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जीवनी/आत्मकथा >> कुल्ली भाट

कुल्ली भाट

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :151
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3095
आईएसबीएन :9788126713707

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कुल्ली के जीवन-संघर्ष के बहाने इसमें निराला का अपना सामाजिक जीवन मुखर हुआ है और बहुलांश में यह महाकवि की आत्माकथा ही है।

Kulli Bhat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कुल्ली भाट अपनी कथावस्तु और शैल-शिल्प के नएपन के कारण न केवल निराला के गद्य-साहित्य की बल्कि हिंदी के संपूर्ण गद्य-साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि है।
यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि कुल्ली के जीवन-संघर्ष के बहाने इसमें निराला का अपना सामाजिक जीवन मुखर हुआ है और बहुलांश में यह महाकवि की आत्माकथा ही है। यही कारण है कि सन् 1939 के मध्य में प्रकाशित यह कृति उस समय की प्रगतिशील धारा के अग्रणी साहित्यकारों के लिए चुनौती के रूप में समाने आई, तो देशोद्धार का राग अलापने वाले राजनीतिज्ञों के लिए इसने आईने का काम किया।
संक्षेप में कहें तो निराला के विद्रोही तेवर और गलत सामाजिक मान्याताओं पर उनके तीखे प्रहारों ने इस छोटी-सी कृति को महाकाव्यात्मक विस्तार दे दिया है, जिसे पढ़ना एक विराट जीवन-अनुभव से गुजरना है ।


पं. पथवारीदीनजी भट्ट (कुल्ली भाट) मेरे मित्र थे। उनका परिचय इस पुस्तिका में है। उनके परिचय के साथ मेरा अपना चरित भी आया है, और कदाचित् अधिक विस्तार पा गया है। रूढ़िवादियों के लिए यह दोष है, पर साहित्यिकों के लिए, विशेषता मिलने पर, गुण होगा। मैं केवल गुण-ग्राहकों का भक्त हूँ।

कुल्ली सबसे पहले मनुष्य थे, ऐसे मनुष्य, जिनका मनुष्य की दृष्टि में बराबर आदर रहेगा। सरस्वती-सम्पादक, पं. देवीदत्तजी शुक्ल ने, पूछने पर, कहा, कुल्ली मेरे भाई के मित्र थे। अस्तु, जहाँ शुक्लजी की मित्रता का उल्लेख है, वहाँ पाठक समझने की कृपा करें कि कुल्ली शुक्लजी के मित्र नहीं, बड़े भाई-जैसे थे।
पुस्तिका में हास्य-रस की प्रधानता है, इसलिए कोई नाराज होकर अपनी कमजोरी न साबित करें, उनसे प्रार्थना है।

 

-निराला
लखनऊ
10/5/39

 

दो शब्द

 

प्रस्तुत पुस्तक नवीन साज-सज्जा के साथ पुनर्मुद्रित होकर निकल सकी, इसका श्रेय श्रीमती शीलाजी सन्धू, संचालिका ‘राजकमल प्रकाशन’ प्राइवेट लिमिटेड नयी दिल्ली को है, जिन्होंने पुस्तक को आधुनिकता का रंग-रूप देकर छापने में अपनी सुरुचि का परिचय दिया है। मैं उनके इस स्नेहपूर्ण सहयोग के प्रति आभार मानता हूँ।
विमोचित एवं पुनर्मुद्रित पुस्तक का नव संस्करण हिन्दी के सुयोग्य पाठकों को सहर्ष समर्पित करते हुए आशा करता हूँ कि वे ‘‘निराला’’ की कृतियों को जिस रुचि और आदर भाव से अपनाते रहे हैं, इसे भी अपनायेंगे।
265, छोटी वासुकि,
दारागंज,
प्रयाग
2-11-78

 

रामकृष्ण त्रिपाठी
आत्मज
महाकवि निराला

 

 

एक

 

बहुत दिनों की इच्छा-एक जीवन-चरित लिखूँ, अभी तक पूरी नहीं हुई; चरितनायक नहीं मिल रहा था, ठीक जिसके चरित में नायकत्व प्रधान हो। बहुत आगे-पीछे, दायें-बायें देखा। कितने जीवन-चरित पढ़े, सबमें जीवन से चरित ज़्यादा; भारत के कई महापुरुषों के पढ़े-स्वहस्तलिखित; भारत पराधीन है, चरित बोलते हैं। बहुत दिनों की समझ सत्य कमजोरी है, शहज़ोरी उसकी प्रतिक्रिया; अगर चरित में अँधेरा छिपा, प्रकाश आँखों में चकाचौंध पैदा करता है, जो किसी तरह भी देखना नहीं-जड़ पकड़ गयी।
याद आया, कहीं पढ़ा था-बम्बई के सिनेमा-स्टारों की सर्र से दीवार चढ़ने की करामात देखकर-रँगे कृत्य में आये-सत्य से अज्ञ-बाहर के किसी प्रेमी कार्यकर्ता ने कमर तोड़ ली है। बड़ी खुशी हुई। साफ़ देखा-क़लम हाथ लेते ही कितने कवियों की आँख की परी विश्व-साहित्य के सातवें आसमान पर मारती है, कितने कर्मवीर दलिया खाते हुए कमर कमान किये, जान पर खेल रहे हैं, कितने आधुनिक बेधड़क समाजवाद के नाम से पूरे उत्तानपाद।
इसी समय तुलसीदास की याद आयी, जिन्होंने लिखा है-
‘‘जो अपने अवगुन सब कहऊँ, बाढ़ै कथा पार ना लहऊँ;
ताते मैं अति अलप बखाने, थोरे महँ जानिहैं सयाने।’’
सोचा, तुलसीदास ने सिर्फ़ सयानों की आँख फैलायी है, यानी महापुरुषों की नहीं। वह स्वयं भी महापुरुष नहीं थे आधुनिक विद्वानों का मत है। कहते हैं, जवानों के श्रीगणेश से, यानी अच्छी तरह होश आने से, उम्र के सौ साल बाद-अच्छी तरह होश जाने तक उनमें पुरुषत्व ही प्रधान रहा।
मुझसे कवि भगवतीचरण कहते थे-कविवर रामनरेश त्रिपाठी जानते हैं, बहुत आधुनिक रिसर्च है-तुलसीदासजी गर्मी से मरे थे; यह पता नहीं चला-गर्मी रत्नावली से मिली-कहाँ से; बाहुक की रचना के वक्त बाँह का दर्द गर्मी के कारण हुआ। कुछ हो, मैं ऐतिहासिक नहीं, समझा कि तुलसीदासजी पुरुष थे, महापुरुष नहीं; महापुरुष अकबर था-दीन-ए-इलाही चलाया, हर कौम की बेटी ब्याही, चेले बनाये।

अपने राम के लकड़दादा के लकड़दादा के लकड़दादा राजा बीरबल त्रिपाठी अकबर के चेले थे; अपनी बेटी खाले के वाजपेयियों के घर ब्याही; तब से वाजपेयी-वंश में भी महापुरुषत्व का असर है, यों ट्रिपल लकड़दादा का प्रभाव कुल कनवजिया कुलीनों पर पड़ा। खैर, ‘महापुरुष’ ‘पुरुष’ का बढ़ा हुआ रँगा हिस्सा लेकर है, उसी तरह उसके ‘चरित’ में एक ‘सत’ और जुड़ गया है। साहित्यिक की निगाह में यह साबुन का उपयोगितावाद है, अर्थात् सिर्फ़ साफ़ होता है, वह भी कपड़ा; रास्ता, घर या दिमाग नहीं। अगर ‘वाद’ ले, जैसे समाजवाद पैर बढ़ाये है, तो वह भी अकेला साहित्य नहीं ठहरता। साहित्य पुरुष का एक रोयाँ सिद्ध होता है।
मैं तलाश में था कि ऐसा जीवन मिले, जिससे पाठक चरितार्थ हों, इसी समय कुल्ली भाट मरे।

 

दो

 

जीवन-चरित जैसे आदमियों के बने और बिगड़े, कुल्ली भाट ऐसे आदमी न थे। उनके जीवन का महत्त्व समझे, ऐसा अब तक एक ही पुरुष संसार में आया है, पर दुर्भाग्य से अब वह संसार में रहा-गोर्की। पर गोर्की में भी एक कमज़ोरी थी; वह जीवन की मुद्रा को जितना देखता था, ख़ास जीवन को नहीं। वादी-विवादी था। हिन्दी में कोई है हिन्दी-भाषी ? किसी महापुरुष की ज़बान से कहा जा सकता है-‘नहीं’।
मैं हिन्दी के पाठकों को भरसक चरितार्थ करूँगा, पर कुल्ली भाट के भूगोल में केवल जिला रायबरेली था स्थल, बाक़ी जल। एक बार लाचारी उम्र अयोध्या तक गये, जैसे किसी टापूमें यान, रेल। यों ज़िन्दगी-भर अपने वतन डलमऊ में रहे। लेकिन ज़िन्दगी के बाद-जितने जानता हूँ, नाम-मात्र से लेकर पूरे परिचय तक-उनसे नहीं छूटे। गड़ही के किनारे कबीर को महासागर कैसे दिखा, मैं समझा।
बड़ा आदमी, कुल्ली को कोई नहीं मिला, जिसे मित्र समझकर गर्दन उठाते, एक ‘सरस्वती’ सम्पादक पं देवीदत्त शुक्ल को छोड़कर; लेकिन शुक्लजी का बड़प्पन जब उन्हें मालूम हुआ, तब मरने के छ: महीने रह गये थे, मुझी से सुना था।

सुनकर गर्दन उठायी थी, साँस भरी थी, और कहा था, ‘‘वह मेरे लँगोटिया यार हैं। हम मदरसे में साथ पढ़े हैं।’’
मुझे हँसता देख फिर छोटे पड़े, पूछा, ‘‘देवीदत्त बड़े आदमी हैं ?
मैंने कहा, ‘‘महावीरप्रसाद द्विवेदी सम्पादक थे, उसके अब शुक्लजी हैं।’’
न-जानें क्यों कुल्ली को फिर भी विश्वास न हुआ। मैं सोच रहा था, या तो कुल्ली मदरसे में शुक्लजी से तगड़े पड़ते थे; या-याद आया, शुक्लजी को बैसवाडे के कवि कण्ठाग्र हैं कुल्ली की दोस्ती के कारण। कुल्ली गुरु-स्थान पर है। मुझे भी उन्होंने कुली (एक दाँव) पर चढ़ाया था, नरहरि, हरिनाथ, ठाकुर, भुवन आदि-मालूम नहीं-कितने कवि गिनाये थे अपने वंश के। मुमकिन है, इसलिए भी कि धाक जमाने में मुझे कामयाबी न होगी, यह मैं बीस साल से जानता हूँ। अलावा मेरी दृष्टि का अप्रतिष्ठा-दोष कर दें। पर कुल्ली को मालूम न था कि मैं कविता तो लिखता हूँ, पर कवि दूसरे को मानता हूँ। कुल्ली की शुक्लजी के प्रति हुई मनोदशा देखकर मैंने कहा, ‘‘जब आप मुझे इतना...तब शुक्लजी तो...मैं तो उनके चरणों तक ही पहुँचता हूँ।’’
सुनकर कुल्ली बहुत खुश हुए, जैसे स्वयं शुक्लजी हों, बड़प्पन आ गया, स्नेह की दृष्टि से देखते हुए बोले, ‘‘हाँ, करते कि विद्या है, जब आप गौने के साल आये थे, क्या थे ?’’ कहकर कुछ झेंपे। झेंपने के साथ उनके मनोभाव कुल हाल बेतार के तार से मुझे समझा गये। पच्चीस साल पहले की घटना, जो उस समय समझ में न आयी थी। पल-मात्र में आ गयी। सारे चित्र घूम गये और उनका रहस्य समझा। वही कुल्ली से पहली मुलाक़ात है वहीं से श्रीगणेश करता हूँ।

 

तीन

 

मैंने सोलहवाँ साल पार किया, पूरा जीवन जी. पी. श्रीवास्तव के कथनानुसार। जी. पी. श्रीवास्तव ही नहीं, जितने गाँव-घर-टोला-पड़ोस के थे, यही कहते थे।
याद हैं, एक दिन पं. रामगुलाम ने पिताजी से कहा था, ‘‘लड़के का कण्ठ फूट आया, बगलें निकल आयीं, मसें भीगने लगीं, अब बबुआ नहीं है, गौना कर दो; हो भी तो हाथी गया है, लड़ता है, सुनते है।’’
‘‘हाँ।’’ कहकर पिताजी चिन्ता-मग्न हो गये थे।
इसी तरह, जब गौना लेने गये, श्रीमतीजी तेरहवाँ पार कर चुकी थीं-कुछ दिन हुए थे, उनकी किसी नानी ने कहा था उनकी अम्मा से-मैं वही था–हम दोनों की गाँठ जोड़कर कौन एक पूजा की जा रही थी-मदनदेव की अवश्य नहीं थी। उन्होंने कहा था, ‘‘दामाद जवान, बिटिया जवान; परदेश ले जाते हैं, तो ले जाने दो।’’
गौना हुआ। बड़ी बिपत। गाँव में प्लेग। लोग बाग़ों में पड़े। हमारा एक बाग़ गाँव के क़रीब है। प्लेग का अड्डा होता है-लोग वहाँ झोपड़े डालते हैं। हम लोग बंगाल से आये, उसी दिन लोग निकलने लगे। आखिर एक महुए के नीचे दो झोपड़े डलवाकर पिताजी मुझे और कुछ भैयाचार-नातेदारों को लेकर गौना लेने चले।
जेठ के दिन। इससे पहले यू. पी. की लू नहीं खायी थी। खैर, गौना हुआ, और एक झोपड़े में एक रात हम लोग क़ैद किये गये। जो बातें नहीं सोची थीं, श्रीमतीजी के स्पर्श-मात्र से वे मस्तिष्क में आने लगीं। प्रौढ़ता के अन्त तक उनसे अधिक प्रौढ़ बातें नहीं आतीं, मैं नवयुवकों को विश्वास दिलाता हूँ। खैर, हम पूरे जवान हैं, हम दोनों समझे।
पाँचवें दिन ससुरजी विदा कराने आये। ससुरजी इसलिए भी आये कि गाँव का पानी नहीं पियेंगे, शाम तक विदा करा ले जायेंगे। पिताजी को बहुत बुरा लगा। वह बंगाल से उतना रुपया खर्च करके आये थे। पाँच दिन के लिए नहीं। ससुरजी सुबह की गाड़ी से आये थे। मैं रात का जगा, सो रहा था। बातचीत नहीं सुनी; बाद को गाँव के एक भैया से सुनी। मेरी जब आँख खुली, तब ससुरजी अपनी लड़की को विदा कराके ले गये थे। सुना, प्लेग के भय से वह लड़की को विदा कराने आये थे।
पिताजी ने इस पर बहुत फटकारा, कहा, ‘‘यह भय हमारे लड़के के लिए आपको नहीं हुआ ? अगर ऐसे आपके मनोभाव हैं, तो हम दूसरा विवाह कर लेंगे।’’
पिताजी के तर्क-पूर्ण कथन का, मुमकिन ससुरजी पर प्रभाव पड़ता, लेकिन ससुरजी थे बहरे। वह अपनी कहते थे, और देख रहे थे कि बिदाई की तैयारी हो रही है या नहीं। उधर ससुरजी की पुत्री अपने पिता और ससुर के कथोपकथन को एकनिष्ठ होकर सुन रही थीं। पिताजी पुत्र की दूसरी शादी कर लेंगे, प्रभाव अनुमेय है। झल्लाहट में पिताजी ने बिदा कर दिया, और स्टेशन पहुँचा देने को बहल बुला दी।
दूसरे दिन नाई आया सासुजी की लम्बी चिट्ठी लेकर। ‘क्षमा’ शब्द का अतिशय प्रयोग। ससुरजी कम सुनते हैं, आज्ञा-पालन में त्रुटि हुई। बुलावा। ‘गवहीं’ पहले नहीं ली, अब ले लें। बड़ी दीनता। यह भी लिखा था, ‘मेरी दो दाँत की लड़की, उसके सामने दूसरे विवाह की बात !’’
पिताजी पिघले, मुझसे बोले, ‘‘ससुरार जाव लेकिन यहाँ से तिगुना खाना।’’
मैंने कहा, ‘‘घी, और बादाम तिगुने करा लूंगा। बेदाना तो वहाँ मिलते नहीं, अन्यथा शरबत में तीन रुपये लग जाते रोज़।’’
पिताजी ने कहा, ‘‘रूह, रूह की मालिश करना रोज़ होश दुरस्त हो जाएँगे।’
शाम चार बजे की गाड़ी से चलने की तैयारी हो गयी। दुपहर ढलते नौकर बिस्तर-बॉक्स लेकर भेज दिया गया। मैं पिताजी के उपदेश धारण कर ढाई बजे के करीब रवाना हुआ। ठाट बंगाली; धोती, शर्ट, जूता छाता। आँख में भी बंगाल का पानी, बाक़ी देश जंगल या रेगिस्तान दिखते थे।
बंगालियों की तरह मैं भी मानता था, आर्य बंगाल पहुँचकर सही मानी में सभ्य हुए, विशेषत: अँगरेज़ों के आने के बाद से। महुए की छाँह और तर किये झोपड़े के अन्दर यू.पी.की गर्मी का हिसाब न लगता था। बाहर खाई पार करते ही लू का ऐसा झोंका आया कि एक साथ कुण्डलिनी जैसे जग गयी, जैसे वर पुत्र पर पड़ी सरस्वती की कृपादृष्टि की तारीफ़ में रवि बाबू ने लिखा है-
‘‘एके बारे सकल पर्दे घुचिए दाओ तारे।’’
(एक साथ ही उसके कुल पर्दे हटा देती हो।)
वह प्रकाश दिखा कि मोह दूर हो गया। लेकिन व्यक्ति-भेद हैं, रविबाबू को आराम-कुर्सी पर दिखा, हज़रत मूसा को पहाड़ पर, मुझे गलियारे में। लू विरोध करती हुई कह रही थी, ‘‘अब ज्ञान हो गया है घर लौट जाओ।’’

फिर भी पैर पीछे नहीं पड़े, बंगाल की वीरता और प्रेमाशक्ति बैक कर रही थी। पैर उठाकर सामने रखते ही, लीक के खड्ढ में डेढ़ हाथ खाले गया, और मैं ‘गुडीगुड़न्ता’ के डण्डे की तरह गुड़ा; लेकिन स्पोर्टस मैन था, झड़बेर की झाड़ी तक पहुँचते-पहुँचते अड़ गया। देह गर्दबर्द हो गयी। मुँह में क्रीम लग गया था, घाव पर जैसे आयडोफ़ार्म पड़ा।
लेकिन धन्यवाद है सूरदास को, मुझे लज्जित होने से बचा लिया। कलकत्ते से ‘बिल्वमंगल’ नाटक देखकर आया था-दूसरी जीवनियाँ भी पढ़ी थीं, लाश पकड़कर नदी पार करने और साँप की पूँछ पकड़कर मंजिल चढ़ने के मुक़ाबले यह अति तुच्छ था, फिर वहाँ वेश्या, यहाँ धर्मपत्नी। आगे बढ़ा। एक झोंका और आया, मालूम हुआ, इस देश में धूप से हवा में गर्मी ज़्यादा है। फिर भी हवा के प्रतिकूल चलना ही होगा। कालिदास को पढ़ रहा था, याद आया-‘‘अजयदेकरथेन स मोदिनीम’’; कड़ाई से पैर आगे बढ़ाया, ठकाका जूते ने काँकर से धोके से ठोकर ली, और मुँह फैला दिया। सोचा, बॉक्स में एक जोड़ा और है नया। तसल्ली हुई, फिर आगे बढ़ा। एक झोंका और आया। अबके छाता उलटकर दूसरी तरफ़ तना। हवा के रुख पर करके, सुधारकर तोड़ लिया।
आगे लोन-नदी आयी, जो आठ महीने सूखी रहती है, और जिसके किनारे संसार के आधे बेर-बबूल हैं, शायद इसी कारण इस प्रान्त का नाम कभी बनौधा था-‘‘बारह कुँवर बनौधे केर।’’ स्वतन्त्रता प्रेम भी अधिक था; क्योंकि छोटी-सी जगह में बारह कुँवर थे। धोती कोछेदार बंगाली पहनी थी। एक जगह उड़ी, और, बेर की बाँहों से आलिंगन किया, न अब छो़ड़े, न तब-‘‘गुलों से ख़ार बेहतर हैं, जो दामन थाम लेते हैं’’ याद तो आया, पर बड़ा गुस्सा लगा। सैकड़ों काँटे चुभे हुए। धोती छप्पनछुरी हो रही थी। छुड़ाते नहीं बनता था। देर हो रही थी। आख़िर मुट्ठी से कोंछे को पकड़कर खींचा। धोती में सहस्र-धार गंगा बन गयी, उधर बेर सहस्र विजय-ध्वज।
धोती क़ीमती थी,-शान्तिपुरी, ख़ास ससुराल के लिए ली गयी थी, जैसे प्रसिद्ध लेखक ख़ास पत्र के लिए लेख लिखते हैं। सान्त्वना हुई कि कई और हैं। नदी-गर्भ से ऊपर आया। कुछ दूर पर बेहटा-श्मशान मिला। दो ही मील पर देखा दुर्दशा हो गयी है, जैसे घूल का समन्दर नहाकर निकला हूं। स्टेशन मील-भर रह गया था, गाड़ी का अर्राटा सुनाई पड़ा। अपने-आप पैर दौड़ने लगे। मन ने बहुत कहा, बड़ी अभद्रता है। लेकिन जैसे पैर के भी ज़बान लग गयी हो, बोले-अभी भद्रता कुछ बाक़ी भी रह गयी है ? घर लौटकर जाओगे, ज़िन्दगी-भर गाँववाले हँसेंगे-बाबू बनकर ससुराल चले थे। हज़ार-हज़ार सपाटे का उठान तो देखो।’’ कहते पैर बेतहाशा उठ रहे थे। छाता बग़ल में। हाथ में जूते। सामने मील-भर का ऊसर।

चार बजे की चटकती धूप। स्टेशन देख पड़ने लगा। गाड़ी प्लेटफ़ार्म पर आ गयी। दौड़ तेज़ हुई। लम्बा मैदान। गाड़ी पानी ले रही है अभी छ फ़र्लांग और है। भूभुल में पैर जले जा रहे हैं, लेकिन रफ़्तार धीमी नहीं, बढ़ायी भी नहीं, जा सकती, कलेजा मुँह को आता हुआ। एंजिन पानी ले चुका, लौट रहा है, अभी चार फ़र्लाग है और तेज़ हो-नहीं हो सकते। बदन लत्ता। जान पड़ता है, गिर जाऊंगा।
इसी समय नौकर चन्दिकाप्रसाद ठोढी उठाकर रास्ते की तरफ़ देखता हुआ देख पड़ा। चन्द्रिका के दूध के दाँत उखड़ने के बाद सामने के अन्नवाले नहीं जमे, इसलिए लोग ‘सिपुला’ कहते है। हैरान होकर असम्बद्ध होंठों से-ठोढ़ी उठाये, एक दृष्टि-प्रतीक्षा करते देखकर मुझे नयी जान मिली, देखकर चन्द्रिका भी सजीव हुआ। टिकट कटा लिये थे, ग़नीमत हुई। मैं पहुँचा। चन्द्रिका हँसा, फिर सामान चढ़ाने लगा। स्टेशन में एक प्लेटफ़ार्म है, उस तरफ़ उससे गाड़ी लगी हुई, मुझे न आता देख चन्द्रिका उतरकर इधर चला आया था। इधर से ही चढ़े। भीतर जाने के साथ इतनी गर्मी मालूम दी कि जान पर आ बनी। चन्द्रिका न होता, तो न जाने क्या होता। वह अँगोछे से हवा करने लगा। कुछ देर में होश दुरुस्त हुआ गाड़ी चली। ठण्डे होकर कपड़े बदले।
पाँचवाँ स्टेशन डलमऊ है। उतरा, तब सूरज छिप चुका था। लेकिन इतना उजाला कि अच्छी तरह मुँह दिखे। चन्द्रिका ने सामान उठाया। चले। गेट पर टिकट-कलेक्टर के पास एक आदमी खड़ा था बना-चुना बिलकुल लखनऊ-ठाट, जिसे बंगाली देखते ही गुण्डा कहेगा। तेल से जुल्फें तर, जैसे ‘अमीनाबाद’ से सिर पर मालिश कराकर आया है। लखनऊ की दुपलिया टोपी, गोट तेल से गीली, सिर के दाहिने किनारे रक्खी। ऐंठी मूँछें। दाढ़ी चिकनी। चिकन का कुर्ता। ऊपर वास्कट। पहलवानी फ़ैशन से पहनी हुई। पैरों में मेरठी जूते। उम्र पच्चीस के साल-दो-साल इधर-उधर। देखने पर अन्दाज़ा लगाना मुश्किल है-हिन्दू है या मुसलमान। साँवला रंग। मजे का डीलडौल। साधारण निगाह में तगड़ा और लम्बा भी।
टिकट देकर निकलते ही मुझसे पूछा, ‘‘कहाँ जाइएगा ?’’
मैंने कहा, ‘शेरअन्दाज़पुर।’’
‘‘आइए, हमारा एक्का है, कहकर उसने एक्केवान को पुकारा, और गौर से घूरते हुए पूछा, ‘‘किनके यहाँ ?’’
मैंने अपने ससुरजी का नाम लिया। उसे एक बार देखकर दोबारा नहीं देखा, कारण वह मेरा आदर्श नहीं था, मुझसे दो इंच छोटा था और बदन में भी हल्का।
मैं एक्केवाले के साथ एक्के पर बैठा। चन्द्रिका भी था। वह जवान कुछ देर तक पैसंजर देखता रहा, फिर उसी एक्के पर आकर बैठा। चुपचाप बैठा देखता रहा। तब मैं नहीं समझ सका, अब जानता हूँ-वैसी शुभ दृष्टि सुन्दरी-से-सुन्दरी पर पड़ती है, जिसकी बाढ़ का पानी रत्ती-भर नहीं घटा।
चन्द्रिका बेवक़ूफ़ की तरह उसे, विश्वास की दृष्टि से मुझे रह-रहकर देख लेता था। उस मनुष्य ने मुझसे कोई प्रश्न नहीं किया, केवल अपने भाव में था। मुझे बोलने की कोई आवश्यकता न थी। एक्का चला, क़स्बे में आकर मेरे ससुरजी के दरवाजे़ खड़ा हुआ। वह आदमी चौराहे पर उतर गया था। उतरते एक्केवाले से कुछ कहा था, मैंने सुना नहीं।
जब मैं किराया देने लगा, एक्केवाले ने कहा, ‘‘नम्बरदार ने मना किया है।’’
‘‘हम किसी नम्बरदार को नहीं जानते, किराया लेना होगा, पहले कह दिया होता।’’
एक्केवाले ने हाथ तो बढ़ाया, लेकिन कहा, ‘‘भैया, उन्हें मालूम होगा, तो मेरी नौकरी न रहेगी।’’
मैं समझ गया, पैसे जेब में रक्खेगा। अब ससुराल के लोग आ गये। मैं प्रणाम-नमस्कारादि के लिए तैयार हुआ।



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