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आकाश की छत

रामदरश मिश्र

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :116
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2887
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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मिश्र जी की एक महत्वपूर्ण रचनात्मक उपलब्धि ‘आकाश की छत’...

Aakash Ki Chhat a hindi book by Ramdarash Mishra - आकाश की छत - रामदरश मिश्र

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘आकाश की छत’ की कथा-संरचना कुछ भिन्न प्रकार की है। इसका आरम्भ एक संकट के बिंदु से होता है। कथानायक यश आधी रात को अपने-आपको बाढ़ के पानी से घिरा पाता है। संकट की अनुभूति उत्तरोत्तर अधिक गहरी और अधिक तीव्र बनती जाती है।
यश का संकट-बोध अस्तित्ववादियों के संकट-बोध से भिन्न किस्म का है क्योंकि अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाले यश के पास अतीत की कुछ जीवन्त स्मृतियाँ तो हैं ही, साथ काल की इस सीमा-रेखा का अतिक्रमण कर सम्भावनापूर्ण भविष्य का एक स्वप्न भी है।
शहर की जिंदगी के यथार्थ को लेखक ने मूल कथा की पृष्ठभूमि के रूप में लिया है। यहाँ जीवन की एक विचलनकारी सच्चाई का उद्घाटन लेखक ने वर्णात्मकता के स्तर पर किया है।

‘आकाश की छत’ में भी जीवन कछार का ही है। दलित समाज में से उभरकर ऊपर उठने वाली रूपमती जैसी नारी है, जो अपनी शर्तों पर अपनी जिंदगी जीती है और अपने संघर्ष न केवल अपने-आपको बल्कि समाज के परिवर्तन की प्रक्रिया को गति प्रदान करती है।
‘आकाश की छत’ पात्रों के उद्घाटन में एक प्रकार का नाटकीय संयोजन और उतार चढ़ाव मौजूद है। परिचय का प्रारम्भिक क्षण पूरा होने के साथ ही परिस्थितयों का एक हल्का-सा झटका लगता है और पात्र के व्यक्तित्व का कोई अलक्षित अंश दीप्त हो उठता है।

संघर्ष के ताने-बाने से ही मूलकथा का पट तैयार किया गया है। यह सच है कि लेखक ने इस संघर्ष को अनिर्णीत छोड़ दिया है, लेकिन संघर्ष अभी तक जारी है। कामरेड जगत उसे निर्णायक बनाने के प्रयत्न में जुटे हैं, इस संकेत के द्वारा लेखक उस संघर्ष के प्रति हमें आश्वस्त कर देता है। अतः ‘आकाश की छत’ को मिश्रजी की एक महत्वपूर्ण रचनात्मक उपलब्धि का दर्जा दिया जाएगा।

 

आकाश की छत

 

कई घंटे बाद वह थोडा़ स्थिर हुआ तो रेलिंग के सहारे खडा़ होकर देखने लगा-
सामने गलियाँ हैं बारह-बारह फीट पानी में डूबी हुई, पीछे अगाध जल-राशिवाला ताल है यमुना तक फैला हुआ। यश अपनी इस सोच पर हँसा-यहाँ क्या आगे है क्या पीछे है, जिधर देखो उधर पानी ही पानी है। पानी के सिवा और कुछ भी सत्य नहीं है। दरवाजे-खिड़कियाँ सभी पानी में डूबे हुए। जिधर देखो वही आगे मालूम पड़ता है। आगे-पीछे के ज्ञान के साथ समय-ज्ञान भी डूब गया। पता नहीं आज कौन-सा दिन हैं। हवा ज़ोरों से बह रही है, पानी लगातार हहरा रहा है। ताल में ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही हैं। कोई न कोई चीज़ डूबती-उतराती बहती चली जा रही है। कोई डाल है, कोई ड्रम हैं, किसी फूस की छत है, किसी आदमी या जानवर की लाश है। पानी इतना बलवान होता है, इसका अनुभव वह आज पहली बार कर रहा है।

भूख लग रही है। धूप उग आई है-तेज़ धूप। उसने खाट को थोड़ा और दीवार की ओर खींच लिया। रस्सी बाँध-बूँधकर उस पर एक कपड़ा लटका रखा है। उसे इधर-उधर करके तथा खाट को इधर-उधर खींच-खाँचकर छाँह कर लेता है। फिर वह एकटक देखने लगा ताल के दूर सीमांत को। अनुमान लगाया कि यमुना यहाँ से कितनी दूर होगी, बीच में कितने गाँव पड़ते होंगे, कहाँ-कहाँ कितना-कितना पानी होगा ? कितने लोग बरबाद हुए होंगे ?
वह दूर क्या दिखाई दे रहा है ? शायद कोई बड़ी नाव है-उस पर लोग बैठे हुए हैं। इधर ही आ रही है। न जाने क्यों वह सब कुछ भूलकर एकाग्र-चित्त होकर उस नाव को ही देखने लगा। चलो, नाव के दर्शन तो हुए। कितना अच्छा लग रहा है उस नाव को देखना।

पोंऊ-पोंऊ-पोंऊ ! यह कुतिया सुबह से ही रो रही है। यह अकारण अपने बच्चों के साथ रात-बिरात भूंकती रहती है। और उसकी इच्छा होती है कि गोली हो तो इन सबकी एक बार में ही शूट कर दें। साले आवारा पिल्ले सोना हराम किए हुए हैं। लेकिन आज इस कुतिया का रोना उसे भीतर तक दहला रहा है। छपर-छपर तैरती हुई इस गहरे जल में वह कितनी बार चक्कर काट चुकी है। उसकी आँखों में एक स्तब्धता भरी है। वह शायद सोचती होगी कि यह सब क्या है, कैसे हो गया और देखते-देखते उसके बच्चे, उसके हमजोली सब कहाँ चले गए ? कई लोगों ने उसके सामने रोटी के टुकड़े भी फेंके मगर उसने उन्हें छुआ तक नहीं। पानी में भटक-भटककर थक जाती है तो पेड़ के सहारे टिकी एक झोंपड़ी की छत पर जाकर बैठ जाती है। रोती है। और वह सोचता है कि इस रोने से उसका चैन हराम नहीं होता, वरन् कहीं वह उससे अद्भुत तादात्म्य अनुभव कर रहा है।

यश फिर खाट पर लौट आया और देखा कि वह नाव अभी उसी जगह पर है, इतनी देर में वह कुछ भी आगे नहीं बढ़ी। उसने गौर किया तो लगा कि वह नाव नहीं है, कुछ पेड़ों का झुरमुट है। धत्तेरी की ! उसने इसे नाव कैसे समझ लिया ? उसे लगा कि वह कितने घण्टों से नाव के ही बारे में सोच रहा है।
वह मकान के लिए कहाँ-कहाँ भटका है ! बड़ी मुश्किल से यहाँ एक मोहल्ले में यह मकान मिला है। आगे मकान मालिक रहता है-पीछे के एक कमरे में वह। एक मियानी है जिसमें मकान-मालिक अपने सामान ठूँस-ठाँसकर और कुछ लेकर एक दिन पहले ही किसी रिश्तेदार के यहाँ निकल गया। लोगों ने उसकी हँसी उड़ाई-‘अरे, लाला जी पगला गए हैं, भागे जा रहे हैं। अरे भाई, इस कालोनी में पानी कभी आया है कि आएगा ?’ मकान-मालिक ने उससे भी कहा था कि कहीं निकल जाओ। वह कहाँ जाता ? उसका यहाँ कौन है और उसे भी कहाँ विश्वास था कि यहाँ इतना पानी आएगा ? और भी लोग तो हैं।

उसे देर तक पढ़ने की आदत है। देर से सोया तो सोया ही रह गया ! सुना है कि दो-ढाई बजे से ही सड़क पर हलचल शुरू हो गई थी और पानी आना शुरू हो गया था लेकिन उसे तब मालूम पड़ा जब कमरे में पानी चला आया और खाट के नीचे लटका उसका हाथ पानी में भीगने लगा। वह अचकचाकर जागा और पानी देखते ही घबरा उठा। टेबुल-लैंप का स्विच दबाया, लाइट जा चुकी थी। संयोग से दियासलाई और एक मोमबत्ती उसकी किताबों के पास टेबुल पर रखी थी, जलाई और पानी में उतर पड़ा। कहाँ जाए ? लाला जी कह गए थे कि बाढ़ आए तो छत पर जाने का रास्ता भीतर से नहीं था। गैलरी में उतर कर फिर अंदर घुसकर सीढ़ी मिलती थी। उसने कमरे का किवाड़ खोला, गैलरी में उतरा, कमर तक पानी आ गया था। सोच नहीं पा रहा था, क्या करे ? क्या छोड़े, क्या ले जाए ? सड़क पर पानी हाहाकार कर रहा था। गैलरी के पानी में तेज़ प्रवाह था।

शायद आदमी सबसे पहले अपने पेट की सोचता है, उसे भी लगा कि अपना स्टोव, चाय, चीनी आदि पहले उठाये। वह झट से किचन में गया। वहाँ से स्टोव उठाया, तेल की बोतल उठाई, चाय-चीनी उठाई; और कुछ बिस्कुट रखे थें, कल शाम ही को एक पावरोटी ले आया था। दो बार में उठाकर उन्हें सीढ़ी पर रख आया। फिर दो-एक चादरें, तकिया और हाथ में जो दो-तीन किताबें आई, उन्हें लेकर सीढ़ी पर रख आया। गैलरी में छाती-भर पानी आ गया था। अब वह घबराया और दरवाज़े पर ताला मारकर सीढ़ी तक पहुँचा और वहीं धप्प से बैठ गया। देखा-पानी सीढ़ी पर रखे सामान की ओर लपकता आ रहा है। वहाँ से सामान थोड़ा और ऊँचे पर किया और फिर उसे छत पर लाकर डाल दिया। वह छत पर कभी आया नहीं था। देखा- संयोग से वहाँ एक पुरानी खाट रखी थी। उसी पर धप्प से लेट गया और इन आशंका से अभी तक काँप रहा था कि यदि थोड़ी देर और हो गयी होती तो डूब ही गया होता। उसकी साँस तेज़-तेज़ चल रही थी।

धूप निकल आयी थी। उसने देखा-सामने और बगल के मकानों की छतों पर कोलाहल मचा हुआ है। उसका मकान गली के आखिरी किनारे पर पड़ता है। उसके बाद यह विराट ताल शुरू होता है पानी अभी बढ़ता ही जा रहा था। दूर-दूर तक ताल में उफनती धाराएँ...गली में सड़क पर बढ़ता हुआ पानी...देखते-देखते यह क्या हो गया ?
लोग अभी तक अपने-अपने सामानों को निकालने में लगे हुए थे-सोफा, खाट, बक्से, अरतन-बरतन, फ्रिज, टी.वी., रेड़ियो...और जाने क्या क्या ? उसे भी इच्छा हुई कि वह एक बार अपने कमरे में जाए और कुछ सामान निकाल लाए। ना बाबा ना, उसे तो गैलरी तय करनी पड़ेगी जहाँ एक पुरसा पानी होगा। उसे तैरना तो आता नहीं और वह अनमने भाव से आसपास के परिवेश को देखने लगा।

एक-एक छत पर कई-कई परिवार इकट्ठा हो गए थे। जो लोग ऊपर रहते हैं वे बड़ी गरमजोशी से नीचे वालों का स्वागत कर रहे थे, उनके सामान निकलवाने में, उन्हें खाने-पीने के सामान देने में मदद कर रहे थे। देखते-देखते छतों पर ही दैनिक कार्य शुरू हो गए। छतों पर लोग बना-बनाकर या पहली मंजिल से ला-लाकर चाय पीने लगे तो उसे लगा कि अरे उसने चाय तो पी ही नहीं, इतना समय हो गया। और तब उसे लगा कि चाय बनानी चाहिए। फिर पानी की याद आई। अरे, पानी कहाँ है ? यहाँ तो कोई नल है ही नहीं। तब उसे याद आया कि यह तो केवल एक मंजिल का मकान है। ऊपर निरी छत है, न पानी है, न शौचालय। अब क्या होगा ? उसने आसपास की छतों की ओर निराश भाव से देखा-शायद कुछ हो सके लेकिन सड़क के उस पार से कुछ पाने की उम्मीद करना तो असंभव ही था। पास की छत से भी कुछ नहीं पाया जा सकता। यह भी संयोग ही है कि सामने कि तमाम छतें आपस में जुड़ी हुई हैं और उसके तथा पड़ोस के मकान के बीच काफी दूरी है। दोनों के बीच एक छोटा-सा खाली प्लाट छूटा हुआ है।

वह क्या करे ? पानी के बिना कैसे काम चलेगा ? उसने बाढ़ के पानी की ओर ललचाई निगाह से देखा-उफ, इतना गंदा पानी ? अरे भाई, गंदा क्यों कहते हो, यह तो यमुनाजी का पानी है। कृष्णजी की प्यारी नदी यमुनाजी खुद ही चलकर आई हैं-अपनी जल-संपदा लेकर उस जैसे नास्तिकों को तारने। ‘लो भाई नास्तिक, तुम तो कभी मेरे पास आओगे नहीं, मैं ही आ गई हूँ।’

‘आ गई हो मेरी अम्मा, बहुत अच्छा किया। लेकिन तुम्हारी जैसी माताएँ तो मैंने कलियुग में भी नहीं देखीं। इतनी गंदगी ,इतनी क्रूरता, इतनी विनाशलीला तो किसी भी माँ के आँचल में नहीं देखी। आ गई हो मेरी अम्मा, तो सूअर की तरह गली-गली घूमकर गंदगी चाटो।’

इस रूपक से उसे थोडी़ राहत मिली। उसे लगा कि उसने यमुना पर चोट करके कुछ बदला चुका लिया। लेकिन इससे क्या होगा ? क्या इससे उसे पानी मिल जाएगा ? ‘‘पानी बिच मीन पियासी रे मोहि सुन-सुन आवे हाँसी।’ उसे कबीर की पंक्ति याद आ गई। अरे अब तो उसे सभी याद आएंगे-कबीर, तुलसी, सार्त्र, कामू, नीत्शे, मार्क्स। आखिर उसे काम ही क्या है इन्हें याद करने के सिवाय !
चलो, हो सकता है कि सरकार की कोई नाव-साव आए तो कुछ ले आए। मगर नाव पानी कहाँ से ले आएगी ? वह खाना तो होटल में खाता है सो खाना तो पता नहीं कितने दिन के लिए गया, मगर चाय का काम तो चल ही जाता। कुछ बिसकिट, कुछ डबल रोटी...लेकिन पानी ही नहीं तो क्या हो ? पानी ने पानी को सोख लिया है।

वह निढाल होकर खाट पर लेट गया। चाय पीना, अखबार पढ़ना, फिर सुबह की क्रिया करना-यह उसका दैनिक रूटीन था। दो तो गायब हो गए। चलो, सुबह की क्रिया ही सम्पन्न कर लें। मगर कहाँ ? कोई बात नहीं, यहाँ कोई नहीं है। वह सीढ़ियों पर से कुछ नीचे उतरा और कुछ ही देर बाद ऊपर लौट आया। कहाँ हाथ धोए, कहाँ कुल्ला करे, कहाँ ब्रश करे ? सीढ़ी पर का पानी तो वह गंदा कर आया।

एक अजीब दहशत उसके भीतर समा गई। बिना पानी के कैसे रहेगा ? पता नहीं, पानी कब उतरे ? वह खाट पर निढाल लेट गया। सोचना छोड़ देने में ही सुख है। एक...उफ ! क्या काट रहा है ? खटमल। अरे इतने खटमल भरे हैं इस खाट में ! उसने खाट को कई बार पटका। लाल-लाल खटमल गिर-गिरकर भागने लगे। बाप रे ! ये तो रहा-सहा खून भी चूस जाएंगे। ‘चलो, आज खाट को पटक-पटककर खटमलों को ही साफ किए देता हूँ। धूप खूब चढ़ने दो, तब खाट को और पीटूँगा।’
छत पर धूप भरती आ रही थी। छत पर एक स्टोर था जो बंद था। उसी की दीवार की छाया अभी थी। धीरे-धीरे वह भी खत्म हो जाएगी। उफ, धूप कितनी तेज है ! वह धूप में वहाँ कैसे रहेगा ? उसने देखा, छत पर कपड़े सुखाने की कुछ रस्सियाँ बँधी हुई हैं। उसने कुछ सोचा। ठीक है, उन पर एक चादर तानकर छाँह कर लेगा। एक चादर बिछा लेगा। उसके शरीर में खुजली होने लगी। उफ, साले खटमलों ने एक मिनट में ही कितना खून सोख लिया ! लाल-लाल ददोरे पड़ गए !

सामने और पास की छतों पर चहल-पहल मची हुई थी। खाना तैयार हो रहा था। ऊपर कमरा या बरसाती होने का सुख यही होता है न, कि पानी भी होता है और शौचालय भी। उसके मकान-मालिक को क्यों नहीं सूझी कि इधर वह एक नल लगवा दे या बरसाती बनवा दे ? मकान-मालिक ने कहाँ सोचा होगा कि इस मोहल्ले में कभी बाढ़ भी आएगी और बाढ़ आएगी तो इतनी कि कमरों में छह-छह फीट पानी भर जाएगा !

छतों पर चहल-पहल हो रही थी। वह किसी से परिचित नहीं। आते-जाते इन चेहरों का देख-भर लेता है, इन चेहरों को पहचानता है। पास वाली छत पर वह औरत बड़ी सक्रिय है, वह छत की बरसाती में रहती है। आइए, हम उसे मिसेज पाल कहें। मकान के नीचे के आगे-पीछे हिस्सों में रहने वाले लोग इसी छत पर आ गए हैं-कई मरद, कई औरतें, कई बच्चे। वह औरत कहीं नौकरी करती है। वह कभी चाय बना रही है, कभी नाश्ता। अब शायद खाना बना रही है। उसकी आवाज़ सुनाई दे रही है। उसने सबसे कहा है, ‘आप लोग हमारे मेहमान हैं, खाना हमारे यहाँ खाएंगे।’ कुछ और औरतें भी उसको सहयोग दे रही है। बच्चे पानी देख-देखकर बहुत खुश हो रहे हैं और किलकारी मार-मारकर लँगड़ी टाँग का खेल खेल रहे हैं। पुरुष अपने में और आस-पास की छतों के पुरुषों से हँसी-मजाक कर रहे हैं और सरकार की नीतियों पर बहसें करने लगते हैं। ट्रांजिस्टर से आने वाले समाचारों पर भी अच्छी-खासी बहस शुरू हो जाती है। काश, उसके पास इस समय ट्रांजिस्टर ही होता। कुछ तो समय कटता उससे।

मुख सूख रहा है और ब्रश न करने के कारण गंदा लग रहा है। आखिर क्या करे ? कब तक ऐसे चलेगा ? उसकी इच्छा हुई कि दो बिसकिट खा ले, लेकिन उसके बाद तो और प्यास लगेगी। उसने सामने की छत पर देखा-नल खुला हुआ है, पानी गिर रहा है, वह हसरत-भरी प्यासी आँखों से देख रहा है। पानी का दुहरा रूप उसने कभी नहीं देखा था। एक पानी चारों ओर लहरा रहा है और दहशत पैदा कर रहा है, दूसरा पानी दूर छत पर गिर रहा है, उसमें और प्यास भर रहा है।
वह क्या करे ? कभी उठता है, कभी जमीन पर बैठ जाता है, कभी चक्कर लगाता है, कभी दूसरी छतों की ओर देखता है, कभी ताल पर नज़र दौड़ाता है, कभी नीचे सड़क के पानी को देखता है। क्या करे ?
पास वाली छत पर सबने मिलकर खाना खा लिया और जूठी थालियाँ लाकर सबने एक जगह डाल दीं। मिसेज पाल ने देखा और खाना खाने के बाद सब साफ भी कर दिया।

पुरुष ताश भी खेलने लगे, बच्चे उसी तरह खेल के शोर में लीन थे, कभी-कभी पानी में पत्थर फेंकते थे। दोपहर का सन्नाटा आज नहीं था। सन्नाटा था तो केवल यश के लिए। उसने छतों की ओर देखा-उसे लगा कि शायद कोई पूछेगा कि कुछ चाहिए तो नहीं। किसी ने कुछ नहीं पूछा। शायद इसलिए भी न पूछा हो कि पूछना बेकार है। आखिर कोई सामान इसमें कैसे किसी के यहाँ पहुँचाया जा सकता है। लेकिन उससे तसल्ली तो हो सकती है। किसी ने उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया।

वह रेलिंग के सहारे खड़ा होकर सड़क पर देखने लगा।
‘साँप-साँप !’-लोग चिल्लाए। उसने देखा, एक छोटा-सा, साँप पानी में तैर रहा था और शहरी लोग बड़ी उत्सुकता से उसे देख रहे थे।
साँप !’-फिर कोई चिल्लाया और फिर सभी लोग झुककर साँप को देखने लगे। इस बार साँप काफी बड़ा था। और लोग अचरज और भय से मुंह बाए उसे देख रहे थे।
भैंस, अरे रे भैंस...!

उसने देखा, एक भैंस पानी में तैर रही है। न जाने कहाँ से आई हैं, कब से तैर रही है ? उसका पेट फूल गया है, आँखें निकल-सी आई हैं। वह बार-बार गली के मोड़ तक आती है फिर लौट जाती है। उसे डर लगा कि कहीं यह गली के बाहर ताल में न पड़ जाए। फिर तो मीलों लंबे इस ताल में ठहरने की कोई जगह नहीं मिलेगी। लेकिन गली में ही कौन जगह मिलेगी ? ताल और गली में क्या फर्क रह गया है ? इसे डूबना तो है ही, क्या गली में, क्या ताल में !
उसे यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतने लोगों में से किसी को तैरना नहीं आता। देहात के लोग तो तैरकर इस भैंस को पकड़ लेते, बाँध-बूधकर बचा ले जाते। मगर कहाँ ले जाते ? ले जाते, इसी मोहल्ले के बाहर ले जाते। मगर पता नहीं, पानी कितनी दूर तक है ? कुछ भी तो मालूम नहीं हो रहा है।

उसने घड़ी देखी-दो बज गए थे। मुंह में अब तक कुछ नहीं गया। उसने खाट की ओर देखा, फिर उसे उठा-उठाकर पटकना शुरू किया। झोंझ के झोंझ खटमल गिरने लगे। उसने चप्पल के तले उन्हें मसलना शुरू किया। छत पर लाल-लाल दाग पड़ गए। उसने पटकना जारी रखा। अब खटमल नहीं गिर रहे हैं-या तो समाप्त हो गए या पायों के छेदों में समा गए हैं।
उसे थकान मालूम पड़ने लगी। वह छाँह में अलसाकर लेट गया। थोड़ी देर सोया रहा। कोलाहल से उसकी नींद टूट गई। देखा-लोग अपनी-अपनी छतों पर झुके हुए चिल्ला रहे हैं। उसने झुककर देखा-टायर पर खाट बाँधकर बनायी गई नाव तीन मर्द और एक औरत बैठे हुए हैं। पता नहीं, वे किधर से बहते हुए इधर चले आए हैं। शायद ताल पर से ही आए हैं। औरत की गोद में एक बच्चा है। पता नहीं किसी चीज से यह नाव टकराई कि डगमगा गई और दो आदमी उस पर से नीचे लुढ़क पड़ें। लोगों ने रस्सियाँ, धोतियाँ लटकाई लेकिन उनकी पकड़ में नहीं आईं और वे डूबते-डूबते ताल की ओर चले गए। बचे हुए पुरुष ने डगमगाती नाव को किसी तरह डाँड़नुमा डण्डे से सँभाला और दोनों साथियों को ताल में बहते हुए देखता रहा। आँखें जड़ हो गईं, रो भी नहीं पाईं। औरत ने अपनी गोद के बच्चे को देखा-ठंडा हो चुका था, उसे पानी में फेंक दिया। हुल्ला-गुल्ला के बीच उनकी खाट वाली नाव दूसरी गली की ओर बढ़ने लगी-शायद ये मोहल्ले से बाहर होकर सूखी जमीन पर जाना चाहते हैं। कुछ ही समय में यह सब घटित हो गया, कोई कुछ नहीं कर सका। लेकिन एक दहशत हवा में फैल गई।

पड़ोस वाली छत पर चार महीने का एक बच्चा रो रहा था दूध के लिए। मिसेज़ पाल ने अपने यहाँ का सारा दूध चाय में खर्च दिया था। यह बच्चा ग्राउंड फ्लोर के पीछे वाले हिस्से में रहने वाले बैंक-कर्मचारी किराएदार का था। कोई कहाँ से दूध लाए ? बच्चा काफी देर से रो                                                                                                                             रहा था। कुछ लोगों ने देखा था, आगे के भाग में रहने वाला व्यापारी किराएदार कल दो डिब्बे दूध लाया था लेकिन वह दूध का अता-पता नहीं दे रहा था। रोते-रोते बच्चे का गला सूख रहा था। शर्बत पिला-पिलाकर उसे चुप किया जा रहा था। व्यापारी टस से मस नहीं हो रहा था।
तीन बजे के आसपास मिसेज़ पाल चाय बनाकर लाईं और बोली, ‘लीजिए, आप लोग चाय पीजिए। न तो मेरे पास नींबू हैं, न दूध। नए डिजा़इन की चाय पीजिए आप लोग।’
‘ठीक है, ठीक है, हर्ज क्या है ? मुसीबत में जो भी मिल जाए, ठीक है।’ कहकर लोगों ने अपनी-अपनी चाय पी ली। व्यापारी ने चाय नहीं पी। बोला-‘नहीं भाई, ऐसे तो चाय नहीं पी जाएगी।’ उसने अपनी बीवी-बच्चों को कहीं और भेज दिया था। अकेला था। सोचता था, कौन अकेली जान के लिए दूध का डिब्बा ले आए ? ये सारे लोग मिलकर खर्च कर देंगे। लेकिन पाँच बजते-बजते उसका सिर दुखने लगा। लगा, उसे चाय की तलब लगी है। बेचैनी से चक्कर काटने लगा। उसे उम्मीद रही होगी कि शायद दूध का इंतजाम हो जाए, लेकिन जब उसने देख लिया कि कुछ नहीं होने वाला है तब जी मसोसकर बोला-‘मैं ज़रा नीचे उतरता हूँ।’ और वह नीचे गया। कुछ देर में खुश होने का अभिनय करता हुआ आया-‘मिल गया, ऊपर रख दिया गया था इसलिए बच गया था।’

मिसेज़ पाल, ज़रा मेरे लिए चाय बना दीजिएगा।’ बेशर्मी से व्यापारी बोला।
‘भाई-साहब, पहले तो इस बच्चे का दूध बनाऊँगी, फिर आपको चाय दूगी।’
‘हाँ, हाँ, ज़रूर-ज़रूर। अरे कमबख्त़ मेरी याद ही ऐसी भ्रष्ट है कि क्या करूँ ? पहले याद पड़ गया होता तो बच्चा इतना काहे का परेशान होता ?’

बैंक-कर्मचारी घृणा के साथ व्यापारी को देखता रहा और जब मिसेज़ पाल बच्चे के लिए दूध बनाकर लाईं तो उसकी इच्छा हुई कि दूध लेकर व्यापारी के मुंह पर दे मारे ! लेकिन बच्चे का चेहरा देखकर उसने अपना क्रोध दबा लिया और देखा-बच्चा गट-गट करके दूध पीने लगा, फिर सो गया।
फिर मिसेज़ पाल ने दुबारा चाय बनाकर सबको दी। बैंक-कर्मचारी ने चाहा कि चाय व्यापारी के चेहरे पर फेंक दे। लेकिन फिर बच्चे को दूध की ज़रूरत पड़ेगी। कोई इंतजा़म तो होता दीखता नहीं, आखिर इसी व्यापारी के दूध का इस्तेमाल करना पड़ेगा। फिर गु़स्सा दिखाने से फायदा ? उसने चाय ले तो ली लेकिन मिसेज़ पाल से कहा-‘‘भाभी जी, भाई साहब ने तो केवल अपने लिए चाय बनाने को कहा था, आपने तो सबके लिए बना दी।’
‘अरे नहीं भाई, मैंने तो मिसेज़ पाल की तकलीफ का ख्याल कर रहा था।’ आठ कप। पानी कोई मेरे सिर पर थोड़े ही खौलता है!’ मिसेज़ पाल ने कहा।
‘ही-ही-ही-ही !’ व्यापारी बेशर्मी से हँसा।

यश ने लोगों को डूबते देखा और माँ को मरे बच्चे को पानी फेंकते देखा तो बहुत गहरी पीड़ा और दहशत से भर गया। थककर वह निढाल लेट गया। सोचने-समझने की शक्ति शिथिल पड़ गई। दूसरी छत से अब तक भूखे बच्चे के रोने की आवाज़ आती रही थी। दूसरी छतों से भी कुछ अरूप आवाज़ें आती रहीं। वह निढाल लेटा हुआ उनसे टकराता रहा।
लेटे-लेटे उसने एक पुस्तक उठा ली-‘कामायनी’ थी ! कैसा विचित्र संयोग है कि उसके हाथ ‘कामायनी’ ही पड़ी-

 

‘हिंमगिरि के उत्तुंग पर बैठ शिला की शीतल छाँह।
एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह।’

 

हाँ, वह भी मनु की तरह इस प्रलय-प्रवाह को देख रहा है। पता नहीं, बचेगा कि नहीं ! वह आधा तो डूब ही गया है। पुस्तकें ही उसका जीवन हैं। पुस्तकें सब नीचे डूब रही हैं। उसे पुस्तकों का कितना शौक रहा है-पेट काट-काटकर उसने पुस्तकें खरीदी हैं। हिन्दी साहित्य, इंगलिश साहित्य, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, इतिहास की चुनी हुई पुस्तकें खरीदता रहा है। और अर्थशास्त्र तो उसका विषय ही रहा है।
उसने बी. ए. तक हिन्दी पढ़ी है। ‘कामायनी’ के कुछ अंश बी. ए. में थे। उससे प्रभावित होकर उसने ‘कामायनी’ खरीद ली थी। उसे वह जब-तब पढ़ता रहता है-‘हिमगिरि  के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह। एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह।’
मनु अकेले थे-और वह तो चारों ओर लोगों से घिरा है। कुछ समय बाद प्रलय का पानी उतर गया था। यह बाढ़ का पानी भी उतर जाएगा।

पता नहीं, मनु ने क्या खाया-पीया होगा ! हिमालय के उस उत्तुंग शिखर पर उन्हें क्या मिला होगा ? यहाँ तो महानगर के एक संभ्रांत मुहल्ले के बीच वह भूखा-प्यासा है, पता नहीं कब तक यह स्थिति रहेगी ?
प्रलय का पानी उतर गया था। मनु धीरे-धीरे सूनी लुटी हुई धरती पर आ गए थे। घूम रहे थे अकेले-अकेले। टूटे हुए अतीत की स्मृतियों के शव लादे हुए अनजानी जगहों में भटक रहे थे, लेकिन उन्हें श्रद्धा को मिलना था, मिल ही गई और भूख-प्यास से लड़कर ज़िन्दा भी रह गए। फिर तो एक नया मनोहर संसार उनके आगे निर्मित होने लगा। और वह ? वह तो भरे-पूरे संसार से गुज़रा है। बाढ़ उतरने के बाद वह ज़िन्दा रहा तो यह पूरा आबाद महानगर उसके सामने होगा। वह इसके बीच होगा और उसे श्रद्धा की खोज नहीं करनी पड़ेगी-केवल उसकी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। हाँ उसकी भी एक श्रद्धा है।

‘मेरी श्रद्धा,’ वह बुदबुदाया। फिर आँख मूंदकर कुछ क्षण अभिभूत रहा।
शाम हो गई थी। उसने कुछ शोर सुना। उठकर छत पर से झाँकने लगा। कोई आदमी टायर की नाव पर चढ़कर चिल्ला रहा था-‘सूद साहब हैं ?’ ‘हाँ हूँ भाई,’ सामने की छत पर सूद साहब चिल्लाए और साथ ही उनके बच्चे भी चिल्लाए-‘आइए अंकल जी, आइए अंकल जी।’     


 

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