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अभिनन्दन

नागार्जुन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3032
आईएसबीएन :00000

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सामाजिक-साहित्यिक-राजनीतिक विडम्बना भरी जिन्दगी पर एकदम अछूता और करारा व्यंग्य....

Abhinandan

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

साधारण समाज की रगों से निचुड़ा खून-पसीना राजनीति की मशीन में पहुँचकर किस प्रकार एक भव्य अभिनन्दन बनकर कुछ व्यक्तियों की सत्ता का आधारस्तम्भ बन जाता है-इस कटु तथ्य के आस-पास बुने ताने-बाने से यह उपन्यास कृति-निर्मित है। सभी चेहरे हमारे आपके जाने-पहचाने से लगते हैं। नाम कुछ, और होंगे जगहें कुछ और होगीं...घटनाओं का क्रम भी ठीक इसी प्रकार न हो तो क्या हुआ ? हमारी सामाजिक-साहित्यिक-राजनीतिक विडम्बना भरी जिन्दगी पर एकदम अछूता और करारा व्यंग्य।

उद्योग-पर्व

कविवर मृगांक ने सोचा-बारह पाँवे साठ। साठ सौ रुपये। कम नहीं होते हैं साठ सौ रुपये। साल-भर में इतनी रकम तो दस उपन्यास भी नहीं खींच सकते !
मनसाराम अपने-आप कुलाँचें भरने लगा-जायेंगे कहाँ ? मृगांक ‘ना’ कर देगा तो दूसरा फिर कौन ‘हाँ’ करेगा ? अभिनन्दन का प्रसंग छिड़ते ही किस मिनिस्टर की जीभ लार नहीं टपकाती ! और वह लार !
अन्दर से एक तीसरी आवाज आयी, अनहद नाद की तीसरी किस्म-उस पार को सहेजने के लिए महापात्र की आवश्यकता पड़ती है...अपनी कीर्ति का बखान सुनना होता था तो राजा पालतू कवियों को इशारा करता था। तू किस राजा का पालतू कवि है, मगांक ?
-मैं ! कविवर मृगांक ? पंडित मुचकुन्द मिश्र जिसका असली नाम है ? मैं पालतू हूँ ? किसके दिये निवाले गटकता हूँ मैं ? और, प्रजा तन्त्र के इस युग में राजा भला रह कहाँ गया ! न राजा, न प्रजा। सभी पब्लिक हैं, अवाम, जन-साधारण। सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्र पाद्...हे कोटिशीर्ष, हे कोटिबाहु, हे कोटिचरण...!

लिहाफ दाहिने पैर से ऊपर सिमट गया था। वायें पैर का अँगूठा लिहाफ के अन्दर से ही मसहरी के डंडे को छू रहा था। बाहर शुक्लपक्ष की तेरहस की गाढ़ी चाँदनी फैली थी। दीवार के तीनों रोशनदान सजग थे। जंगलों और किवाड़ों के भी काँच इस वक्त अपनी सफाई का सबूत दे रहे थे।
-हे कोटिशीर्ष, हे कोटिबाहु, हे कोटिचरण...जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य-विधाता...पंजाब, सिन्धु, गुजरात, मराठा, द्राविड़, उत्कल, बंग...वाद्यवृन्द की सिम्मलित ध्वनि बार-बार अन्तर-तर से टकराने लगी और पलंग पर लेटे रहना असम्भव हो गया।
कवि मृगांक की आत्मा विक्षुब्ध हो उठी।
बिस्तरा छोड़कर बाहर निकल आये। एक राजस्थानी धनपति का नवनिर्मित प्रासाद था। यह। सामने ठाकुरिया की मशहूर झील। पीछे लैन्सडाउन, रासबिहारी एवेन्यू आदि इलाके, उच्चवर्गीय आबादीवाले। तिनतल्ले पर आगे की तरफ से आमने-सामने दो बड़े कमरे, बीचों बीच बरामदा।
कविजी बरामदे में चहलकदमी करने लगे।

आहट पाकर नीचे, दुतल्ले पर छोटा कुत्ता हल्की आवाज में भाँउ-भाँउ करने लगा और अगले ही क्षण चुप हो गया। प्यार-भरी फटकार सुनी तो मालकिन का अनुशासन उसने सिर झुकाकर स्वीकार कर लिया।
केन्द्रीय सरकार के किसी हिन्दी भाषा-भाषी मिनिस्टर को कलकत्ता के सेठों ने परसों शाम एक भारी-भरकम अभिनन्दन-ग्रन्थ अर्पित किया था। समारोह के क्षणों में आँखों और कानों की परितृप्ति के लिए मणि पुरी नृत्य...रवीन्द्र संगीत...काव्यपाठ आदि का समावेश प्रोग्राम के अन्दर ही था। तीन नर्तकियाँ, दो नर्तक, दो वादक, पाँच गायक-गायिकाएँ, तीन गीतकार और चार कवि...तीन-साढ़े तीन घंटे का प्रोग्राम रहा-भाषण-वाषण सहित।
मृगांकजी आमन्त्रित कवियों में से थे।
समारोह कुछ ऐसा मनहर लगा मृगांकजी को कि बस...मगर अपने यहाँ दस वर्षो के भीतर तीन-चार प्रभावशाली मन्त्रियों को अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किये जा चुके थे न !

बाबू नरपतसिंह बच गये थे। आठ-नौ वर्ष पहले उनकी वरषगाँठ मनाई थी मित्रों ने। लेकिन वह न तो जयन्ती थी, न रजत था, न स्वर्ण ! कहाँ ? वह तो कुछ नहीं था ! बस, वही हस्ब-मामूल पीले फूल कनेर के !
समारोह खत्म हुआ परसों रात साढ़े आठ बजे और मृंगांकजी की निगाहें अपने नये निशाने पर जमी हैं...बाबूजी को इक्यावन हज़ार की थैली। पन्द्रह हज़ार अभिनन्दन-ग्रन्थ सोख लेगा। पाँच हज़ार लग जायेंगे समारोह में। बची हुई निधि से एक-आध संस्था की बुनियाद डाली जायेगी। ललनजी को जँच जाये तो वह दिल खोलकर साथ देंगे। फिर उनकी रामसागर बाबू से कैसी घुटती है। बाबू गोपीवल्लभ ठाकुर को भी यह प्रस्ताव पसन्द आयेगा। ये तीनों अपनी गुंजलक में समूची दुनिया को लपेट लेंगे...लाख-दो लाख क्या, यह त्रिमूर्ति कहीं सचमुच भिड़ गयी तो नम्बरी नोटों की वर्षा होने लगेगी और फिर जादू-सम्राट पी.सी. सरकार दंग रह जायेंगे।
सोचते-सोचते मृगांकजी का माथा गरम हो उठा।
सामने चाँदनी में ठाकुरिया का मैदान चमक रहा था।
महीना पूस का। सर्दी लेकिन मामूली थी, निहायत मामूली।

मृगांकजी अन्दर से माचिस और सिगरेट-केस उठा लाये। सर्दी नहीं लग रही थी, बदन पर वही एक कुर्ती काफी था।
बाहर वर्मी टाईप की दो-तीन कुर्सियाँ पड़ी थीं, बुनावट बाँस की और भीतरी ढाँचा लोहे का। टाँगें भी लोहे की। किनारों की ओर टाँगों की वार्निश का रंग सुर्ख था, बीच-बीच का रंग संदली था।
तिनतल्ले का यह बरामदा काफी बड़ा था। दीवारों के प्लास्टर की सफेदी इस छाँह में भी चाँदनी को चिढ़ा रही थी।
मृगांकजी खाँचानुमा कुर्सी पर बैठ गये। सिगरेट निकालकर उसे होंठों के हवाले किया, माचिस जलायी।
सिगरेट से तीली भिड़ाते समय नाक दीख गयी तो नुकीली नाकवाला वह युवक गीतकार निगाहों के सामने खड़ा-खड़ा मुस्कारानें लगा-

(प्रणाम मृगांकजी, मुझे तो किसी ने बतलाया कि आप दिल्ली-एक्सप्रेस से चले गये !
(और तुम कह जा रहे हो, वर्मा ?
(कल बाम्बे मेल से जी !
(कै बार आये हो कलकत्ता ?
(पहले दो मर्तवा आ चुका हूँ। (क्या है यह ?...गीतों का संकलन; नहीं, कहानियों का...तो तुम गल्प भी लिखते हो ?
(जी, गल्प ही तो लिखता हूँ। गीत बीस-पचीस ही होंगे...मैं तो बस आप गुरुजनों के आशीर्वाद चाहता हूँ...मैं तो निराश हो चुका था लेकिन दर्शन हो ही गये...)

मृगांकजी का ध्यान गीतकार बादल वर्मा पर अटका हुआ था-अब कौन पूछेगा कवियों को ऐसे गीतकार के आगे ? गला है कि बाँसुरी ? जालिम गाता है कितना कमाल...मैं तेरा गला घोंट दूँगा, कहीं का नहीं रहने दूँगा मैं तुझे ! संभल जा, बच्चु !...प्रणाम मृगांकजी ! नहीं चाहिए मुझे तेरा प्राण-उणाम...मैं वही मुचकुन्द हूँ जिसके प्र-पितामह गोविन्दमाधव मिश्र ने अपने प्रतिद्वन्द्वी संगीताचार्य की ज़िन्दगी बर्बाद कर दी थी, पानवाले को मिलाकर सिन्दूर चटवा दिया था। गला बैठ गया,
संगीताचार्य आजीवन रोते रहे ! मैं उसी गोविन्दमाधव का वंशधर हूँ और तू मुझे चिढ़ाने आया है ? बदतमीज़ कहीं का ! हटता है कि नहीं सामने से ? देखिए तो भला तमाशा ! गीतों के फरिश्ते पधारे हैं, इन पर नोटों की वर्षा हो रही है। दो-ढाई दिन कलकत्ता रहे। हज़ार-हज़ार-डेढ-डेढ़ हज़ार बटोरकर घर लौट गये..अपना क्या ! समारोह के संयोजकों ने हाथ जोड़ लिए और दो सौ थमा दिये, बस !
चिन्तन की बेसुधी में हाथ तिपाई की ओर बढ़ा तो सिगरेट-केस नीचे गिरा। सन्नाटे में उसकी आवाज कई गुना अधिक प्रतीत हुई।

सामनेवाले कमरे में सेठ का मामा सो रहा था। सो उसकी नींद खुल गयी और वह बाहर बरामदे में आया।
-क्या बात है, कविजी ? सारी रात जागोगे ?
-अभी तो उठा हूँ सेठजी, चार बजने वाले हैं।
-हूऽऽऽऽहू...
सेठ के मामा ने जबड़े सिकोड़ लिये, वह जम्हाई लेता हुआ पीछे की ओर चला गया, जिधर बाथरूम था।
मृगांकजी भी पलंग पर वापस आ गये।
नरपत बाबू कलकत्ता आने पर जिस धनकुबेर की कोठी में ठहरते थे, उसके बारे में सोचते-सोचते मृगांकजी को नींद आ गयी।

ललनजी, बाबू गोपीवल्लभ ठाकुर, रामसागर राय-सभी ने मृगांकजी की योजना का अनुमोदन किया।
बाबूजी से स्वीकृति हासिल करने की ज़िम्मेदारी रामसागर राय और ठाकुरजी पर सौंपी गयी।
मंजुमुखी देवी को मालूम हुआ तो खुशी के मारे दुहरी हो गयीं। बोलीं-मृगांकजी, कितना बड़ा काम यह होगा ! बाबूजी की नहीं, हमारे प्रदेश की हीरक जयन्ती होगी यह...!
निःसन्देह ! –मृंगाकजी ने कहा और भुने हुए नमकीन काजुओं की ओर निगाहें गड़ा दीं।
लीजिए-देवीजी ने कहा-चाय आ रही है।
सिल्क की सादी साड़ी और सादे ब्लाउज में कसी-लिपटी अधेड़ गंदुमी देह, कमलपत्री आँखोंवाला भरा-पूरा चेहरा, जूड़े के नाम पर ढीली-ढाली-सी बालों की एक गाँठ...चप्पलों वाले पैर, नाक पर चश्मा...बस, यही थीं मंजुमुखी देवी, एम.एल.सी.।

मृगांकजी ने पूछ लिया-माधवी को अर्से से नहीं देखा, क्या हाल है उसका ?
भौंहे सिकुड़ आयीं। देवीजी बोलीं-कालिज का खटराग यों ही भला क्या कम था ! जब से अपने विभाग की हेड हुई है, दम मारने की फुर्सत नहीं मिलती है बेचारी को। बो तो आप लोगों का आसिरवाद है कि थकती नहीं है माधवी।
मृगांकजी काजू चबा रहे थे। बहादुर चाय की ट्रे सामने तिपाई पर रखकर वापस जा चुका था। देवीजी झुककर चाय बनाने लगीं।
मृगांकजी ने कहा-कालिज ने इधर तरक्की तो खूब की, मगर मेरा तो उसने भारी अहित किया है...
देवीजी की प्रश्नसूचक दृष्टि ने उन्हें अगली बात कहने के लिए उकसा दिया, बोले-कितना अच्छा लिखती थी माधवी ! शिक्षा-विशारदों ने काव्य-गगन से एक उदीयमान नक्षत्र छीन लिया, अपनी तो खैर शिष्या ही पराई हो गयी।
कविजी को चाय का प्याला थमाती हुई मंजुमुखीजी बोल गयीं-लड़की थी न ? लड़का होती हो फिर भी कविताओं से काफी कमा लेती। कंठ सुरीला है ही, रेडियोंवालों से भी काफी रकम दुह लेती। मगर देखिए न मृगांकजी, बात तो ज़रा वैसी है...कोई बात नहीं, आपकी तो गोद में खेली है....बतला ही दूँ आपको-मैंने ही ताने कसे थे न ? तभी तो कविताओं से माधवी ने यों मुंह मोड़ लिया ! कविताओं की कमाई से सलीके की एक साड़ी तक नहीं ले सकी कभी। सम्पादक लोग मनीआर्डर से रकम भिजवाते थे, जरूर, लेकिन पच्चीस तो शायद ही कभी आये हों !
वर्ना वही पाँच, वही दस, वही पन्द्रह ! भतीजियों को फुसलाने के लिए कविताओं की कमाई से चली है किसी की घर-गिरस्ती ? सो भी तो क्या, इस मुँहझौंसे जमाने में ? तो अब, आज आपसे कह रही हूँ, आपकी चेली को मैंने ही आपसे छीन लिया था...।

मृगांकजी गुमसुम बैठे रहे, चाय का प्याला होंठों से लग नहीं रहा था। बार-बार माधवी की परछाई प्याले में चाय की सतह पर तैर जाती थी...जितना परिश्रम किया था मृगांकजी ने माधवी को शब्दशिल्प सिखलाने में !
देवीजी ने दोनों हाथ जोड़ लिये, कहने लगीं-अब चाहे आप मुझे अपराध के लिए जो भी दंड दें, मैं भुगत लूँगी। माधवी का लेकिन इसमें कोई कसूर न था। उस बेचारी पर रंज मत होइएगा मृगांकजी, मेरी कसम आपको, मृगांकजी।
हलकी परन्तु गम्भीर आवाज़ में मृगांकजी ने कहा-यह आपने बहुत अच्छा काम किया। वास्तविकता को इस प्रकार पकड़ लेना आप-जैसी बुद्धिमती महिलाओं का ही चमत्कार हो सकता है। मैं आपकी बेटी को गलत दिशा की ओर लिये जा रहा था। वह काँटोंभरी राह थी, कोहरा और धुन्ध और झाग...इधर क्या मिलता बेचारी को ? सौ मन यश, कपूर की आपती का धुआँ, केसर और कस्तूरी की भीनी खशबू और-

मृगांकजी के होंठों पर आहट अभिमान वाली विद्रूप-भरी मुस्कान दौड़ गयी फीकी हँसी की मनहूस परछाईं !
उन्होंने चट से चाय की दो-तीन चुस्कियाँ ले डालीं और सधे हुए खिलाड़ी की भूमिका में आ गये, प्रसंग ही बदल दिया।
-ठाकुरजी की लड़की को सितार-वादन में इस बार प्रथम पुरस्कार मिला है, आपने कभी वन्दना को सितार पर सुना है ?
-सुना है कि बहुत अच्छा बजाती है। लेकिन इन दिनों नहीं सुना दो वर्ष हो गये। अभी उस रात रेडियो खोला तो वन्दना का नाम आया। बस, नाम भर...प्रोग्राम खत्म हो चुका था।
-शादी होने वाली है वन्दना की।
-बड़ा अच्छा दूल्ला मिला है...।
-रामसागर राय की सगी बहन का लड़का ठहरा न ! एम.एस.सी. होते ही टाटा की सर्विस में ले लिया गया था। दस महीने पश्चिम जर्मनी में ट्रेण्ड हो आया है। आठ सौ खींचता है महीने में...।

देवीजी की आँखों को देखते हुए मृंगाकजी ने अब के एक साँस में प्याला खाली कर दिया, किन्तु उस भद्र महिला का मन तो अपने दामाद के दुर्भाग्य की याद में भटकने लगा था। बल्कि लड़की ही किस्मत ही बुलन्द निकली, नहीं तो समाज में भला कौन पूछता है ? जाने-अनाजाने कहीं किसी के दामाद की चर्चा छिड़ती तो देवीजी के चेहरे का रंग उड़ जाता।
देवीजी संभल कर चायदानी की ओर मुखातिब हुई, कहा-एक प्याला और लेना होगा, मुगांकजी !
कविवर ने ‘हाँ, की मुद्रा में माथा तो नहीं हिलाया, मुस्कान की हल्की आभा लेकिन उन पतले होंठों पर नाच ही गयी।
चाय की चुस्कियाँ लेते हुए कहने लगे-देखिए देवीजी, अब ऐसा न हो कि बाबूजी इस अनुष्ठान को दो वर्ष के लिए टाल दें...।
नहीं, मृगांकजी ! देवीजी ने मानो उछलकर कहा-नहीं, बिलकुल नहीं। बाबूजी से यह सब बतला दिजिएगा तो वह अवश्य ही ‘ना’ कर देंगे। उनकी यह सहज शालीनता ही उनके लिए भारी दुश्मन है। अभी चार ही महीने तो हुए हैं। बरसगाँठ के दिन मैंने उनके चार-छः मित्रों को बुलवा लिया। हुआ तो कुछ नहीं, बस पाँच-सात हल्के-ताजे गजरे उनके गले में डाल दिये गये थे और इन हाथों ने कपूर की आरती उनके चारों ओर आहिस्ता से घुमा दी थी। चन्दन का टीका करके कुंकुम तो खैर पहले ही लगा दिया था। उन मित्रों के लिए पार्टी-वार्टी का कोई आडम्बर नहीं रखा गया था। दो-दो संदेश-रसगुल्ले समोसे और कॉफी का एक प्याला; बनारसी पान के मगही बीड़े और ज़र्दा। बस और कुछ नहीं हुआ था....लेकिन मृगांकली, आप शायद विश्वास न करें, बाबूजी मुझ पर पीछे इतना नाराज हुए-इतना नाराज़ हुए कि मैं चार रोज़ तक उनके सामने नहीं गयी, हाँ, मृगांकजी ! सच !

और देवीजी की आँखें बड़ी-बड़ीं हो गयीं...।
और मृगांकजी देवीजी की उस नाटकीयता का स्वाद लेने लगे-सच, देवीजी ? सच ?
और दोनों देर तक हँसते रहे !
और दोनों की खिलखिलाहट तभी थमी जब कि माधवी की दो छोटी भतीजियाँ बैठकखाने में आ गयीं।
संजीदा होकर देवीजी ने पोतियों को पास बैठा लिया।
पन्द्रह सदस्यों वाली समारोह-समिति गठित की गयी।
बाबू गोपीवल्लभ ठाकुर का निवास-स्थान पुश्तैनी तौर पर यूँ तो गंगा के उत्तर में पड़ता था, नेपाल की सीमा के करीब ! लेकिन पिछले आठ-दस वर्षों में गंगा के दक्षिण, इस महानगरी का महत्त्व क्रमशः बढ़ता ही आया तो गोपी बाबू ने सत्तर-पिचहत्तर हज़ार की लागत से यह आलीशान कोठी तैयार करवायी। विराट तिनतल्ला भवन, आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित। सामने मनोरम लॉन, फूलों की क्यारियों से वेष्ठित। पीछे तीन गैरेज और नौकरों के तथाकथित क्वार्टर, माचिस बॉक्सों की तरह छोटे और अति परिमित।

सामने से कोठी का आधा निचला हिस्सा भाड़े पर उठा दिया गया था। प्रादेशिक सरकार के किसी छोटे-से विभाग की अत्यतम शाखा का निर्देशक अपने तीन सहकारियों और चपरासियों सहित उन तीन बड़े-बड़े कमरों में डटा था। टाइप-राइटर की अनवरत टिक-टिक और बीच-बीच में कॉल-बैल की आतुर पुकार। कॉटेज इण्डस्ट्री के महाबोधि टेम्पुल वाले मॉडल के भव्य पर्दे दिन में साढे़ नौ से सवा पाँच तक वहाँ झूलते होते, दफ्तर बन्द करते समय उन्हें उतार लिया जाता। गोपी बाबू को भाड़े के तौर पर चार सौ रुपये मासिक मिलते थे।
और गोपी बाबू ने समारोह-समिति को दुतल्ले पर छोटा-सा रूम दफ्तर के लिए सौंप दिया तो सदस्यों को बड़ी प्रसन्नता हुई। यह कमरा दुतल्ले पर था। सामने बाई ओर। बाहरी सीढ़ियों से होकर आप ऊपर पहुँचिए, बाएँ हाथ की तरफ मुड़ते ही एक साफ-सुथरी कोठरी देखेंगे...।
मृगांकजी और ललनजी की ओर देखकर गोपी बाबू बोले- बड़ी मेज और चार-छः कुर्सियाँ रखवा दूँगा। दो-एक रैक भी आ जायेंगी।

आज आठ ही जने एकत्र हो सके थे संयोग ऐसा कि मंगलवार पड़ता था आज।
झा जी ने कहा-अच्छा हुआ कि समिति गठित हो गयी। ‘स्थाप्यं-समाप्त शनि-भौमवारे’ मुहूर्त चिन्तामणि नामक ज्योतिषग्रन्थ में लिखा है। मेरे पितामह जो भी काम करते, आरम्भ मंगलवार को ही हुआ करता।
स्टेनलैस स्टील की छोटे थाल में अभी पान के चार-छः बीड़े शेष थे, पाठकजी का हाथ उधर बढ़ा। बोले-मैं तो भूल ही गया था कि आज मंगलवार है।
देवीजी ने आँखें नचाकर कहा-मगर मैंने तो जान-बूझकर यह मंगलवाली तारीख रखवाई थी। नहीं, मृगांकजी ?

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