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वल्द रोजी

गिरिराज किशोर

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3057
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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इसमें विज्ञानी. अन्वेषण, वैज्ञैनिक परिवेश से प्रभावित कहानियों का वर्णन है...

Vald roji

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

गिरिराज किशोर उन विशिष्ट कथाकारों में है, जिन्होंने अपनी रचनाओं को जिन्दगी के अनुभवों से जोड़ने की चुनौती स्वीकार की है और उन्हें गहरे यथार्थ से जोड़ा है। उसमें उतनी ही विविधता है कहानियाँ सब जीवन के गहरे अनुभव से उपजकर पाठकों तक पहुँचते हैं। उनकी कहानियाँ केवल पाठकों को रिझाने की नीयत से नहीं लिखी जातीं, बल्कि उनके अनुभवों में कुछ जोड़ती भी हैं।

ये कहानियाँ जिन्दगी की उन सँकरी और कशमकश-भरी पगडण्डियों पर से ले जाती हैं जहाँ से गुजरना इन्सान को अपनी पहचान कराता है। वास्तव में ये कहानियाँ इन्सानी जद्दोजहद का अपने आपमें सम्पूर्ण साक्षात्कार हैं। ये साक्षात्कार तल्ख भी होते हैं और बेचैनी भी पैदा करते हैं। इस संग्रह में ‘वल्द रोज़ी’, ‘प्रत्यावर्तन’, ‘वे नहीं आए’ ‘बच्चों से कौन डरता है’, इसी तरह की तल्ख और बेचैनी पैदा करने वाली कहानियाँ हैं। रोजी ‘माँ’ है। वह न मिले तो ? यही प्रश्न मुख्य है। ‘प्रत्यावर्तन’ पत्नी के रूप में स्त्री का संत्रास है। यदि पत्नी उस संत्रास का प्रत्यावर्तन कर दे ? असमभव नहीं। यही दरअसल बदलाव का बिन्दु है।

‘विज्ञानी’, ‘अन्वेषण’, वैज्ञानिक परिवेश से प्रभावित से प्रभावित कहानियाँ है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम मनुष्य होने की निर्यात से पीछा छुड़ा रहे हो और रोबोट बनते जाने को अपनी अस्मिता का चिन्ह समझते जा रहे हो ? ये कहानियाँ कहीं न कहीं इन सरोकारों से जुड़ती हैं।

जब भी कभी इन्सान बिरादरी अपना पुनर्मूल्यांकन करने के ख्याल से साहित्य के आइने में झाँककर अपने को अज़सरेनौ जानने के कोशिश करेगी, तो संभव है कि गिरिराज किशोर का कथा-साहित्य अहम भूमिका निबाहे।


वल्द रोज़ी

 


विकास के तीन नाम हो गये थे। उसकी प्रेमिका का बाप उसे ‘बकाश’ बाबू कहता था, माँ, ‘बिकास’ कहती थी और वह स्वयं अपने नाम का उच्चारण इसलिए सँभलकर करता था, जिससे उसका नाम न बिगडे़। हालाँकि इस वर्ग के लोगों में इस नाम का होना और लोगों को अटपटा और अप्रचलित-सा लगता था। लेकिन इन बातों की अब उसे आदत पड़ गई थीं। उसके नाम के बारे में कोई टीका-टिप्पणी करता भी था तो वह चुप लगा जाता था। पहले की बात और थी जब वह झगड़ पड़ता था। आज कल उसे सबसे बड़ी चिन्ताएँ दो थीं। एक नौकरी और दूसरी प्रेमिका। आर्थिक स्थिति और पारिवारिक विषमताएँ नौकरी के घेरे में ही आ जाती हैं। जहाँ तक शिक्षा का सवाल था, उसे लेकर अब वह पछताता था। पढ़ा क्यों नहीं ! जब पढ़ता था तो पेड़ पर चढ़कर फलों की चोरी किया करता था या घंटे ‘बंक’ करता था। बाप की स्थिति थोड़ी भिन्न थी, इसलिए वह ज्यादा कुछ नहीं कह पाता था। माँ अलबत्ता कभी-कभी कुटम्मस कर देती थी। तब वह उसे कहनी-अनकहनी सब कह देता था। माँ और गुस्सा हो जाती थी।

उसकी शिक्षा को देखते हुए उसे ‘चतुर्थ श्रेणी-अधिकारी’ का काम ही मिल सकता था। दस्तकार वह बनना नहीं चाहता था। एक तो जानमारी, दूसरे हुकूमत का ‘टच’ नदारद। चतुर्थ श्रेणी में कम से कम यह तो रहता ही है कि इधर बैठो, इधर न बैठो, साहब हैं, साहब नहीं हैं, बकवास मत करो, शोर मत मचाओ, कल आना....साहब सलाम, सलाम के पाँच रुपये.....कागज....कागज दिखाने के दस और फोटो कॉपी के बीस-वगैरह-वगैरह ! दस्तकार बनो तो दस चीजों के लिए दस तरह की खुशामद करो।

उधार लेना, माल बेचना......देर-सबेर के लिए गाली-गलौज सुनना आदि। चाहे दस्तकारी जितना पवित्र और आदर्श काम हो, पर है भाग-दौड़, राम-राम और सलाम का ! पवित्रता तो साली चूतड़ों में घुस जाती है। विकास जब किसी तरह का कोई काम सीखने के लिए तैयार नहीं हुआ तो एक सरकारी संस्थान में आवेदन पत्र दिलवाया। पता चला था कि पन्द्रह-बीस पद हैं। कोई चौकीदार का, कोई मैसंजर का, कोई फर्राश का, कोई पीयून का......वही अंग्रेजी शासन वाले नाम ! यही सोचा, हो सकता है कहने-सुनने से एक पद मिल ही जाय। आमतौर पर यही होता है कि अगर ज्यादा पद हों और हजारों भी उम्मीदवार हों तो हर एक इस मुगालते में रहता है कि हो न हो उसका तो हो ही जायेगा। अरे, इतने पदों में से क्या एक पद पर भी उसके नाम की चिप्पी नहीं लगी होगी !

आवेदन-पत्र देकर आने के बाद से विकास बहुत खुश था। चाल में थोड़ा फर्क आ गया था। उसे लगता था आधा पाला तो मार ही लिया। जिस दिन आवेदन पत्र देकर आया उसी दिन शाम को अपनी प्रेमिका के घर पहुँचा। जाकर बोला, ‘‘पारवती, भगवान ने चाहा तो ‘वाहे गुरु की फतेह ?’ ’’ ‘वाहे गुरु की फतेह’ उसने पास वाले गुरुद्वारे से सीखा था। जब भी संगत होती थी, कड़ा प्रसाद जरूर जीमता था। उसकी प्रेमिका ने पूछा, ‘‘वाहे गुरु की फते तो हो गयी, अब बात बता !’’
‘‘हमारे बंगले वाले साहब ने नौकरी की दरखास्त दिलवा दी ! बस हुआ ही समझो ! होते ही....’’ बात पूरा किये बिना हँस दिया। उसकी आँखों में शरारत थी।

पारवती का बाप हुक्का पी रहा था। विकास इस बात से भी चिढ़ता था। जब भी वह प्रेमिका से मिलने जाता था तो वह खबीस वहीं, उसी जगह खाट डाले या जमीन में उकड़ू बैठा हुक्का पीता मिलता था। उसकी......जान अन्दर तक जल जाती थी। मन ही मन वह सब पहाड़ियों को गाली देने लगता था। पहाड़ियों की कौम है ही ऐसी ! या तो हुक्का गुड़-गुड़ायेंगे या बीड़ी पियेंगे। उसकी माँ स्वयं बीड़ी पीती थी। हालाँकि पारवती का बाप नेपाल का है और उसकी माँ कुमायूँ की। यह नहीं होता तो सिगरेट पियें !
पारबती का बाप विकास की बात सुन रहा था। हुक्का छोड़कर तपाक-से बोला, ‘‘ओ बकाश बाबू, नौकरी मिल गिया ?’’
पारवती ने बताया, ‘‘इसके बंगले वाले साहब ने अर्जी भिजवाई है ! कहता है मिल जायेगी।’’ बताते हुए उनकी आँखों में चमक आ गई थी।

वह फिर हुक्का पीने लगा। बोला, ‘‘बकाश बाबू का सा’ब तो बड़ा आदमी है। वह चाहेगा तो जरूर मिलेगा !’’
पहली बार पारवती का बाप विकास को एक अच्छा आदमी लगा। बोला, ‘‘काका, वो तो चाहते ही हैं। तभी तो दरखास्त दिलवायी !’’
‘‘बस तो जा हनुमान जी की धोक बोल आ !’’
विकास ने बहुत धीरे से पूछा, ‘‘पारवती, तू भी चलेगी ? रामसिंह की नई साइकिल पर बैठाकर ले चलूँगा। बस सवेरे-सवेरे नहर की पटरी-पटरी निकल लेंगे।’’
उसने बाप की तरफ इशारा कर दिया। वह जो बैठा है।
विकास का मुंह चढ़ गया, ‘‘यह कब तक चलेगा ?’’

तब तक हुक्के में दम लगाते पारवती के बाप ने कनखियों से उसे देख लिया। इसी बात से विकास सबसे ज्यादा घबराता था। जहाँ उसे आये दस-पनद्रह मिनट हुए, वह उसकी कनखियों की इन्तजार में उसके चेहरे की तरफ देखना शुरू कर देता था। उसकी कनखियों का मतलब था, बस अब फूटो। यदि उसने चेतावनी को नजरअन्दाज किया तो वह न कुछ कहे बिना मानता नहीं था। और कुछ नहीं तो पारवती को डपटने लगता था, पारवती, तुझे घर का काम नी क्या....जब देखों बात बिटोरती रहै ! औरद-मरद का क्या मेल.....जा भाई बकाश बाबू जी, काम से लग। इसे भी काम-धाम करने दे।

यही इस बार भी हुआ। उसने कनखियों से देखा। विकास की घंटी बजने लगी। चलो, नहीं तो आयी कनखियों की बेटन ! कई बार उसे इतनी कोफ्त होती थी कि उसका मन होता था कि उसका हुक्का-वुक्का तोड़-मरोड़ के फेंक दे। दो धौल ऊपर से जमाये। उसने अच्छे-अच्छे तीस मारखाओं के दाने भून दिये थे। बस, पारवती का मुँह देखकर चुप लगा जाता था।
वह चलने लगा तो पारवती के बाप ने फिकर उसकी तरफ देखा। पारवती से बोला, ‘‘जरा दरवज्जा भेड़ आ !’’
दरवज्जा तो हमेशा खुला रहता था। आज क्या खास बात थी ! विकास और उसकी प्रेमिका को लगा, हो न हो यह आवाज उसके हुक्के से आई है। कहना तो दरकिनार, वह तो इस तरह की बात सोच भी नहीं सकता !
पारवती दरवज्जा बन्द करने के लिए पीछे-पीछे चल दी। विकास का दिल पट्पटा रहा था। ओट होते ही उसने उसका हाथ पकड़ना चाहा। उसने तत्काल हाथ छुड़ा लिया, ‘‘यह क्या करते हो ?’’
‘‘नौकरी जो मिलनेवाली है !’’

‘‘अभी से काहे उछलना-कूदना- जब मिल जायेगी तब देखना !’’
‘‘क्या तेरे सामने ही तेरे बापू ने नहीं कहा कि तेरे साहब चाहेंगे तो मिल जायेगी। तभी तो तुझे दरवज्जा बन्द करने भेजा। जिससे मैं ....’’
‘‘बड़े आदमियों की एक कही- क्या कहें क्या करें !’’
‘‘नहीं, हमारे साहब ऐसे नहीं।’’

‘‘साहब, साहब सब एक से ! देख लेना बाद में तुम ही गाली देते घूमोगे।’’
विकास को गुस्सा आ गया। उसे गुस्सा आता था तो बेलगाम हो जाता था, ‘‘तू चाहती ही नहीं कि मुझे नौकरी मिले ! भाँजी मारती है।  कभी देखा है तूने हमारे साहब को ! अगर वे न चाहते तो क्या दरखास्त दिलवाते ? तू और तेरा बाप मुझे चूतिया समझते हो। वो बुड्ढ़ा समझता है कि उसी की बेटी, बेटी है। साला कनखियों से ताकने लगता है। कहीं कुछ हुई होती तो पता नहीं आसमान के सितारे तोड़कर लाता या न जाने क्या करता ?’’
वह इतने जोर-जोर से बोल रहा था कि पारवती का बाप सुनकर आ गया, ‘‘क्या बोलता है बकाश बाबू, गाली क्यों बकता है !’’

पारवती की जान अजब साँसत में पड़ गयी थी। उसकी आँखों में पानी भर आया। फिर भी मामला रफा-दफा करने के ख्याल से बोली, ‘‘इसकी तो आदत है, बात-बेबात चिल्लाने लगता है। तुम चलों अन्दर मैं, दरवज्जा बन्द करके आती हूँ।’’
‘‘दरवज्जा तो ले, मैं ही भेड़ दूँगा। पर तेरे लिए कौन रखा खड़ा कर रखा जो उसमें बैठकर आवेगी। चल अन्दर। काम से लग। और देख बकाश बाबू, खबरदार जो हमारी बेटी को गाली दी।’’
विकास मुड़ा और गाली बकता हुआ चल दिया।
‘‘स्साला बुड्ढा ! आम की तरह पाल में लगा ले..पकने पर निकालिए। पता नहीं अपने को क्या समझता है ! थूकूँगा भी नहीं....देखता हूँ कौन ब्याहता है, ना चक्कू उतार दिया.....तेरे भी, उसके भी....’’
पारवती का बाप भी चुनचुनाता रहा। अपनी बिटिया को गाली देता रहा। सब कुछ तेरी ही वजह से है। सिर पकड़कर रोयेगी। खबरदार जो इस साले को मुंह लगाया !

यह सब पहले भी कई बार हो चुका था।
ऐसी कोई भी घटना हो जाने के कई दिन बाद तक वह बलबलाया घूमता था। कभी-कभी जब गुस्से में आता था तो अपने भाई-बहनों की कुटुम्मस कर देता था। अगर दो-चार लगा दे तो कोई बात नहीं। पर जब कसकर देता था तो विकास के माँ-बाप के बीच ठन जाती थी। तब तक चलती थी जब तक दोनों पस्त नहीं हो जाते थे। एक-दो बार तो नारायणन को बुलाकर कहना पड़ा कि अगर इस तरह कंजरों की तरह व्यवहार करोगे तो क्वार्टर खाली करना पड़ेगा। पहली बार विकास को लेकर जब लड़ाई हुई थी तो बंगले के सब लोग चक्कर में पड़ गये थे। शक तो पहले ही से था कि नारायणन इतना काला और विकास इतना गोरा ! चूँकि माँ गोरी थी, इसलिए शंका का विस्तार ज्यादा नहीं हुआ। लेकिन उस दिन की लड़ाई से स्थिति काफी स्पष्ट हो गयी। नारायणन स्त्रीलिंग को पुलिंग, बहुवचन को एकवचन और कभी बिल्कुल उल्टा करके बोलता था। यह सब चमत्कार भाषा में ही संभव हो सकता है। जिन्दगी में नहीं।

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