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यशोधरा

मैथिलीशरण गुप्त

प्रकाशक : साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2991
आईएसबीएन :000000

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यशोधरा के जीवन पर आधारित साहित्य....

Yashodhara

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मैथिलीशरण गुप्त साहित्य की एक चर्चित पुस्तक यशोधरा इसमें यशोधरा के जीवन पर प्रकाश डाला गया है।

शुल्क


भाई सियाराम शरण,
तुम कहानियाँ लिखते-पढ़ते हो। सुनो, एक कहानी।
सन्ध्या हो रही थी। किसी गाँव के एक कृषक गृहस्थ के चत्वर पर कोई हारा-थका पथिक अपनी पोटली रखकर बैठ गया और अपने दुपट्टे के छोर से व्यजन करने लगा। गृहस्थ ने घर से निकल कर कहा—‘‘महाराज, यहाँ ठहरने का स्थान गाँव के बाहर का शिवालय है।’’ आगन्तुक ने दीन भाव से कहा—‘‘भैया, हमें कुछ न चाहिये। थके माँदें कहाँ जायेंगे ? रात-भर यहीं एक ओर पड़े रहने दो। सबेरे अपना मार्ग लेंगे।’’
‘‘कुछ कथा-वार्ता रामायण आदि कहते हो ?’’

‘‘यदि इसके बिना आश्रय न मिले तो कुछ सुना दूँगा।’’
‘‘तब पड़े रहे।’’
गृहस्थ भीतर गया। तनिक देर में उसका लड़का बाहर से आया। पथिक को उसी भाँति उससे भी निबटना पड़ा। परन्तु वह माता (देवी) के भजनों का प्रेमी था। पथिक ने उसके लिए हामी भरी।
थोड़ी देर में उसका भाई आ पहुँचा। उससे भी वही झंझट। वह आल्हा का रसिक था। पथिक को आल्हा सुनाना भी स्वीकार करना पड़ा।

रात में जब खा-पीकर बैठे। पथिक का शरीर चूर-चूर हो रहा था इधर श्रोता अपनी-अपनी कह रहे थे। गृहस्थ ने कहा—
‘‘महाराज हो जाने दो एक आध चौपाई।’’ छोटे लड़के ने क्रमभंग करते हुए, बड़े भाई के कुछ कहने के पहले ही कहा—‘‘कहाँ की चौपाई ? महाराज, आल्हा होने दो, मैंने पहले ही कह दिया था।’’ बड़े लड़के ने बिगड़कर कहा—‘‘मूसल बदलना है हमें आल्हा से ? महाराज, माता का भजन आरम्भ करो !’’
सब अपनी-अपनी बात के लिए हठ करने लगे। पथिक ने किसी भाँति बैठकर कहा—‘‘भाई, मुझे लेकर क्यों आपस में कलह करते हो ? लो सब सुनो—


मंगल-भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सो दशरथ अजिर-विहारी।

यह हुई कथा !

दिन की उवन करन की बेरा, सुरहिन वन को जाय होमाय।
इक वन लाँघ दुजे वन पहुँची तीजो सिंह दहाड़ौ माय।


यह हुआ माता का भजन !! और


कारी बदरिया बहन हमारी
कौंधा बीरन लगे हमार।
आज बरस जा मोरे कनबज में
कन्ता एक रैन रह जायं


यह हुआ आल्हा !!! अब सोने दोगे ?

कहानी तुम्हें रुची हो या नहीं, परन्तु तुम अकेले ही मेरे लिए उस गृहस्थ के सम्मिलित कुटुम्ब हो रहे हो ! मेरी शक्ति का विचार किये बिना ही मुझसे ऐसे ही अनुरोध किया करते हो ! कविता लिखो, नाटक लिखो। अच्छी बात है। लो कविता लो, लो गीत, लो नाटक और गद्य-पद्य, तुकान्त-अतुकान्त सभी कुछ, परन्तु वास्तव में कुछ भी नहीं !

भगवान बुद्ध और उनके अमृत-तत्व की चर्चा तो बहुत दूर की बात है, राहुल-जननी के दो-चार आँसू ही इसमें मिल जायें तो बहुत समझना। और, उनका श्रेय भी ‘साकेत’ की उर्मिला देवी को ही है, जिन्होंने कृपा पूर्वक कपिलवस्तु के राजोपवन की ओर संकेत किया है।

हाय ! यहाँ भी उदासीनता ! अमिताभ की आभा में ही उनके भक्तों की आँखें चौंधिया गयीं और उन्होंने इधर देखकर भी न देखा। सुगत का गीत तो देश-विदेश के कितने ही कवि-कोविदों ने गाया है, परन्तु गर्विणी गोपा की स्वतंत्र-सत्ता और महत्ता देखकर मुझे शुद्धोदन के शब्दों में यही कहना पड़ता है कि—


गोपा बिना गौतमी भी ग्रह्य नहीं मुझको।


अथवा तुम्हारे शब्दों में मेरी वैष्णव—भावना ने तुलसीदल देकर यह नैवेद्य बुद्धदेव के सम्मुख रखा है। कविराजों के राजा-भोग-व्यंजन मैं कहाँ पाऊँगा ? देखूँ, वे अकिंचन की यह ‘खिचड़ी’ स्वीकार करते हैं या नहीं !
लो भाई, तुम्हें इससे संतोष हो या नहीं, तुम्हारे अधिकार का शुल्क चुकाने की चेष्टा मैंने अवश्य की है। स्वतिरस्तु।


चिरगाँव
प्रबोधिनी,1987

तुम्हारा
मैथिलीशरण


कथा-सूत्र


कपिलवस्तु के महाराज शुद्धोधन के पुत्र के रूप में भगवान बुद्धदेव का अवतार हुआ था। उनकी जननी मायादेवी उन्हें जन्म देकर ही मानो कृतकृत्य होकर मुक्ति पा गईं। शुद्धोधन की दूसरी रानी नन्द जननी महाप्रजावति ने उनका लालन-पालन किया।
उनका नाम सिद्धार्थ और गौतम भी था। सिद्धि-लाभ करके वे बुद्ध कहलाये। सुगत, तथागत और अमिताभ और भी उनके अनेक नाम हैं।

बाल्यकाल से ही उनमें बीतराग के लक्षण प्रकट होने लगे थे। शिक्षा प्राप्त करने पर उनकी और भी वृद्धि हुई। शुद्धोदन को चिन्ता हुई और उन्हें संसारी बनाने के लिये उन्होंने उनका ब्याह कर देना ही ठीक समझा। खोज और परीक्षा करने पर देवदह की राजकुमारी यशोधरा ही, जिसे गोपा भी कहते हैं, उनकी वधू बनने योग्य सिद्ध हुई।

यशोधरा के पिता महाराज दण्डिपाणि ने सम्बन्ध स्वीकार करने के पहले वर की विद्या-बुद्धि के साथ उसके बल-बीर्य की भी परीक्षा लेनी चाही। शास्त्र शिक्षा के साथ ही शस्त्र शिक्षा भी ग्रहण की थी, परन्तु शास्त्र की ओर ही पुत्र का मनोयोग समझकर पिता को कुछ चिन्ता हुई। तथापि कुमार सब परीक्षाओं में अनायास ही उत्तीर्ण हो गये।‘‘ टूटत ही धनु भयेहु विवाहु’’ के अनुसार यशोधरा के साथ उनका विवाह हो गया।

पिता ने उनके लिये ऐसा प्रासाद बनवाया था, जिसमें सभी ऋतुओं के योग्य सुख के साधन एकत्र थे। किसी राग-रंग और आमोद-प्रमोद की कमी न थी। परन्तु भगवान तो इसके लिए अवतीर्ण हुए नहीं थे। पिता का प्रबन्ध था कि जो कुछ स्वस्थ, शोभन और सजीव हो उसी पर उनकी दृष्टि पड़े। परन्तु एक दिन एक रोगी को, दूसरे दिन एक वृद्ध को और तीसरे दिन एक मृतक को देखकर संसार की इस गति पर गौतम को बड़ी ग्लानि एवं करुणा आई और उन्होंने इसका उपाय खोजने के लिये एक दिन अपना घर छोड़ दिया। उनके उस प्रयाण को महाभिनिष्क्रमण कहते हैं।
तब तक उनके एक पुत्र हो चुका था। उसका नाम था राहुल। अभी उसके जन्म का उत्सव भी पूरा न हुआ था कि कपिलवस्तु में उनके गृह-त्याग का शोक छा गया।
रात को अपने सेवक छन्दक के साथ कन्थक नामक अश्व पर चढ़कर वे चल दिये।
जिस प्रकार रुग्ण, वृद्ध और मृतक को देखकर वे चिन्तित हुए थे उसी प्रकार एक दिन एक तेजस्वी संन्यासी को देखकर उन्हें सन्तोष भी हुआ था। अपने राज्य की सीमा पर पहुँच कर उन्होंने राजकीय वेष-भूषा छोड़कर संन्यास धारण कर लिया और रोते हुए छन्दक को कपिल वस्तु लौटा दिया। सबके लिये उनका यही सन्देश था कि मैं सिद्धि-लाभ करके लौटूँगा।

सिद्धार्थ वैशाली और राजगृह में विद्वानों का सत्संग करते हुए गया जी पहुँचे। राजगृह के राजा बिम्बसार ने उन्हें अपने राज्य का अधिकार तक देकर रोकना चाहा, परन्तु वे तो स्वयं अपना राज्य छोड़कर आये थे। हाँ, सिद्धि-लाभ करके बिम्बसार को दर्शन देना उन्होंने स्वीकार कर लिया।

राजगृह से पाँच ब्रह्मचारी भी तप करने के लिए उनके साथ हो लिए थे, जो पंचभद्रवर्गीय के नाम से प्रसिद्ध हैं। निरंजना नदी के तीर पर गौतम ने तपस्या आरम्भ कर दी। बरसों तक वे कठोर साधना करते रहे, परन्तु सिद्ध  समय अभी नहीं आया था।

उनका विगलितवसन शरीर आतप, वर्षा, शीत और क्षुधा के कारण ऐसा अवश और जड़ हो गया कि चलना फिरना तो दूर, उनमें हिलने-डुलने की भी शक्ति न रह गई। विचार करने पर उन्हें यह मार्ग उपयुक्त न जान पड़ा और उन्होंने मिताहार स्वीकार करके योग साधन करना उचित समझा, किन्तु उनके सभी साथी पाँचों भिक्षुओं ने उन्हें तपोभ्रष्ट समझकर उनका साथ छोड़ दिया।

गौतम ने उनकी निन्दा पर द्वक्पात भी नहीं किया। वे निन्दा स्तुति से ऊपर उठ चुके थे, परन्तु निर्बलता के कारण वे भिक्षा करने के लिए भी न जा सकते थे। इधर उनके शरीर पर वस्त्र भी न था। उसकी उन्हें आवश्यकता भी न थी। परन्तु लोक में भिक्षा करने के लिए जाने पर लोक मर्यादा का विचार भी कैसे छोड़ते !
किसी प्रकार खसककर गाँव के श्मशान से एक वस्त्र उन्होंने प्राप्त किया और उसे धारण कर लिया ।
गाँव की कुछ लड़कियाँ उन्हें आहार दे जाती थीं। उसी से उनमें चलने फिरने की शक्ति भी आ गई। सुजाता नाम की एक स्त्री ने उन्हें बहुत सुस्वादु खीर भेंट की थी। उसे खाकर, कहते हैं भगवान बहुत तृप्त हुए थे।

एक दिन निरंजना नदी को पार कर उन्होंने एकान्त में एक अश्वत्थ वृक्ष देखा। यह स्थान उन्हें समाधि के लिए बहुत उपयुक्त जान पड़ा। अन्त में वही वृक्ष बोधिवृक्ष कहलाया और वहीं समाधि में निर्वाण का तत्त्व उनको दृष्टिगोचर हुआ।
इसके पहले स्वयं मार (कामदेव) ने उन्हें उस मार्ग से विरत करना चाहा, क्योंकि वह विषयों का विरोधी मार्ग था। सुन्दरी अप्सराएँ उनके सामने प्रकट हुईं, परन्तु वे ऐसे ऋषि मुनि न थे जो डिग जाते।
मार ने लुभाने की ही चेष्टा नहीं की, बल्कि उन्हें डराया धमकाया भी। कितनी ही विभीषिकाएँ उनके सामने आईं, परन्तु वे अटल रहे।


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