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अनामदास का पोथा (सजिल्द)

हजारी प्रसाद द्विवेदी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3089
आईएसबीएन :9788126717613

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द्विवेदी जी की अपूर्व उद्घोष...

Anamdas ka Potha a hindi book by Hazari Prasad Dwivedi - अनामदास का पोथा - हजारीप्रसाद द्विवेदी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी उन विरले रचनाकारों में थे, जिनकी कृतियाँ उनके जीवन काल में ही क्लासिक बन सकीं। अपनी जन्मजात प्रतिभा के साथ उन्होंने शास्त्रों का अनुशीलन और जीवन को सम्पूर्ण भाव से जीने की साधना करके वह पारदर्शी दृष्टि प्राप्त की, जो किसी कथा को आर्ष-वाणी की प्रतिष्ठा देने में समर्थ होती है।

अनामदास का पोथा अथ रैक्य-आख्यान आचार्य द्विवेदी की आर्ष वाणी का अपूर्व उदघोष है। संसार के दुःख दैन्य ने राजपुत्र गौतम को ग्रहत्यागी, विरक्त बनाया था, लेकिन तापस कुमार रैक्य को यही दुःख दैन्य विरक्ति से संसक्ति की ओर प्रवृत्त करते हैं। समाधि उनसे सध नहीं पाती, और वे उद्वग्नि की भाँति उठकर कहते हैं, माँ, आज समाधि नहीं लग पा रही है। आँखों के सामने केवल भूखे-नंगे बच्चे और कातर दृष्टि वाली माताएँ दिख रही हैं। ऐसा क्यों हो रहा है माँ ? और माँ रैक्व को बताती हैं; अकेले में आत्माराम या प्राणाराम होना भी एक प्रकार का स्वार्थ ही है। यही वह वाक्य है जो रैक्व की जीवन धारा बदल देता है और वे समाधि छोड़कर कूद पड़ते हैं जीवन संग्राम में।

अनामदास का पोथा अथ रैक्व-आख्यान जिजीविषा की कहानी है। ‘‘जिजीविषा है तो जीवन रहेगा, जीवन रहेगा तो अनन्त सम्भावनाएँ भी रहेंगी। वे जो बच्चे हैं, किसी की टाँग सूख गई है, किसी की पेट फूल गया है, किसी की आँख सूज गई है, ये जी आएँ तो इनमें बड़े-बड़े ज्ञानी और उद्यमी बनने की सम्भावनाएँ है।’’ तापस कुमार रैक्व उन्हीं सम्भावनाओं को उजागर करने के लिए व्याकुल हैं, और उसके वे विरक्ति का नहीं, प्रवृत्ति का मार्ग अपनाते हैं।

भूमिका

अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल !

कुछ दिन पहले एक अपरिचित मित्र आये थे। वे कुछ लिखने की योजना बना चुके थे। मुझसे कुछ परामर्श चाहते थे। मैं थोड़ी देर की बातचीत में ही समझ गया कि वे परामर्श कम और स्वीकृति अधिक चाहते थे। उन्होंने कहा था कि विधाता ने मनुष्यमात्र को सौ साल की उम्र दी है; कुछ लोग पूर्वजन्म के पापों के कारण पहले ही मर जाते हैं और कुछ दूसरे लोग इस जन्म के पुण्यों के कारण अधिक जी जाते हैं। जो लोग 66-67 साल तक जी जाते हैं उनके पूर्वजन्म के पाप बहुत प्रचण्ड नहीं होते। शास्त्र के अनुसार वे मध्यम आयु भोगकर दीर्घायु में प्रवेश करते हैं। उस दिन मेरे यह मित्र बता गये थे कि वे दीर्घायु में प्रवेश कर चुके हैं या प्रवेश करने की तैयारी में हैं। मैंने जब उनसे पूछा कि वे निश्चित रूप से क्यों नहीं कहते, तो उन्होंने बताया कि निश्चित रूप से दस दिन के बाद ही बता सकते है ! कारण यह था कि अभी चन्द्र गणना के अनुसार ही दीर्घायु के कोठे में पहुँचे हैं, सौर गणना के हिसाब से अभी दस दिन शेष हैं ! उन्होंने गम्भीर मुद्रा में बताया था कि यमराज के कार्यालय में चन्द्र गणना प्रचलित है, पर विधाता के दफ्तर में सौर गणना के हिसाब से काम होता है। यमराज पितृयान-परम्परा पर चलते हैं, ब्रह्माजी देवयान-परम्परा पर। कभी-कभी दोनों दफ्तरों की गणनाएँ परस्पर टकरा जाती हैं। अन्तिम निर्णय विधाता (ब्रह्मा) के इंगित पर होता है। पर दोनों में जितने दिनों का अन्तर होता है, उतने दिनों तक मरनेवालों को बड़ी साँसत सहनी पड़ती है। यमराज के दूत उन्हें घसीटकर ले जाना चाहते हैं। उधर ब्रह्मा का आदेश न मिलने से मरणशय्या पर पड़े रोगी का जीवन निकल नहीं पाता। बुरी-खींच-तान में बिचारे की दुर्गति हो जाती है। इस जानकारी के कारण मेरे यह मित्र सन्दिग्ध भाषा में बोल रहे थे। पर दस दिन का अन्तर कोई खास अन्तर नहीं था। वे आश्वस्त थे कि अगले दस दिन भी निर्विघ्न बीत जायेंगे, क्योंकि उनके पुराने पापों की कमजोरी तो सिद्ध हो ही चुकी है। यह और बात है कि हर विश्वास-परायण के समान वे भी हिसाबी थे। अपनी बात का उपसंहार करते हुए उन्होंने हाथ घूमाकर, मुँह बिचकाकर, इतना जोड़ दिया था कि ‘‘पर कौन जानता है ? क्षणमूर्ध्व न जानामि विधाता किं करिष्यति !’’

इस अपरिचित मित्र की बात मुझे आकर्षक लगी थी। मुझे विश्वास हुआ था या यों कहिए कि मैंने मन-ही-मन शुभकामना की थी कि वे केवल दीर्घायु में प्रवेश ही नहीं करेंगे, उसे पूर्णत: भोगेंगे।
आज प्रमाण मिल गया है कि वे सचमुच दीर्घायु के कोठे में प्रवेश कर गये हैं।
यह उस दिन की बात है जब वे कुछ लिखने का संकल्प कर चुके थे और मुझे समर्पित करने की अनुमति माँग रहे थे। अब तो वे सौर गणना के अनुसार भी दीर्घायु में प्रवेश कर चुके हैं। उनका पोथा भी आ गया है।
कभी-कभी जीवन में ऐसी बातें घट जाती हैं जिन्हें साहित्यिक समालोचक ‘नाटकीय’ समझकर उपेक्षा करते हैं। मतलब यह होता है कि जीवन में तो वह घटता नहीं, लेखक ज़बर्दस्ती घटा लेता है; अर्थात् नाटककार जिस प्रकार कथा को अपनी वांछित दिशा में मोड़ लिया करता है, उसी प्रकार ऐसी बातें भी बना ली जाती हैं। समालोचकों से न डरना कोई बुद्धिमानी नहीं है, पर डरके सही बात न कहना भी कोई अच्छी बात नहीं कही जा सकती। जीवन में कभी-कभी ऐसी बातें अवश्य ही घट जाती हैं और उन्हें ‘नाटकीय’ कहने का एक ही अर्थ हो सकता है कि जीवन भी एक नाटक ही है। ईमानदारी की बात तो यही है कि जीवन सचमुच ही एक नाटक है। मेरे मित्र भी ऐसा ही मानते हैं। यहाँ मुद्दे की बात सिर्फ़ इतनी है कि जब यह मित्र अपनी बात कह रहे थे तो मैं भी मन-ही-मन हिसाब करने लगा था और यह विचित्र संयोग है कि मैं भी ६६ 2/3 वर्ष पार कर रहा था ! पर मेरे मित्र मुझे इससे अधिक आयु का समझ रहे थे क्योंकि श्रद्धापूर्वक वे कह गये थे कि आप तो अब देवता-कोटि में पहुँच चुके हैं। उनकी बात का अर्थ मैं समझता था। पर मैंने प्रतिवाद करने की आवश्यकता नहीं समझी। महाभारत में कहीं लिखा है कि जो आदमी सतहत्तर वर्ष, सात महीने, सात दिन जी जाता है वह देवता बन जाता है, सो उनके विचार से मैं इतनी उमर पार कर गया था। प्रतिवाद करने से व्यर्थ ही बात बढ़ती। और अन्तर भी कितना है ? सिर्फ ग्यारह साल का ! ग्यारह साल के लिए एक घण्टे की माथापच्ची कोई अक्लमन्दी नहीं जान पड़ी ! सो, वे कहते गये, मैं सुनता गया।

मेरे इस मित्र के समान कल्पनाशील आदमी कम ही होते हैं। वे अपनी कल्पनाओं को प्रामाणिक इतिहास मान लेते थे; उसमें रम जाते थे और प्रतिवाद या रोकाटोकी से मर्माहत-से हो उठते थे। आँसूभरी आँखों से ताकने लगते थे, जिसका अर्थ होता था-‘आप भी ऐसा ही कहते हैं !’
मुझे ऐसे अवसरों पर उन्हें यह समझाने में काफी समय लग जाता था कि उनकी प्रामाणिकता पर सन्देह करना मेरा उद्देश्य नहीं था। हालाँकि उद्देश्य यही होता था। इस प्रकार के झूठ में कोई दोष नहीं माना जाता, क्योंकि इसे अभिजात जनोचित शिष्टता ही समझा जाता है। फिर भी झूठ तो झूठ ही होता है। इससे बचने का शिष्ट तरीक़ा ‘मौन’ है-ऐसा मौन जिससे सुनानेवाले को पता ही न चले कि सुननेवाले के मन में क्या प्रतिक्रिया हो रही है। यह बात भी नाटकीय जैसी ही है। ऐसा नाटक मैं बहुत कर चुका हूँ। इसलिए मुझे इसमें कोई खास परेशानी नहीं हुई।

मेरे मित्र ने बताया था कि जब सूरदास ने यही अवस्था पार की थी, तभी उन्होंने वह प्रसिद्ध पद लिखा था जिसमें कहा गया है कि ‘अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल !’ प्रमाण ? प्रमाण यही था कि ठीक आज ही, जब वे चान्द्र गणना के अनुसार 66 2/3 साल पूरे कर चुके हैं, इसी प्रकार के भाव उनके मन में आये हैं ! मेरा मन सनाका खा गया था। मैं भी आज प्रात:काल से यह पद रटे जा रहा था ! तो क्या यह मान लिया जाये कि सूरदास जब 66 2/3 साल के हुए तो उनके मन में इस प्रकार का पश्चात्ताप हुआ था ? सूरदास बहुत महान् सन्त थे। उनके बारे में तो यह दैन्योक्ति ही कही जायेगी। पर मेरे मन में और मेरे सामने बैठे अपरिचित मित्र के मन में यह भाव आज ही कैसे आ गया ? दो के मन में उठा है तो तीसरे, चौथे के मन में भी उठता होगा ! 66 2/3 महत्त्वपूर्ण लगता है !
मेरे मित्र उस दिन आश्वस्त होकर गये थे, पर मेरे मन में एक विचित्र हलचल पैदा कर गये थे।

उनकी बातों में भोलेपन के आवरण में अजीब लुभावनापन भी था। मैंने उनका नाम और पता जान लेना चाहा था पर वे विचित्र असमंजस में पड़ गये थे। ‘नाम में क्या रखा है ? कुछ भी समझ लीजिए। आप ही बताइए, आपका क्या नाम है ? जिस नाम से सारी दुनिया आपको जानती है वह नाम क्या आपके गुरुजनों के मन में कहीं भी था जब आप इस संसार में आये थे ? और अब आप जिस नाम से जाने जाते हैं, उसी का कोई वास्तविकता के साथ तालमेल है ? असल में नाम में धोखा है।’ और कोई अवसर होता तो उनकी बात को हँसकर उड़ा देता। कई लोग दूसरों पर रहस्यवादिता का रोब जमाने के लिए इस प्रकार के मिथ्या ज्ञान का घटाटोप फैलाया करते हैं पर 66 2/3 की महिमा है कि मैं उस दिन अभिभूत हो गया। यह सही है कि अपने प्रचलित नाम के कारण मुझे कई बार कठिनाइयों में पड़ना पड़ा है। एक अहिन्दी-भाषी नेता ने जब मुझसे इसका अर्थ पूछा तो मैं केवल यही उत्तर दे सका कि यह नाम शब्द के रूप में बिल्कुल अर्थहीन है। एक दूसरे विद्वान ने इसका अर्थ स्वयं बता दिया जो मेरी दृष्टि में बेईमानी था। उनके अनुसार यह एक देवी के नाम से सम्बद्ध है। एक बार संस्कृत का पक्ष लेकर कुछ बोल रहा था कि किसी मित्र ने मजाक किया कि ‘नाम तो आपका हिन्दुस्तानी है और समर्थन कर रहे हैं संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का।’ उस दिन मैंने भी कहा था-‘नाम में क्या रखा है !’ भगवान् साक्षी है कि मैं न संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का समर्थन कर रहा था, न तथाकथित हिन्दुस्तानी का विरोध। कर रहा था संस्कृत की समृद्धि की स्थापना, पर मेरा नाम अकारण घसीट लाया गया।

इस नाम को लेकर मुझे अपने एक परम श्रद्धेय गुरु से भी उलझना पड़ा। अगर उस समय उलझने में हठ न पकड़ लेता तो शायद यह नाम बदल ही गया होता। मेरे श्रद्धेय गुरु संस्कृत के महान् विद्वान थे। उन्होंने कहा था कि तेरे नाम में मुसलमानियत की बू है। पितामह का दिया हुआ ‘वैद्यनाथ’ नाम ही ठीक है। बदल दे। मुझे ‘बू’ शब्द खटक गया। मैंने प्रतिवाद किया, ‘गुरुजी, सुगन्धि कहिए। अगर इसमें ऐसी सुगन्धि हैं तो मैं इसे नहीं बदलने दूँगा।’ गुरुजी द्रवित हो गये। बोले, ‘तो रहने दे।’ और पितृ-पितामह का दिया नाम छूट गया, लोकदत्त नाम रह गया ! एक बार मेरे परम श्रद्धेय अग्रजतुल्य महान कवि ‘नवीन’ जी ने मुझे एक पुस्तक भेंट की। उन्होंने उसमें मेरा नाम ‘सहस्रार प्रसाद’ कर दिया और कहा कि मैंने तुम्हारा नाम संस्कृत बना दिया। मैंने उन्हें बताया कि ‘हजार’ वस्तुत: ‘सहस्र’ शब्द में विद्यमान ‘हस्र’ का ही फ़ारसी उच्चारण है और इस शब्द द्वारा आर्य भाषा के विस्तृत परिवेश की सूचना मिलती है तो वे मुग्ध हो गये। पर मैंने उनके हाथ का लिखा संस्कृतीकृत नाम बड़े जतन से अपने पास रख छोड़ा है। यह बात जब मैंने एक बड़े तान्त्रिक विद्वान को बतायी तो खिन्न और विस्मित भी हुए। दोनों का कारण हम लोगों का अज्ञान था। उनके मत से सहजावस्था देनेवाली शक्ति का नाम ही हजारी है। ‘सहज’ शब्द गुणपरक है-‘ह’ (हठयोग) और ‘ज’ (जययोग) का समन्वित रूप और ‘हजारी’ क्रियापरक है-ह और ज का समन्वय करने वाली देवी- ‘हजमाराति या देवी महामायास्वरूपिणी, सा हजारीति सम्प्रोक्ता राधेति त्रिपुरेति वा।’ मुझे याद आया कि एक महाराष्ट्रीय विद्वान ने भी कभी बताया था कि ‘हजारी’ एक देवी का नाम है। होगा, पर मेरा यह नाम इसलिए नहीं पड़ा कि यह किसी तन्त्रशास्त्रोक्त देवी के साथ सम्बद्ध था, बल्कि इसलिए कि गाँव-घर के लोग प्रसन्न थे कि मेरे जन्म से एक विषम संकट ही नहीं टला था, कुछ हजार रुपये की आमदनी भी हो गयी थी। मुझे यह नाम ‘विरुद’ के रूप में मिला और अब तो गले पड़ गया है। पण्डितों से तो सिर्फ इतना मालूम हुआ कि इसका अर्थ भी है-काफ़ी अच्छा अर्थ, जो शाक्त मत की त्रिपुरा है, वैष्णव मत की राधा हैं और योगियों की भाषा में हजारी हैं, मैं उन्हीं का प्रसाद हूँ। अर्थ अच्छा है, परमार्थ भी हो जाये तो क्या कहना, पर नाम में क्या रखा है, काम होना चाहिए। मेरे ये नये मित्र नाम नहीं बताना चाहते, काम दिखाना चाहते हैं। वे अपनी भावी रचना मुझे समर्पित करने की अनुमति लेकर चले गये। छोड़ गये सूरदास की व्याकुल वेदना, जो उन्होंने, मेरे इस नये मित्र के अनुसार, 66 2/3 वर्ष की अवस्था में अनुभव की थी- अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल !

क्या तुलसीदास ने जब कातर-भाव से गाया था कि ‘नाचत ही निसिदिवस मर्यो,’ तब उनकी भी अवस्था 66 2/3 साल की ही थी ? कौन बतायेगा ? मित्र तो गये सो गये !
पर उनकी अनुपस्थिति का एक लाभ भी हुआ है। मैं उनकी भाषा में सोचने लगा था, उनके विचार को अपना सत्य मानने लगा था। नाम में क्या रखा है, यह एक विदेशी मुहावरा ही है। नाम इतना हल्का पदार्थ नहीं है। ‘देखियत रूप नाम आधीना।’ जिस नाम को सामाजिक स्वीकृति नहीं प्राप्त हुई, वह निरर्थक शब्दमात्र है। अर्थ, नामी है। नाम उसका संकेत देनेवाला पद है। तभी नामी पदार्थ-पद का अर्थ-बनता है। मेरे अपरिचित मित्र तब तक ‘अपदार्थ’ हैं, जब तक उनका कोई नाम नहीं है। एक नाम ‘अनाम’ भी है। भाई जैनेन्द्रकुमार जी ने एक उपन्यास लिखा है-‘अनाम स्वामी’ ! इस अपरिचित मित्र को भी ‘अनाम’ कहा जा सकता है। स्वामी वे नहीं थे। मैं उन्हें आवश्कतानुसार ‘अनामदास’ कह सकता हूँ।
महात्माओं की बात और है। वे लोग अपने बहाने साधारण मनुष्यों के मन को कुछ अच्छी बात सिखाना चाहते होंगे। किन्तु मैं साधारण मनुष्य के रूप में ही सोच सकता हूँ। किसी को सिखाना इसका उद्देश्य नहीं है। पीछे की ओर देखता हूँ, विराट् रिक्तता ! जो कुछ करता रहा हूँ वह क्या सचमुच किसी काम का था ? अपनी सीमाओं, त्रुटियों, ओछाइयों को छिपाकर अपने को कुछ इस ढंग से दिखाना कि मैं सचमुच कुछ हूँ, यही तो किया है। छोटी-छोटी बातों के लिए संघर्ष को बहादुरी समझा हैं, पेट पालने के लिए छीना-छपटी को कर्म माना है, झूठी प्रशंसा पाने के लिए स्वाँग रचे हैं-इसी को सफलता मान लिया है। किसी बड़े लक्ष्य को समर्पित नहीं हो सका, किसी का दु:ख दूर करने के लिए अपने को उलीचकर दे नहीं सका। सारा जीवन केवल दिखावा, केवल भोंडा अभिनय, केवल हाय-हाय करने में बीत गया। तुलसीदास ने मेरे-जैसे ही किसी को देखकर कहा होगा-‘कोउ भल कहउ, देउ कछु, असि वासना न मन तै जाई।’

मगर यह रोना भी व्यर्थ ही है। क्या लाभ है इससे ? किस दुखिया के आँसू पूँछने की सम्भावना है इससे ? किसी का भला न होता हो तो उसका पँवारा पसारना सामाजिक अपराध ही है। फलितार्थ सिर्फ़ इतना ही है कि अनामदासजी ने एक पोथा भेज दिया है। मुझे समर्पित है यह। पर समर्पण उस अर्थ में नहीं है जिस अर्थ में साधारणत: हुआ करता है। उन्होंने लिखा है कि इसे जैसा चाहूँ वैसा करने का अधिकार मुझे है, इसी अर्थ में यह समर्पित है !
क्या किया जाये ? न्याय का उत्तरदायित्व आ पड़ा है। छपा देना ही ठीक जान पड़ता है।

मगर छपे कैसे ? काग़ज़ की ऐसी किल्लत है कि बड़े-बड़े नामी लेखकों की रचनाएँ नहीं छप पा रही हैं। हर प्रकाशक नाम खोजता है। ऐसा नाम, जो कसके कमाया गया हो। नाम भी कमाया जाता है। कोई भी नाम रख लेने से काम नहीं चलता। संसार नाम की भी कमाई देखता है और यह अनामदास कहता है कि नाम में क्या रखा है। गोसाईं तुलसीदास-जिनका असली नाम क्या था, वह विवाद का विषय बना हुआ है-कह गये हैं कि नाम जाने बिना तो करतलगत वस्तु भी नहीं पहचानी जाती। कुछ-न-कुछ नाम तो होना चाहिए ! नाम से ही नामी की पहचान होती है। मैं एक बार एक विकट ज्योतिषी के पास गया था। नाम से ही सब बता देता था। मैंने पूछा कि राशि-नाम बताऊँ या लोक-नाम। बोले, लोक-नाम। मैं हैरान था, क्योंकि इसके पहले एक ज्योतिषी से पाला पड़ा था, वे राशि-नाम से फल भाखते थे।
एक प्रसिद्ध दैनिक पत्र में हर सप्ताह राशिफल निकलता है। यह राशि-नाम के अनुसार देखा जा सकता है। जिस सप्ताह अनामदास मिले थे, उस सप्ताह उस दैनिक-पत्र ने मेरी राशि का फल बहुत अच्छा नहीं बताया था। लिखा था, इस सप्ताह तुम्हारी प्रतिभा लुप्त हो जायेगी। प्रतिभा कितनी लुप्त हुई, यह मैं नहीं समझ सका, क्योंकि लुप्त होने के पहले वह होनी चाहिए। जिसके प्रतिभा ही नहीं उसकी प्रतिभा लोप ही होकर कौन-सा नया करिश्मा कर लेगी ! मगर अब सोचता हूँ कि अनामदास का मिलना और प्रतिभा का लोप होना क्या एक ही बात है ? सुना है कि प्रतिभा नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि होती है, अनामदास शायद ऐसा पत्थर था जो उन्मेष की सम्भावना को भी दबा देता है। सारी दुनिया नाम कमाने के चक्कर में है और अनामदास ने उस दिन मुझे समझा दिया कि नाम में क्या रखा है। मैं भी मान गया, बुद्धि तो मारी ही गयी थी। राशि-नाम ठीक ही होता होगा !

मगर अनामदास ने बताया था कि राशि-नाम भी धोखा ही है। कहते थे, भारतीय वर्णमाला की विन्यास-परम्परा से भिन्न यावनी वर्णमाला से राशि-नाम की पद्धति विकसित हुई है। किसी समय यहाँ कृत्तिका नक्षत्र से सत्ताईस नक्षत्रों की गणना होती थी, अब अश्विनी से होती है। पर बहुत-सी ज्योतिषिक गणनाएँ अब भी कृत्तिका से होती हैं ! सत्ताईस नक्षत्रों के 108 चरण होते हैं। यावनी वर्णमाला में इतने अक्षर नहीं थे। जो थे, उनके पाँच स्वरों समेत 108 बनाना सम्भव नहीं था। क्रम उनका अ, ब, क जैसा था, बहुत-कुछ अंग्रेजी के ए.बी.सी. की भाँति। यवन-भाषा के पाँच स्वरों के साथ आ, ई, ऊ, ए, ओ बा, बी, बू, बे, बो होते थे। इन्हीं को नक्षत्रों के चरण का प्रतीक माना जाता था। मज़ेदार बात तो यह है कि इसे कहते भी अबकहरा चक्र ही हैं-यावनी वर्णमाला के चार अक्षरों का भारतीय रूप ! संस्कृत वर्णमाला के घ, ड़, छ आदि कुछ अक्षर जोड़कर 108 की संख्या पूरी की गयी। यह एकदम कल्पित विधान है। कभी-कभी पण्डित को इन अक्षरों से नाम बनाने में कठिनाई हो जाती है। मेरी ओर इशारा करके उन्होंने कहा था, क्या आपके नाम अर्थात् राशि-नाम रखने में कठिनाई नहीं पड़ी होगी ? मैं हैरान था। उसका सांकेतिक अक्षर ‘ये’ है। संस्कृत में ‘ये’ से बननेवाले शब्द कम ही हैं। मेरी पत्री बनानेवाले पण्डित अवश्य चक्कर में पड़े थे। बहुत बुद्धिबल लगाकर उन्होंने मेरा नाम रखा ‘येन नाथ’ ! क्या मतलब हुआ ? मतलब यही हुआ कि नाम में क्या रखा है, कुछ भी रख दो, काम चल जायेगा। अनामदास का कहना है कि यह भी धोखा है। होगा ! फल भाखनेवाले तो काम चला ही लेते हैं। इस विचित्र विधान से ही ब्याह-शादी होती है। इससे जाति तय होती है, योनि का निश्चय होता है, गण का निर्णय होता है, कुण्डली मिलायी जाती है-एक समानान्तर व्यवस्था खड़ी हो जाती है। मेरे एक मित्र थे, प्रख्यात ब्राह्मणवंश के कुल-भूषण। परन्तु उनका लड़का इस अबकहरा गणना-पद्धति के हिसाब से शूद्र वर्ण का निकला। यह केवल उसी ब्राह्मण-कन्या से विवाह कर सकता था जो इस ज्योतिषिक गणना से शूद्र वर्ण की हो। अनेक लड़कियों के पिता उसके विवाह का प्रस्ताव लेकर आये, पर उनमें से एक भी ज्योतिष के हिसाब से शूद्र नहीं निकली। जो लड़की उन्हें ठीक जँचती वही या तो ब्राह्मण निकलती या फिर क्षत्रिय या वैश्य। विवाह तय नहीं हो पाता था। बहुत परेशान थे। अन्त में एक ज्योतिषी ने ‘विवाह-वृन्दावन’ का श्लोक पढ़कर उनकी परेशानी दूर की कि ‘मैत्री यदा स्यात् शुभदो विवाह:’। ग्रहमैत्री बनती हो तो और बातों का विचार नहीं किया जाता। ‘मैत्री’ मिल गयी थी। किसी प्रकार बला टली। अनाम की बातें वजनदार लगती हैं।

बहुत-सी आदिम जातियों में नाम छिपाने का प्रयत्न होता है। आदिम मनुष्य नाम और नामी की एकता में विश्वास रखता था। यदि नाम मालूम हो जाये तो कभी दुश्मनी से कोई अभिचार कर सकता है। ‘देवदत्त मर जाये’ कहने से देवदत्त मर नहीं जाता, यह बात तो अब लोग कहने लगे हैं ! बहुत आदिम काल में सोचते थे कि अगर ध्यानपूर्वक जप किया जाये तो ‘देवदत्त’ पद नहीं, इस पद का अर्थ-पदार्थ-देवदत्त मर जायेगा। कोई चित्र बनाकर उसकी छाती में छुरा भोंके तो छुरा उस चित्र के अर्थ में-जीवन्त मनुष्य में-लग जायेगा ! अब लोग कहेंगे कि ये सब बेकार बातें हैं, पर अब भी गालियों में, अभिशाप में उसका अवशेष बचा है ! और ज्योतिषी भी उसी पुरानी प्रथा से चल रहा है। दुनिया से कोई भी विश्वास एकदम ग़ायब नहीं हुआ है। रूप बदलकर वह जी रहा है। नहीं जीता तो अपने को ‘प्रोग्रेसिव’ या प्रगतिशील कहने और माननेवाले लोग विरोधी के पुतले क्यों जलाते, मुर्दाबाद के नारे क्यों लगाते ? आदिम मनोवृत्ति जी ही रही है ! जियेगी !
अनामदास नहीं जानते कि दुनिया यह नहीं पूछती कि क्या कहा जा रहा है, वह पूछती है, कौन कह रहा है ! कौन अर्थात् नाम। बड़े-बड़े समालोचक नाम देखकर आलोचना लिखते है; परीक्षक निर्देशक का नाम तौलकर उपाधिकारी की वैतरणी पार करा देते हैं ! ‘नाम’ अनेक कामों को अपने में बाँधे रहता है। अब इस पोथे को पढ़ना होगा, फिर अगर अच्छा हुआ यानी मेरे मन-माफ़िक हुआ तो कहना होगा कि अनामजी को कोई जानता तो नहीं, पर लिखते अच्छा हैं। फिर प्रकाशक नख़रे करेगा। राज़ी भी होगा तो कहेगा कि किसी नामी आदमी से प्रस्तावना लिखवा दीजिए। महा झंझट है। सारी दुनिया नाम खोजती है। धर्म-ग्रन्थ तो नाम की महिमा से भरे पड़े हैं। सब झूठे हैं, सच्चे हैं महात्मा अनामदास !

मगर इस भले आदमी ने मुझे ही इस झकमारी के लिए क्यों चुना ? बड़े-बड़े विद्वान हैं, नेता हैं, राजपुरुष हैं, सेठ-साहूकार हैं; चाहे तो तिल का ताड़ बना दें, ताड़ का तिल बना दें। वहाँ जाओ। उनसे कहो, मुझ गरीब को क्यों फाँसते हो ? विश्वास देखिए कि आये थे समर्पण करने की अनुमति माँगने; लिख दिया, ‘आपको समर्पित है, जो चाहे कीजिए।’ अजब समर्पण है ! ऐसा समर्पण भी नहीं सुना। पढ़ना पड़ेगा। पता नहीं, क्या-क्या लिखा है ? बात तो पते की थी। सिर खपाना बुरा नहीं होगा।
मुश्किल यह है कि हिन्दी में लिखना जितना आसान है, उतना पढ़ना नहीं। लोग फटाफट लिख देते हैं, पढ़नेवाला मग़ज़ मारता रहता है। व्यक्तिगत अनुभव के बल पर कह सकता हूँ कि कुछ ऐसे लेखक हैं जिनकी एक पुस्तक पढ़कर समाप्त नहीं कर पाया तब तक उनकी चार पुस्तकें छप गयीं। अनाम भी कहीं वैसा ही लिक्खाड़ न निकले ! मगर अब डरने से भी क्या होगा ! संस्कृत के एक अनुभवी कवि सलाह दे गये हैं कि डर से तभी तक डरना चाहिए जब तक डर सचमुच सामने आकर खड़ा न हो जाये-‘तावद् भयस्य भेतव्यं यावद् भयमनागतम्।’ और यहाँ तो भय सिर पर सवार है ! पोथे से छुटकारा नहीं है।

पोथा पढ़ गया। अजब गप्पी है यह अनाम। अनुभव का क्षेत्र तो इसका बहुत सीमित लगता है, पर उस सीमा के भीतर उछल-कूद कर सकता है। कभी-कभी तो ऐसा उछलता है कि लगता है कि अंगद-कूद करके ही मानेगा। कहते हैं, जब रामचन्द्रजी लंकाविजय करके लौटे तो ससुराल गये थे और साथ में वानरी सेना भी गयी थी। लक्ष्मणजी सदा चिन्तित रहते थे कि कहीं लोक-व्यवहार से अनभिज्ञ बन्दर कुछ ऐसा न कर बैठें कि ससुराल में भद्द हो। सो, सब समय सिखाते रहते थे-मुझे देखते रहो, मैं जैसा इशारा करूँगा वैसा ही करना। बन्दर बिचारे भी काफी सावधान थे। सब समय देखते रहते थे कि लक्ष्मणजी क्या इशारा करते हैं। भोजन करने सब लोग बैठे थे। लक्ष्मणजी ने बहुत सावधान कर दिया था। अन्न देखकर ही न टूट पड़ना, मेरी ओर देखते रहना, जैसा इशारा करूँ वैसा करना। ससुराल का मामला है, गड़बड़ न होने पाये। राम के एक ओर सुग्रीव बैठे, एक ओर युवराज अंगद। लक्ष्मणजी कोने में सुग्रीव के बगल में थे। दायें, बायें, सामने वानर यूथाधिपति लोग। भोजन परसा गया। लक्ष्मण ने इशारा किया, चुप शान्त। सब वानर उनकी ओर दृष्टि बाँधे अधीर-भाव से प्रतीक्षा करते रहे। लक्ष्मणजी ने नींबू का टुकड़ा उठाया, उसे दबाया। एक बीज छटककर ऊपर उठा। बन्दरों ने समझा, इशारा हो गया। पासवाला उचककर थोड़ा कूदा। धीरे-धीरे क्रम से एक-एक वानर उचकने लगा। थोड़ा और अधिक उचकने की होड़ लग गयी। अंगद की बारी आयी तो ऐसा उचके कि छत ही ले उड़े। राम-लक्ष्मण हैरान ! यह क्या हो रहा है; मगर अंगद तो छत ही ले उड़े थे। इसी को अंगद-कूद कहते हैं। अनाम भी कभी ऐसी ही कुलाँचें भरता है। पर वह अंगद की भाँति छत लेकर नहीं उड़ पाता। छत से टकराकर नीचे ही आ जाता है। सीमा उसे अधिक बहकने नहीं देती। अनाम के भीतर सोया हुआ कोई कवि भी है। रह-रहकर वह जाग पड़ता है, पर न तो यह कवि उसके पूरे व्यक्तित्व को अभिभूत कर पाता है, न अनाम वैसा करने की उसे अनुमति ही देता है। बिचारा सोया कवि जागता है, फिर किसी अदृश्य चाबुक की चोट खाकर बेहोश हो जाता है। न मरता है, न मोटाता है। अनाम के भीतर का आलोचक सब समय गर्जन-तर्जन द्वारा उसका होश-हवास गुम करता रहता है। पर ऐसा लगता है कि यह आलोचक जितना गर्जन करता है, उतना शक्तिशाली नहीं है। कालिदास ने अपने एक विदूषक से कहलवाया है कि जैसा साँपों में डुण्डुभ होता है वैसा ही ब्राह्मणों में मैं हूँ। डुण्डुभ बिल्कुल निर्विष सर्प है। अनाम का आलोचक भी आलोचकों में डुण्डुभ ही है। कहने का मतलब यह है कि अनामदास के पोथे से लगता है कि उसके लेखक के भीतर का कवि सुप्त है, आलोचक अशक्त। फिर भी कोई बात है जो आकृष्ट करती है।

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