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मेघदूत एक पुरानी कहानी

हजारी प्रसाद द्विवेदी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :139
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3096
आईएसबीएन :9788126705849

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कालीदास रचित प्रसिद्ध रचनायें...

Alka

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

महाकवि कालीदास कृति मेघदूत के अनुवादों और टीकाओं की हिंदी में कमी नहीं, पर यह पुस्तक न तो उसका अनुवाद मात्र है और न महज टीका।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी के ऐसे वाङ्मय-पुरुष हैं जिन्होंने न केवल समूचे मध्य-कालीन साहित्य इतिहास को अपनी शोधालोचना का विषय बनाया, बल्कि संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य की कुछ कालजयी कृतियों का पुनःसृजन भी किया। मेघदूतः एक पुरानी कहानी पुनःसृजन है।
द्विवेदी ने इसमें मेघदूत के कथा-प्रसंगों की व्याख्या के बहाने उस अछूते सन्दर्भों का भी उद्घाटन किया है जो इसकी रचना-प्रक्रिया के दौरान कालीदास के मन में रहे होंगे। तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक वातावरण, जन समाज की आर्थिक स्थिति, विद्वज्जनों के वैचारिक अन्तर्विरोध और मन-प्राण को आह्लादित कर देनेवाली वे रससक्ति उद्भावनाएँ जो रसज्ञ पाठक को कल्पनातीत स्पर्शानुभूति तक ले जा सकें-सभी कुछ इसमें छविमान है। लगता है, वह सब अनकहा जिसे कालीदास कहना चाहते थे, यहाँ स्पष्टतः कह दिया गया है।
आचार्य द्विवेदी की प्रकाण्ड मेधा, विनोदवृत्ति सृजनात्मक क्षमता से स्पृश्य मेघदूत की यह कहानी निस्सन्देह एक अविस्मरणीय कृति है।

 

निवेदन

आज से तीन वर्ष पूर्व मेरी आँखें बहुत खराब हो गयीं। तीन-चार महीने तक असह्य पीड़ा थी और पढ़ना-लिखना तो दूर दिन में आँख खोलकर ताकना भी मना था। जब पीड़ा की मात्रा कुछ कम हुई तो विश्राम के लिए शान्ति-निकेतन के अपने पुराने आवास में एक महीने के लिए चला गया। दिनभर आँख बन्द किये रहते था, और निश्चेष्ट पड़ा रहता था, पर मन में लिख-पढ़ न सकने के कारण एक प्रकार का विचित्र उद्वेग बना रहता था। एक दिन मेरे मित्र और अग्रज-समान पूज्य पं. निताई विनोद गोस्वामी ने कहा कि आप भी बैठे-बैठे ‘मेघदूत’ की एक व्याख्या क्यों न लिख दें ! गोस्वामीजी बहुत ही उच्चकोटि के विद्वान और हृदय व्यक्ति हैं। उनके इस इंगित ने मुझे प्रेरणा दी। मैंने उनसे कहा कि ‘गीता’ और ‘मेघदूत’ हमारे देश के दो विचित्र ग्रन्थ हैं। धर्म और अध्यात्म का उपदेश देनेवाले हर एक विद्वान और आचार्य गीता की एक व्याख्या अवश्य लिख जाता है, और साहित्य-रसिक कवि और सहृदयजन कोई-न-कोई टीका अवश्य जाता है, और साहित्य-रसिक कवि और सहृदयजन कोई-न-कोई टीका, व्याख्या, कविता या आलोचना ‘मेघदूत’ के संबंध में अवश्य लिख जाते हैं। ये दोनों ग्रन्थ विश्वनाथजी के मन्दिर घण्टे के सामन हैं। हर तीर्थयात्री एक बार इनको अवश्य बजा जाता है। गोस्वामी का सुझाव बिल्कुल ठीक था। मुझे ‘मेघदूत’ पर लिखना चाहिए। पाँचों सवारों में नाम लिखाने का इससे सुगम साधन और कोई नहीं है।

इस प्रकार ‘मेघदूत’ की व्याख्या लिखने की प्रेरणा मिली। एक बुरी आदत यह पड़ गयी है कि जब लिखने बैठता हूँ तो दो-चार पुस्तकें अवश्य खोल लेता हूँ। कुछ उद्धरण देने के लिए और कुछ अपनी बात की पुष्टि के लिए प्रमाण संग्रह करने के लिए; परन्तु जब आँखें खराब हों, लिखने-पढ़ने पर सख्त पाबन्दी हो, और पुस्तक माँगने पर मित्रों की ओर से भी डाँट पड़ने की ही आशंका हो तब उपाय ही क्या है ? इसीलिए कोई टीका या व्याख्या लिखना तो संभव नहीं था, जो कुछ लिखा या लिखाया गया वह ‘गप्प’ से अधिक की मर्यादा नहीं रखता। इसीलिए मैंने इसका नाम भी दिया- ‘मेघदूत : एक पुरानी कहानी’। जो-कुछ लिखा गया वह निस्संदेह मूल श्लोकों के आधार पर ही लिखा गया, परन्तु ऐसी बातें भी उसमें आ गयी हैं, जो लिखे गये अर्थों की पुष्टि के लिए जोड़ दी गयी थीं।

बाद में पाद-टिप्पणी में वे मूल श्लोक भी लिखे गये, जिनके आधार पर व्याख्या प्रस्तुत की गयी थी। ये अंश कलकत्ते के ‘नया सामज’ में कुछ दिनों तक प्रकाशित होते रहे। शान्ति निकेतन में पूर्वमेघ का अधिकांश लिख लिया गया था, परन्तु ग्रन्थ पूरा नहीं हुआ। मुझे फिर कर्मस्थान पर लौट आना पड़ा और उनके कामों में उलझ जाना पड़ा। पुस्तक अधूरी ही पड़ी रह गयी। लेकिन इस बीच कई सहृदय विद्वानों ने उसे पूरा कर देने का आग्रह किया। मेरे दो प्रिय छात्र-श्री मदनमोहन पाण्डेय और श्री विश्वनाथप्रसादजी-ने बार-बार आग्रह और तगादा करके और किसी भी समय लिखने को तैयार होकर बाकी अंश भी पूरा करा लिया और इस प्रकार कहानी किसी तरह किनारे लगी।

‘मेघदूत’ अद्भुत काव्य है। अब तक इस पर सैकड़ों व्याख्याएं लिखी जा चुकी हैं। आधुनिक युग में यह और भी लोकप्रिय हुआ। भारतीय भाषाओं में इसके कई समश्लोकी और पद्यात्मक अनुवाद हुए हैं। आधुनिक हिन्दी के अन्यतम प्रवर्तक राजा लक्षमणसिंह से लेकर इस युग के नवीन विचारवाले युवक कवियों तक ने इसे अपने ढंग से कहने का प्रयत्न किया है। जो भी इसे पढ़ता है, उसे अपने ढंग से इसमें ताजगी दिखायी पड़ती है। क्या कराण है ? संभवत: ‘मेघदूत’ मनुष्य की चिरविहीन विरह-वेदना और मिलनाकांक्षा का सर्वोत्तम काव्य है। शायद ही कोई काव्य हो जो मनुष्य को इतनी गहराई में आन्दोलित और प्रभावित कर सका हो। ऐसे अद्भुत काव्य का इतना लोकप्रिय होना आश्चर्य की बात नहीं है।

मेरी यह व्याख्या कैसे हुई है, इस पर विचार करना मेरा काम नहीं हैं। ‘स्वानत: सुखाय’ बहुत बड़ा शब्द है। परन्तु मैंने जिन दो-चार निबंधों और पुस्तकों की रचना सचमुच ‘स्वानत: सुखाय’ की है, उनमें यह भी एक है। यह जैसी भी है, सहृदयों के कर-कमलों में समर्पित है। उन्हीं का स्नेह पाकर यह धन्य हो सकती है।

 

हजारीप्रसाद द्विवेदी


काशी, 20.11.57  


 

मेघदूत : एक पुरानी कहानी
1

 

 

कहानी बहुत पुरानी है, किन्तु बार-बार नये सिरे से कही जाती है। अत: एक बार फिर दोहराने में कोई नुकसान नहीं है।
एक यक्ष था, अलकापुरी का निवासी। इस देश और इस काल के निवासियों की दृष्टि से देखा जाय तो वह निहायत गरीब नहीं कहा जा सकता। दूर से ही उसके विशाल महल का तोरण इन्द्रधनुष के समान झल-मलाया करता था। मकान की सीमा में ही जो मनोहर वापी उसने बनवायी थी, उसकी सीढ़ियाँ मरकत मणि की शिलाओं से बाँधी गयी थीं और उसके भीतर वैडूर्य मणि के स्निग्ध-चिकने-नालों पर मनोहर स्वर्ण-कमल खिले रहते थे। इस वापी के निकट इन्द्रनील मणियों से बना हुआ क्रीड़ा-पर्वत था, जिसके चारों ओर कनक-कदली का बेड़ा लगा था। एक माधवी-मण्डप का क्रीड़ानिकुंज था, जिसके ठीक मध्य में स्फटिक मणि की चौकी पर कांचनी वासयष्टि थी, जिस समय उस यक्ष का शौकीन पालतू मयूर बैठा करता था- शौकीन इसलिए कि यक्षप्रिया की चूड़ियों की झंकार से ही नाच लेने में उसे रस मिलता था। ग़रज़ की मकान की शान को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वह गरीब था। उसके बाहरी द्वार के शाखा-स्तम्भों पर पद्म और शंख थे, जिसका मतलब कुछ विद्वान यह बताते हैं कि शंख और पद्म तक की सम्पत्ति उसके पास थी और कुछ विद्वान इसे उन दिनों के पैसेवालों की महत्वाकांक्षा का चिह्न-मात्र मानते हैं। जो भी हो, यक्ष बहुत गरीब नहीं था। कल्पवृक्ष के पास रहनेवालों को धन की क्या कमी हो सकती है भला !


परन्तु निर्धन चाहे न हो, नौकरीपेशा आदमी वह ज़रूर था। यह नहीं मालूम कि वह क्या काम करता था; मगर ‘मेघदूत’ के टीकाकारों ने जो अनुमान भिड़ाये हैं, उनसे यही पता लगता है कि वह कोई बहुत ऊँचे ओहदे का आदमी नहीं था। कुछ लोग बताते हैं कि यक्षपति कुबेर का माली था। प्रिया के प्रेम में वह निरन्तर ऐसा पगा रहता था कि काम-काज पर बिल्कुल ध्यान नहीं देता था। एक दिन इन्द्र का मतवाला हाथी ऐरावत आकर बगीचा उजाड़ गया और इन हज़रत को पता भी नहीं चला ! कुबेर रईस आदमी थे, फूलों के बड़े शौकीन। उन्हें यक्ष की- बेचारे का नाम किसी ने नहीं बताया- इस हरकत पर क्रोध आया और उसे साल-भर के लिए देश-निकाले की सजा दे दी। दूसरे लोग कहते हैं, कुबेर ने प्रात: काल पूजा के लिए ताजे कमल के फूल लाने के काम पर उसे नियुक्त किया था। पर प्रात:काल उठ सकने में कठिनाई थी और यह प्रमादी सेवक बासी फूल दे आया करता था। जो हो, इतना स्पष्ट लगता है कि नौकरी वह मामूली-सी ही करता था। ग़फ़लत कर गया और साल-भर के लिए देश-निकाले का दण्डभागी बना। पहली कहानी कुछ अधिक ठीक जान पड़ती है। जरूर ऐरावत ने ही इस बेचारे की दुर्दशा करायी होगी ! ‘मेघदूत’ में ऐसा इशारा भी है।

कुबेर चाहते, तो जुर्माना कर सकते थे। पर वह दण्ड बेकार होता, क्योंकि कल्पवृक्ष से वह जो चाहता, वही माँग लेता और जुर्माना चुका देता। जेलखाने वहाँ शायद थे ही नहीं। उस नगरी में एकमात्र बन्धन प्रिया का बाहु-पाश था। पर कुबेर ने इस दण्ड से कोई विशेष फाय़दा नहीं देखा। असल में देश-निकाले से बढ़कर और कोई दण्ड उस देश में हो ही नहीं सकता था। मगर यक्ष कुबेर का चाहे जितना भी अदना नौकर क्यों न हो, था देवयोनि का जीव। निधियाँ उसके अधिकार में थीं, सिद्धियाँ उसके लिए सब-कुछ करने को प्रस्तुत थीं। इसलिए सिर्फ राजादेश से यदि दण्ड दिया जाता, तो यक्ष कुछ-न-कुछ ऐसा अवश्य कर लेता, जिससे वह अलका के बाहर भी आराम से रह सकता था। हज़ार हो, देवयोनि में जन्मा था, सो कुबेर ने उसे सजा नहीं दी, शाप दिया। देवता ही देवता को मारना जानता है। लोहा ही लोहे को काट सकता है।
प्रेमजन्य प्रमाद इतिहास में और भी हुए हैं। यक्ष ने जो ग़फ़लत की, वैसी ही और कई बार की गयी है। कहते हैं, खानखाना अब्दुर्रहीम का एक साधारण भृत्य-प्रिया-प्रेम में कर्तव्य-बुद्धि से इतना हीन हो गया है कि छह महीने तक काम पर ही नहीं गया। गया तो डरता हुआ और जीवन की सबसे कठिन सज़ा सुनने की आशंका लिये हुए। उसकी प्रिया कविता लिख लेती थी। उसने पुरजे़ पर एक बरवै छन्द लिख दिया था। इस पर कवि रहीम ने भृत्य का अपराध क्षमा कर दिया था और पुरस्कार भी दिया था। वे मनुष्य थे। मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं कर सकता। मनुष्य हृदय से लाचार है, देवता नियम का कठोर प्रवर्तयिता है। मनुष्य नियम से विचलित हो जाता है, पर देवता की कुटिल भृकुटि नियम की निरन्तर रखवाली करती है। मनुष्य इसलिए बड़ा होता है कि वह गलती कर सकता है, देवता इसलिए बड़ा है कि वह नियम का नियन्ता है। सो कुबेर ने उसे शाप दे दिया।

उस बेचारे की महिमा कम हो गयी। उसका देवत्व जाता रहा। कहाँ जाय, क्या करे ? शहर अच्छे नहीं लगते, जंगलों में मन नहीं रमता, जीवन में पहली बार प्रिया का दु:सह वियोग सहना पड़ा। उसने रामगिरि के पवित्र आश्रम में अपनी बस्ती बनायी। बड़े-बड़े घनच्छाय वृक्षों से आश्रम लहलहा रहा था और ठण्डे पानी के वे पवित्र सोते यहाँ काफी संख्या में थे, जिनमें जनकनंदिनी ने न-जाने कितनी बार स्नान किया था। विरह की बेचैनी काटने के लिए इससे अच्छा स्थान नहीं चुना जा सकता था। राम से बड़ा विरही और कौन हो सकता है ? और इतना अपार धैर्य और किसमें मिल सकता है ? अपने हाथों से राम और सीता ने जो पेड़ लगाये थे, उनकी शीतल छाया से बढ़कर शामक वस्तु और क्या हो सकती है ? यक्ष ने बहुत सोच-समझकर, निहायत अक्लमन्दी से यही स्थान चुना- पवित्र, शीतल और शामक।   

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