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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिव पुराण

शिव पुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 31
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

Shiv Puran a hindi book by Hanuman Prasad Poddar - शिवपुराण - हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

‘शिवपुराण’ एक प्रमुख तथा सुप्रसिद्ध पुराण है, जिसमें परात्मपर परब्रह्म परमेश्वर के ‘शिव’ (कल्याणकारी) स्वरूप का तात्त्विक विवेचन, रहस्य, महिमा एवं उपासना का सुविस्तृत वर्णन है। भगवान् शिवमात्र पौराणिक देवता ही नहीं, अपितु वे पंचदेवों में प्रधान, अनादि सिद्ध परमेश्वर हैं एवं निगमागम आदि सभी शास्त्रों में महिमामण्डित महादेव हैं। वेदों ने इस परमतत्त्व को अव्यक्त, अजन्मा, सबका कारण, विश्वपंच का स्रष्टा, पालक एवं संहारक कहकर उनका गुणगान किया है। श्रुतियों ने सदा शिव को स्वयम्भू, शान्त, प्रपंचातीत, परात्पर, परमतत्त्व, ईश्वरों के भी परम महेश्वर कहकर स्तुति की है। ‘शिव’ का अर्थ ही है- ‘कल्याणस्वरूप’ और ‘कल्याणप्रदाता’। परमब्रह्म के इस कल्याण रूप की उपासना उच्च कोटि के सिद्धों, आत्मकल्याणकामी साधकों एवं सर्वसाधारण आस्तिक जनों-सभी के लिये परम मंगलमय, परम कल्याणकारी, सर्वसिद्धिदायक और सर्वश्रेयस्कर है। शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि देव, दनुज, ऋषि, महर्षि, योगीन्द्र, मुनीन्द्र, सिद्ध, गन्धर्व ही नहीं, अपितु ब्रह्मा-विष्णु तक इन महादेव की उपासना करते हैं। भगवान् श्रीराम तथा श्रीकृष्ण के तो ये परमाराध्य ही हैं।

यह सर्वविदित तथ्य है कि प्राचीन काल से ही शिवोपासना का प्रचार-प्रसार एवं बाहुल्य मात्र भारत के सभी प्रदेशों में ही नहीं, अपितु न्यूनाधिक रूप से सम्पूर्ण विश्व में भी होता आ रहा है।

शिव के इस लोककल्याणकारी, आराध्य-स्वरूप, महत्त्व एवं उपासना-पद्धति से सर्वसाधारण को परिचित कराने के उद्देश्य से गीता प्रेस ने सन् 1962 ई. में ‘कल्याण’ हिन्दी-मासिक पत्र के 36 वें वर्ष के विशेषांक के रूप में ‘संक्षिप्त शिवपुराणांक’ (शिवपुराण का संक्षिप्त हिन्दी-रूपान्तर) प्रकाशित किया था, जिसे कल्याणप्रेमी पाठकों और सर्वसाधारण श्रद्धालु आस्तिक सज्जनों ने सहृदयतापूर्वक अपनाया तथा अत्यधिक पसंद किया था। इसकी बढ़ती हुई लोकप्रियता तथा निरन्तर माँग के कारण इनका बृहत्संख्यक- 1,31,000 का प्रथम संस्करण बहुत शीघ्र समाप्त हो गया। अतएव पुन: 15,000 का दूसरा संस्करण भी छापना पड़ा। उक्त विशेषांक के पुनर्मुद्रण अथवा उसे ग्रन्थाकार-रूप देने के विषय में जिज्ञासुओं तथा प्रेमी-सज्जनों के उसी समय से निरन्तर प्राप्त प्रेमाग्रहों को ध्यान में रखकर भगवान् आशुतोष सदाशिव की कृपा से अब यह शिवपुराण का संक्षिप्त, सरल हिन्दी अनुवाद (केवल भाषा) ग्रन्थाकार में मुद्रित किया गया है।

इसमें पुराणानुसार शिवतत्त्व के विशद विवेचन के साथ शिव-अवतार, महिमा तथा लीला-कथाओं के अतिरिक्त पूजा-पद्धति एवं अनेक ज्ञानप्रद आख्यान और शिक्षाप्रद गम्भीर तथा रोचक एवं प्रेरणादायी कथाओं का भी सुन्दर संयोजन है। सभी श्रद्धालु आस्तिक जनों एवं जिज्ञासु सज्जनों को इस दुर्लभ और उपादेय ग्रन्थ का अनुशीलन कर अधिकाधिक लाभ उठाना चाहिये।

प्रकाशक


श्रीगणेशाय नम:

श्रीशिवपुराण-माहात्म्य


भवाब्धिमग्नं दीनं मां समुद्धर भवार्णवात्।
कर्मग्राहगृहीतांग दासोऽहं तव शंकर।।


शौनकजी के साधनविषयक प्रश्न करने पर सूतजी का उन्हें शिवपुराण की उत्कृष्ट महिमा सुनाना


श्री शौनकजी ने पूछा- महाज्ञानी सूतजी ! आप सम्पूर्ण सिद्धान्तों के ज्ञाता हैं। प्रभो ! मुझसे पुराणों की कथाओं के सारतत्त्व का विशेष रूप से वर्णन कीजिये। ज्ञान और वैराग्य-सहित भक्ति से प्राप्त होने वाले विवेक की वृद्धि कैसे होती है ? तथा साधु पुरुष किस प्रकार अपने काम-क्रोध आदि मानसिक विकारों का निवारण करते हैं ? इस घोर कलिकाल में जीव प्राय: आसुर स्वभाव के हो गये हैं, उस जीव समुदाय को शुद्ध (दैवी सम्पत्ति से युक्त) बनाने के लिये सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है ? आप इस समय मुझे ऐसा कोई शाश्वत साधन बताइये, जो कल्याणकारी वस्तुओं में भी सबसे उत्कृष्ट एवं परम मंगलकारी हो तथा पवित्र करनेवाले उपायों में भी सर्वोत्तम पवित्रकारक उपाय हो। तात ! वह साधन ऐसा हो, जिसके अनुष्ठान से शीघ्र ही अन्त:करण की विशेष शुद्धि हो जाय तथा उससे निर्मल चित्त वाले पुरुषों को सदा के लिये शिव की प्राप्ति हो जाय।

श्रीसूतजी ने कहा- मुनिश्रेष्ठ शौनक ! तुम धन्य हो; क्योंकि तुम्हारे हृदय में पुराण-कथा सुनने का विशेष प्रेम एवं लालसा है। इसलिये मैं शुद्ध बुद्धि से विचार करके तुमसे परम उत्तम शास्त्र का वर्णन करता हूँ। वत्स ! वह सम्पूर्ण शास्त्रों के सिद्धान्त से सम्पन्न, भक्ति आदि को बढ़ाने वाला तथा भगवान् शिव को संतुष्ट करने वाला है। कानों के लिये रसायन-अमृतस्वरूप तथा दिव्य है, तुम उसे श्रवण करो। मुने ! वह परम उत्तम शास्त्र है- शिवपुराण, जिसका पूर्वकाल में भगवान् शिव ने ही प्रवचन किया था। यह काल रूपी सर्प से प्राप्त होने वाले महान् त्रास का विनाश करनेवाला उत्तम साधन है। गुरुदेव व्यास ने सनत्कुमार मुनिका उपदेश पाकर बड़े आदर से संक्षेप में ही पुराण का प्रतिपादन किया है। इस पुराण के प्रणयन का उद्देश्य है- कलियुग में उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों के परम हित का साधन।

यह शिवपुराण परम उत्तम शास्त्र है। इसे इस भूतल पर भगवान् शिव का वाङ्मय स्वरूप समझना चाहिये और सब प्रकार से इसका सेवन करना चाहिये। इसका पठन और श्रवण सर्वसाधनरूप है। इससे शिव भक्ति पाकर श्रेष्ठतम स्थिति में पहुँचा हुआ मनुष्य शीघ्र ही शिवपद को प्राप्त कर लेता है। इसलिये सम्पूर्ण यत्न करके मनुष्यों ने इस पुराण को पढ़ने की इच्छा की है- अथवा इसके अध्ययन को अभीष्ट साधन माना है। इसी तरह इसका प्रेमपूर्वक श्रवण भी सम्पूर्ण मनोवंछित फलों के देनेवाला है। भगवान् शिव के इस पुराण को सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है तथा इस जीवन में बड़े-बड़े उत्कृष्ट भोगों का उपभोग करके अन्त में शिवलोक को प्राप्त कर लेता है।
यह शिवपुराण नामक ग्रन्थ चौबीस हजार श्लोकों से युक्त है। इसकी सात संहिताएँ हैं। मनुष्य को चाहिए कि वह भक्त, ज्ञान और वैराग्य से सम्पन्न हो बड़े आदर से इसका श्रवण करे। सात संहिताओं से युक्त यह दिव्य शिवपुराण परब्रह्म परमात्मा के समान विराजमान है और सबसे उत्कृष्ट गति प्रदान करने वाला है।

जो निरन्तर अनुसंधानपूर्वक इस शिवपुराण को बाँचता है अथवा नित्य प्रेमपूर्वक इसका पाठमात्र करता है, वह पुण्यात्मा है- इसमें संशय नहीं है। जो उत्तम बुद्धिवाला पुरुष अन्त काल में भक्तिपूर्वक इस पुराण को सुनता है, उस पर अत्यन्त प्रसन्न हुए भगवान् महेश्वर उसे अपना पद (धाम) प्रदान करते हैं। जो प्रतिदिन आदरपूर्वक इस शिवपुराण का पूजन करता है, वह इस संसार में संपूर्ण भोगों को भोगकर अन्त में भगवान् शिव के पद को प्राप्त कर लेता है। जो प्रतिदिन आलस्यरहित हो रेशमी वस्त्रआदि के वेष्टन से इस शिवपुराण का सत्कार करता है, वह सदा सुखी होता है। यह शिवपुराण निर्मल तथा भगवान् शिव का सर्वस्व है; जो इहलोक और परलोक में भी सुख चाहता हो, उसे आदर के साथ प्रयत्नपूर्वक इसका सेवन करना चाहिये। यह निर्मल एवं उत्तम शिवपुराण धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चारों पुरुषार्थों को देनेवाला है। अत: सदा प्रेमपूर्वक इसका श्रवण एवं पाठ करना चाहिये।

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