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ममता कालिया की कहानियाँ

ममता कालिया

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :463
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2892
आईएसबीएन :81-8143-485-4

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इसमें ममता कालिया की कहानियाँ खण्डों में प्रकाशित की गयी हैं...

MAMTA KAALIYA KI KHANIYAN-2

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी कहानी के परिदृश्य पर ममता कालिया की उपस्थिति सातवें दशक से निरन्तर बनी हुई है। लगभग आधी सदी के काल खण्ड में ममता कालिया ने 200 से अधिक कहानियों की रचना की है। यह स्वाभाविक ही है कि उनकी अब तक लिखी कहानियाँ एक साथ पाठकों को उपलब्ध करायी जायें। इस महत्वपूर्ण आयोजन के तहत उनके शुरुआती पाँच कहानी-संग्रहों की कहानियाँ एक साथ ‘ममता कालिया की कहानियाँ, खण्ड-1 में प्रकाशित की जा चुकी हैं। उनके सम्पूर्ण कहानियों के इस दूसरे खण्ड में उनके चार कहानी संग्रहों को शामिल किया गया है-1.जाँच अभी जारी है 2.बोलने वाली औरत 3.मुखौटा 4..निर्मोही। वस्तुतः देश विदेश में हो रहे व्यापक शोध-कार्य में इन पुस्तकों की अनुपलब्धता से काफी कठिनाई पैदा होती है। विद्यार्थी, शोधार्थी और रचना प्रेमी पाठकों की माँग पर इन सभी कहानी संग्रहों का संचयन किया जा रहा है।

स्वातंत्र्योत्तर भारत के शिक्षित, संघर्षरत और परिवर्तनशील समाज का सजीव चित्र इन कहानियों में अपने बहुरंगी आयामों में दिखाई देता है। हिन्दी कथा-जगत में ममता कालिया की तरह लिखने वाले रचनाकार विरल हैं जो हमारी आत्मीयता, आवेग और उन्मेष के साथ जीवन के धड़कते क्षण पाठक तक पहुँचा सकें। इनके लेखन में अनुमति की ऊष्मा अनुभव की ऊर्जा के साथ रची-बसी है।

ममता कालिया की कहानियों में जिस संवेदनशील, संतुलित, समझदार लेकिन चुलबुले, मानवीय सहानुभूति से आलोकित व्यक्तित्व की झलक मिलती है वह उनके दृष्टिकोण की मौलिकता से दुगुनी दमक पाती है। उनकी रचनाओं में कलावादी कसीदाकारी न होकर जीवनवादी यथार्थ का सौन्दर्य बोध है। इस रचनाकार ने अपने समय और समाज को पुनर्परिभाषित करने का सृजनात्मक जोखिम लगभग हर कहानी में उठाया है। कभी वे समूचे परिवेश में नया सरोकार ढूँढती हैं तो कभी वे वर्तमान परिवेश में नयी नारी की अस्मिता और संघर्ष को शब्द देती हैं।

समकालीन कथा-परिदृश्य में जिस नारी-विमर्श का शोर सुनाई दे रहा है, उसका मौलिक स्वरूप व सरोकार इन कहानियों में अपनी समर्थ उपस्थिति बनाये हुए है। जब ये कहानियाँ लिखी गई तब नारी- विमर्श ना तो बिकाऊ माल था न चालू नुस्खा। लेकिन ममता कालिया ने बहुत पहले यह देख लिया था कि स्त्री के जीवन में अधिकार का संघर्ष सतत चलने वाला क्रम है। अपने सोच एवं विचार में यह रचनाकार पूर्णतया आधुनिक और निषेध-मुक्त है।

 

सेमिनार

 

 

इस सेमिनार के लिए बुलावा पाकर उसे हैरानी हुई थी। उसने यह सोचकर जवाब नहीं दिया कि अगर निमन्त्रण गलती से उसे भेज दिया गया है अगला पत्र नहीं ही आयेगा, जिसके द्वारा अक्सर आयोजक लिखा करते हैं ‘आप अवश्य आयें, आपके बिना यह सेमिनार अधूरा रहेगा, विचारोत्तेजक बहस का वातावरण आपके आने से ही बनेगा इत्यादि।’ जब यह पत्र भी आ गया तो पाखी को सोचना पड़ गया कि वह जाये या नहीं ।

दिल्ली में इस वक्त सड़ी गर्मी पड़ रही थी। तापमान लगातार चढ़ रहा था। सेमिनार शिमला में था। शिमला शब्द पत्रोत्तर के लिफाफे पर लिखते समय एक ठंडक सी महसूस हुई। कमरे में कूलर और पंखा दोनों इस वक्त निष्प्राण, निस्पंद खड़े थे। बिजली कटौती के अन्तर्गत दिन में चार-चार घंटे बिजली गायब रहती। ऐसे में पढ़ना-लिखना तो दूर चैन से लेटना-बैठना भी मुहाल था। पाखी के जीवन का नक्शा वैसे भी बड़ा जटिल था। उसमें आराम, सैर, चर्चा और शांति जैसी नियामतों की गुंजाइश ही नहीं थी। कई दिनों से उसने एक कहानी शुरु कर रखी थी। तीन-चार पत्रिकाओं के अनुरोध पत्र आए थे कि वह कहानी भेजे। इस एक कहानी की बिना पर वह सबको लिख बैठी थी ‘कहानी भेज रही हूँ।’ पाखी को हर वक्त उम्मीद रहती थी कि मौसम, बिजली और घरेलू हालात कुछ दिनों के लिए इन तीनों से निजात दिला सकता था इसलिए उसने सहमति भेज दी।

सहमति भेजने के बाद उसे हल्का सा पछतावा महसूस हुआ। उसे लगा वह असलियत में चंट होती जा रही है। वह जानती है इस सेमिनार में न उसकी तरह लिखने वाले लोग होंगे, न उसकी तरह सोचने वाले साथी। उसे आभास था कि इस सेमिनार में ज्यादा तादाद उन लोगों की होगी जिनका सोचने का ढंग एकदम अलग या उलट होगा। फिर वह वहां क्या करने जायेगी ? तत्काल एक बेहया समझौतावाद ने उसके अन्दर से अपना काला भौंडा सिर उठाकर कहा, ‘तुमने सहमति इसलिए भेजी है क्योंकि दुश्मन को जानने के लिए करीब जाना जरूरी होता है; अपने विरोधी को जाने बिना उससे लड़ोगी कैसे।’ इस दलील से पाखी को थोड़ा सुकून मिला। उसे लगा वह बिना अपनी पहचान नष्ट किये इस सेमिनार में हिस्सा ले सकती है।

जिस गेस्टहाउस में पाखी और अन्य प्रतिनिधियों को ठहराया गया वह एक ऊंची पहाडी़ पर स्थित था। कमरे की तीन दीवारें काँच की थीं जिन पर भारी पर्दे लगे हुए थे। कमरा वातानुकूलित था। शीशों के पार शिवालिका पहाड़ियों का वानस्पतिक विस्तार और वैभव नजर आया। देवदारु और चीड़ के पेड़ असल होने पर भी एक नकली सौन्दर्य का वातावरण तैयार कर रहे थे। अपने शहर के सुस्त मुहल्लों के पस्त परिवेश में रहते इस तरह के हरियाले दृश्य के लिए आँखें अनभ्यस्त हो गई थीं। कुछ देर लगातार टकटकी लगाकर देखने के बाद ही आंखों को यह सब विश्वसनीय लगा।
स्नान के बाद पाखी के सिर को चार बार झटक कर घर की चारदीवारी से बाहर निकाला। खूब मन लगाकर वह तैयार हुई और समय पर डाइनिंग हॉल में आ गई। एक नजर में यह जाहिर हो गया कि सेमिनार में बहुतायत उन नफीस अफसानानिगारों की थी जो एक लंबे अरसे से मौजूदा कहानी को हल्के-हल्के तराश रहे थे और जिनका अफसाना आज भी वहीं था जहाँ से शुरू हुआ था। ये सब जौहरी सी बारीक नजर और पकड़ रखने वाले अदीब थे। इनके लिए, अपनी कलात्मकता से बाहर का समस्त साहित्य एक ‘कूडेदान’ से ज्यादा अहमियत नहीं रखता था। कुल जमा बीस प्रतिनिधि थे जो दूर दूर से आये थे। एक दो तो विदेश में बसे हुए कलाकार थे जो खास इस सेमिनार के लिए उड़कर यहां तक आये थे। इस जड़ाऊ हार में मंगल-सूत्र के काले, देशी मन के जैसे पाखी अपनी बेवकूफी या चालाकीवश आकर अटक गई थी। हां, उसके अलावा एक कवि और एक आलोचक भी वहां थे जो अक्सर दोनों खेमों में नजर आते रहते थे। प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंच वर्गातीत व्यक्तित्व बन गए थे। इनकी रचनाएं पाठ्यपुस्तकों में जगह पाती थीं और इन्हें सभी की सराहना प्राप्त होती थी।

सेमिनार में पाखी के अलावा चार लेखिकाएं और थीं। उनमें से दो युवा और नई थीं जो खींचतान कर लगातार अपनी उम्र से छोटी और युवा दिखने के लिए संघर्ष कर रही थीं। पाखी इन दिनों प्रौढ़ाओं को पहचानती थी क्योंकि ये लम्बे अरसे से उसी के विश्वविद्यालय से जुड़ी हुई थीं। राजधानी के कलाजगत की ये जान थीं। शहर में कोई उद्घाटन, विमोचन, आयोजन इनकी शिरकत के बगैर पूरा नहीं हो पाता था। बहस के दौरान अगर ये किसी बात पर असहमत होतीं तो बाघिन सी उस वक्ता पर टूट पड़तीं। उनके बयान तर्क से परे लेकिन आक्रामक होते। उनकी भाषा बड़ी टकसाली थी, जिनसे किसी भी सेमिनार की कार्रवाई उल्लेखनीय बनती है।

एक थीं सुरेखाजी जो लम्बे अरसे से बड़ी निजी किस्म की कहानियां लिख रही थीं उनकी कहानियों में अक्सर उनके निजी जीवन की झलक रहती, अपना प्रेम, अपनी निराशा और अपना संत्रास। पाठकों को उनकी कहानियों से पता चलता रहता कि अब सुरेखाजी विदेश जाने वाली हैं, अब किसी एक के प्रेम से निकल कर दूसरे के प्रेम में पड़ने वाली हैं, अब मकान बनवाने वाली हैं और अब कुत्ता पालने वाली हैं। प्रारम्भ में सुरेखाजी गीत वगैरह लिखा करती थीं, पर बाद में कुछ विद्शे पत्र पत्रिकाओं का उन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे यकायक आधुनिक हो गईं। उन्होंने न केवल अपने बाल कटा और रंगा लिए, उन्होंने अपने लेखन के साथ भी यही सलूक किया। उनके प्रशंसकों की एक छोटी सी टुकड़ी थी जो उन्हें अव्वल दर्जे का कला प्रेमी और बुद्धिजीवी मानती थी। जब कहीं उनकी रचना छपती, यह सुरेखाजी अपने प्रशंसा के पत्र लिखकर भेज देती। प्रशंसकों के इस छोटे से दल की बदौलत सुरेखाजी अपने को चोटी का कथाकार मानती थीं।

दूसरी महिला एक प्रमुख अखबार की कला समीक्षक थी, बीना जेटली। उसका गेटअप पाखी को बड़ा दिलचस्प लगा। बीना, लम्बी, छरहरी और सुन्दर महिला थी। उसकी उम्र पच्चीस से चालीस के बीच कुछ भी हो सकती थी। लिखती वह हिन्दी में थी पर बोलती अंग्रेजी थी। उसकी कहानियां फन्तासी और प्रतीक के बीच की धुन्ध में लिपटी रहती थीं। उसके होंठ लगातार सिगरेट पीने से जामुनी रंग के हो चुके थे लेकिन उसकी लम्बी, पतली उंगलियों पर निकोटीन का असर नहीं था। जब वह एक जगह से उठकर दूसरी जगह बैठती तो उसे अपना काफी सामान उठा कर चलना पड़ता। बीना के पास बड़ा सा हैंडबैग  था लेकिन सिगरेट की डिब्बी और माचिस वह हाथ में पकड़ती। दूसरे हाथ में वह अपना जिन का ग्लास थाम लेती और जहां बैठती, वहां एक और कुर्सी खिसका कर अपना सामान उस पर बिछा लेती। वह आँखें बंद कर चर्चा सुनती और जिस समय किसी को उम्मीद न होती, आँखें खोलकर कहती, ‘नाउ दैट वॉज ए पॉयन्ट।’ फिर वह एकदम नपे तुले शब्दों में शाश्वत मूल्यों पर एक वक्तव्य देती जिसका कोई भी ताल्लुक मौजूदा मसले से न होता।

सेमिनार की दो बैठकों के बाद यह भलीभांति स्पष्ट हो गया है कि रचनाकारों के दिमाग में बेतरह कुहासा है। कई लेखक अभी तक सार्त्र के प्रभाव से उभरे नहीं थे और कई पर जैनेन्द्रियन दर्शनवाद की परत चढ़ी हुई थी। कहानी की व्याख्या वे यों शुरू करते जैसे वह कोई परीलोक की घटना है। वे कुछ विदेशी आलोचकों का हवाला देते, प्रेमचन्द की सीमाओं का उल्लेख करते, प्रसाद की विराटता बताते और समझाते कि कहानी को अखबारीपन, सपाटबयानी और राजनीतिक प्रतिबद्धता से बचाते हुए कैसे सही मानव मूल्यों से जोड़ा जा सकता है।

शाम का एक सत्र कहानी पाठ का था। उसमें चार कहानियां पढ़ी जाने वाली थीं। एक कहानी बीना जेटली की थी और एक पाखी की। शेष दो कहानियां ऐसे लेखकों की थीं जो थे हिन्दी के पर अंग्रेजी वालों में वे काफी नाम कमा चुके थे। हिन्दी में प्रकाशित होने से पहले उनकी काहनियां अंग्रेजी में चर्चित हो जाती थीं। विदेशी पत्रिकाओं में उनकी रचनाओं के अनुवाद आ जाते थे। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि उनका एक शब्द एक डॉलर का होता है। नीली जीन्स और पीला कुरता पहने चन्द्रशेखर ने गोष्ठी आरम्भ करते हुए कहा, मैं सुबह से उठकर बियर पीता रहा हूँ ताकि अपनी कहानी को विश्वसनीय ढंग से आपके सामने पेश कर सकूं।’ फिर उसने कहानी सुनाई, जिसमें पात्र नहीं थे, घटना नहीं थी, एक खाली मैदान के बीचों-बीच पड़े कूड़े के बारे में विचार थे। कहानी खत्म होने पर ताली बजी।

अध्यक्ष ने कहा ‘एक अच्छी कहानी में न पात्र प्रमुख होता है, न विषय, न घटना। कहानी के कहानीपन का चौखटा तोड़ने के लिये जरूरी है कि आज की कहानी अपने आचार-शास्त्र को तोड़े।’
अगली कहानी बीना को पढ़नी थी। बीना अपने पूरे सरंजाम के साथ मंच पर गई। उसने सिगरेट सुलगाई, एशर्टे् पास खिसकाई और बड़े आकर्षक अन्दाज में कहानी की शुरूआत की। पाखी लगातार उसके व्यक्तित्व की ओर खिंच रही थी। चील के पेशाब का प्रतीक लेकर एक काल्पनिक स्थिति बनाई गई थी।
कहानी खत्म होने पर सराहना का तूफान उठा और बीना जी की कला पर काफी पुष्पवर्षा हुई। बीना उठकर अपनी कुर्सी पर आ गई और तटस्थ भाव से सिगरेट पीती रही जैसे वह अपनी नहीं किसी और की सराहना सुन रही हो।
जब पाखी की बारी आई तो सबसे पहले उसने क्षमा माँगी, ‘मैं माफी चाहती हूँ आपसे सबसे क्योंकि मेरी कहानी में हाड़ माँस के लोग हैं, उनका एक निश्चित परिवेश है, घटना जैसी घटिया बात भी शायद इसमें है और यह कहानी अपने आचार-शास्त्र को भी शायद नहीं तोड़ती।’

युवा आलोचक बड़ी ऐंठी हुई मुद्रा में पाखी को सुनते रहे। पाखी जानती थी वह गलत बन्दूक लेकर यहाँ चली आई है, इसलिये उसे जरा भी ताज्जुब नहीं हुआ जब उसकी कहानी पर कोई चर्चा ही नहीं हुई।
ऊँची नीची सड़कों पर घूमना, घाटियों में उतरना, चट्टानों पर नाम खोदना और कैमरे क्लिक करना इस सेमिनार की भी समापन साँझ के हिस्से रहे। वे सब एक बड़ी टोली में निकले लेकिन कुछ दूर जाकर छोटी-छोटी टोलियों में बँट गये। बीना पाखी के साथ चलने लगी। आगे छोटा सा बाजार था जिसमें वह सब था जो एक पहाड़ी बाजार में होता है-दो तीन वाइन शॉप, एक फोटोग्राफर, दो गर्म कपड़ों की दुकानें भी थीं जैसे चाय की, किराने की, तेल और अनाज की।
चन्द्रशेखर और विवेक वाइन शॉप पर रुके तो बीना ने उनके पास जाकर कहा, ‘एक क्वार्टर मेरा भी।’
‘ओ के।’

तभी बीना की निगाह बराबर की दुकान पर पड़ी। वहाँ बाँस की बनी टोकरियाँ झाडू, सुतली और मोटी रस्सी जैसी चीजें रखी थी। एक झाडू देखकर वीना लपकीं, ‘ओ हाउ ब्यूटीफुल !’
उसने झाडू उठाई। निश्चित ही कलात्मक तरीके से बुनी हुई झाडू थी जिसमें सारी तीलियाँ मिलकर ऊपर कंगूर बनाती थीं। उसका आगे का हिस्सा ठिगना और घना था। झाड़ू एक बारीक धागे से बँधी थी। बीना ने उसे खोलकर फैलाया और अपनी कमर में लगाकर बोली, ‘कैसी लग रही है ?’
‘सुभान अल्ला।’ विवेक ने कहा और अपना कैमरा क्लिक कर दिया। तब तक अन्य दो लेखिकाएं भी वहां आ गईं। सब उसकी प्रशंसा करने लगीं। बीना ने कहा, ‘मैं इसे खोलकर अपनी बैठक में लगाऊंगी। इसके पीछे काली मखमल की बैकग्राउन्ड दूँगी तब देखना।’ सुरेखाजी ने कहा, ‘‘मेरे बेडरूम की एक दीवार बड़ी सूनी और मनहूस है। मैं तो वहीं लगाऊँगी।’

तीसरी बुद्धिजीवी ने दिल पर हाथ रखा, ‘हाय मुझे तो दो दे दो, एक से काम कैसे चलेगा।’
सबने पाखी पर बड़ा जोर डाला कि वह भी एक ले ले, पर पाखी ने इनकार कर दिया, ‘मैं इतनी जल्द कहानी से झाडू पर नहीं आ सकती।’
‘ओफ यह झाडू नहीं है पाखीजी, यह तो पिकासो की प्रतीक्षा में खड़ी एक कलाकृति है।’ सुरेखाजी को पाखी पर बड़ा तरस आया।
‘होगी, लेकिन मेरी इसमें दिलचस्पी नहीं है।’ पाखी ने एक लट्ठमार जवाब दिया।
कलेजे से झाडू लगाए सभी उत्तर-आधुनिक लेखिकाएं अपने कमरे में पहुंच गई।
अभी खाने में देर थी।

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