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स्त्री पर्व

महाश्वेता देवी

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3080
आईएसबीएन :81-8143-016-6

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स्त्री, धर्म तथा समाज को लेकर वैचारिक निबन्ध ...

Stri Parva

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विश्व में आदिकाल से समाज पर संभोग दर्शन काबिज रहा है जिसके सामने सभी दर्शन फीके रहे हैं। भारतीय समाज और आध्यामिकता का दर्शन भी इससे अछूता नहीं रहा बल्कि धार्मिक परम्पराओं ने देह दर्शन की और भी अलौकिक तरीके से शुरुआत की है। मंदिरो ने नारी उत्पीड़न की उसी परम्परा को विकसित किया। देवदासियों से लेकर वेश्याओं की मार्मिक कथा ‘‘आज बाजार बन्द है’’ है। देह व्यापार से देह उत्सव की रंगरेलियों की भूल-भुलैया में फंसी महिलाओं की दारुण कथा का जैसे सजीव चित्रण हुआ है।

देह सम्मोहन के तनाव के बीच छटपटाती राष्ट्र की बेटियों के जीवन की विभिन्न परिस्थितियों पर सटीक और बेबाक टिप्पणी की गई है। उनकी अस्मिता तथा भटकाव के दोराहे से उनके उभरने के प्रयास को सामाजिक सरोकारों का दर्शन भी कहा जा सकता है। वरिष्ठ दलित कथाकार मोहनदास नैमिशराय को देह व्यापार की अँधेरी और तंग गलियों के उमस और तमस से भरे परिवेश की गूँज से असीम सम्भावनाओं की तलाश है। देह बेचने वालियों के जीवन रंगों से उभरती बयार और उमस पर आधारित रचना की सार्थकता भी तभी होगी। खोई हुई अस्मिता की तलाश में संघर्ष करती राष्ट्र की बेटियों के जीवन की घटनाओं/दुर्घटनाओं के हर पहलू को उजागर करती यह सशक्त रचना है।

गांधारी-पर्व

नीलिमा-1992

ढेर-ढेर फूल, ढेर-ढेर मालाएँ, ढेर-ढेर लोग। एरकंडीशनर चालू रहने के बावजूद, बेहद कामकाजी, कुछेक लोगों ने कमरे में एक तरफ, थोड़ी-सी जगह को चॉक के निशान से घेर दिया और खड़े होकर उसकी जाँच भी कर डाली।
नीलिमा दीवार के सहारे टिककर बस खड़ी रही।
वे लोग किस दुविधा में पड़े थे ?
‘सिक्स या सिक्स वन ?’’
‘‘सिक्स।’’
‘‘पाँच ग्यारह’’, नीलिमा ने धीरे से कहा।
‘‘मैडम आपने कुछ कहा ?’’‘
‘‘रितु ऋत्वाक् बसु की लंबाई, पाँच फुट ग्यारह। आप लोग उसे वहीं तो रखेंगे न !’’
‘‘आप ?’’
‘‘मेरा बेटा था वह !’’

‘‘ओह, सो सॉरी, मैडम ! आप रिट् बोस की माँ हैं ? मैं हूँ, कपूर ! मतलब मैं यहाँ उनके...’’
उसी समय शुनू अन्दर दाखिल हुई। चप्पल उतारकर, वह खाली पाँव आगे बढ़ आया। उद्भ्रांत, विमूढ़, शुनू ! बाल रूखे-रूखे, अस्तव्यस्त !
‘‘मौसी ! मौसी, आप बैठ जाइए।’’
‘‘मैं ठीक हूँ, शुनू !’’
‘‘इस शहर का जो हाल हो गया है, कहीं, किसी फिउनरल पार्लर में जगह नहीं मिली।’’
यह तो अच्छा हुआ, शुनू ! यह घर उसी का तो है। घर का बेटा...घर आएगा।’’
नीलिमा ने कहा।
उनकी आवाज बीच में ही रुँधकर टूट गई। उन्होंने अपने होंठ कसकर दबा लिए।
बेहद मद्धिम आवाज़ में उन्होंने कहा, ‘‘फोन पर उसने कहा, रात को वह यहीं खाएगा, रहेगा....’’
‘‘हाँ, मौसी, मुझे भी पता है। सुनिए, कपूर साहब, प्लीज़, आप जरा बाहर खड़े रहें। किसी भी वक्त....’’
‘‘व्हाट एबाउट आइस, मिस्टर डट् ? बर्फ का क्या हुआ ?’’
‘‘आ रहा है, वह भी आ रहा है। अरे, रूमा, तुम आ गई...?’’
शुनू अपनी बहू रूमा पर काफी निर्भरशील था। रूमा थी भी काफी निर्भरयोग्य। बेहद कामकाजी लड़की। अब रूमा आ गई थी। वह सारी जिम्मेदारी सम्हाल लेगी।

‘‘मौसी जी, मौसा कहाँ हैं ?’’
‘‘ऊपर लेटे हुए हैं।’’
‘‘आप...आप भी जरा आराम कर लेतीं। आप भी तो...
‘रितु आ जाए....’’
‘‘आप बैठिए....यहाँ बैठ जाइए....’’
‘‘बैठ जाऊँ ? चलो, बैठ जाती हूँ।’’
नीलिमा कुर्सी पर बैठ गईं। इक्कीस साल पहले भी, वे इसी कमरे में बैठी थीं। इसी कुर्सी पर ! उस रास, घर की बत्तियाँ बुझाई जा चुकी थीं, समूचा घर सो चुका था। ऋतेन्द्र के सो जाने के बाद, नीलिमा उतर कर नीचे आई थीं। रितु सो रहा था। चौदह साल का रितु ! उन दिनों उनकी क्या उम्र थी ?
बयालीस ! उस दिन नीलिमा दफ्तर में काफी व्यस्त थीं। पे-सेक्शन में क्लर्क थीं। महीने का आखिरी दिन  दोपहर को वे कैंटीन में खाने भी नहीं जा सकी।
उस दिन दफ्तर में दिया आई थी। उन्नीस साला श्यामा, दीर्घांगी—दिया ! जिसके चेहरे पर जड़ी दो आँखें देखते ही बनती थीं।

‘‘मौसी जी।’’
‘‘कौन ? दिया.....’’
‘‘हाँ, जी पी ओ तक आयी थी...सोच यहाँ, भी हो लूँ...’’
‘‘चाय पीओगी !’’
‘‘पहले, जरा बता दें बाथरूम किधर है ?’’
‘‘रुको, ज़रा !’’
बाथरूम की तरफ जाते-जाते, दिया ने बेहद धीमी आवाज़ में कहा, ‘ऋकू रात को करीब एक बजे आएगा। उसने कहा है, आप दरवाजा खोले रखिएगा। अच्छा, मैं चलती हूँ।’’
ऋकु आ रहा है ! उसका आना क्या सुरक्षित है ? नीलिमा यह सब कुछ भी नहीं पूछ पाईं। दिया पिछवाड़े की सीढ़ी से नीचे उतर गई।
सारी रात ! समूची रात ! उन्होंने बैठे-बैठे ही गुजार दी।
ऋकू नहीं आया ! न उस दिन, न किसी और दिन। ऋकू बसु कहीं नहीं लौटा।
अगले दिन अख़बरा में खबर छपी थी—पुलिस मुठभेड़ में...तिलजला में ऋक्वाक बसु....उर्फ बादल....उर्फ बीनू...अच्छा, उनके बेटे के नाम के साथ इतना सारा उर्फ जुड़ा हुआ था...’’

‘‘मौसी जी...’’
नीलिमा ने आँखें फिर उठाई। इन चालीस सालों में दिया के बालों में चंद रुपहली रेखाएँ झिलमिलाने लगीं थीं। अब उसकी आँखों पर चश्मा चढ़ चुका था। लेकिन दिया अभी भी उनकी बेहद करीबी इंसान थी। ख़ैर, उसे तो करीब होना ही था। अमित और दिया का विवाह, इसी घर में, नीलिमा ने ही कराया था।
‘‘दिया, तुम्हें कैसे ...?’’
‘‘अमित ने फोन किया। वह आज शाम की फ्लाइट से बंबई चला गया। ‘संध्या आजकल’ में पढ़कर, उसने एयरपोर्ट से मुझे फोन किया।’’
‘‘अखबार में भी छप गया ?’’
‘‘जी अख़बार में...टीवी में भी घोषणा हुई...।’’
‘‘आओ, बैठो, दिया !’’
‘‘आप....सबने खाना खाया ?’’
‘‘नहीं...रितु ने कहा था, वह घर पर ही खाएगा...’’
दिया ने बेहद धीमी आवाज़ में पूछा, ‘‘मौसा ने ?’’
‘‘हाँ, थोड़ी-सी कोको ली, एकाध बिस्कुट भी ...वह भी भाभी ने काफी ज़ोर-जबर्दस्ती की, इसलिए....’’
‘‘वे भी आई हैं ?’’

‘‘हाँ, भइया-भाभी, बेटी-दामाद, सभी लोग !’’
‘‘आपके लिए थोड़ा –सा शरबत ले आऊँ ?
‘‘मेरे लिए ?’’
‘‘हाँ मौसी जी ! आपके साथ, मैं भी थोड़ी-सा पी लूँगी।’’
‘‘रितु को आ लेने दो, दिया, उसके बाद न हो.....’’
‘‘नहीं, मौसी, अभी ही ले लें। रितु के जब लायेंगे, तो मैं भी तो यहीं रहूँगा—’’
‘‘उस दिन...उस दिन तुमने कहा था न कि ऋकू आएगा...मैं यहीं...इसी कुर्सी पर, सा..री रात...’’
दिया ने हौले से उनका हाथ दबाया।
‘‘जानती हूँ मौसी ! अच्छा, मैं आती हूँ।’’
‘मेरा बैग यहीं है,’’ यह कह कर दिया चली गई।
नीलिमा ने बेहद राहत महसूस की। दिया ने हल्के भूरे रंग पर जोगिया रंग के छोटे-छोटे सितारों वाली प्रिंट की साड़ी पहन रखी थी। ब्लाउज भी जोगिया रंग का ! उसने काली किनारे वाली सफेद साड़ी नहीं पहनी थी। मौत का मतलब ही है, सफेद टांगाइल, सफेद प्रिंट। सफेद-काली ढाकाई साड़ी क्यों ? नीलिमा ने हलके नीले रंग की साड़ी पहन रखी थी, वे वही पहने रहीं।

भाभी ने सफेद साड़ी पर काली किनारेवाली ढाकाई पहनी थी। भाई को धोती-कुर्ता पहनने की आदत नहीं थी, इसलिए उन्होंने धुला-धुलाया कुर्ता-पाजामा पहन रखा था।
भाई की बेटी, विशाखा, हमेशा जींस-कुर्ता ही पहनती थी इस वक्त उसने नाय़लॉन की साड़ी और सफेद रंग का ही बाँह कटा ब्लाउज पहन रखा था। विशाखा के दूसरे पति, साग्निक ने भी सफेद कुर्ता-पायजामा चढ़ा लिया था।

आजकल ही रिवाज है ! कोई चीख-चीखकर नहीं रोती ! लोग सफेद कपड़े पहनते हैं, सफेद फूल लेकर आते हैं। मृतक के साथ मन का कोई रिश्ता नाता हो या न हो, लोग लफुसफुसा कर बातें करते हैं, नंगे पाँव या हल्की-फुल्की चप्पल पहनकर चलते-फिरते हैं।
नीलिमा चीख-चीखकर रो क्यों नहीं पा रही है ? वे क्यों नहीं बता पा रही हैं कि इसी बेटे के प्रति, मेरे श्वसुर ने कहा था कि ऐसा रिजल्ट लानेवाला बच्चा सौ बेटों के बराबर होता है, बहू रानी !
 इक्सीस साल पहले मेरा बड़ा बेटा चला गया, आज छोटा बेटा गया। इक्कीस साल पहले, एक बेटा, आज सौ बेटों के बराबर, छोटा बेटा भी चला गया। आजकल मैं गांधारी हूँ।
ना, उनसे रोया नहीं जा रहा था। रितु ने कहा था, वह आकर खाना खाएगा। उन्होंने उसी की दी हुई नीली साड़ी पहनी थी, नहा-धोकर बाल सँवारे थे। रितु को जो-जो पसंद था, उन्होंने याद से, वही खाना पकाया।
अर्से बाद, उन्होंने खाना पकाया था।

मीरा की माँ ने उन्हें टोका भी था, ‘‘यह क्या कर रही हैं, माँजी ? रात के बखत कोई शुक्तो खाता है ?’’
‘‘इसी खाने की फरमाइश की है।’’
‘‘.....’’
‘‘अरे, इत्ता ज़रा-सा तेल दे रही हैं ?’’ मीरा-माँ ने कहा।
मीरा झुँझला उठी, ‘‘मामा को तेल-घी की मनाही है, तुम नहीं जानतीं ? तुम्हारी तरह क्या सब तेल उँडेलकर खाते हैं ?’’
माँ-बेटी की इस रोजमर्रा की तकरार को नीलिमा ने बड़े कौशल से रोक दिया।
‘‘मीरा, आज स्टेनलेस नहीं, कांसे की थाली निकाल लो। उसने कहा है, वह बंगाली-रिवाज से खाएगा और मीरा की माँ, तुम खीरा काट लो।’’
‘‘आज रुकेगा न ?’’
‘‘हाँ, कहा तो यही है।’’
जाने कितने दिनों बाद, ऋत्वाक् अपने कमरे में सोएगा। जो कमरा छोड़कर, रितु सन् उन्नीस सौ अठहत्तर में दिल्ली चला गया। वह कमरा उन्हीं दोनों भाइयों का था।

ऋतु किसी दिन वहाँ आएगा, उस कमरे में रहेगा, इसलिए वह डॉलर भी भेजता रहा। उसे क्या-क्या चाहिए, उसने उसका भी विवरण लिख भेजा था। इसीलिए उसका कमरा और यह कमरा एयरकंडीशंड कराया गया। दूसरी मंजिल पर उसने बैठने का कमरा, नए सिरे से तैयार करा गया। बड़ा-सा बाथरूम। बिस्तर-तकिए सारा कुछ बदल दिया गया।
‘‘तुम लोगों का कमरा गर्म नहीं होता, अम्मू ?’’

‘‘ना, ऋतु, हमें इसकी आदत नहीं है। तेरे बाबुम् तो खाट और पतले तोशक के अलावा कहीं सो ही नहीं पाते।’’
‘‘हाँऽ, बोर्न नाइंटीन ट्वेंटी, स्टिल गोइंग स्ट्रोंग ! उन्नीस सौ बीस में जन्में अभी भी हट्टे-कतट्टे ! वाकई तुम लोग खासे फिट हो। तुम लोगों को टेंशन नहीं होता ?’’
‘‘किस बात का टेंशन, रितु ?’’
‘‘कलकत्ता शहर का यह हाल...’’
‘‘मैं तो, कलकत्ता के अलावा और कहीं, कभी रही नहीं, तेरे बाबुम भी हीं रहे। मेरा दफ्तर भी यहीं रहा। उनका कॉलेज भी यहीं। सो, कोई तकलीफ नहीं होती।’’

‘‘कहने को तो, मैं भी कलकत्ते का हूँ, मगर जब भी यह ख़्याल आता है है कि यहीं रहना है, तो...’’
‘‘फिर घर के पीछे इतना खर्च क्यों कर रहा है ?’’
‘‘कुछ कहा जा सकता है, अम्मु ? स्वामी की तो तीस सालों तक डॉक्टरी की रोरिंग प्रैक्टिस चली। बहुत बड़े हार्ट-सर्जन भी थे। लेकिन सब छोड़छाड़कर आखिर हैदराबाद ही लौट आए। मुझे भी क्या पता, किसी दिन लौट ही आऊँ।’’
आज वह लौट रहा है। नीलिमा को लगा, उसके अंदर कहीं भयंकर टूट-फूट हो रही है। छाती के अंदर ही, कोई तोड़-फोड़ रहा है। सारा कुछ तोड़े डाल रहा है, दरवाजे, खिड़कियां, दीवारें, सभी कुछ ! जैसे तेज़-तेज़ आँधी चल रही हो। सारा कुछ उड़ाए लिए जा रही हो; सब कुछ धूल-मिट्टी होता जा रहा है।




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