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मुझे मुक्ति दो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2908
आईएसबीएन :81-8143-290-8

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तसलीमा नसरीन जिस हाल में है इसी का रोजनामाचा है ‘मुझे मुक्ति दो’।

Mujhhe mukti do

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दीर्घकाल तक अपनी धरती पर प्रवासी बनी हुई थीं इस युग की अग्निकन्या तसलीमा नसरीन। आज वह सचमुच प्रवासी हैं। किस हाल में है वह निर्वासित नारी?
वह जिस हाल में है इसी का रोजनामाचा है ‘मुझे मुक्ति दो’। अपने आँसुओं को कलम में डुबोकर तसलीमा नसरीन जैसे लगातार अपने दिल की आग का स्पर्श किये जा रही हैं। वह आग कभी सवाल उठाती है-‘अपने देश में थी प्रवासी/अब परदेश में प्रवासी/तब कहाँ है मेरा देश ?’ कभी वह बेहद कातर होकर कहती हैं-‘असल में भात के स्पर्श से भात नहीं/लगता मुट्ठी में आ जाता है भरपूर बांग्लादेश।’ इसके साथ उनके सामने वह अन्तराष्ट्रीय परिदृष्य उजागर होता है जहाँ ‘नारी निर्यातित पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण/नारी निर्यातित घर में, बाहर/नारी निर्यातित काले केशों वाली हो या सुनहरे/आँखें उसकी भूरी हों या नीली।’ इस सत्योद्घाटन और आत्मोन्मोचन का ही एक अनन्य प्रतिवेदन है यह भिन्न प्रकार का एक काव्य संकलन-‘मुझे मुक्ति दो’

फिर भी लौटूँगी


प्रतीक्षा करना मेरी मधुपुर, नेत्र कोना
प्रतीक्षा करना जयदेवपुर के चौराहे
मैं वापस लौटूँगी।
लौटूँगी भीड़ में, शोरगुल में, सूखे में, बाढ़ में,
प्रतीक्षा करना मेरे चार छाजन वाले घर, आँगन, नीबू तला,
गोल्लाछूट के मैदान
मैं लौटूँगा।
पूर्णिमा के गीत गाने, झूला झूलने,
बाँसवन के ताल में मछली पकड़ने—
प्रतीक्षा करना मेरी अफजल हुसैन, खैरून्निसा
प्रतीक्षा करना इदुलआरा,
मैं लौटूँगी।
लौटूँगी प्रेम के लिए, हँसने के लिए, जीवन की डोरी में फिर से
सपने गूँथने के लिए—
प्रतीक्षा करना मेरी मोतीझील, शांतिनगर,
प्रतीक्षा करना फरवरी के पुस्तक मेले,
मैं लौटूँगी।
उड़ रहे हैं बादल पश्चिम से पूर्व दिशा में
उन्हें सौंपती हूँ अपने आँसुओं की कुछ बूँदें,
कि वे जाकर बरस जाएँ घोल पोखर के घर की टीन की छाजन पर
एक बार
जा रहे हैं जाड़े के पंछी पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर
वे गिरा आएँ अपने एक-एक पंख,
सिवार भरे ताल में, शीतलक्षा में, वंगोपसागर में।
ब्रह्मपुत्र सुनो, मैं लौटूँगी।
सुनो शालवन विहार, महास्थान गढ़, सीताकुंड पहाड़—
मैं वापस लौटूंगी।
अगर न लौट पाऊँ, मनुष्य के रूप में, लौटूँगी किसी दिन
पंक्षी ही बनकर।


सोल निलसन



माह में दो बार
आती है मुझे देखने डलवी से एक लड़की
सोल निलसन नाम की
पार कतके छः घंटे की दूरी।
लाती है साथ में पापड़, काजू, इमली, आम का अचार,
रसगुल्ले की रेसिपी।
सोचती है शायद मिले मुझे इससे
अपने देश की कुछ गंध और स्वाद।
रखती है करीने से
वह मेरे कपड़े, किताबें, बर्तन।
करती है साफ वैकुअम क्लीनर से फर्श पर पड़ी सिगरेटों की राख,
शाम ढलने से पहले ही खिड़की पर रखती है मोमबत्ती।
फिर वह भागती हुई जाती है कैसाम में।
खरीदती है फूल
खरीदती है टोकरी भरकर मांस-मछली, पैप्रिका, संतरे आदि
खाना पकाती है, परोसकर मुझे बुलाती है
मेरी व्यस्तता के बीच मुझे बार-बार पिलाती है चाय
काफी हद तक मेरी माँ जैसी है वह लड़की।
विमान की आवाज सुनकर आसमान की ओर देखती हुई
सोचती है मेरी माँ
कि मैं वापस लौट रही हूँ अपने देश।
रखती है सँभालकर मेरी दुखियारी माँ मेरा कमरा,
मेरा बिस्तर, मेरा तकिया।
आँसुओं से उनकी आँखों के नीचे हो गए हैं घाव—
एक दिन जब मैं वाकई अपने देश वापस लौटूँगी,
डलवी के बर्फ ढके पथ पर चलती हुई रोएगी सोल निलसन,
मेरी स्मृतियों को वह सँवारेगी दोनों वक्त,
कभी वह भी आसमान में विमान के शब्द सुनकर सोचेगी
शायद उसमें हूँ मैं।
आखिर जरूरत ही क्यों हो किसी को देश की
दिल में भी हो सकता है एक-एक
निरापद स्वदेश।
मेरी माँ के आँचल में बसी होती है जिस तरह
अपने देश की गंध,
सोल निलसन के कपड़ों से भी आती है
वही गंध।

मैथुन


मन ही मन खुद बनती हूँ खुद की प्रेमी
उतारती हूँ कपड़े, चूमती हूँ नाभि, अपने स्तन।
जब जाग उठती है देह आधी रात को, तड़के,
खुद ही करती हूँ मैथुन।
सुदूर मरुभूमि में तैरकर एक बूँद जल में
शांत करती हूँ नदी की पिपासा।


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