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युद्ध - भाग 2

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2901
आईएसबीएन :81-8143-197-9

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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

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Yudhya-2

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘दीक्षा’, ‘अवसर’, संघर्ष की ओर’ तथा ‘युद्ध’ के अनेक सजिल्द, अजिल्द तथा पॉकेटबुक संस्करण प्रकाशित होकर अपनी महत्ता एवं लोकप्रियता प्रमाणित कर चुके हैं। महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में इसका धारावाहिक प्रकाशन हुआ है।

उड़िया, कन्नड़, मलयालम, नेपाली मराठी तथा अंग्रेजी में इसके विभिन्न खण्डों के अनुवाद प्रकाशित होकर प्रशंसा पा चुके हैं। इसके विभिन्न प्रसंगों के नाट्य रूपान्तर मंच पर अपनी क्षमता प्रदर्शित कर चुके हैं तथा परम्परागत रामलीला मण्डलियाँ इसकी ओर आकृष्ट हो रही हैं। यह प्राचीनता तथा नवीनता का अद्भुत संगम है।

इसे पढ़कर आप अनुभव करेंगे कि आप पहली बार ऐसी रामकथा पढ़ रहे हैं जो सामयिक, लौकिक, तर्कसंगत तथा प्रासंगिक है। यह किसी अपरिचित और अदभुत देश तथा काल की, कथा नहीं है। यह इसी लोक और काल की, आपके जीवन से सम्बन्धित समस्याओं पर केन्द्रित एक ऐसी कथा है, जो सर्वकालिक और शाश्वत है और प्रत्येक युग के व्यक्ति का इसके साथ पूर्ण तादात्म्य होता है।

युद्ध-2
प्रथम खण्ड
1


हनुमान लंका के एक चतुष्पथ पर खड़े सोच रहे थे कि वे क्या करें ? कहाँ जाएँ और किससे पूँछें ? जब तक लंका में प्रवेश नहीं किया था, तब तक तो यही लगता था कि सागर-संतरण ही सबसे बड़ी समस्या है। सागर पार किया नहीं कि सीधे वहाँ जा पहुंचेंगे जहाँ सीता होंगी।

उनके दर्शन कर, उनकी कुशलता तथा व्यथा संबंधी वार्तालाप कर तत्काल लौट जाएँगे।....तब यह कहाँ सोचा था कि लंका नगरी स्वयं अपने आप में एक अथाह सागर है जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। जिस ओर निकल जाओ, कोई अंत नहीं, कोई सीमा नहीं। जाने कितनी किष्किंधा नगरियाँ इस एक लंका में समा जाएँ।

राजमार्गों का सीमाहीन जाल बिछा हुआ है। जिस मार्ग पर निकल जाओ, बड़े-बड़े उद्यान मिलते हैं। उसके पश्चात् ऊँचे-ऊँचे विशाल फाटक हैं, ऊँची-ऊँची प्राचीरें हैं। सब ओर पहरे का प्रबंध है। बाहर से भीतर का समाचार जानना असंभव है।....

हनुमान ने बहुत सारे राज्य और राजधानियाँ देखी थीं, किन्तु लंका जैसा नगर पहले कभी नहीं देखा था.....प्रासादों की पंक्तियों के परे, राजमार्गों से कुछ हटकर साधारण भवन थे। उन भवनों की भी जैसे अपनी पुरियाँ बसी हुई थीं...और सबसे अंत में कच्चे घर थे, कुटीर, झुग्गियाँ, झोंपड़ियाँ....सागर-तट की दुर्गंध, कीच तथा अन्य प्रकार की गंदगी में बसे वे लोग.....लगता था यह मानव यातना का एक पृथक सागर था। निर्धनता, असुविधा, शोषण, वंचना, क्रूरता और अज्ञात में पले ये लोग देखने वालों की आखों को कष्ट देते थे।

मन में उनके प्रति करूणा न हो तो उनके प्रति घृणा विरोध जागता था कि इतने साफ-सुथरे नगर में ये गंदे लोग कहाँ से आ गए; और उन्हें भी मनुष्य मानकर उनके प्रति मन में करुणा और ममता रखकर देखो तो स्पष्ट दिखाई पड़ने लगता था कि वे धन के विषम तथा अन्यायपूर्ण वितरण के षड़्यंत्र में फँसे, कष्ट पाते हुए दु:खी लोग थे,

जो अपनी असुविधाओं के विरुद्ध लड़ते हुए भी व्यवस्था के क्रूर रक्षकों के द्वारा अभावों में जीने के अभ्यस्त बनाए जा रहे थे....बालि के राज्य-काल में किष्किंधा में भी कुछ ऐसा ही घटित हो रहा था, किन्तु वह निर्धनता के साथ-साथ वैभव का इतना विराट् प्रदर्शन नहीं था। लंका में इतनी अट्टालिकाओं की पृष्ठभूमि में सागर-तट पर धूप और कीचड़ में जीने वाले ये लोग अधिक वंचित और पीड़ित लगते थे।

क्षमता भर, लंका में इधर-उधर घूमकर, हनुमान पुन: इस चतुष्पथ पर आकर खड़े हो गए थे। अब तक वे ही निश्चय नहीं कर पाए थे कि सीता की खोज कहाँ से आरंभ करें ?.....सीता का अपहरण रावण ने किया था.....यथासंभव वह उनकी हत्या नहीं करेगा। हत्या ही करनी होती, तो पंचवटी से उठाकर लंका तक लाने की क्या आवश्यकता थी ? हत्या तो पंचवटी में भी हो सकती थी। फिर रावण तो अपनी लंपटता के लिए प्रसिद्ध था।

सुंदर स्त्री की हत्या वह कदाचित् नही करेगा....अधिक संभावना इसी बात की है कि उसने देवी वैदेही को कहीं बंदी कर रखा होगा और संभवत: उन्हें मानसिक और शारीरिक यातनाएँ दे रहा होगा....सीता का अपहरण यदि रावण ने अपने लिए किया है तो उन्हें मुख्य नगर से दूर, समुद्र तट की गंदी बस्तियों में नहीं रखेगा। वह उन्हें अपने निकट, अपने वैभव के निकट बंदिनी रखेगा.....

किन्तु किससे पूछें हनुमान ! चारों ओर राक्षसों का जन-पारावार है। लोग ही लोग। राजमार्ग से तनिक हटकर खड़े हो जाओ तो ऐसा लगता है जैसे किसी सरिता-तट पर खड़े हों, जिसमें जलकणों के स्थान पर मानव बह रहे हों। पता नहीं कहाँ से इतने लोग एक ही नगर में एकत्रित हो गए हैं और कहाँ आ-जा रहे हैं इतने लोग ? क्या करते हैं इतने लोग ? किन्तु हनुमान इनमें से किसी से कुछ नहीं पूछ सकते।

सीता का नाम मुख पर आते ही उन पर संदेह किया जा सकता है। इन राक्षसों ने मन में रावण के प्रति भक्ति भी होगी ही। किसी को भी संदेह हुआ तो तत्काल राजपुरुषों को सूचना हो जाएगी...ओर यह तो हनुमान ने देख लिया था कि प्रत्येक राजमार्ग पर अनेक राजपुरुष तथा सैनिक घूमते हुए दिखाई दे जाते थे। वे सैनिक साधारण दण्डधर नहीं थे-वे सशस्त्र सैनिक थे। उनके हाथों में सामान्यत: शूल या पट्टिश थे; कुछ चतुष्पथों पर धनुर्धारियों की टुकड़ियाँ भी देखी थीं। बीच-बीच में अश्वारोहियों की टोलियाँ भी दिखाई पड़ जाती थीं...

हनुमान उनसे भयभीत नहीं थे। युद्ध की बात और है; यहां तो वे जानकी का संधान करने आए थे। राक्षसों को संदेह हो गया और बात सैनिकों तक जा पहुँची तो अकेले हनुमान इतने शस्त्रधारी सैनिकों के साथ कैसे लड़ेंगे ! यदि वे बंदी हो गए या उनका वध हो गया तो जानकी का संधान कौन करेगा ?

वे राक्षसों की पकड़ में ना आए और लंका से निकल भागने में सफल हो भी गए तो सीता का संधान तो नहीं ही हो पाएगा, उल्टे कुछ अनिष्ट हो सकता है...नहीं !
हनुमान को बहुत सावधान रहना होगा।

झुटपुटा अंधकार में परिणत होता जा रहा था। एक और हनुमान की चिंता बढ़ती जा रही थी कि अंधकार में जानकी की खोज कहाँ करेंगे और दूसरी ओर उनके मन में आशा का संचार भी हो रहा था कि अँधेरे में वे कुछ अधिक स्वतंत्रता से लंका मं घूम-फिर सकेंगे। इस समय तो कहीं भी जाने पर उनके पहचान लिये जाने की संभावना थी.....

सहसा राजमार्ग के दोनों ओर लगे हुए राजकीय दीपक जलने आरंभ हो गए। अनेक सेवक उल्काओं तथा सीढ़ियों के साथ प्रकट हो गए थे और स्तंभों के साथ सीढ़ियाँ लगा, उल्काओं की सहायता से उन दीपकों को प्रकाशित करते जा रहे थे। गोधूलि वेला के समय जो छिटपुट-सा अंधकार छा गया था, दीपकों को प्रकाशित करते जा रहे थे। गोधूलि वेला के समय जो छिटपुट-सा अंधकार छा गया था, दीपक के प्रकाशित होने से अब वह अंधकार भी नहीं रह गया था। हनुमान की अपेक्षा के अनुसार मार्गों पर यातायात तनिक भी कम नहीं हुआ लग रहा था।

अंतर मात्र इतना ही था कि पहले मार्गों पर कामकाजी लोगों की भीड़ थी और मनोरंजनार्थ घूमने-फिरने वाले सैलानियों का बाहुमूल्य हो गया था। पहले भार ढोने वाले पशु तथा यात्रा करने वाले रथ मार्गों पर दौड़ते फिर रहे थे और जैसे-जैसे रात अधिक घिरती जाती थी, बहुमूल्य घोड़े वाले, सुंदर काम किए हुए, ऐश्वर्यपूर्ण रथों की संख्या बढ़ती जा रही थी।

कुछ रथ चारों ओर से पूर्णत: बंद थे, कुछ आधे खुले और कुछ पूरी तरह खुले थे। उनमें बैठे हुए राक्षस स्त्री-पुरुषों को
भली प्रकार देखा जा सकता था। उनके वस्त्र बहुमूल्य थे। उनके शरीरों पर विभिन्न प्रकार के अंगरागों, चंदन तथा कस्तूरी का लेप था। सारी देह पुष्पों तथा स्वर्णाभूषणों से ढँकी हुई थी।

स्त्रियों के शरीर से सुगंधों की लपटें उठ रही थीं। एक रथ निकल जाता तो घड़ी भर तक के लिए वायु सुगंधित हो उठती थी। हनुमान अनुमान लगा रहे थे-जितना धन एक स्त्री ने अपने शरीर को सुगंधित करने में व्यय किया था, उतने में निश्चित रूप से एक निर्धन परिवार के एक समय का भोजन खरीदा जा सकता था।

निरीक्षण करते हुए हनुमान मार्ग पर चलते गए। मार्ग पर आते-जाते लोगों की भीड़ के साथ सशस्त्र प्रहरियों की संख्या भी बढ़ गई थी। दिन के समान ही, रात को भी निर्द्वंद्व होकर घूम रहे थे....वरन् आश्चर्यजनक बात यह थी कि दिन के समय फिर भी मार्गों पर कुंभकर, श्रमिक तथा विभिन्न लोग दिखाई पड़ जाते थे; रात के समय उन्हीं मार्गों पर जैसे लंका का वैभव ही बिखर आया था।

लगता था, नगर के समस्त संपन्न लोग, अपने सर्वश्रेष्ठ परिधान धारण किए हुए अपनी संपूर्ण प्रसाधन-क्षमता का उपयोग कर प्रदर्शन के लिए बाहर निकल आए थे। आवश्यकता की छोटी-मोटी वस्तुओं की दुकानें तो बंद हो गई थीं, किन्तु बहुमूल्य आभूषणों और प्रसाधनों के बड़े-बड़े हाट खुले थे, जहाँ राक्षस स्त्री-पुरुषों की भीड़ लगी हुई थी।

साथ ही हनुमान ने आश्चर्य से देखा, दिन के प्रकाश में या तो उनका ध्यान इस ओर नहीं गया था, या दिन के समय बंद थे, रात्रि के साथ ही सब ओर अनेक भोजनालय दिखाई पड़ने लगे। भोजनालय बहुत भली प्रकार सज्जित और प्रकाशित थे। उनमें विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाए जा रहे थे, जिनकी गंध का आभास मार्ग चलते व्यक्ति को भी हो जाता था।

मांस के भुने और तले जाने की तीव्र गंध सब ओर व्याप्त थी। मदिरा के भाँड प्रमुखता से प्रदर्शित किए गए थे और अनेक भोजनालयों से नृत्य और गायन का भी स्वर आ रहा था।

बहुत सारा नगर घूम लेने पर सहसा हनुमान ठिठककर खड़े हो गए। ऐसे व्यर्थ घूमते रहने का लाभ ? इस नगर के लोग तो लगता है कि रातभर खाते-पीते व्यर्थ घूमते रहेंगे। उनके लिए प्रकाश तथा सुरक्षा की व्यवस्था इतनी अधिक थी कि कदाचित् वे देर रात अपने आमोद-प्रमोद और विलास में मग्न रहेंगे। कदाचित् इसलिए उन्हें निशाचर कहा जाता है। किन्तु हनुमान क्यों व्यर्थ ही स्वयं को थका रहे हैं ?

इन पथों में घूमने तथा भोजनालयों में झाँकने से तो जानकी का संधानन नहीं होगा। वे इन राक्षसों के समान भोजन करने के लिए यहाँ नहीं आएँगी और न कभी रावण ही अपहर्त्ताओं को लेकर यहाँ आता होगा....उन्हें अपनी खोज को सार्थक दिशा में मोड़ना चाहिए।

भूख का विचार मन में जग रहा था। प्रात: ही अपने साथियों के साथ स्वयंप्रभा के ग्राम में जो भोजन किया था, उसके पश्चात् से न उन्हें उसका विचार ही आया था और न उनको अवसर ही मिला था। पर इस समय भोजन कहाँ करेंगे ? सर्वसाधारण का जो वेश उन्होंने बनाया था, वह एक ही संध्या में दूसरी बार आड़े आ रहा था। इन भोजनालयों में केवल धनाढ़्य वर्ग के लोग ही आ-जा रहे थे।

वे इन राक्षसों में सर्वथा भिन्न दिखाई पड़ेंगे। किसी को संदेह हो गया तो इतना उद्यम कर, इतनी दूर लंका में आकर भी सीता का संधान नहीं हो पाएगा। भोजन की ऐसी क्या बात है, हनुमान के शरीर में इतनी क्षमता तो है ही कि एक-आध समय बिना भोजन के भी रह सकें...और फिर कहीं सुरक्षित ढंग से भोजन मिल भी गया तो उसके पश्चात् निद्रा की समस्या सताएगी।.....नहीं ! आज की रात न भोजन, न निद्रा....आज तो केवल जानकी का संधान.....

पण्यों और हाटों को पीछे छोड़ते हुए, हनुमान आगे बढ़ते चले गए-उधर, जिधर उन्होंन बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ देखी थीं।...किन्तु सहसा उनके पग रुक गए। ऐसे ही बढ़ते जाने का क्या अर्थ हुआ ? किसी से पता तो कर लें कि रावण का महामहालय है किस ओर; अन्यथा यदि उसकी विपरीत दिशा में ही बढ़ते चले गए तो लौटने में ही उषाकाल हो जाएगा।
उन्हें इस प्रकार स्तंभित-से खड़े देख, एक सशस्त्र राजपुरुष आकर उनके सम्मुख रुक गया, ‘‘ए वानर ! यहाँ क्या कर रहा है ?’’
हनुमान कुछ चकित हुए। बिना कोई प्रश्न किए ही उस राजपुरुष ने उन्हें पहचान लिया था। इसका अर्थ यह हुआ कि ये लोग वानर जाति के व्यक्ति को अलग से पहचान लेते हैं। तो वानर यहाँ आते-जाते रहते होंगे। पर उस राजपुरुष के स्वर में तनिक भी शिष्टता नहीं थी।

‘‘मैं एक निर्धन परदेशी हूँ, भाई !’’

‘‘वह तो देख रहा हूँ।’’ राक्षस कठोर स्वर में बोला, ‘‘इस समय यहाँ व्यर्थ डोलते मत फिरो। चोरी के आरोप में धरकर कोई दास बना लेगा, तो सारा जीवन उसकी सेवा में हड्डियाँ घिसते रहोगे।’’ उसने रुककर अँगुली से एक ओर इंगित किया, ‘‘जाओ उधर, सागर-तट पर निर्धनों और दासों के मुहल्ले में कहीं पकड़कर रात काट लो। इस समय यह स्थान लंका के धनाढ्य निशाचरों के विलास का है।’’

हनुमान को लगा, वे तत्काल टल नहीं गए तो बात बढ़ जाएगी वह राजपुरुष शस्त्र निकाल लेगा।

वे चुपचाप आगे बढ़ गए। वे तो स्वयं ही किसी से कुछ पूछने की सोच रहे थे और यह बिना पूछे ही स्थिति यह हो गई कि एक स्थान पर रुकने में भी खतरा लगता था। यदि हनुमान के मन में एक लक्ष्य न होता, यदि वे सीता के संधान की दृष्टि से यहाँ न आए होते तो उन्हें इन राक्षसों से तनिक भी घबराहट न होती। इस राजपुरुष को भी उन्होंने उपयुक्त पाठ पढ़ाया होता.....किन्तु उनके सामने अपना लक्ष्य है।

वे न तो अपने लक्ष्य से तनिक भी हट सकते हैं और न ही किसी भी ऐसे काम में उलझना चाहते हैं, जिससे लक्ष्य-प्राप्ति में व्यवधान उपस्थित होने की संभावना हो। जीवन में अपना लक्ष्य लेकर चलने वाला व्यक्ति इधर-उधर के स्फुट आकर्षणों तथा संघर्षों में नहीं उलझता।

वह तो वन्य-शूकर के समान सिर झुकाए चलता है और सीधा अपने लक्ष्य पर प्रहार करता है। बात बड़ी सीधी है-या तो छोटे-मोटे झँझटों को सुलझाते चलो, या फिर सीधे अपने महान लक्ष्य तक पहुँचो। दोनों बातें तो एक साथ संभव नहीं हैं....
अनेक कंठों के सम्मिलित हास्य की ध्वनि से हनुमान चौंके।



प्रथम पृष्ठ

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्ह्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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