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यात्रा चक्र

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :396
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2867
आईएसबीएन :81-7055-347-4

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इसमें भारत की अधिकांश यात्रा का वर्णन किया गया है...

Yatra chkra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

चक्रार्पण

यात्राएँ, यात्राएँ-रोमांचक यात्राएँ !
बचपन से यही मेरा ख्वाब था
कौन चाहता था कवि बनना, लेखक बनना ?
नहीं, मैं तो चाहता था नेवी में भर्ती होना।
नीली टोपी, सफेद वर्दी, हाथ में दूरबीन
अथाह सागर में उत्ताल तरंगों को
चीरता जहाज ! जहाँ मुझे कोई अछूत अपरिचित
द्वीप दिखे वहीं उतर पडूँ। अकेले
घने जंगलों बियावान चट्टानों
के बीच भटकता हुआ। शायद कहीं
कोई समुद्री बूढ़ा मिल जाए,
कहीं किसी समुद्री लुटेरे का खज़ाना
मिल जाए, शायद कमर तक बाल
बिखेरे कोई जलपरी मिल जाए !
बचपन में पिता ने बाल आरब्योपन्यास
(अरेबियन नाइट्स का हिन्दी अनुवाद)
लाकर पढ़ने को दिया था, और
तिलिस्मी रहस्यों वाले उपन्यास-
सो बचपन का कच्चा मन यही सपने
देखा करता था। मेरे हीरो थे सिन्दबाद जहाजी, और
राबिन्सन क्रूसो।

पर जब सचमुच यात्राएँ कीं तो पाया कि यात्राओं का रोमांच तो होता है पर वैसा नहीं। हम अपरिचित देशों में जाते हैं। अनजानी भाषा, अनजाने लोग, अपरिचित प्रकृति-परिवेश, और अलग तरह का रहन-सहन, इन सबसे परिचय का एक रोमांच तो होता ही है, पर एक और चीज़ होती है, इन यात्राओं में आप केवल एक भौगोलिक बिन्दु से ही नहीं गुज़रते। एक इतिहास के मोड़ से भी गुजरते हैं। इतिहास के एक दौर से आप गुज़र रहे होते हैं और वे सब, उनका समाज भी इतिहास के एक दौर से गुज़र रहे होते हैं और वे सब, उनका देश उनका समाज भी इतिहास के एक दौर से गुज़र रहा होता है। यात्राओं में स्थान (भूगोल) के साथ समय (इतिहास) का भी यही आयाम जुड़ जाये तो यात्रा और रोमांच और भी सार्थक हो उठता है।

यह विचित्र संयोग रहा कि अनेक यात्राओं में इतिहास के किसी आकस्मिक मोड़ से गुज़रना पड़ा-जर्मनी में बर्लिन-दीवार का संकट गहराया हुआ था अपने चरम बिन्दु पर; म़ॉरिशस में उसी समय स्वाधीनता मिली थी और लेबर पार्टी की पहली स्वाधीन सरकार बनी थी और पहले प्रधानमंत्री बने थे भारतवंशी चाचा सर शिवसागर राम गुलाम, इण्डोनेशिया में राजनीतिक उथल-पुथल एक निर्णायक मोड़ पर आ रही थी, और चीन में ‘गैंग ऑफ फोर’ की तथाकथित ‘सांस्कृतिक क्रान्ति’ कुछ ही दिन पहले निरस्त की जा चुकी थी, और भारत पर चीनी आक्रमण के 16 साल बाद पहली बार दोनों देशों का अनबोला खत्म हुआ था और भारतीय पत्रकारों का हमारा प्रतिनिधि मण्डल ही इस नये दौर का अग्रदूत बनाया गया था।

और इससे भी ज्यादा रोमांचक और अर्थवान होता है किसी देश की क्रान्तिकारी उथल-पुथल में स्वयं सहभागी रहना और वहाँ की जनता का मुक्ति आन्दोलन का एक भाग बन सकना। यह मेरा भाग्य ही समझिए कि बांग्ला देश के मुक्ति संग्राम में साक्षी बनने का अवसर मिला। हवाई हमलों, फूटते बमों, गरजती तोपों, बरसती गोलियों, जलती जीपों और खेतों में बिखरी लाशों के बीच से गुज़रना-उफ् ! कहाँ गया था भय उस समय ?
ऐसी अद्भुत अनुभूतियाँ क्या अनजान द्वीपों से सहसा मिल जाने वाले समुद्री लुटेरों के गुप्त खज़ानों से कम हैं ? और अनन्त काल से चला आता हुआ यह इतिहास ही क्या वह सफेद बरीनियों और झूलती पलकों वाले रहस्यमय समुद्री बुड्डे से ज्यादा रहस्यमय नहीं है-

और जलपरी ? हाँ, यह सवाल ज़रा टेढ़ा है। इतनी यात्राओं में जलपरी तो कहीं नहीं मिली। पर कैसा अचरज है कि यात्राओं में तो नहीं, पर जब-जब किसी भी यात्रा से वापस घर लौटा तो वह जलपरी घर पर ही इन्तजार करती मिली। और उसका चिरपरिचित चेहरा और सुपरिचित नाम-पुष्पा भारती। आपने ने भी सुना होगा। उसी को मेरी यह यात्राएँ ही क्या पूरी जीवन-यात्रा ही समर्पित है।

15 अगस्त, 1994

-धर्मवीर भारती

इंगलैण्ड : मगर कौन-सा


यात्राओं के बारे में एक बात मैंने महसूस की है जो बड़ी अजीब है, लेकिन बहुत सच। मेरा ख्याल है कि दूसरे यात्रियों ने भी इसे जरूर महसूस किया होगा लेकिन अचरज है कि उन्होंने कहा क्यों नहीं ? अक्सर ऐसा होता है कि इसके बहुत पहले कि हम सात समुद्र पार किसी अनदेखे देश में जायें, उसे देखें-वह पहले से भी हमारी कल्पना में बसा हुआ होता है। कुछ सुना, कुछ पढ़ा, कुछ अनुमान किया हुआ। और जब हम सचमुच एक दिन वहाँ जाते हैं तो उसी का एक बिलकुल निजी, अपना संस्मरण साथ लेते हुए जाते हैं। भूगोल एक बाहर का है, एक हमारे अन्दर का। यात्राएँ दोनों साथ होती हैं। हम बाहर भी जाते हैं और साथ-साथ स्मृतियों और कल्पनाओं के देश में समानान्तर यात्रा करते चलते हैं।

बचपन से एक इंगलैण्ड मेरा था, बिलकुल मेरा। कुछ बचपन से बनी धारणाओं किताबों में पढ़े विवरणों, गोल्डस्मिथ से लेकर जान आसबर्न तक की कृतियों से संकलित प्रतिक्रियाओं और कविता पुस्तकों और ऐलबमों का एक बिलकुल अपना निजी इंगलैण्ड ! अपने देश की सीमा पहली बार लाँघकर अनजान दिशा में जाने का उचटाव जब जरा शमित हुआ तब मैंने अकस्मात् महसूस किया कि मैं अकेले नहीं जा रहा हूँ, एक इंगलैण्ड मेरे साथ जा रहा है।

आधी रात ! गर्मियों का तारा भरा, खुला, असीम आकाश। तीस हजार फीट की ऊँचाई पर सैकड़ों मील रफ्तार से उड़ता हुआ जेट, लेकिन अन्दर एक ठहराव, सन्नाटा और आधी रात की धुँधली रोशनी। दूर पर अपने से बहुत नीचे दीखने वाले सितारों को निहारने का मोह छोड़कर आखें बन्द कर चुपचाप सोचना या बिना कुछ सोचे सिर्फ महसूस करना। जेट-प्लेन सैकड़ों मील की रफ्तार से आगे जा रहा है, मन उम्र की डगर पर उतनी ही तेजी से पीछे !
अँधेरा !
अकस्मात् एक तेज सुरीली आवाज से एक बच्चा चौंककर जाग जाता है। एक-दो तारे अब भी झिलमिला रहे हैं लेकिन भोर होने को आ गयी है। नींद में अधसुनी सुरीली आवाज फिर गूँज उठती है
:
जागो ऐ हिन्द वालो, हर सू हुआ सबेरा !
सब लूट करके अपने घर ले गया लुटेरा।
जगमग महल बकिंघम, वर्धा में है अँधेरा...

बच्चा गौर से सुनता है। वह जानता है कि यह बेनी काका की आवाज है। रोज सुबह चार बजे जमुना जी जाते हुए मुँह-अँधेरे बेनी काका गिन-गिनकर पाँच सौ कदम पर रुकते हैं, यह टेर लगाते हैं, फिर ‘वन्देमातरम् ! कहते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। रास्ते में थाना पड़ता है। वहाँ तीन बार परिक्रमा देते हैं इसे बार-बार गाते हैं और फिर जमुना जी की ओर निकल जाते हैं। थाना उनका तीरथ है। यहाँ उनका जवान लड़का सत्याग्रह के दिनों में शहीद हो गया था। उनकी जायदाद अंग्रेजों ने जब्त कर ली थी। तब से पियक्कड़, जुआड़ी और नाच-मुजरे के बेहद शौकीन, रईस बेनी काका मानचेस्टर और लंकाशायर के कपड़ों की होली जलाकर गाढ़ा खद्दर पहनकर ‘सुराजी’ हो गये थे। ठीक मुँह-अँधेरे करे यमुना जी जाते थे। अपने ‘पुत्रतीरथ’ की परिकर्मा करते हुए, टेर लगाते हुए...’ जगमग महल बकिंघम, वर्धा में है अँधेरा।’

बच्चा फिर चादर ओढ़कर लेट जाता है। उसके बकिंघम का अर्थ पहले-पहल बेनी काका से जाना था। फिरंगी के टापू में जार्जपुंजम का बहुत बड़ा महल है बकिंघम। उसकी तस्वीर उसने देखी थी और पहली बार देखी थी-लाल जरीदार वर्दी और काली-लम्बी टोपियों वाले रायल गार्डों की तस्वीर ! बेनी काका ने बताया था कि बकिंघम-महल के आसपास बड़े-बड़े तहखाने हैं जिनमें हिन्दुस्तान की सारी दौलत लूटकर भर दी गयी है। इस फिरंगी के टापू को इंगलैण्ड कहते हैं। जब सुराज होगा तब सब दौलत गांधी जी ले आयेंगे और सबको सबकी चीज लौटा दी जायेगी।

कोई मुझे छूता है। मैं चौककर जाग जाता हूँ। एयर होस्टेस सहारे से मेरा सर जरा उठाकर तकिया लगा रही है। मेरी नींद उचट जाती है। मैं कॉफी माँगता हूँ। अँधेरे में फिर, इलाहाबाद में सुना, देखा, जाना इंगलैण्ड उभरने लगता है। वह, जिसे मैं कब का भूल चुका था मगर जो कहीं ज्यों का त्यों मौजूद था और आज मेरे साथ जा रहा था।
एक बादामी कागज की स्कूली कॉपी। चमकदार बैंजनी स्याही से लिखी हुई एक बड़े-बड़े अक्षरों वाली कविता  :

I remember, I remember
The  house where I was born,
The little window where the sun
Came peeping in the morn,

(मुझे याद आता है, याद आता है मुझे
वह घर जहाँ मैं पैदा हुआ था
वह छोटी-सी खिड़की जिसमें से
सुबह-सुबह सूरज झाँककर करता था ‘ता !’)

I remember, I remember
The roses red and white
The violets and the lilycups
Those flowers made of light,

(मुझे याद आते हैं, याद आते हैं मुझे
गुलाब कुछ लाल, कुछ सफेद
वायलेट और लिलीकप
ये फूल मानो रेशमी के बने हों,)

The lilacs where Robin built nest
And where my brother set,
The laburnum on his birthday,
The tree is living yet.

(लिलैक का झाड़ जहाँ राबिन
चिड़िया का घोंसला था
जन्मदिन पर मेरे भाई का लगाया लैबर्नम
आज भी वह पेड़ वहाँ खड़ा होगा।)

कौन था कवि यह टामस मूर ? कहाँ है वह घर जहाँ वह पैदा हुआ था....? और बच्चा होल्डर के उल्टी तरफ से बैंजनी स्याही से मोटी-मोटी लाइनों से हासिये पर एक घर बनाता है। टामस मूर कौन था वह भूल गया। यह लाइनें अब उसकी हो गयी हैं। यह घर उसका है। यहाँ पैदा हुआ था। इसमें सबेरे धूप झाँकती थी। यहाँ बाहर गुलाब और लिली और वायलेट के फूल थे। लिलैक की झाड़ी में एक चिड़िया ने घोसला बनाया है और उसके भइया ने लैबर्नम का पौधा लगाया। लिली, वायलेट और लिलैक उसने कभी नहीं देखे-मगर शायद कभी-न-कभी जरूर देखे हैं, ऐसा उसे याद पड़ता है। वायलेट का फूल ऐसा होता होगा ! लिलैक की झाड़ी ऐसी होती होगी !

 
 

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