने काफ़ी सहयोग दिया है। मैं फ़ज़ल ताबिश कालबेटा होने के नाते आप सबके प्रति हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।

साख़िर रहमान

भूमिका


 फ़जल़ ताबिश मूल रूप से ऊर्दू के आदमी होने के बावजूद हिन्दी साहित्य-जगत के लिए कोई अपरिचित नाम नहीं है। उनके दो नाटक-‘डरा हुआ आदमी’ और ‘अखाड़े के बाहर से’ पुस्तकालय में, वाणी प्रकाशन, दिल्ली से लगभग 25 वर्ष पूर्व हिन्दी में ही मंचित भी हुए थे। वह ऊर्दू के उन गिनती के नाटककारों में से हैं, जिसके नाटक मंचित भी हो सके और उन्होंने ब.व. कारंत और अलखनन्दन जैसे प्रतिष्ठित निर्देशकों के साथ काम किया। इसी प्रकार फिल्मों में उन्होंने मणि कौल की मुक्तिबोध-साहित्य पर आधारित फिल्म अनीता देसाई के अग्रेजी उपन्यास,  ‘इन कस्टडी’ पर बनी फ़िल्म ‘मुहाफ़िज’ के संयोजक-सहायक की चुनौतिपूर्ण ज़िम्मेदारी अपने सिर ली। मुशायरों, सेमिनारों परिचर्चाओं से लेकर नाटक और फिल्मों तक फ़जल ताबिश की दुनिया का बड़ा फैलाव था, जिसमें सरकारी नौकरी की अपनी जगह थी और विचारधारा के संघर्ष का अपना महत्त्व और स्थान। फ़ज़ल ताबिश उस पारे की सिफ़त के व्यक्ति थे जिनकी जिस जगह, जिस घड़ी उम्मीद की जाए वहाँ होता था। इसके साथ-ही-साथ उनकी एक आत्मीय, अन्तरंग दुनिया भी थी जिसके बिना बाकी सब की कल्पना अधूरी थी। वह बुनियादी तौर पर एक दोस्त थे। -पत्नी के, औलाद के, प्रेमिकाओं के, दोस्तों के। हद यह अपनी ओर से उन्होंने उनसे भी दोस्ती का ही व्यवहार किया जो उन्हें दोस्त नहीं समझते थे। ऐसा किसी कूढ़मग़ज़ी या नासमझी के कारण नहीं, इसलिए कि यही उनका बुनियादी स्वभाव था।

जैसी कि कहावत है, कुछ लोग अपनी ज़ात में एक अंजुमन होते हैं, और यह कहावत फ़जल ताबिश से ज्यादा किसी दूसरे पर लागू नहीं होती। सुबह के तड़केदम से रात देर तक उनकी व्यस्तता, और उस व्यस्तता के प्रति उनकी चाह एक अजूबा थी, और उसी के साथ-साथ उनका दम-ख़म सड़कों पर पैदल चलना ज़्यादा पसन्द करते थे जब किसी काम की जल्दी हो। अगर मुहब्बत और मुरव्वत उनका ख़ामीर था तो उनके सफ़ाई और बेबाकी से अपनी बात कहने में अभी आड़े नहीं आ सका और किसी से मतभेद या अपने दिल की बात वह बहुत खुलकर सामने रखते थे।– इस तरह कि उसमें दोस्ताना बेतकल्लुफ़ी क़ायम रह सके। हाथ-पैर ही नहीं, वह दिमाग़ के भी मज़बूत व्यक्ति थे। उनका सरापा किसी यूनानी देवता की याद दिलाता था, जो उम्र के साथ अधिक भव्य और सुन्दर होता गया था।

‘वे आदमी’, फ़ज़ल के आत्मकथात्मक उपन्यास, को पढ़ते हुए उस छरेरे युवा पठान की कल्पना कर पाना, जो ग़रीबी का बचपन जीते हुए तरह-तरह की अज़माइशों से गुज़रता अपने समय के शहर भोपाल के वासियों की साँसें और परछाइयाँ जज़्ब करता, उस व्यक्ति में परिवर्तन हो रहा था जिसे बदलते समय के साथ एक अपेक्षाकृत सम्पन्न-आर्थिक और बौद्धिक, जीवन जीना था। और जिससे मेरी पहली भेंट भी बाद में कभी वर्ष 1973 में होना था, मेरे लिए कठिन तो है लेकिन उतना नहीं। यह कमाल इस लेखन का है, वरना भोपाल के इस रसा-तल (Lower Depths) को न तो मैंने अपनी आँखें खोलकर देखा न खुद उसका एक हिस्सा होने का मुझे आभास था। यह इसके बावजूद कि फ़ज़ल ताबिश की ही तरह मैं भी जन्मजात भोपाली हूँ, और मेरी अब तक की ज़िन्दगी खुद अपनी आँखों के सामने यहाँ की गलियां सड़कों इमारतों और लोगों को बदलते देखने में ही गुज़री है। ऐसा शायद कुछ तो ज़मानों के बदलाव के कारण था, कुछ भिन्न परिवेशों में पलने, कुछ स्वभाव में किसी बुनियादी भिन्नता के कारण था, कुछ भिन्न परिवेशों में पलने, कुछ स्वभाव में किसी भिन्नता के कारण वह ज़माना तो फ़ज़ल ताबिश ने अपने बचपन के रूप में जिया था, मेरे होश सँभालने तक किस्सा-कहानी हो चुका था, साथ ही मुझे अपने घर में बहुत सारी ऐसी सुविधाएं भी उपलब्ध थीं जो फ़ज़ल ताबिश को नहीं थीं। यह शायद इसी का नतीजा था कि झीलों की नगरी भोपाल में फ़ज़ल ताबिश तो तैरना भी सीख गए और बड़ी महारत से कश्ती भी चलाया करते थे, जबकि मैं दोनों में से कुछ भी नहीं सीख पाया, और न अब आगे उसकी सम्भावना है।

‘वो आदमी’ एक ऐसा उपन्यास है जिसकी रचना फ़ज़ल ताबिश ने बडी लगन और मुहब्बत के साथ, बहुत बेबाकी और बिना किसी लाग-लपेट के, अपने ख़ास लहजे में की हैः लहजा जो उनकी रोज़मर्रा बातचीत और शायरी, दोनों ही को अन्य शायर-लेखकों से अलग करता और उसे अपना अनोखापन देता था। फ़ज़ल ताबिश हमारे दरमियान से अगर अचानक रूख़्शत न हो गए होते तो उनके ही शब्दों में-‘इस हिस्से का क़िस्सा जारी रहेगा’ (जो इस उपन्यास के लिए उनके द्वारा सोचे गए शीर्षकों में से भी एक था।), तो अवश्य ही यह क़िस्सा आगे भी जारी रहता और वह इसमें और भी कुछ क़ीमती जोड़ते। इसका मतलब यह नहीं कि उनके शामिल न होने से रचना का महत्त्व कम हो जाता हैः मेरी नज़र में अपनी वर्तमान शक्ल में भी यह उपन्यास पूरा और बेशक़ीमती है।

इस रचना से फ़ज़ल ताबिश को ख़ास लगाव था। बिना किसी हड़बड़ाहट या पूरा करने की जल्दी के, इसे वह इतिमिनान से उन लोंगों और ज़मानों के साथ जीते हुए लिख रहे थे जिनके बीच उन्होंने आँखों खोली थीं, और ज़िन्दगी के सबसे अहम सबक पढे़ और सीखे थे। दोस्तों को उपन्यास के अलग-अलग हिस्सों के लम्बे वक़्त पर फैले विभिन्न अवसरों पर सुनने को मिलते थे, और उन सुनने वालों की सूची  में एक नाम मेरा भी था,। किसी नए चेप्टर का पाठ आम तौर पर शाम के जश्न की भूमिका के रूप में होता था, जिसमें वह अपने दोस्तों के बैठकर पुरानी यादों को साझा करते हुए, एक प्रकार के नौट्स एक्सचेंज किया करते थे। सोमदत्त, भगवत रावत, मनोहर वर्मा, सैयद आ़फा़क़ अली, विनय दुबे, इजलाल मरीद और कोई अन्यः ज़रूरी नहीं था लोग एक साथ जमा हों। जब जिसके साथ बैठने का मौक़ा मिल गया, यह सिलसिला चलता रहता था। लिखने और दोस्तों को पढ़कर सुनाने के साथ-साथ अंशों के प्रकाशन का क्रम भी जारी हो गया था और पाठकों की प्रतिक्रियाएँ भी उन्हें मिलने लगी थीं। नाटकों की तरह उपन्यास के प्रकाशन के लिए भी उन्होंने देवनागरी लिपी का चयन किया था। उसका अंश म. प्र, साहित्य परिषद की पत्रिका ‘साक्षात्कार’ में सोमदत्त के सम्पादन में प्रकाशित हुआ था, और फिर कुछ अन्य अंश भी ‘साक्षात्कार’ और ‘वसुधा’ प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका है, इस कारण। फ़जल ताबिश का पॉलिटिकल कमिटमेंट सर्वविदित था। वह कम्यूनिस्ट विचारधारा के थे; क्यों थे यह महीन परतें ‘वो आदमी’ को पढ़ते हुए खुलती हैं। समय के साथ-साथ उनकी रचना किसी विचारधारा के साथ बँध नहीं सकती थी, उपन्यास पढ़ते हुए रचना किसी विचारधारा के साथ बँध नहीं सकती थी, यह भी उपन्यास पढ़ते हुए स्पष्ट हो जाता है। ऐसा न तो क्या वह (उदाहरण के लिए) यह शेर कहते-

मैं हवा पानी परिन्दा कुछ नहीं
ये नदी जाने कहाँ तक जाएगी।

उपन्यास ‘वो आदमी’ एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक कालखंड का प्रामाणिक दास्तावेज़ है जिसमें भोपाल के सम्बन्धित कथाएँ और किंवदन्तियाँ, बहुत ख़ूबी और बिना किसी दिखावे के बचपन की यादों के साथ, ख़ासतौर पर पिता और परिवार के अन्य सदस्यों की यादें, जो समय के साथ ख़ामोश बदलाव के पात्र भी हैं और साक्षी भी, बुनी गई हैं। सॉमरसेट मॉम का भावार्थ उधार लेकर कहें तो किसी उपन्यास कीमती ग़लीचों के रहस्य पैटर्न में बुनी गई हैं। यह उपन्यास दरअसल एक प्लाट-रहित गाथा है, जो कि शायद ज़िन्दगी की असलियत भी है। इसे पढ़ते एहसास होता है कि बढ़ना और बदलना एक-दूसरे के बिना सम्भव नहीं, और कुछ होने के लिए बहुत सारी कभी रह चुकी चीज़ों का खो जाना ज़रूरी है। ‘वो आदमी’ पाठक को एक ओर जहाँ नास्टेल्जिया से भरता है, वहीं दूसरी सतह पर उससे मुक्त होने को सचेत भी करता है। सबसे महत्त्वपूर्ण, वह बताता है कि दुनिया किधर से आ रही है और किस दिशा में बढ़ रही है, और पाठक को अपने भीतर झाँक सकने के साहस के साथ ज़िन्दगी में भागीदारी का न्यौता देता है।

भोपाल की अपनी बोलचाल है, और बोलचाल लिपियों की जकड़ से परे होती है। उसका अपना लहजा होता है जिसमें कभी उर्दू होते हैं कभी हिन्दी, और कभी ठेठ स्थानीय बनावट के। फ़ज़ल ताबिश ऊर्दू के महत्त्वपूर्ण शायर ही नहीं, दस साल तक मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी के सचिव भी रहे थे। इसके बावजूद उनकी रचनाएँ-ग़ज़ल, ऩज्म, नाटक या उपन्यास, थोड़ी उर्दू बहुलता के साथ सब उसी भोपाल की बोलचाल के साँचे में ढली हैं। इन्हें पढ़ते-सुनते यही महसूस होता है जैसे फ़ज़ल ताबिश अपने ख़ास लहजे में गम से बात कर रहे हैं। उर्दू तो उन्होंने एक विषय के तौर पढ़ी ही थी लेकिन उनकी कोशिश रहती थी कि हिन्दी, विदेशी भाषाओं की कलाकृतियों के अनुवाद और अंग्रेजी में रचा जा रहा साहित्य, जितना सम्भव हो सके वह पढ़ें। यही वजह है कि उनकी सोच का साहित्य, जितना क़ायम रह सका और लेखन में पारदर्शिता और धार पैदा हो सकी। यही उनके दोस्तों का था और भोपाल में ईदों पर जो रौनक़, उनके घर होती थी, जहाँ ‘कौन-क्या है’ जमा होते थे, उसकी अब कल्पना नहीं की जा सकती। सचमुच फ़ज़ल ताबिश भोपाल की ज़िन्दगी में ऊर्दू-मुसलमान, हिन्दी-ऊर्दू, अभिजात्य-साधारण के बीच इकलौते पुल के समान थे, और उनकी जिन्दगी में पुराने और नये भोपाल के बीच उस तरह का फ़ासला महसूस नहीं हुआ उनके बाद होने लगा है।

‘वो आदमी’ एक बेटे और बाप के आपसी सम्बन्धों के माध्य़म से एक परिवार, मुहल्ले और एक समय के शहर, जो एक रियासत से प्रदेश की राजधानी बना था। की खोज की यात्रा है जिसमें बीते समय और लोगों की जिन्दा नब्ज मौजूद है। इसका एक-एक चरित्र, लैंडस्केप और ज़मानों से दोहराई जाती रही कहानियाँ, वक्त के एक टुकड़े की तस्वीर रचते हैं और ज़िन्दगी की खुरदुरी असलियतों के रूबरू कराने, सोच में डूबा छोड़ जाते हैं। इसे पढ़ते हुए बर्बाद ही महसूस होता है कि कलाकारी और कला में कितना अन्तर हो सकता है। बिना किसी कलाकारी की चमक-दमक के ‘वो आदमी’ उच्च कोटि की कला का उदाहरण है।

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