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धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे

दूधनाथ सिंह

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2920
आईएसबीएन :81-7055-822-0

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानी संग्रह.....

Dharmkshetre Kurukshetre

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दूधनाथ-सिंह का यह पाँचवा कहानी संग्रह है। इस संग्रह की सारी कहानियाँ पिछली शताब्दी के अन्तिम दशक में लिखी गयीं, सिवा एक कहानी ‘दुर्गन्ध’ को छोड़कर, जो श्री भैरव प्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित ‘समारंभ’ के प्रवेशांक में सन् 1972 में छपी थी।

कहते हैं कि एक बड़ा कवि एक ही कविता बार-बार जीवन भर लिखता है लेकिन एक बड़ा कथाकार हर बार एक अनहोनी और अलग कहानी लिखता है। दूधनाथ सिंह ने कभी अपने को दुहराया नहीं इसलिए उनकी संवेदात्मकता अन्वेषण और नवोन्मेष हर बार पाठकों को हैरत में डालता है और अक्सर उन्हें अस्त-व्यस्त कर देता है। लेकिन अपनी हैरानी और अस्त-व्यस्तता के बावजूद पाठक को हरबार एक ही अनुभूति होती है-

    देखना तकरीर की लज्जत कि जो उसने कहा
    मैंने ये जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है।

प्रस्तुत संग्रह की कहानियों में लोक-रंग का एक अदभुत प्रवेश हुआ है। कहानी की अन्तर्वस्तु, स्थितियों और प्रभावों को एक वृहत्तर पाठक-वर्ग तक ले जाने की क्षमता से युक्त भाषा अपनी विविध-वर्णी संरचना, सहजता, अनायसता और निपट सरलता को यहाँ उपलब्ध कराती है। बात को बखानने का एक नया ढंग जो कहानीकार और पाठक को एकमेक करता है-इसी रूप में यह कथाकार कहानी की दुनिया में व्याप्त फन और फैशन से अलग कहानी को किसी भी संक्रमक ‘रीति’, ‘नीति’ से मुक्त करता हुआ भारतीय जनता के यथार्थ को उदघाटित करने का एक दुस्साहसिक प्रयत्न करता है।
‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ इसी जनोन्मुख यथार्थ का एक दस्तावेज है।
 

काशी नरेश से पूछो


बर के पत्तों से ओस टप-टप बरखा की तरह चूने लगी तो लंगड़ कौड़े से उठे। साथ में अँगड़ाई लेता हुआ कुत्ता भी उठा। ‘चलो, कुकुर—भगत अब सोने चलें, कचबचिया सिर पर आ गयी’ लंगड़ ने एक बार आसमान की ओर देखा, फिर ओसारे में चले गये। लंगड़ पहल पर बिछे चीकट बिस्तरे पर बैठ गये और कुत्ता पैताने। उन्होंने अपनी तेलचट दोहर थोड़ी कुत्ते पर भी डाल दी। फिर उन्होंने अगल-बगल ताका। सात-आठ लोग रजाइयों में किंकुरी मारे एक लाइन से लेटे थे।
‘‘बड़ी गजब की ठण्डी है।’ लंगड़ ने हथेली पर सुर्ती मलते हुए जैसे अपने-आप से कहा।
रजाइओं में कुछ हरकत हुई। ‘कहां गये थे लंगड़ ?’ किसी ने अँधेरे में पूछा।

‘कासी जी।’ लंगड़ के सुर्ती ठोंकने की आवाज़ आयी।
‘कासी जी ?’ कोई अँधेरे में उठ कर बैठ गया, ‘किराया कहाँ से पाये लंगड़बीर ?’
‘बेटिकट।’ लंगड़ ने सुर्ती गोंठियाते हुए कहा।
‘बेटिकट ?...कहूँ धरे नहीं गये ?’
‘साधु-संत को कोई नहीं पूछता।’ लंगड़ ने पिच्च-से अँधेरे में थूकते हुए कहा।
‘ससुर..जनम के पतित..पापिष्ठ, साधु-सन्त बने हैं !’’ कोई दूसरी रजाई में से भुन्न-से बोला।

‘जनम के पतित ? कुछ जानो न सुनो। जनम के पतित ही असली साधु-सन्त होते हैं। गोसाईं जी ने ऊ का कहा है...मों सम कौन कुटिल खल कामी...!’ लंगड़ ने कहा।
‘अच्छा-अच्छा, आपन ज्ञान-ध्यान अपने पास रखो। ई बताओ हूँआँ क्या-क्या देखा ?’ किसी ने अँधेरे में फिर सवाल किया।
‘कासी जी के खूब दर्शन किये।’
‘असनान किये कि नहीं ?’
‘नाहीं।’
‘नाहीं ? तब का करे गये रहो ?’

‘अब गंगा जी नहाने लायक नहीं रहीं हो ! बजबजाती रहती हैं। पानी है जैसे पिछुआरे की गड़ही। बाकी, खूब घाट-घाट घूमे। फिर भी क्या देखा ? पतित-पावनी घाट पर गोबर, चिरकुट-चिथड़े हवा में उधियारे रहते हैं। जहाँ जानवर भी बैठता है, पूँछ से झार-बुहार कर बैठता है। कोई पूछो, इसी तरह कासी जी की भगती करते हो ? बाकी, पूछे कौन ? सब तो उसी में सने हैं। ऊपर से देस-देसावर के लंठ, बनरमुँहाँ गोरे नाव पर बइठ के गाँजा पीते हैं। सन्तई का बाना बनाये फिरते हैं। अगड़बम् बोलते हें। और राम जी केंवट इँगरेजी छाँटते हैं। नीचे उतरो तो दोनों ओर लाइन लगाये कोढ़ी, भिखमंगे औरत-मरद भिनभिनाते रहते हैं। घाट क्या हैं, कुम्भीपाक नरक हैं। कासी जी की दुर्दशा है। अब नहीं जायेंगे। गये थे गोसाईं जी दर्सन करने। बहुत खोजा, बाकी कहूँ मिले नहीं। मूरख बहुत मिले और गरब था कि बड़े पंडित-ज्ञानी हैं।
‘तो सास्त्रारथ हुआ कि नहीं ?’ किसी ने पूछा।
‘हुआ काहे नाहीं।’

‘कौने विषय पर दंगल लड़ा ?’
‘सबद’ पर। ‘सबद’ की लड़ाई हुई।’
‘सबद’ पर कइसे ?’
‘हमने कहा, एद-वेद, पोथी-पुरान, खूँट-खान, बरम-बेदान्त, सबद-संसार—जो चाहो रख लो। हम राजी हैं।’
‘तब ?’
‘तब क्या, घाट पर भीड़ जुटने लगी। दोनों ओर से चिमटा गड़ि गया। लोगों ने कहा, बड़ा तेजस्वी पंडित है। हम भी थोड़ा डरे। अँगार जैसा तपता हुआ चेहरा, नैनों में गाँजे की ललाई, बदन पर भभूत। लेकिन हमने मन ही मन कहा, बेटा, तूँ जनते नहीं। हमरी एक टाँग अइसे ही नहीं छोटी हो गयी। ज्ञान का डंडा हमारी गुरुआइन में अइसा कस के मारा की टाँग तो गयी, लेकिन बिद्या कपार में चढ़ गयी। देखते हैं, आज किसका चिमटा उखड़ता है !’
‘फिर ?’

‘बोल, क्या लड़ेगा ?’ पंडित गरजा।
‘जो आपकी इच्छा हो बाबा !’ हमने धरती माता को सीस नवा कर कहा।
‘पंडित के मुँह लगता है ?’ ब्रह्मराज फिर गरजा।
‘हम तो ज्ञान के मुँह लगते हैं देव !’ हमने उत्तर दिया।
‘जानता है, हम आदि शंकराचार्य के चेले हैं। बारह सौ बरिस की उमिर है हमारी। ‘पंडित ने कहा।

‘तब तो तुम्हारी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी होगी लंगड़ भगत !’ कोई अँधेरे में रजाई में मुँह निकाल कर हँसा।
‘सिट्टी-पिट्टी काहे गुम होगी। लेकिन हमने सोचा कि सरवा है असली बनारसी। बारह सौ बरिस की उमिर बताता है। सो, हमने मिनमिना कर कहा, ‘हमरी उमिर तो अबहीं पाँचे बरस की है बाबा !’
‘समझ गया’, पंडित ने कहा, ‘ज्ञान का गंदेला है।’
‘यही मान लें देवता ! हमने कहा।
‘और तुम्हारे गुरु कौन हैं ?’ पंडित ने फिर दागा।

‘हमरे गुरु नहीं, गुरुआइन रहीं बाबा !’
घाट पर बड़ जोर का ठहाका गूँजा। मजमा बढ़ने लगा।
‘गुरुआइन का चेला है ?’ पंडित बिगड़ गया।
‘हमारी गुरुआइन भी एक मुसहरिन थीं बाबा !‘ हम विनयपूर्वक बोले।
‘मुसहरिन का चेला ? और हमसे शास्त्रार्थ करेगा ? वेदान्त दर्शन पर ? पंडित ने ललकारा।
हमने सोचा, यही मौका है। चढ़ बैठो लंगड दास ! तुम्हारे बाप ने भी न कभी बचपन में ‘सिद्धांत कौमुदी’ रटायी थी। सो, हमने उँगली नचा कर नकियाते हुए कहा, ‘वेदान्त को बहुत जानता है, लेकिन ‘सबद’ को नहीं जानता है !’
‘सबद ? सबद’ क्या है ?’ पंडित ने हैरान होकर कहा।

‘‘सबद’ नहीं जानते तो चिमटा उखाड़ ले।’ हमने लंगड़ी टाँग हवा में घुमा दी।
‘पहले बताओ ‘सबद’ क्या है ? तब हम अखाड़े में उतरेंगे।’ पंडित ने छाती पर थाप दिया।
‘सबद नदी-नारा है। सबद समुन्दर है। सबका आकास-अन्तरिच्छ है। सबद पुरुख-पुरातन है। सबद बाघ का बच्चा है। आन-बान है। मरन है। सबद माता का नैन है। जल है। धरती है। पत्ता है। धन है। चिरई-चुरुङ् है सबद। सबद बीज है। हवा है। गुरुआइन का डंडा है। धन है। जीवन है। सबद ब्रह्माण्ड है। सुरग, नरक है। सबद ओंकार है।’ हमने व्याख्या दी।
‘यह सब तो हम जानते हैं।’ पंडित ने कहा।
बड़े ज्ञानी बनते हो तो बताओ, सबद में ‘ओंकार’ क्या है ?’ हमने फिर पलट कर पूछा।
‘ओंकार ब्रह्मा के मुख से निकला हुआ प्रथम शब्द है।’ पंडित ने जवाब दिया।

‘झुट्टा कहीं का ! नहीं आता तो चिमटा उखाड़ ले।’ हमने डंडा घुमा कर फेरा।
‘नहीं कैसे आता ?’ पंडित दफसट में फँस गया।
‘ओंकार ब्रह्म के मुख से निकला हुआ सबद नहीं है।’ हमने कहा।
‘फिर तू ही बता न, ओंकार क्या है ?’ पंडित ने फिर बनरघुड़की दी।
‘ओंकार ? हम बताएँ....हिमालय महाराज के एक कान से पैठ कर जो हवा दूसरे कान में सीटी बजाती हुई निकल गयी—वही ओंकार है। समझा ?’ हमने हँस दिया।
सारी सभा ‘बाह-बाह’ बोल उठी।

‘यह तो हम भी जानते हैं।’ हमने उँगली टेढ़ी करके नचायी, ‘जो हम बता देते हैं वही तू जान जाता है। बाह रे ज्ञानी ! चलो, जनता-जनार्दन की साखी दे कर तुम्हारी यह बात भी हम मान लेते हैं। बाकी हम फिर कहते हैं-वेदान्त को जानते हो; बारह सौ बरिस उमिर है तुम्हारी, ओंकार को भी जानते हो, लेकिन ‘सबद’ को फिर भी नहीं जानते।’ हमने फिर पाँसा फेंका।
‘कैसे नहीं जानते ?’ पंडित को हँफनी छूटने लगी।
‘जानते हो तो पूछते हैं, बताओ।’
‘पूछो।’
‘अँठई’ सबद कइसे बना है। और उसका अरथ क्या है ?’

‘‘अँठई ?’ पंडित का मुँह भरुका की तरह खुल गया, ‘अँठई तो एक कीड़ा होता है।’ उसने क्रोध में आ कर कहा।
‘कीड़ा है तो ‘अँठई’ क्यों कहते हैं ?’ हमने और दबाया।
‘अँठई’ नाम है।’ पंडित घबराने लगा।
‘अँठई’ नाम क्यों है ?’ पंडित को कोई जवाब नहीं सूझा।
‘मूरख है—मूरख ! कहता है, नाम तो नाम होता है। हमसे पूछ कि नाम क्या होता है ?’ हमने दौड़ाया।
‘क्या होता है नाम ? बताओ न लंगड़ पंडित ? सभा बोल उठी।
‘नाम वेद-वेदान्त होता है। नाम के माता-पिता होते हैं। परदादा होते हैं। नाना-नानी होते हैं नाम के।’ हमने कहा।
‘वह कैसे ? पंडित अचम्भे में पड़ गया।

‘वह कैसे ? हमने सभा की ओर देखा, ‘सुन लो ज्ञान के सगोतियों, हमीं से पूछता है यह—वह कैसे ? अरे, इससे पूछो, क्या यह मुर्गी के अण्डे से पैदा भया है। अरे मूरख, जैसे तेरे माता-पिता होंगे, नाना-नानी, पूरा कुटुम-कबीला, पुरुख—पुरान होंगे कि नहीं ? वैसे ही ‘सबद’ के भी होते हैं। अब तुझे समझाते हैं। देख : ‘अँठई’ सबद हमने तुझसे पूछा, तो उसका बंश बिरिछ इस प्रकार है : अष्टपजी-अट्ठपई,-अट्ठअई-अँठई। अर्थात् ‘अष्टपदी’ अँठई’ की परनानी थी। समझा ? और अष्टपदी माने आठ पैरोंवाली। जा, अब एक अँठई पकड़ के ला, और मेरे सामने गिन उसके पैर।’
‘अँठई कहाँ मिलेगी ?’ पंडित घबरा गया।
‘कुकुर के काने में’ भीड़ में से कोई बोला।

तो बाँम्हन गया और कुकुर के काने से अँठई निकाल के ले आया। भरी सभा में उलट कर उसके पाँव गिने। साबुत आठ निकले।
‘जानता है ‘अँठई’ के आठ पैर क्यों होते हैं ?’ हमने पूछा।
‘नहीं महाराज !’ बाँम्हन ने दीन-हीन हो कर कहा।
सारी सभा हँस पड़ी। हमने कहा, ‘चल तुझे यह भी बता देते हैं। अँठई चार पैरौं से चारों बरन की चमोख लेती है। दो पैरों से आकास और धरती को और दो पैरों से बिस्नु भगवान और लक्ष्मी जी को। चपक जाती तो चपकी रहती है, जब तक चारों बरन धरती-आकास, बिस्नू भगवान और लक्ष्मीजी—सभी को परमपूर चूस नहीं लेती। फिर जानता है, क्या होता है ? फिर अँठई फूल कर नर्र-गर्र हो जाती है। फिर उसके पाँव ढीले हो जाते हैं। और वह मद्दाई हुई धरती पर गिर कर रेंगने लगती है। तब लोग उसे पैरों से कुचल देते हैं। फिच्च से खून निकलता है और इसकी इहलीला खतम हो जाती है।’
‘समझ गया लंगड़ देव !’ बाँम्हन ने कहा।
‘क्या समझ गया ?’ हमने डाँटा जोर से।

‘यही कि अँठई क्या होती है।’
‘अँठई क्या होती है, यह तो समझ लेकिन फिर भी ‘अँठई’ को नहीं जानता।’ हमने फिर उँगली नचायी।
सारी सभा सन्नाटे में आ गयी।
‘वह कैसे भगत जी !’ बाँम्हन से पूछा।
‘पहले तू अपना चिमटा उखाड़ और गंगा जी में फेंक दे। तब हम बता देंगे।’ हमने कहा।
बाँम्हन ने चिमटा उखाड़ कर गंगा जी में फेंक दिया।
‘अब तेरी मुकुति भई। अब तेरे मुरदा ज्ञान ने जल-समाधि ले ली। अब तू सुन, जो सच्चा ज्ञान है। यह कथा मेरे गुरुआइन ने सुनाई थी।’ हमने धरती आकाश के देवी-देवता का सुमिरन किया। रेत-परेत, बंस-निरबंस का ध्यान किया। और सभा से आज्ञा ली, ‘तो भाई लोगों, जति आदेश हो तो दे दें इस बाँम्हन को यह सबद-ज्ञान ?’
‘हाँ-हाँ महाराज !’ चारों ओर से आवाज आयी।

‘हमने जो कथा सुनाई, वही तुम लोगों को भी सुनाते हैं। लेकिन सोना मत हुँकारी पारते रहना।’
‘ठीक है, ठीक। बारी-बारी से हुँकारी पारते रहेंगे।’
‘तो सुनो, हमने जो कथा सुनाई।’

पुरूब जनम में भी हम एक बाँम्हन थे। और हमारी इस जनम की सँघातिन, हमारी गुरुआइन उस जनम की हमारी घरवाली। बहुत दरिद्र बाँम्हन थे हम। पुरखों का खँडहर, जिसमें साँप, बिच्छी, कीरा-फतिंगा ज्यादा रहते थे, मानुस-मनई कम। बस, दो परानी थे हम। बाँम्हन के धन के नाम पर क्या था ! पाँवों में एक जोड़ी खड़ाऊँ, एक ठो जनेऊ और सिर पर शिखा। बस, इसी को लिये मगन रहते थे हम। ब्रह्म-मुहूर्त में गंगा-असनान कर, त्रिपुंड लगा निकल जाते जजुमानों के गाँवों की ओर। दिन-भर होम-जाप करते। जो सीधा-सत्तू मिल जाता, गँठिया कर संझा बेला घर लौटते। हमारी ब्राह्मणी भोजन पकाती। खा-पका कर हम दोनों परानी अगले दिन की जुगाड़ की चिन्ता करते। सुख था कि दुख—यह नहीं जानते थे। पुरखों ने जीवन दिया था, उसी का निबाह कर रहे थे। तो एक दिन हम भोरहुरे गंगा-असनान को जा रहे थे। रास्ते में खिल्ला बाबा का कीचड़ पड़ता था। जब पीपर तरे से गुजरे तो खिल्ला बाबा के परेत ने पीपर को इतने जोर से हिलाया, जैसे अंधर-तूफान आ गया हो। हम खड़े के खड़े गायत्री मंत्र का जाप करने लगे।

‘क्या जपता है ?’ खिल्ला बाबा का परेत गरजा।
‘कुछ नहीं महाराज ! बाकी, हमसे का गलती भई ?’ हम थरथर काँपने लगे।
‘जप-तप से कुछ नहीं होगा—समझा ?’ परेत बोला।
‘तो क्या आज्ञा है महाराज ?’
‘ब्राह्मणी भूखी रहती है और तू जप-तप करता है ?’ परेत ने डाँटा।
‘तो क्या करें बाबा ?’

‘जा...यह रास्ता छोड़ दे। आज से छोड़ दे यह रास्ता। दूसरे मारग से जा।’ परेत ने कहा।
दूसरे दिन से हमने वह रास्ता छोड़ दिया। जहाँ कोई राह नहीं थी उधर से ही गंगा जी की दिशा पकड़ी। गहन अन्धकार था। चैती कट चुकी थी। आक-जवास काँट-कुस लाँघते हुए नारे-नारे हम आगे बढ़े। देखते क्या हैं कि बड़की कुँवाटि आ गयी। उधर से राति-बिराति कोई नहीं जाता था। खेंखर, सियार, साही, हुँड़ार भाँति-भाँति के जानवरों का निवास होता था वहाँ। तभी हमने देखा कि कुँवाटि में जो जगमग अँजोर है। यह कौन-सी बात हुई ! क्या इधर भी कोई भूत परेत लुकार बारे है ! हमने सोचा, पीछे लौट चलें। फिर सोचा, इस करमहीन बाँम्हन की परीक्षा ले रही हैं। क्या करें, क्या न करें—इसी दुविधा में खड़े होकर हम उस झक-झक अँझोर को देखने लगे। हमारी तो टकटकी बँध गयी।

‘डरो मत बाँम्हन देवता, पास आओ।’ उस भोर बेला आकास—अन्तरिच्छ में जैसे कहीं बहुत दूर से लौटते हुए बादल की घन-गर्जन की-सी आवाज सुनाई दी।
हमने नजर घुमा कर इधर-उधर देखना प्रारम्भ किया। कौन है यह, जो इस दीन-दुखी बाँम्हन को इतने आदर से इस भोर-बेला पुकार रहा है ! तभी हमने देखा कि अपनी मणि के पास फन उठाए नाग-देवता लहरा-लहरा कर हमें अपने पास बुला रहे हैं। देखते ही देखते हम थोड़ी दूर सरक गये।
‘‘क्या विचार है शेषनाग जी ! क्या आज हमारी बारी है ?’ हमने हाथ जोड़ कर कहा।
‘जनम-जनम से हम तुम्हारी राह देख रहे हैं बाँम्हन देवता ! हमसे इस तरह दूर न जाओ।’ सर्पराज बोले।
‘क्या चाहते हैं नागदेवता ?’ हमने पूछा।
‘यह मणि उठा लो और घर लौट जाओ।’ नाग देवता बोले।

‘आप जानते हैं, हम बाँम्हन हैं ?’
‘जानता हूँ।’
‘तो आप यह भी जानते होंगे कि अगर आप हमें धोखे में डँस लेंगे तो हम इस कुँवाटि के बरम बन कर आपकी आदि-औलाद को निरबंस कर देंगे ?’
जानता हूँ देव, और वचन देता हूँ कि ऐसा नहीं होगा।’ नागराज की आवाज आयी।
‘नहीं, आप थोड़ी दूर हट जाइए।’ हमने कहा।
नागदेवता मणि से काफी दूर हट गये। तब हमने लपक कर मणि उठायी और धोती के फेंटे में लपेट कर कमर में बाँधा। ऊपर से मिर्जई खींच कर फेंटे को ढँक लिया। लोटा-डण्डा उठाया और तेजी से घर की ओर लौट पड़े।
‘अब तो विश्वास हो गया होगा बाँम्हन देवता ?’ नागराज की आवाज आयी।
‘हाँ महाराज !’ हमने बिना मुड़े जवाब दिया।

‘तो एक बात और सुनते जाइए।’
मन में शंका तो हुई लेकिन हम फिर भी रुके और पलट कर नागदेवता की ओर देखा।
‘यह तो दुआरे की मणि है। कुँवाटि में मेरा बिल है। उसमें असंख्य मणि-रतन, हीरे-मोती, स्वर्ण, धन सम्पत्ति भरी पड़ी है। ऐसा करिये कि आप के फेंटे में जो मणि है, उसे घर रख कर फिर आइए। वह सब सम्पत्ति आपकी है। लेकिन अबकी आइए तो दो बड़े-बड़े झोले जरूर लाइए।’

हमने हाँ कर दी और तेजी से लौट चले। माया का अजब आलोक हमारे फेंटे से फूट रहा था। हम जल्दी से दरवाजे पहुँचे और सीधे चुहानी घर में। पीछे-पीछे चकित पंडिताइन आयीं। हमने कहा, डरो मत और अपना फेंटा खोलने लगा। फेंटा खोलते ही मणि धरती पर गिरी और उस पूरे अँधेरे घर में जैसे चाँदनी बिछ गयी। हमने पंडिताइन से कहा कि इस मणि को जल्दी से कूँड़े में बन्द कर के उसका मुँह मिट्टी से पूर दें। उन्होंने वैसा ही किया। तब जाकर हम निश्चिन्त हुए। फिर पूरी कहानी सुनाते हुए हमने अपनी शंका ब्राह्मणी के सामने रखी। हमने कहा कि ‘लगता है, मणि देकर उस सर्पराज ने हमें लालच के फन्दें में फाँस लिया है। अब वह कहता है कि उसका बिल खोदकर अनन्त धन-राशि हम बटोर लें और झोले में भरकर घर ले आयें। आखिर हम पर वह इतना कृपालू क्यों है ! हमने कौन सा पुन्न किया है ! हमें भान हो रहा है कि जब हम बिल खोद रहे होंगे तो वह सर्पराज अनचक्के में हमें डँस लेगा।’

लेकिन हमारी ब्राह्मणी तो हमसे भी बीस निकली। मणि देखते ही उसकी मति फिर गयी। उसने कहा, ‘अगर तुम्हें खजाना मिल गया तो हम लोग राजा हो जायेंगे। यह जो हमारे गर्भ में तुम्हारा वंसधर पल रहा है, यह उसी का पुन्न-परताप है। फिर वह और उसकी सन्तानें—आगे सहस्रों वर्षों तक सुख-चैन करेंगी। तुम्हारा डर बेकार है। बिना जिउ दिये कुछ नहीं मिलता। और सच बात यह है कि परीच्छा की घड़ी में हर बार तुम कायर सिद्ध होते हो। लेकिन इस बार चूके तो गये। फिर भिच्छा-पात्र लिए ऐसे ही दर-दर डोलते रहोगे। इसलिए हिम्मत और चालाकी से काम लो और यह लोहबन्ना अपने बगल में ही रख कर बिल खोदना। और कायदे से खोदना। जल्दीबाजी मत करना। कहीं कोई मणिरतन तुम्हारी मूर्खता और आपाधापी में मिट्टी में दब न जाय।’

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