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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

Avsar a hindi book by Narendra Kohli - अवसर - नरेन्द्र कोहली

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


‘दीक्षा’, ‘अवसर’, ‘संघर्ष की ओर’ तथा ‘युद्ध’ के अनेक सजिल्द, अजिल्द तथा पॉकेटबुक संस्करण प्रकाशित होकर अपनी महत्ता एवं लोकप्रीयता प्रमाणित कर चुके हैं महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में इसका धारावाहिक प्रकाशन हुआ है। उड़िया, कन्नड़, मलयालम, नेपाली, मराठी तथा अंग्रेजी में इसके विभिन्न खण्डो के अनुवाद प्रकाशित होकर प्रशंसा पा चुके हैं। इसके विभिन्न प्रसंगों के नाट्य रूपान्तर मंच पर अपनी क्षमता प्रदर्शित कर चुके हैं तथा परम्परागत रामलीला मण्डलियाँ इसकी ओर आकृष्ट हो रही हैं। यह प्राचीनता तथा नवीनता का अदभुत संगम है।
इसे पढ़कर आप अनुभव करेंगे कि आप पहली बार एक ऐसी रामकथा पढ़ रहे हैं, जो सामयिक, लौकिक, तर्कसंगत तथा प्रासंगिक है। यह किसी अपरिचित और अदभुत देश तथा काल की कथा नहीं है। इसी लोक औऱ काल की, आपके जीवन से सम्बन्धित समस्याओं पर केन्द्रित एक ऐसी कथा है, जो सार्वकालिक और शाश्वत है और प्रत्येक युग के व्यक्ति का इसके साथ पूर्ण तादाम्य है।

अवसर


सम्राट् की वृद्ध आँखों में सर्प का-सा फूत्कार था।
‘‘हुँ।’’
बस एक हुँ। उससे अधिक दशरथ कुछ नहीं कह सके।
ऐसा क्रोध उन्हें कभी-कभी ही आता था। किंतु, आज ! क्रोध कोई सीमा ही नहीं मान रहा था। आँखें जल रही थीं, नथुने फड़क रहे थे; और उन्हें सन्नाटे में तेज साँसों की साँय-साँय भी सुनाई पड़ रही थी।
नायक भानुमित्र, दोनों हाथ बाँधे, सिर झुकाए स्तब्ध खड़ा था। सम्राट की अप्रसन्नता की आशंका उसे थी। वह बहुत समय तक सम्राट के निकट रहा था और उनके स्वभाव को जानता था। किंतु उनका ऐसा प्रकोप उसने कभी नहीं देखा था। सम्राट का यह रूप अपूर्व था।...वैसे वह यह भी समझ नहीं पा रहा था कि सम्राट की इस असाधारण स्थिति का कारण क्या था। उसे विलंब अवश्य हुआ था, किंतु उससे ऐसी कोई हानि नहीं हुई थी कि सम्राट इस प्रकार भभक उठें। वह अयोध्या के उत्तर में स्थित सम्राट की निजी अश्वशाला में से कुछ श्वेत अश्व लेने गया था, जिनकी आवश्यकता अगले सप्ताह होने वाले पशुमेले के अवसर पर थी। यदि अश्व प्रातः राजप्रासाद में पहुँच जाते तो उससे कुछ विशेष नहीं हो जाता; और संध्या समय तक रुक जाने से कोई हानि नहीं हो गई..., किंतु सम्राट...

वह अपने अपराध की गंभीरता का निर्णय नहीं कर पा रहा था। सम्राट के कुपित रूप ने उसके मष्तिष्क को जड़ कर दिया था। सम्राट के मुख से किसी भी क्षण उसके लिए कोई कठोर दण्ड उच्चारित हो सकता था...उसका इतना साहस भी नहीं हो पा रहा था कि वह भूमि पर दण्डवत् लेकर सम्राट् से क्षमा-याचना करे...
सहसा सम्राट जैसे आपे में आए। उन्होंने स्थिर दृष्टि से उसे देखा और बोले, ‘‘जाओ ! विश्राम करो।’’
भानुमित्र की जान में जान आई। उसने अधिक-से-अधिक झुककर नम्रतापूर्वक प्रणाम किया और बाहर चला गया।
भानुमित्र के जाते ही, दशरथ का क्रोध फिर अनियंत्रित हो उठा...मस्तिष्क तपने लगा...आभाष तो उन्हें पहले भी था, किंतु इस सीमा तक...
क्या अर्थ है इसका ?
दशरथ ने अश्व मँगवाए थे। अश्व रात में ही अयोध्या के नगर-द्वार के बाहर, विश्रामालय में पहुँच गए थे; किंतु प्रातः उन्हें अयोध्या में घुसने नहीं दिया गया। नगर-द्वार प्रत्येक आगंतुक के लिए बंद था-क्योंकि महारानी कैकेयी के भाई, केकय के युवराज युद्धाजित, अपने भाँजे राजकुमार भरत और शत्रुघ्न को लेकर अयोध्या से केकय की राजधानी राजगृह जाने वाले थे। नगर-द्वार बंद, पथ बंद, हाट बंद-जब तक युद्धाजित नगर-द्वार पार न कर लें, तब तक किसी को कोई काम नहीं हो सकता...
किसी का भी नहीं।
दशरथ का काम भी नहीं।
तब तक, सम्राट् के आदेश से घोड़े लेकर आने वाला नायक भी बाहर ही रुका रहेगा।
सम्राट् का काम रुका रहेगा, क्योंकि युद्धाजित उस पथ से होकर, नगर-द्वार से बाहर जाने वाला था। अपनी ही राजधानी में सम्राट् की यह अवमानना !
किसने किया यह साहस ? नगर-रक्षक सैनिक टुकड़ियों ने कैसे कर सके वे यह साहस ? इसलिए कि वे भारत के अधीनस्थ सैनिक हैं। वे सैनिक जानते हैं कि भरत, राजकुमार होते हुए भी, सम्राट् से अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वह कैकेयी का पुत्र है। युद्धाजित सम्राट् से अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वह कैकेयी का भाई है...
कैकेयी !
कैसा बाँधा है कैकेयी ने दशरथ को !
सम्राट् की आँखें कहीं अतती में देख रही थीं...

कोसल की सेनाएँ राजगृह में जा घुसी थीं। राजप्रासादों को घेर लिया गया था; और केकय के राज-परिवार का प्रत्येक सदस्य बाँध कर दशरथ के सम्मुख लाया गया था। केकय का राज-परिवार दुर्बल था, इसलिए दशरथ ने उन्हें बाँधकर अपने सम्मुख मँगवाया था-पर कैकेयी को देखते ही दशरथ दुर्बल पड़ गए थे; और तब कैकेयी ने उन्हें बाँध लिया था। दसरथ कैकेयी की प्रसन्नता पाने के लिए कुछ भी देने को तैयार थे, कुछ भी कर गुजरने को-और तब दशरथ को केकय-नरेश ने बाँधा था; ‘कैकेयी का पुत्र ही कोसल का युवराज होगा।’’ दशरथ बँधे थे, प्रसन्नतापूर्वक। पर तब दशरथ ने इस पक्ष पर विचार नहीं किया था।
केकय-नरेश अपनी पराजय को कभी न भूले होंगे। युद्धाजित को अपनी किशोरावस्था की एक-एक बात याद होगी। उसने उन बातों को सायास याद रखा होगा। अपने मन में दशरथ के विरुद्ध विष को जीवित रखने, उसे पोषित और विकसित करने का प्रत्येक प्रयत्न किया होगा। उसने वर्षों स्वयं को उसी ताप में तपाया होगा, ताकि अवसर आते ही वह दशरथ को अपमानित करे।

आज अयोध्या में कैकेयी महारानी है। भरत युवराज न सही, युवराज-प्राय है। सेना की अनेक महत्त्वपूर्ण टुकड़ियाँ उसके अधीन हैं। कैकेयी का संबंधी पुष्कल सचिव है। केकय का राजदूत अयोध्या में विशेष आदर-सम्मान तथा तथा स्थिति का स्वामी है। उसके पास सम्राट् की अनुमति से अंगरक्षकों की विशाल सेना है-कितनी शक्तिशालिनी है कैकेयी ! उसकी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष छाया मात्र पाने वाला सैनिक भी दशरथ के नायक को रात-भर अयोध्या के बाहर रोके रख सकता है।
ऐसा नहीं है कि दशरथ ने आज पहली बार कैकेयी की शक्ति का अनुभव किया है-उसका आभास उन्हें विवाह के पश्चात् अयोध्या लौटते ही मिलने लगा था। और वह शक्ति क्रमशः बढ़ी है, कम नहीं हुई। अनेक बार दशरथ को अपने सम्मुख ही नहीं, दूसरों के सम्मुख भी अपनानित होना पड़ा है...किंतु उन्होंने आज तक कैकेयी की शक्ति को अपनी पत्नी की शक्ति मानने का भ्रम पाला है-पर आज वे देख रहे हैं, कैकेयी की शक्ति युद्धाजित की बहन की शक्ति है। भरत की शक्ति दशरथ के पुत्र की नहीं, युद्धाजित के भाँजे की शक्ति है-और युद्धाजित को अयोध्या में इतना शक्तिशाली नहीं होना चाहिए...
युद्धाजित से उनका संबंध, कैकेयी से संबंध होने से पहले का है। वह संबंध राजनीतिक संबंध है-बिजयी की लौह-श्रृंखलाओं और पराजित की कलाइयों का संबंध। बँधे हुए हाथों और झुके हुए सिर वाले अपमानित किशोर युद्धाजित को दशरथ कैसे भूल गए ? वे कैसे भूल गए कि नये संबंधों के बन जाने से पुराने संबंध मिट नहीं जाते ! कैकेयी से दांपत्य का नया संबंध हो जाने से, युद्धाजित से पुराना संबंध कैसे समाप्त हो सकता है। दशरथ भूल भी जाएँ, पर युद्धाजित कैसे भूलेगा ?...
दशरथ को पहले देखना चाहिए था कि अयोध्या में उनकी आँखों के सम्मुख सत्ता हथियाने का कैसा खेल खेला जा रहा है। वे कैकेयी के सौंदर्य और यौवन-संपदा की ओर लोलुप दृष्टि से ताकते रहे। लोलुप दृष्टि अपना विवेक खो बैठती है। वे कैसे देखते कि कैकेयी को प्राप्त करने की प्रक्रिया में उनके हाथों में से क्या खिसकता जा रहा है...
और अभी तो दशरथ सम्राट् हैं-चाहें कटे हुए हाथों वाले। पर कैकेयी के पिता के दिए गए वचन के अनुसार यदि उन्होंने आधिकारिक रूप से सत्ता भरत को सौंप दी, तो ? भरत की शक्ति का अर्थ है, युद्धाजित की शक्ति। जब शक्ति दशरथ के हाथों में थी और युद्धाजित बाँधकर उनके सामने लाया गया था तो दशरथ ने उनके कंठ पर खडग रखकर उससे अभद्र व्यवहार किया था। यदि उनकी इच्छा हुई होती तो वे खड्ग दबाकर युद्धाजित के कंठ में छिद्र भी कर सकते थे। यदि भरत के हाथों में सत्ता आने पर युद्धाजित भी उतना ही शक्तिशाली...

दशरथ का कंठ सूख गया। कंठ में स्थान-स्थान पर खड्ग की नोकें उग आई थीं। कंठ की नलियाँ जैसे जल रही थीं; और रक्त झरने-सा फूटकर बाहर आने को था।
दशरथ के हाथ-पैर ठंडे हो गए। वर्ण पीला पड़ गया। उन्होंने माथे पर हाथ फेरा-माथा ठंडा और पसीने से गीला था। उन्हें लगा कि ये एक भयंकर स्वप्न देख रहे हैं-वे पहाड़ की एक ऊँची चोटी से नीचे फेंक दिए गए हैं। वे बड़ी तीव्र गति से सहस्त्रों हाथ गहरे खड्ग में गिरते जा रहे हैं। वे देख रहे हैं कि नीचे गिरते ही उनकी एक-एक हड्डी चूर हो जाएगी। पर वे कुछ नहीं कर सकते। उनका शरीर जड़ हो चुका है। वे हाथ-पैर हिलाना चाहते हैं, पर हिला नहीं पाते। वे चीखना चाहते हैं, किंतु उनके कंठ से ध्वनि नहीं निकली। सारा शरीर जड़ हो गया है, बस आखें खुली हैं और देख रही हैं। मस्तिष्क सक्रिय है और अनुभव कर रहा है...

बड़ी देर तक दशरथ उसी स्तंभित दशा में बैठे रहे; और सहसा वे सजग हुए-निश्चित रूप से वे घबराए हुए ही नहीं, डरे हुए भी थे। मन बार-बार कह रहा था, ‘कुछ कर, दशरथ ! यही अवसर है, नहीं तो बहुत देर हो जाएगी।’ पर उनका मन उस छोटे बालक के समान था, जो हाथ में पूरी ईंट लिये हिंस्र भेड़िए के सम्मुख खड़ा सोच रहा था-ईंट न मारूँ तो यह मुझे खाने में कितनी देर लगाएगा और मारूँ तो यह मर जाएगा या कुपित होकर मुझे और भी जल्दी खा जाएगा ? भेड़िए की आँखों में क्रोध था, उनकी लाल-लाल हिंस्र तथा लोलुप जीभ मुँह से बाहर लटक रही थी, बड़े-बड़े तीखे श्वेत दाँतों की चमक बढ़ती जा रही थी...
भेड़िया मुझे खाएगा अवश्य, मैं ईंट मारूँ या न मारूँ...
दशरथ की चिंता बढ़ती जा रही थी..
ईंट मारूँ ?...
न मारूँ ?...
सम्राट् को राजसभा में आने में विलंब हुआ था।
विलंब से आना सम्राट का नियम नहीं था। अपवादस्वरूप ही ऐसा होता था। जब कभी ऐसा होता था, सम्राट जल्दी-जल्दी लंबे-लंबे डग उठाते हुए सभा में आते थे और सिंहासन पर बैठते ही बड़ी शालीनता से खेद प्रकट करते थे। उनका सारा व्यवहार अतिरिक्त रूप से विनीत और नम्र होता था। विलंब से आने के कारण सभासदों को हुई असुविधा की क्षतिपूर्ति का प्रयत्न अंत तक चलता रहता था।

आज वैसा कुछ भी नहीं हुआ। सम्राट् विलंब से आए थे; पर न कोई जल्दी थी, न कोई संकोच ! वे स्थिर डगों से, दृढ़ चाल चलते हुए आए और जब सिंहासन पर बैठकर उन्होंने आँखें उठाईं तो सबने देखा, उनकी आँखें थकी, किंतु सतर्क थीं-संभवतः अपनी किसी चिंता के कारण सम्राट् रात-भर सो नहीं पाए थे।
‘‘किन्हीं कारणों से सम्राट् को विलंब हुआ...’’ महामंत्री ने सम्राट् को चिंतित देखकर, बड़े नम्र ढंग से बात आरंभ की। अपेक्षा थी कि सम्राट् कहेंगे, ‘‘हाँ, महामंत्री ! चिंतित था, रात-भर सो नहीं पाया...’
किंतु सम्राट् ने महामंत्री की ओर दृष्टि उठाई तो उनके चेहरे का आवरण बहुत कठोर था। उतने ही कठोर स्वर में उन्होंने कहा, ‘‘सम्राट् मैं हूँ। राज-परिषद् का समय मेरी इच्छा से निश्चित होता है।’’
महामंत्री ने आश्चर्य से सम्राट् को देखा; और फिर उनकी दृष्टि गुरु वशिष्ठ पर जम गई-जैसे कह रहे हों, दशरथ की राज-सभा की तो यह परिपाटी नहीं है..किंतु गुरु ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे भी ऐसी ही दृष्टि से सम्राट को देख रहे थे, जैसे कुछ समझ न पा रहे हों...
राज-सभा में एक अटपटा मौन छाया रहा।

किंचित् प्रतीक्षा के पश्चात् महामंत्री ने स्वयं को संतुलित कर, पुनः साहस किया, ‘‘सम्राट् की अनुमति हो तो आवश्यक सूचनाएँ नवोदित की जाएँ।’’
‘‘आरंभ कीजिए।’’ सम्राट् के शब्द सहज थे, किंतु उनका स्वर अब भी सहज नहीं हो पाया था।
महामंत्री के संकेत पर, पहले चर ने सूचना दी, ‘‘सम्राट् ! मैं राज-सार्थों के संग यात्रा करने वाला दूत सिद्धार्थ हूँ। मैं राजकुमार भरत तथा शतुघ्न का समाचार लेकर आया हूँ। राजकुमार अपरताल तथा प्रलंब गिरियों के मध्य बहने वाली नदी के तट से होते हुए, हस्तिनापुर में गंगा को पार कर, सकुशल आगे बढ़ गए हैं।’’
सम्राट् ने पूरी तमन्यता से समाचार सुना। उनके मन में उल्लास का एक स्वर फूटा, ‘‘भरत अयोध्या से दूर हो गया।’ उनकी आकृति की कठोर रेखाएँ शिथिल हो गईं। आँखों में संतोष झाँकने लगा और होठों के कोनों में हल्की-सी मुस्कान उभरी। सभा धैर्यपूर्वक सम्राट् के उत्तर की प्रतीक्षा करती रही, किंतु सम्राट् पूर्ण आत्मसंतोष के साथ, अपने अधरों की मुस्कान पीते रहे।

अंत में फिर महामंत्री ही बोले, ‘‘दूत ! तुम्हारा समाचार शुभ है। सम्राट् राजकुमार का कुशल समाचार जानकर संतुष्ट हैं। तुम जाओ। विश्राम करो।’
दूत प्रणाम कर चला गया।
तब महामंत्री का संकेत पाकर न्याय-समिति के सचिव आर्य पुष्कल उठकर खड़े हुए, ‘‘सम्राट् को स्मरण होगा, कुछ दिन पूर्व सम्राट् के अंगरक्षक दल के सैनिक विजय, की केकय राजदूत के रथ के घोड़ों से टकरा, उनके खुरों के नीचे आकर, कुचले जाने के कारण मृत्यु हो गई थी। सम्राट् ने इस घटना की जाँच न्याय-समिति को सौंपी थी। न्याय-समिति ने उस दुर्घटना की सम्यक् खोज की है। अपनी खोज के पश्चात् समिति इस निष्कर्ष पर पहुँची है कि वह दुर्घटना मात्र आकस्मिक थी। उसे केकय राजदूत की न इच्छा थी, न असावधानी। अतः समिति केकय राजदूत को निर्दोष पाकर अभियोग-मुक्त घोषित करती है। सम्राट् से प्रार्थना है कि वे इस निर्णय को अपनी मान्यता प्रदान करें।’’
दशरथ के मस्तिष्क नामों पर अटक गया। जिस सैनिक की हत्या हुई, वह दशरथ के अंगरक्षक दल का था। जिसने हत्या की, वह केकय का राजदूत है, अर्थात् युद्धाजित का राजदूत। अपराधी पर अभियोग लगाने वाले सैनिक भरत के अधीन है। जाँच करने वाला पुष्कल है-कैकेयी का संबंधी। तो केकय राजदूत निर्दोष क्यों नहीं होगा...!

दशरथ के होंठों के कोनों पर फिर मुस्कान उभरी; किंतु यह संतुष्टि की मुस्कान नहीं थी। बोले वे अब भी कुछ नहीं।
सम्राट् को मौन देख, महामंत्री ही बोले, ‘‘न्याय-समिति की जाँच से सम्राट् संतुष्ट हैं और समिति के निर्णय को मान्यता देते हैं...’’
सहसा महामंत्री की बात काटकर दशरथ बोले, ‘‘किंतु न्याय-समिति ने मृतक के परिवार की क्षतिपूर्ति का कोई सुझाव नहीं रखा। यह अनुचित है। सैनिक विजय के परिवार को, क्षतिपूर्ति के रूप में, उसके वेतन का दुगुना भत्ता प्रति मास दिया जाए।’’
महामंत्री ने आश्चर्य से सम्राट् को देखा।
आर्य पुष्कल ने भी उसी मुद्रा में सम्राट् को देखा, किंतु वे महामंत्री के समान मौन नहीं रहे, ‘‘न्याय-समिति के सचिव के रूप में मेरा यह कर्तव्य है कि मैं सम्राट् को स्मरण दिलाऊँ कि ऐसी स्थितियों में व्यक्ति के वेतन का आधा भत्ता देने का विधान है।’’
‘‘किंतु न्याय-समिति के सचिव को कौन स्मरण दिलाएगा,’’ सम्राट् का स्वर अतिरिक्त रूप से तिक्त था, ‘‘कि विधान में सम्राट् के अपने कुछ विशेषाधिकार भी हैं। सम्राट् को भत्ते की राशि को घटा-बढ़ा सकने का पूर्ण अधिकार है।’’ आर्य पुष्कल के मन में अनेक आपत्तियाँ थीं-सम्राट् को विशेषाधिकार तो हैं, किंतु वे विशेष परिस्थितियों के लिए हैं। इस घटना में ऐसी कोई विशेष बात नहीं हैं

किंतु सम्राट् की भंगिमा ऐसी नहीं थी कि आर्य पुष्कल का कोई अन्य पार्षद कुछ कहने को प्रोत्साहित होता। सम्राट् अप्रसन्न हैं, यह साफ-साफ दीख रहा था, किंतु क्यों ? किससे ? क्या वे स्वयं पुष्कल से अप्रसन्न हैं ?...
आर्य पुष्कल ने अपनी बात कंठ में ही रोक ली।
सभा में फिर मौन छा गया। सम्राट् के इस प्रकार खीझने के अधिक अवसर नहीं आते थे; और जब आते थे, उनका टल जाना ही उचित था। किसी का साहस नहीं था कि सम्राट् की ओर देखे। सबकी दृष्टि भूमि पर गड़ी हुई थी।
ऐसी स्थिति में परिषद् को राजगुरु तथा अन्य ऋषि ही उबार सकते थे। उन पर सम्राट् का अनुशासन अनिवार्यतः लागू नहीं होता था। किंतु सामान्यतः सम्राट् द्वारा याचना होने पर ही गुरु तथा अन्य ऋषि अपना अभिमत देते थे, अथवा बहुत असाधारण स्थिति होने पर ही वे लोग सैद्धांतिक हस्तक्षेप करते थे-किंतु आज की बात तो सामान्य-सी वैधानिक बात थी।
सबको मौन देख, सम्राट् ने इस विषय को यहीं समाप्त मान लिया।

वे सभा में आने के पश्चात् पहली बार स्वयं सक्रिय हुए, ‘‘नगर-रक्षा के लिए कौन-सी सेवा नियुक्त है, महाबलाधिकृत ?’’
‘‘कितने समय से यह दायित्व इस सेना के जिम्मे है ?’’
‘‘उन्हें यह कार्य सँभाले केवल छह मास हुए हैं, सम्राट्’’
‘‘उसका महानायक कौन है ?’’
‘‘स्वयं राजकुमार भरत !’’ महाबलाधिकृत ने सूचना दी, ‘‘किंतु अयोध्या से उनकी अनुपस्थिति में सेना उपनायक महारथी उग्रदूत की आज्ञा के अधीन है।’’
दशरथ ने कुछ क्षणों तक चिंतन का नाटक किया; और फिर अपना पूर्व-निश्चित निर्णय सुना दिया, ‘‘महाबलाधिकृत ! सम्राज्य की तीसरी स्थायी सेना के उपनायक को आदेश दें कि वे अपनी सेना को लेकर उत्तरी सीमांत पर स्थित स्कंधावर में चले जाएँ। वहाँ उनकी आवश्यकता पड़ सकती है। यह प्रयाण कल प्रातः ही हो जाना चाहिए।’’
‘‘जो आज्ञा, सम्राट् !’’
‘‘और अयोध्या की रक्षा का दायित्व मेरे अंगरक्षक दल के महानायक चित्रसेन को सौंप दिया जाए।’’ सम्राट् का स्वर पहले से भी ऊँचा हो गया था।

महाबलाधिकृत ‘जो आज्ञा’ न कह सके। तीसरी स्थायी सेना का स्थानांतरण यद्यपि अनियमित था; क्योंकि नियमतः एक सेना को एक स्थान पर साधारण परिस्थितियों में प्रायः तीन वर्षों तक रखा जाता है-फिर भी संभव है कि सम्राट् के मन में कोई असाधारण बात हो, संभव है उनके उस आदेश के पीछे कोई तर्क हो। यद्यपि ऐसे आदेशों के कारण महाबलाधिकृत से गुप्त नहीं रखे जाने चाहिए; और ऐसे आदेशों का पालन महाबलाधिकृत से उसकी सहमति लिए बिना नहीं होना चाहिए; फिर भी सम्राट् कभी-कभी विशेषाधिकार का उपोयग कर लेते हैं। अंततः ऐसे निर्णय लाभदायक ही होते हैं। किंतु नगर-रक्षा का दायित्व सम्राट् के निजी अंगरक्षकों को सौंप देना...क्या हो गया है सम्राट् की बुद्धि को ?
‘‘क्षमा हो, सम्राट् !’’ महाबलाधिकृत बहुत साहस कर बोले, ‘‘नगर-रक्षा का दायित्व सम्राट् के अंगरक्षक दल को सौंप देना अपूर्व निर्णय है। अंगरक्षकों की संख्या इतनी अधिक होती है कि वे सम्राट की निजी रक्षा, राज-सभा, राज कार्यालयों तथा राजप्रासादों की रक्षा के साथ-साथ नगर-रक्षा का दायित्व भी सँभाल सकें। सम्राट् विचार करें, यह आदेश अव्यावहारिक है। यह तब तक व्यावहारिक नहीं हो सकता, जब तक कि अंगरक्षकों की संख्या एक पूरी सेना तक न पहुँचा दी जाए।’’
सम्राट् ने अधैर्यपूर्वक महाबलाधिकृत की बात सुनी; और पुनः बड़े कटु स्वर में उत्तर दिया, ‘‘महाबलाधिकृत को कादचित् ज्ञात हो कि सम्राट् ने अपनी आयु इस सिंहासन तथा राज-सभा में ही व्यतीत नहीं की है। मैंने सेनाएँ, स्कंधारवार तथा सेना-व्यवस्थाएँ ही नहीं देखीं-बड़े-बड़े युद्ध-अभियानों में एकाधिक सेनाओं का सफल नेतृत्व भी किया है। महाबलाधिकृत मुझे यह सीख न दें कि कौन-सी सेना किस कर्तव्य के लिए उपयुक्त है।’’

विचित्र स्थिति थी-व्यवस्था का सर्वोच्चस अधिकारी, व्यवस्था-संबंधी तर्क सुनने को प्रस्तुत नहीं था। अनुभवों की बात कहकर उन्होंने महाबलाधिकृत का मुख बंद करने का प्रयत्न किया था। सम्राट् का व्यवहार देख, महाबलाधिकृत हतप्रद हो चुके थे। महामंत्री आरंभ से ही निरस्त-से थे। गुरु ने भी अपूर्व चुप्पी धारण कर रखी थी। अंत में आर्य पुष्कल ही उठे,‘‘सम्राट् यदि अनुमति दें तो मैं उनके विचारार्थ विधान की परंपरा का उल्लेख करना चाहूँगा, जिसके अनुसार नगर-रक्षा का कार्य अंग-रक्षकों के कर्तव्य से पृथक्...’’
और सहसा जैसे विस्फोट हो गया।
सम्राट् अमर्यादित रूप से कुपित हो गए। उनका चेहरा तमतमा गया था। नथुनों के साथ अधर भीड़ फड़क रहे थे। उनका स्वर धीमा होता तो सर्प का फूत्कार लिये होता, ऊँचा होता तो फटने-फटने को होता....
‘‘प्रत्येक सभासद को स्पष्ट रूप से ज्ञात हो कि अभी दशरथ ही सम्राट् है और इस सिंहासन पर विराजमान ही नहीं है, सत्ता संपूर्णतः उसके अधिकार में है। मैं सम्राट् की सत्ता की अवहेलना अथवा उसके अवमूल्यन की रंचमात्र अनुमति नहीं दूँगा। सम्राट् के आदेशों पर विचार-विमर्श अथवा वाद-विवाद नहीं होगा। मैं यह निभ्रांत चेतावनी दे रहा हूँ कि सम्राट् का विरोध करने वाले न केवल पदच्चुत होंगे, वरन् दण्डित भी होंगे। सम्राट् का विरोध राज-द्रोह माना जाएगा, जिसका परिणाम भयानक होगा।’’

परिषद् जड़ हो गई। सम्राट् के निर्णय तो तर्कशून्य थे ही, उनका व्यवहार भी पर्याप्त चकित करने वाला था। सम्राट् अपने इस वय में, अपनी नम्रता ही नहीं, शिथिलता के मध्य इतना कठोर तथा परंपरा-विरोधी व्यवहार करें-अकल्पनीय बात थी। सभा में उठकर आ जाने के पश्चात् भी दशरथ का मन क्षण-भर को शांत नहीं हुआ उनके मन में आज राज-परिषद् में हुए एक-एक बात, कई-कई बार पुनरावृत्ति कर चुकी थी। एक-एक पार्षद उनकी कल्पना की आँखों के सामने था। एक-एक व्यक्ति की कही हुई एक-एक बात जैसी उनकी स्मृति पर खोद दी गई थी...और अंत में उनके विचार दो व्यक्तियों पर आ अटके थे-महाबलाधिकृत तथा न्याय-सचिव पुष्कल...
क्या महाबलाधिकृत मेरा विरोधी है ?
यदि है, तो क्यों ?
किंतु महाबलाधिकृत ने कभी राजनीति में विशेष रुचि नहीं ली। किसी का पक्ष अथवा विपक्ष उसने नहीं साधा। वह सैनिक परंपरा में पला हुआ, अधिकारी के सम्मुख सिर झुका देने वाला, शस्त्र-व्यवसायी है। उसका न कैकेयी से विशेष संबंध है, न भरत से, न केकय राजदूत से, न युद्धाजित से। उसने जो कुछ कहा, वह केवल सैनिक-कार्य-पद्धति की दृष्टि से कहा होगा। उस व्यक्ति को इतना बता देना ही पर्याप्त होगा कि वह अपने काम से काम रखे। राज-परिषद के षड्यंत्रों अथवा पक्ष-विपरक्ष में न पड़े। न्याय-अन्याय का विचार, उचित-अनुमति का विवाद, कर्तव्य-अकर्तव्य का विश्लेषण बड़ी अच्छी बात है-यदि वह सम्राट् को अप्रसन्न करने का प्रयत्न नहीं करेगा तो सम्राट् उससे अप्रसन्न नहीं होंगे...
दशरथ का मन कहता था, महाबलाधिकृत अपने लाभ की बात समझ जाएगा।
किंतु पुष्कल !

वह बात-बात पर विधान की बात करता है। वह न्याय-समिति का सचिव है।...ठीक है, सारे विधानों तथा न्याय-समिति के सिर पर स्वयं सम्राट् होते हैं किंतु पुष्कल यदि प्रचार करे, तो जन-सामान्य की दृष्टि में, वह सम्राट् को अन्यायी अथवा अवैधानिक कार्य करने वाला व्यक्ति ठहराएगा। प्रजा की दृष्टि में सम्राट् का सम्मान घटेगा, जो पहले ही बहुत अधिक नहीं था। यह प्रचार विरोधी शक्तियों के लिए लाभदायक होगा।...पर पुष्कल ऐसा क्यों करेगा ?
कदाचित् वह ऐसा न भी करे। किंतु वह कैकेयी का संबंधी है और कृपा-पात्र भी। उसे, या कैकेयी को, यह आभास मिलते ही कि सम्राट् ने उनका पक्ष दुर्बल करने के लिए कुछ भी किया है-भयंकर कोलाहल होगा।
तो क्या पुष्कल को अपदस्थ कर बंदी कर लिया जाए ?
ऐसा करने के लिए पुष्कल पर अभियोग लगाना आवश्यक है; और अभियोग, न यह हो सकता है कि पुष्कल वैधानिक चर्चा करता है, न यह हो सकता है कि वह कैकेयी का संबंधी है। और फिर, कैकेयी को सूचना मिलते ही वह ऐसा विरोध खड़ा कर सकती है, जिसका सामना न दशरथ कर सकते हैं, न दशरथ की सेना।
इस उलझी हुई राजनीतिक गुत्थी को तो कोई राजनीतिक चाल ही सुलझा सकती है...
राजनीतिक चाल !

गई रात तक दशरथ विभिन्न योजनाएँ बनाते-बिगाड़ते रहे...तत्काल कुछ करना उचित नहीं होगा। दो-चार दिन रुक जाना चाहिए, अन्यथा संदेह की संभावना है।
जब तक ध्यान इस ओर नहीं गया था, बात और थी; किंतु अब सम्राट् को प्रत्येक घटना में या तो षड्यंत्र की गंध आती है, या अपना अपमान होता दिखाई पड़ता है। प्रत्येक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के वक्तव्य में सत्ता हस्तगत करने का दुष्प्रयास दिखाई पड़ता है या सम्राट् का अवमूल्यन। चिंता पीछा ही नहीं छोड़ती-तनाव किसी समय भी कम नहीं होता।
उन्हें लगता है, तनाव निरंतर बढ़ रहा है। किसी-किसी समय लगता है कि सारे शरीर का रक्त मस्तक की ओर दौड़ रहा है। शरीर रक्त-शून्य हो जाता है और मस्तिष्क फटने लगता है। और जब इस तनाव का ज्वार कुछ नीचे आता है तो मन हताश हो जाता है। चारों ओर अवसाद घिर जाता है-टूटते हुए नशे जैसा। कुछ भी अच्छा नहीं लगता। हर चीज से मन उखड़ जाता है।

...इस उचाट अवस्था में कभी-कभी मन में आता है कि सब-कुछ छोड़-छाड़ कर कहीं दूर भाग जाएँ-जहाँ न चिंता हो, न परेशानी हो, न तनाव, न क्षोभ। इस वृद्धावस्था में शायद संघर्ष की शक्ति उनमें नहीं रह गई। संघर्ष उनमें उत्साह और ललक नहीं जगाता-खीज और द्वेष, कटुता और हताशा उत्पन्न करता है...किंतु तभी इस विरक्ति की तीव्र प्रतिक्रिया जागती है। दशरथ स्वयं अपने-आपको संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं-क्या उनके मन में भी कोई षड्यंत्रकारी घुस गया है ? आखिर इस प्रकार के भावों का क्या अर्थ ? ये दशरथ के भाव नहीं हैं। विरक्ति दशरथ के लिए नहीं है। भोग लेने पर, विषय और अधिकार के प्रति वैराग्य स्वीकार करना, दशरथ की प्रकृति नहीं है। उन्हें तृप्ति नहीं होती। यही कर सके होते तो कैकेयी से विवाह की क्या आवश्यकता थी ! न कैकेयी से विवाह हुआ होता, न यह स्थिति आती। अनेक स्त्रियों के होते हुए वे कैकेयी को नहीं छोड़ सके, तो एकमात्र सिंहासन कैसे छोड़े दें ?...दशरथ अपने हाथ का अधिकार नहीं छोड़ेंगे-हाथ ढीले हो गए, अधिकार खिसकता दिखाई दिया; तो वे उसे दाँतों से पकड़ेंगे। दाँत झड़ गए तो मसूड़ों से पकड़ेंगे...जब तक बन पड़ेगा, वे अधिकार का भोग करेंगे, उसकी रक्षा करेंगे...

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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