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प्रेमाश्रम

प्रेमचंद

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :364
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2883
आईएसबीएन :81-7055-191-9

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प्रेमाश्रम पुस्तक का कागजी संस्करण...

Premashram

कागजी संस्करण

सन्ध्या हो गई है। दिन भर के थके-माँदे बैल खेत से आ गये हैं। घरों से धुएँ के काले बादल उठने लगे। लखनपुर में आज परगने के हाकिम की परताल थी। गाँव के नेतागण दिनभर उनके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ते रहे थे। इस समय वह अलाव के पास बैठे हुए नारियल पी रहे हैं और हाकिमों के चरित्र पर अपना-अपना मत प्रकट कर रहे हैं। लखनपुर बनारस नगर से बाहर मील पर उत्तर की ओर एक बड़ा गाँव है। यहाँ अधिकांश कुर्मी और ठाकुरों की बस्ती है, दो-चार घर अन्य जातियों के भी हैं।

मनोहर ने कहा, भाई हाकिम तो अँगरेज अगर यह न होते तो इस देश के हाकिम हम लोगों को पीसकर पी जाते।
दुखरन भगत ने इस कथन का समर्थन किया – जैसा उनका अकबाल है, वैसा ही नारायण ने स्वभाव भी दिया है। न्याय करना यही जानते हैं, दूध का दूध और पानी का पानी, घूस-रिसवत से कुछ मतलब नहीं। आज छोटे साहब को देखो, मुँह-अंधेरे घोड़े पर सवार हो गए और दिन भर परताल की। तहसीलदार, पेसकार, कानूनगोय एक भी उनके साथ नहीं पहुँचता था।

सुक्खू कुर्मी ने कहा – यह लोग अंगरेजों की क्या बराबरी करेंगे ? बस खाली गाली देना और इजलास पर गरजना जानते हैं। घर से तो निकलते ही नहीं। जो कुछ चपरासी या पटवारी ने कह दिया वही मान गए। दिन भर पड़े-पड़े आलसी हो जाते हैं।
मनोहर – सुनते हैं अँगरेज लोग घी नहीं खाते।
सुक्खू-घी क्यों नहीं खाते ? बिना घी दूध के इतना बूता कहाँ से होगा ? वह मसक्कत करते हैं, इसी से उन्हें घी-दूध पच जाता है। हमारे दशी हाकिम खाते तो बहुत हैं पर खाट पर पड़े रहते हैं। इसी से उनका पेट बढ़ जाता है।
दुखरन भगत – तहसीलदार साहब तो ऐसे मालूम होते हैं जैसे कोल्हू। अभी पहले आए थे तो कैसे दुबले-पतले थे, लेकिन दो ही साल में उन्हें न जाने कहाँ की मोटाई लग गई।
सुक्खू – रिसवत का पैसा देह फुला देता है।

मनोहर – यह कहने की बात है। तहसीलदार एक पैसा भी नहीं लेते।
सुक्खू – बिना हराम की कौड़ी खाए देह फूल ही नहीं सकती। मनोहर ने हँसकर कहा-पटवारी की देह क्यों नहीं फूल जाती, चुचके आम बने हुए हैं।
सुक्खू – पटवारी सैकड़े-हजार की गठरी थोड़े ही उड़ाता है जब बहुत दाँव-पेंच किया तो दो-चार रुपए मिल गए। उसकी तनख्वाह तो कानूनगोय ले लेते हैं। इसी छीनझपट पर निर्वाह करता है, तो देह कहाँ से फूलेगी ? तकावी में देखा नहीं, तहसीलदार साहब ने हजारों पर हाथ फेर दिया।
दुखरन – कहते हैं कि विद्या से आदमी की बुद्धि ठीक हो जाती है, पर यहाँ उलटा ही देखने में आता है। यह हाकिम और अमले तो पढ़े-लिखे विद्वान होते हैं, लेकिन किसी को दया-धर्म का विचार नहीं होता।
सुक्खू – जब देश के अभाग आते हैं तो सभी बातें उलटी हो जाती हैं। जब बीमार के मरने के दिन आ जाते हैं तो औषधि भी औगुन करती है।
मनोहर – हमीं लोग तो रिसवत देकर उनकी आदत बिगाड़ देते हैं। हम न दें तो वह कैसे पाएँ ! बुरे तो हम हैं। लेने वाला मिलता हुआ धन थोड़े ही छोड़ देगा ? यहाँ तो आपस में ही एक दूसरे को खोए जाते हैं। तुम हमें लूटने को तैयार हम तुम्हें लूटने को तैयार। इसका और क्या फल होगा ?
दुखरन – अरे तो हम मूरख, गँवार, अपढ़ हैं, वह लोग तो विद्यावान हैं। उन्हें न सोचना चाहिए कि यह गरीब लोग हमारे ही भाईबन्द हैं। हमें भगवान ने विद्या दी है, तो इन पर निगाह रखें। इन विद्यावानों से तो हम मूरख ही अच्छे। अन्याय सह लेना अन्याय करने से तो अच्छा है।
सुक्खू – यह विद्या का दोष नहीं, देश का अभाग है।
मनोहर – न विद्या का दोष है, न देश का अभाग, यह हमारी फूट का फल है। सब अपना दोष है। विद्या से और कुछ नहीं होता तो दूसरों का धन ऐंठना तो आ जाता है। मूरख रहने से तो अपना धन गँवाना पड़ता है।
सुक्खू – हाँ, तुमने यह ठीक कहा कि विद्या से दूसरों का धन लेना आ जाता है। हमारे बड़े सरकार जब तक रहे दो साल की मालगुजारी बाकी पड़ जाती थी, तब भी डाँट-डपट कर छोड़ देते थे। छोटे सरकार जब से मालिक हुए हैं, देखते हो कैसा उपद्रव कर रहे हैं। रात-दिन जाफा, बेदखली, अखराज की धूम मची हुई है।
दुखरन – कारिन्दा साहब कल कहते थे कि अबकी इस गाँव की बारी है, देखो क्या होता है ?
मनोहर – होगा क्या, तुम हमारे खेत चढ़ोगे, हम तुम्हारे खेत पर चढ़ेंगे, छोटे सरकार की चाँदी होगी। सरकार की आँखें तो तब खुलतीं जब कोई किसी के खेत पर दाँव न लगाता। सब कौल कर लेते। लेकिन यह कहाँ होने वाला है। सबसे पहले सुक्खू महतो दौड़ेंगे।
सुक्खू – कौन कहे कि मनोहर न दौड़ेंगे।
मनोहर – मुझसे चाहे गंगाजली उठवा लो, मैं खेत पर न जाऊँगा कैसे, कुछ घर में पूँजी भी तो हो। अभी रब्बी में महीनों की देर है और घर अनाज का दाना नहीं है। गुड़ एक सौ रुपये से कुछ ऊपर ही हुआ है, लेकिन बैल बैठाऊँ हो गया है, डेढ़ सौ लगेंगे तब कहीं एक बैल आएगा।
दुखरन – क्या जाने क्या हो गया कि अब खेती में बरक्कत ही नहीं रही। पाँच बीघे रब्बी बोयी थी, लेकिन दस मन की भी आशा नहीं है और गुड़ का तो तुम जानते ही हो, जो हाल हुआ है। कोल्हाड़े में ही विसेसर साह ने तौल लिया। बाल बच्चों के लिए शीरा तक न बचा। देखें भगवान् कैसे पार लगाते हैं।
अभी यही बातें हो रही थीं कि गिरवर महाराज आते हुए दिखाई दिए। लम्बा डील था, भरी हुआ बदन, तनी हुई छाती, सिर पर एक पगड़ी, बदन पर एक चुस्त मिरजई। मोटा-सा लट्ठ कन्धे पर रखे हुए थे। उन्हें देखते ही सब लोग माँचों से उतरकर जमीन पर बैठ गए। यह महाशय जमींदार के चपरासी थे। जबान से सबके दोस्त, दिल से सब के दुश्मन थे। जमींदार के सामने जमींदार की-सी कहते थे, असामियों के सामने असमियों की-सी। इसलिए उनके पीठ पीछे लोग चाहे उनकी कितनी ही बुराइयाँ करें, मुँह पर कोई कुछ न कहता था।
सुक्खू ने पूछा – कहो महाराज किधर से ?
गिरधर ने इस ढंग से कहा, मानो जीवन से असंतुष्ट हैं – किधर से बतायें ज्ञान बाबू के मारे नाकों दम है। अब हुकुम हुआ है कि असमियों को घी के लिए रुपये दे दो। रुपये सेर का भाव कटेगा। दिन भर दौड़ते हो गया।
मनोहर – कितने का घी मिला ?
गिरधर – अभी तो खाली रुपया बाँट रहे हैं। बड़े सरकार की बरसी होने वाली है। उसी की तैयारी है। आज कोई 50 रुपये बाँटे हैं।
मनोहर – लेकिन बाजार-भाव तो दस छटाँक का है।
गिरधर – भाई हम तो हुक्म के गुलाम है। बाजार में छटाँक भर बिके, हमको तो सेर भर लेने का हुक्म है। इस गाँव में भी 50 रुपये देने हैं। बोलो सुक्खू महतो कितना लेते हो ?
सुक्खू ने सिर नीचा करके कहा, जितना चाहे दे दो, तुम्हारी जमीन में बसे हुए हैं, भाग के कहाँ जाएँगे ?
गिरधर – तुम बड़े असामी हो। भला दस रुपये तो लो और दुखरन भगत, तुम्हें कितना दें ?
दुखरन – हमें भी पाँच रुपये दे दो।
मनोहर – मेरे घर तो एक ही भैंस लगती है, उसका दूध बाल-बच्चों में उठ जाता है, घी होता ही नहीं। अगर गाँव में कोई कह दे कि मैंने एक पैसे का भी घी बेचा है तो 50 रुपये लेने पर तैयार हूँ।
गिरधर – अरे क्या 5 रुपये भी न लोगे ? भला भगत के बराबर तो हो जाओ।
मनोहर – भगत के घर में भैंस लगती है, घी बिकता है, वह जितना चाहें ले लें। मैं रुपये ले लूँ तो मुझे बाजार में दस छटाँक को मोल लेकर देना पड़ेगा।
गिरधर – जो चाहो करो, पर सरकार का हुक्म तो मानना ही पड़ेगा। लालगंज में 30 रुपये दे आया हूँ। वहाँ गाँव में एक भैंस भी नहीं है। लोग बाजार से ही लेकर देंगे। पड़ाव में 20 रुपये दिए हैं। वहाँ भी जानते हो किसी के भैंस नहीं है।
मनोहर – भैंस न होगी तो पास रुपये होंगे। यहाँ तो गाँठ में कौड़ी भी नहीं है।
गिरधर – जब जमींदार की जमीन जोतते हो तो उसके हुक्म के बाहर नहीं जा सकते।
मनोहर – जमीन कोई खैरात जोतते हैं। उसका लगान देते हैं। एक किस्त भी बाकी पड़ जाए तो नालिस होती है।
गिरधर – मनोहर, घी तो तुम दोगे दोड़ते हुए, पर चार बातें सुनकर। जमींदार के गाँव में रहकर उससे हेकड़ी नहीं चल सकती। अभी कारिन्दा साहब बुलाएँगे तो रुपये भी दोगे, हाथ-पैर भी पड़ोगे, मैं सीधे कहता हूँ तो तेवर बदलते हो।
मनोहर ने गरम होकर कहा-कारिन्दा कोई काटू है न जमींदार कोई हौवा है। यहाँ कोई दबेल नहीं है। जब कौड़ी-कौड़ी लगान चुकाते है तो धौंस क्यों सहें ?
गिरधर – सरकार को अभी जानते नहीं हो। बड़े सरकार का जमाना अब नहीं है। इनके चंगुल में एक बार आ जाओगे तो निकलते न बनेगा।
मनोहर ने क्रोधाग्नि और भी प्रचण्ड हुई। बोला, अच्छा जाओ, तोप पर उड़वा देना। गिरधर महाराज उठ खड़े हुए। सुक्खू और दुखरन ने अब मनोहर के साथ बैठना उचित न समझा। वह भी गिरधर के साथ चले गए। मनोहर ने इन दोनों आदमियों को तीव्र दृष्टि से देखा और नारियल पीने लगा।

लखनपुर के जमींदारों का मकान काशी में औरंगाबाद के निकट था। मकान के दो खण्ड आमने-सामने बने हुए थे। एक जनाना मकान था, दूसरी मरदानी बैठक। दोनों खण्डों के बीच की जमीन बेल-बूटे से सजी हुई थी, दोनों ओर ऊँची दीवारें खींचीं हुई थीं; लेकिन दोनों ही खण्ड जगह-जगह टूट-फूट गये थे। कहीं कोई कड़ी टूट गई थी और उसे थूनियों के सहारे रोका गया था, कहीं दीवार फट गई थी और कहीं छत धँस पड़ी थी एक वृद्ध रोगी की तरह जो लाठी के सहारे चलता हो।

 किसी समय यह परिवार नगर में बहुत प्रतिष्ठित था, किन्तु ऐश्वर्य के अभिमान और कुल-मर्यादा पालन ने उसे धीरे-धीरे इतना गिरा दिया कि अब मोहल्ले का बनिया पैसे-धेले की चीज भी उनके नाम पर उधार न देता था। लाला जटाशंकर मरते-मरते मर गए, पर जब घर से निकले तो पालकी पर। लड़के-लड़कियों के विवाह किये तो हौसले से। कोई उत्सव आता तो हृदय सरिता की भाँति उमड़ आता था, कोई मेहमान आ जाता तो उसे सर आँखों पर बैठाते, साधु-सत्कार और अतिथि-सेवा में उन्हें हार्दिक आनन्द होता था। इसी मर्यादा-रक्षा में जायदाद का बड़ा भाग बिक गया, कुछ रेहन हो गया और अब लखनपुर के सिवा चार और छोटे-छोटे गाँव रह गये थे जिनसे कोई चार हजार वार्षिक लाभ होता था।

लाला जटाशंकर के एक छोटे भाई थे। उनका नाम प्रभाशंकर था। यही सियाह और सफेद के मालिक थे। बड़े लाला साहब को अपनी भागवत और गीता से परमानुराग था। घर का प्रबंध छोटे भाई के हाथों में था। दोनों भाइयों में इतना प्रेम था कि उनके बीच में कभी कटु वाक्यों की नौबत न आई थी। स्त्रियों में तू-तू मैं-मैं होती थी, किन्तु भाइयों पर इसका असर न पड़ता था। प्रभाशंकर स्वयं कितना ही कष्ट उठाएँ अपने भाई से कभी भूलकर शिकायत न करते थे। जटाशंकर भी उनके किसी काम में हस्तक्षेप न करते थे।

लाला जटाशंकर का एक साल पूर्व देहान्त हो गया था। उनकी स्त्री उनके पहले ही मर चुकी थी। उनके दो पुत्र थे, प्रेमशंकर और ज्ञानशंकर। दोनों के विवाह हो चुके थे। प्रेमशंकर चार-पाँच वर्षों से लापता थे। उनकी पत्नी श्रद्धा घर में पड़ी उनके नाम को रोया करती थी। ज्ञानशंकर ने गतवर्ष बी.ए. की उपाधि प्राप्त की थी और इस हारमोनियम बजाने में मग्न रहते थे। उनके एक पुत्र था, मायाशंकर। लाला प्रभाशंकर की स्त्री जीवित थी। उनके तीन बेटे और दो बेटियाँ। बड़े बेटे दयाशंकर सब-इंस्पेक्टर थे। विवाह हो चुका था। बाकी दोनों लड़के अभी मदरसे में अँगरेजी पढ़ते थे। दोनों पुत्रियाँ भी कुँवारी थीं।

 प्रेमशंकर ने बी.ए. की डिग्री लेने के बाद अमेरिका जाकर आगे पढ़ने की इच्छा की थी, पर जब अपने चाचा को इसका विरोध करते देखा तो एक दिन चुपके से भाग निकले। घर-वालों से पत्र-व्यवहार करना भी बंद कर दिया उनके पीछे ज्ञानशंकर ने बाप और चाचा से लड़ाई ठानी। उनकी फजूलखर्चियों की आलोचना किया करते। कहते, क्या आप हमारे लिए कुछ भी नहीं छोड़ जाएँगे ? क्या आपकी यह इच्छा है कि हम रोटियों को मोहताज हो जाएँ ? किन्तु इसका जवाब नहीं मिलता, भाई हम लोग तो जिस प्रकार अब तक निभाते आए हैं उसी प्रकार निभाएँगे। यदि तुम इससे उत्तम प्रबंध कर

 सकते हो तो करो, जरा हम भी देखें। ज्ञानशंकर उस समय कॉलेज में थे, यह चुनौती सुनकर चुप हो जाते थे। पर जब से वह डिग्री लेकर आए थे और इधर उनके पिता का देहान्त हो चुका था, घर के प्रबंध में संशोधन करने का यत्न शुरू किया था, जिसका फल यह हुआ था कि उस मेल-मिलाप में बहुत कुछ अन्तर पड़ चुका था, जो पिछले साठ वर्षों से चला आता था। न चाचा का प्रबंध भतीजे को पसन्द था, न भतीजे का चाचा को। आए दिन शाब्दिक संग्राम होते रहते। ज्ञानशंकर कहते, आपने सारी जायदाद चौपट कर दी। हम लोगों को कहीं का न रखा। सारा जीवन खाट पर पड़े-पड़े पूर्वजों की कमाई खाने में काट दिया। मर्यादा-रक्षा की तारीफ तो तब थी जब अपने बाहुबल से कुछ करते, या जायदाद को बचाकर करते। घर बेचकर तमाशा देखना और कौन-सा मुश्किल काम है। लाला प्रभाशंकर यह कटु वाक्य सुनकर अपने भाई को याद करते और उनका नाम लेकर रोने लगते। यह चोटें उनसे सही न जाती थीं।

लाला जटाशंकर की बरसी के लिए प्रभाशंकर ने दो हजार का अनुमान किया था। एक हजार ब्राह्मणों का भोज होने वाला था। नगर भर के समस्त प्रतिष्ठित पुरुषों का निमंत्रण देने का विचार था। इसके सिवा चाँदी के बर्तन, कालीन, पलंग, वस्त्र आदि महापात्र देने के लिए बन रहे थे। ज्ञानशंकर इसे धन का अपव्यय समझते थे। उनकी राय थी कि इस कार्य में दो रुपये से अधिक खर्च न किया जाए। जब घर की दशा ऐसी चिन्ताजनक है तो इतने रुपये खर्च करना सर्वथा अनुचित है; किन्तु प्रभाशंकर कहते थे, जब मैं मर जाऊँ तब तुम चाहे अपने बाप को एक-एक बूँद पानी के लिए तरसाना; पर जब तक मेरे दम में दम है, मैं उनकी आत्मा को दु:खी नहीं कर सकता। सारे नगर में उनकी उदारता की धूम थी। बड़े-बड़े उनके सामने सिर झुका लेते थे। ऐसे प्रतिभाशाली पुरुष की बरसी भी यथायोग्य होनी चाहिए। यही हमारी श्रद्धा और प्रेम का अन्तिम प्रमाण है।
ज्ञानशंकर के हृदय में भावी उन्नति की बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ थीं। वह अपने परिवार को फिर समृद्ध और सम्मान के शिखर पर ले जाना चाहते थे। घोड़े और फिटन की उन्हें बड़ी-बड़ी आकांक्षा थी। वह शान से फिटन पर बैठकर निकलना चाहते थे कि हठात् लोगों की आँखें उनकी तरफ उठ जाएँ और लोग कहें कि लाला जटाशंकर के बेटे हैं। वह अपने दीवान खाने को नाना प्रकार की सामग्रियों से सजाना चाहते थे। मकान को भी आवश्यकतानुसार बढ़ाना चाहते थे। वे घण्टों एकाग्र बैठे हुए इन्हीं विचारों में मग्न रहते थे। चैन से जीवन व्यतीत हो, यही उनका ध्येय था। वर्तमान दशा में

 मितव्ययिता के सिवा उन्हें कोई दूसरा उपाय न सूझता था। कोई छोटी-मोटी नौकरी करने में वह अपमान समझते थे; वकालत से उन्हें अरुचि थी और उच्चधिकारों का द्वार उनके लिए बन्द था। उनका घराना शहर में चाहे कितना ही सम्मानित हो पर देश-विधाताओं की दृष्टि में उसे वह गौरव प्राप्त न था जो उच्चाधिकार-सिद्धि का अनुष्ठान है। लाला जटाशंकर तो विरक्त ही थे और प्रभाशंकर केवल जिलाधीशों की कृपा-दृष्टि को अपने लिए काफी समझते थे। इसका फल जो कुछ हो सकता था वह उन्हें मिल चुका था। उनके बड़े बेटे दयाशंकर सब-इंसपेक्टर हो गए थे। ज्ञानशंकर कभी-कभी

 इस अकर्मण्यता के लिए अपने चाचा से उलझा करते थे – आपने अपना सारा जीवन नष्ट कर दिया। लाखों की जायदाद भोग-विलास में उड़ा दी। सदा आतिथ्य सत्कार और मर्यादा-रक्षा पर जान देते रहे। अगर इस उत्साह का एक अंश भी अधिकारी वर्ग के सेवा-सत्कार में समर्पण करते तो आज मैं डिप्टी कलेक्टर होता खानेवाले खा-खाकर चल दिए। अब उन्हें याद भी नहीं रहा कि आपने कभी उन्हें खिलाया या नहीं। खस्ता कचौड़ियाँ और सोने के पत्र लगे हुए पान के बीड़े खिलाने से परिवार की उन्नति नहीं होती, इसके और ही रास्ते हैं। बेचारे प्रभाशंकर यह तिरस्कार सुनकर व्यथित होते और कहते, बेटा, ऐसी-ऐसी बातें करके हमें न जलाओ। तुम फिटन और घोड़ा, कुर्सी और मेज, आईने और तस्वीरों पर जान देते हो। तुम चाहते हो कि हम अच्छे से अच्छा खाएँ, अच्छे से अच्छा पहनें, लेकिन खाने पहनने से दूसरों को क्या सुख होगा ?

 तुम्हारे धन और सम्पत्ति से दूसरे क्या लाभ उठाएँगे ? हमने भोग-विलास में जीवन नहीं बिताया। वह कुल-मर्यादा की रक्षा थी। विलासिता यह है, जिसके पीछे तुम उन्मत्त हो। हमने जो कुछ किया नाम के लिए किया। घर में उपवास हो गया है, लेकिन जब कोई मेहमान आ गया तो उसे सिर और आँखों पर लेते थे तुमको बस अपना पेट भरने की, अपने शौक की, अपने विलास की धुन है। यह जायदाद बनाने के नहीं बिगाड़ने के लक्षण हैं। अन्तर इतना ही है कि हमने दूसरों के लिए बिगाड़ा तुम अपने लिए बिगाड़ोगे।
मुसीबत यह थी कि स्त्री विद्यावती भी इन विचारों में अपने पति से सहमत न थी। उसके विचार बहुत-कुछ विचार लाला प्रभाशंकर से मिलते थे। उसे परमार्थ पर स्वार्थ से अधिक श्रद्धा थी। उसे बाबू ज्ञानशंकर को अपने चाचा से वाद-विवाद करते देखकर खेद होता था और अक्सर मिलने पर वह उन्हें समझाने की चेष्टा करती थी। पर ज्ञानशंकर उसे झिड़क दिया करता थे। वह इतने शिक्षित होकर भी स्त्री का आदर उससे अधिक न करते थे, जितना अपने पैर के जूतों का। अतएव उनका दाम्पत्य जीवन भी, जो चित्त की शान्ति का एक प्रधान साधन था, सुखकर न था।

मनोहर अक्खड़पन की बातें तो कर बैठा; किन्तु जब क्रोध शान्त हुआ तो मालूम हुआ कि मुझसे बड़ी भूल हुई। गाँव वाले सब-के-सब मेरे दुश्मन हैं। वह इस समय चौपाल में बैठे मेरी निन्दा कर रहे होंगे। कारिंदा न जाने कौन-से उपद्रव मचाए। बेचारे दुर्जन को बात-की-बात में मटियामेट कर दिया, तो फिर मुझे बिगाड़ते क्या देर लगती है। मैं अपनी जबान से लाचार हूँ। कितना ही उसे बस में रखना चाहता हूँ, पर नहीं रख सकता। यही न होता कि जहाँ और सब लेना-देना है वहाँ दस रुपये और हो जाते, नक्कू तो न बनता।
लेकिन इन विचारों ने एक क्षण में फिर पलटा खाया। मनुष्य जिस काम को हृदय से बुरा नहीं समझता, उसके कुपरिणाम का भय एक गौरवपूर्ण धैर्य की शरण लिया करता है। मनोहर अब इस विचार से अपने को शान्ति देने लगा, मैं बिगड़ जाऊँगा तो बला से, पर किसी की धौंस तो न सहूँगा, किसी के सामने सिर तो नीचा नहीं करता। जमींदार भी देख लें कि गाँव में सब-के-सब भाँड़ ही नहीं हैं। अगर कोई मामला खड़ा किया तो अदालत में हाकिम के सामने सारा भण्डा फोड़ दूँगा, जो कुछ होगा, देखा जाएगा।

इसी उधेड़बुन में वह भोजन करने लगा। चौके में एक मिट्टी के तेल का चिराग जल रहा था; किन्तु छत में धुआँ इतना भरा हुआ था कि उसका प्रकाश मन्द पड़ गया था। उसकी स्त्री बिलासी ने एक पीतल की थाली में बथुए की भाजी और जौं की कई मोटी-मोटी रोटियाँ परस दीं। मनोहर इस भाँति रोटियाँ तोड़-तोड़ मुँह में रखता था, जैसे कोई दवा खा रहा हो। इतनी ही रुचि से वह घास भी खाता। बिलासी ने पूछा, क्या साग अच्छा नहीं ? गुड़ दूँ ?
मनोहर – नहीं, साग तो अच्छा है।
बिलासी – क्या भूख नहीं  ?
मनोहर – भूख क्यों नहीं है, खा तो रहा हूँ।
बिलासी – खाते तो नहीं हो, जैसे औंघ रहे हो। किसी से कुछ कहा-सुनी तो नहीं हुई है ?
मनोहर – नहीं, कहा-सुनी किससे होती ?
इतने में एक युवक कोठरी में आकर खड़ा हो गया। उसका शरीर खूब गठीला हृष्ठ-पुष्ठ था, छाती चौड़ी और भरी हुई थी। आँखों से तेज झलक रहा था। उसके गले में सोने का यन्त्र था और दाहिने बाँह में चाँदी का एक अनन्त। यह मनोहर का पुत्र बलराज था।
बिलास – कहाँ घूम रहे हो ? आओ, खा लो, थाली परसूँ।
बलराज ने धुएँ से आँखें मलते हुए कहा, काहे दादा, आज गिरधर महाराज तुमसे क्यों बिगड़ रहे थे ? लोग कहते हैं कि बहुत लाल-पीले हो रहे थे ?
मनोहर – कुछ नहीं; तुमने कौन कहता था ?
बलराज – सभी लोग तो कह रहे हैं। तुमसे घी माँगते थे; तुमने कहा, मेरे पास घी नहीं है, बस इसी पर तन गए।
मनोहर – अरे तो कोई झगड़ा थोड़े ही हुआ। गिरधर महाराज ने कहा तुम्हें घी देना पड़ेगा, हमने कह दिया, जब घी हो जाएगा तब देंगे, अभी तो नहीं है। इसमें भला झगड़ने की कौन सी बात थी ?
बलराज – झगड़ने की बात क्यों नहीं है। कोई हमसे क्यों घी माँगे ? किसी का दिया खाते हैं कि किसी के घर माँगने जाते हैं ? अपना तो एक पैसा नहीं छोड़ते, तो हम क्यों धौंस सहें ? न हुआ मैं, नहीं तो दिखा देता। क्या हमको भी दुर्जन समझ लिया है ?
मनोहर की छाती अभिमान से फूली जाती थी, पर इसके साथ ही यह चिन्ता भी थी कि कहीं यह कोई उजड्डपन न कर बैठे। बोला, चुपके से बैठकर खाना खा लो, बहुत बहकना अच्छा नहीं होता। कोई सुन लेगा तो वहाँ जाकर एक की चार जड़ आएगा। यहाँ कोई मित्र नहीं है।
बलराज – सुन लेगा तो क्या किसी से छिपा के कहते हैं। जिसे बहुत घमण्ड हो आकर देख ले । एक-एक का सिर तोड़ के रख दें। यही न होगा, कैद होकर चला आऊँगा। इससे कौन डरता है ? महात्मा गांधी भी तो कैद हो आए हैं।
बिलासी ने मनोहर की ओर तिरस्कार के भाव से देखकर कहा, तुम्हारी कैसी आदत है कि जब देखो एक-न-एक बखेड़ा मचाए ही रहते हो। जब सारा गाँव घी दे रहा है तब हम क्या गाँव से बाहर हैं ? जैसा बन पड़ोगा देंगे। इसमें कोई अपनी हेठी थोड़े ही हुई जाती है। हेठा तो नारायण ने ही बना दिया है। तो क्या अकड़ने से ऊँचे हो जाएँगे ? थोड़ा-सा हाँड़ी में है, दो-चार दिन में और बटोर लूँगी, जाकर तौल आना।
बलराज – क्यों दे आएँ ? किसी के दबैल हैं।
बिलास – नहीं, तुम तो लाट गर्वनर हो। घर में भूनी भाँग नहीं, उस पर इतना घमण्ड ?
बलराज – हम दरिद्र सही, किसी से माँगने तो नहीं जाते ?
बिलासी – अरे जा बैठ, आया है बड़ा जोधा बनके। ऊँट जब तक पहाड़ पर नहीं चढ़ता तब तक समझता है कि मुझसे ऊँचा और कौन ? जमींदार से बैर कर गाँव में रहना सहज नहीं है। (मनोहर से) सुनते हो महापुरुष; कल कारिंदा के पास जाके कह सुन आओ।
मनोहर – मैं तो अब नहीं जाऊँगा।
बिलासी – क्यों ?
मनोहर – क्यों क्या, अपनी खुशी है। जाएँ क्या, अपने ऊपर तालियाँ लगवाएँ ?
बिलासी – अच्छा, तो मुझे जाने दोगे ?
मनोहर – तुम्हें भी नहीं जाने दूँगा। कारिन्दा हमारा कर ही क्या सकता है ? बहुत करेगा अपना सिकमी खेत छोड़ा लेगा। न दो हल चलेंगे, एक ही सही।
यद्यपि मनोहर बढ़-बढ़ कर बातें कर रहा था, पर वास्तव में उसका इन्कार अब परास्त तर्क के समान था। यदि बिना दूसरों की दृष्टि में अपमान उठाए बिगड़ा हुआ खेल बन जाए तो उसे कोई आपत्ति नहीं थी। हाँ, वह स्वयं क्षमा प्रार्थना करने में अपनी हेठी समझता था। एक बार तनकर फिर झुकना उसके लिए बड़ी लज्जा की बात थी। बलराज की उद्दण्डता उसे शान्त करने में हानि के भय से भी अधिक सफल हुई थी।

प्रात: काल बिलासी चौपाल जाने को तैयार हुई; पर न मनोहर साथ चलने को राजी होता था, न बलराज। अकेली जाने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। इतने में कादिर मियाँ ने घर में प्रवेश किया। बूढ़ा आदमी थे, ठिंगना डील, लंबी दाढ़ी, घुटने के ऊपर तक धोती, एक गाढे की मिरजई पहने हुए थे। गाँव के नाते वह मनोहर के बड़े भाई होते थे बिलासी ने उन्हें देखते ही थोड़ा-सा घूँघट निकाल लिया।

कादिर ने चिन्तापूर्ण भाव से कहा, अरे मनोहर, कल तुम्हें क्या सूझ गई ? जल्दी जाकर कारिन्दा साहब को मना लो, नहीं तो फिर कुछ करते-धरते न बनेगी। सुना है वह तुम्हारी शिकायत करने मालिकों के पास जा रहे हैं। सुक्खू भी साथ जाने को तैयार है। नहीं मालूम, दोनों में क्या साँठ-गाँठ हुई है।

बिलासी – भाई जी, यह बूढ़े हो गए; लेकिन इनका लड़कपन अभी नहीं गया। कितना समझाती हूँ, बस अपने ही मन की करते हैं। इन्हीं की देखा-देखी एक लड़का है वह भी हाथ से निकला जाता है। जिससे देखो उसी से उलझ पड़ता है। भला इनसे पूछा जाए कि सारे गाँव ने घी के रुपये लिये तो तुम्हें नाहीं करने में क्या पड़ी थी ?
कादिर – इनकी भूल है और क्या ? दस रुपये हमें भी लेने पड़े, क्या करते ? और यह कोई नयी बात थोड़ी ही है ? बड़े सरकार थे तब भी तो एक-न-एक बेगार लगी ही रहती थी।


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