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सामर्थ्य और सीमा

भगवतीचरण वर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3101
आईएसबीएन :9788171780648

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मनुष्य समर्थ है और समझता है कि इस सामार्थ्य का स्त्रोत वही है और वही इसका उपार्जन करता है। वह केवल अपने सामर्थ्य को ही देखता है, अपनी सीमाओं को नहीं।

Samarthya Aur Seema

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मनुष्य समर्थ है और समझता है कि इस सामार्थ्य का स्त्रोत वही है और वही इसका उपार्जन करता है। वह केवल अपने सामर्थ्य को ही देखता है, अपनी सीमाओं को नहीं।

‘सामर्थ्य और सीमा’ अपने सामर्थ्य की अनुभूति से पूर्ण कुछ ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों की कहानी है जिन्हें परिस्थितियाँ एक स्थान पर एकत्रित कर देती हैं। हर व्यक्ति अपनी महत्ता, अपनी शक्ति और सामर्थ्य से सुपरिचित था-हरेक को अपने पर अटूट विश्वास था। लेकिन परोक्ष की शक्तियों को कौन जानता था जो इनके इस दर्प को चकनाचूर करने को तैयार हो रही थीं !
आज के महान संघर्ष से युक्त जीवन का सशक्त और रोचक चित्रण।

 

वैसे तुम चेतन हो, तु प्रबुद्ध ज्ञानी हो,
तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो,
लेकिन अचरज इतना तुम कितने भोले हो,
ऊपर से ठोस दिखो, अन्दर से पोले हो,
बनकर मिट जाने की एक तम कहानी हो !

 

सामर्थ्य और सीमा
एक

 

 

मनुष्य का यह दावा है कि वह सक्षम है, समर्थ है। हिमालय की तराई में घने जंगलों के बीच में बना हुआ एक छोटा-सा स्टेशन जो दोपहर के बादवाली ढलती धूप में भी बुरी तरह जल रहा था, मानो  मनुष्य के इस दावे का प्रमाण था। प्रकृति इस  मनुष्य के वश में है, वह इस प्रकृति को मनचाहा नवीन रूप देता है। वह इस प्रकृति के साथ न जाने कितने खिलवाड़ करता है। तराई का जंगल भी तो उसी प्रकृति का एक भाग था।  

पता नहीं जंगल में भी प्राण होते हैं या नहीं। वैसे जन्म लेना, मरना, शैशव, युवावस्था और वृद्धावस्था, जीवन के सब चिन्ह जंगल में होते हैं। न जाने कितने पशु-पक्षी उन जंगलों की गोद में आश्रय लिये हुए हैं। कभी भयानक रूप से क्रुद्ध और उबलते हुए और कभी निष्प्राण-से सूखे हुए नदी नाले। यह सब जंगल के भाग हैं और जंगल के अन्दर इन अनगिनत प्राणियों में जीवन-मरण का संघर्ष चला करता है। रोज ही जन्म होते हैं, रोज ही मृत्यु के फेरे लगते हैं। जीवन-मरण की सीमाओं में बद्ध जो प्रकृति का क्रम है वह तो चलता ही रहता है।

लेकिन जैसे मनुष्य प्रकृति का भाग न होकर प्रकृति से भिन्न कोई स्वत्रन्त्र सत्ता है। प्रकृति के नियमों और प्रकृति के क्रम में बँधा हुआ होते हुए भी वह प्रकृति पर शासन करता है। अपनी उस विजय और अपने उस शासन के प्रतीक के रूप में उसने उस सुमना नाम के रेलवे स्टेशनों का निर्माण किया है।
 
आज जहाँ सुमना स्टेशन है, पचास साल पहले वह स्थल मनुष्य के लिए अगम्य समझा जाता था।  शेर, हाथी, रीछ, साँप, विषैले कीड़े, मच्छर और इन सबके साथ एक-दूसरे से उलझे हुए छोटे-बड़े-पेड़-यही सबकुछ था वहाँ पर। यही नहीं कि उस स्थान का पता आदमी को न रहा हो। हजारों-लाखों वर्ष पहले  समस्त ताराई को पार करके दूसरी ओर ऊँचे-ऊँचे पर्वतों पर वह पहुँच चुका था।
 
हजारों-लाखों वर्ष से वह इन समस्त प्रान्त से परिचित रहा है। शायद हजार-दो हजार वर्ष पहले वहाँ उस जंगल का नाम-निशान भी नहीं न रहा हो, वहां लोग रहते हों। सभ्यता के कुछ अवशेष इधर-उधर मिल भी जाते हैं। पर उस सुदूर भूत का निश्चय रूप किसने देखा है ? दावे के साथ किसी बात का कह देना असंभव है। जो निश्चय है, वह है निकट भूत।  किस तरह मनुष्य इन जंगलों में लड़ा, किस तरह उसने तिल-तिल करके इस जंगल पर विजय पायी और किन कारणों से उसने इस जंगल के एक बहुत बड़े भाग को सुरक्षित छोड़ दिया, इतना सबको ज्ञात है।

मनुष्य प्रकृति से अलग एक स्वत्रन्त्र सत्ता है केवल अर्ध-सत्य है। अन्य प्राणियों की भाँति मनुष्य भी प्रकृति से ही उभरा है, उसका समस्त अस्तित्व इस प्रकृति का ही एक भाग है। हाड़, मांस, मज्जा-ये सब प्रकृति से ही बने हैं। मनुष्य भौतिक प्राणी रहा है;  मनुष्य हमेशा भौतिक प्राणी रहेगा। अनादि काल से वह जन्म-मरण के संघर्षों से उलझा रहा है, अनन्त काल तक वह इन संघर्षों में उलझा रहेगा। आदि-मानव इन्ही जंगलों का एक भाग था; योजना बनायीः वहीं से उसने इन जगलों को अपने से अलग मानकर, इनसे अनन्तकालीन युद्ध का श्री गणेश किया।

इस सुमना नाम के स्टेशन से उत्तर-पूर्व प्रायः  चालीस मील की दूरी पर, जहाँ से हिमालय की पर्वत-श्रेणियाँ आरम्भ होती हैं, एक बड़ा-सा कस्बा है, जिसका नाम यशनगर है। उत्तर प्रदेश के मैदानों से  इस बस्ती का पुराना सम्पर्क रहा है। इन जंगलों के बीच होकर न जाने कब से मनुष्य हिंस्त्र पशुओं का मुकाबला करता हुआ यशनगर और उसके दक्षिण-पूर्व में बसे हुए नगर ज्ञानपुर से सम्पर्क स्थापित किये हुए था ! रास्ते में बड़े-बड़े नद पड़ते हैं, भूमि ऊँची-नीची है और इसलिए साल में छः महीने ज्ञानपुर और यशनगर के बीच कोई रास्ता नहीं रहता है। पर मनुष्य ने इसकी चिन्ता कब की ? वह तो फैलता रहा है, वह फैलता रहेगा। यशनगर के आसपास पहाड़ों पर घाटियों में, जहां भी मनुष्य को स्थान मिल गया वहाँ उसने अपनी बस्तियाँ बना डालीं और वहीं से उसने आगे फैलना आरम्भ किया।

यह आदान-प्रदान ही मानव-सभ्यता का मूल स्त्रोत हैः इस आदान-प्रदान के लिए ही मनुष्य ने पहाड़ों को लाँघकर और सागरों को पार करके दुनिया के हरेक कोने का पता लगाया। इस आदान-प्रदान की क्रिया-प्रतिक्रिया के रूप में न जाने कितने युद्ध लड़े गये, न जाने कितने देश बरबाद किए गये, न जाने कितनी सभ्यताएं नष्ट की गयीं और यह आदान-प्रदान चल रहा है।

इस आदान-प्रदान की सुविधा के लिए ही प्रायः तीन साल पहले यशनगर को आधुनिक वैज्ञानिक रूप से उत्तर प्रदेश के मैदानों से जोड़ा गया। ज्ञानपुर से उत्तरप्रदेश का मार्ग कठिन था, अत्यधिक ऊँचा-नीचा इसलिए यशनगर को मैदानों से जोड़ने के लिए ज्ञानपुर से पश्चिमी की ओर स्थित औद्योगिक नगर लकनऊ को चुना गया। समर्थ और सक्षम मनुष्यों का एक दल आया, उसने जंगल काटे, उसने वहाँ रहनेवाले हिंस्त्र पशुओं का वध किया। लोहे की पटरियाँ बिछी, धुआँ उगलने वाले दानवाकार इंजनों रेल के डिब्बे चले और इस प्रकार आदान-प्रदान में वृद्धि हुई।

सुमना स्टेशन अभी हाल में एक साल पहले बना था। लाल ईंटों की बनी दो कमरोंवाली स्टेशन की इमारत और इस इमारत के चारों ओर प्रायः दस-बारह एकड़ जमीन साफ की गयी थी। और इस जमीन के आगे-पीछे लम्बे-लम्बे पेड़ एक-दूसरे से उलझे हुए खड़े थे और पेड़ों की छाँह का अन्धकार उस जंगल में भरा हुआ था। ऐसा लगता था कि घने जंगलों के बीच से होकर लोहे की पटरियों की एक नदी बह रही हो और उस नदी के किनारे एक छोटे-से घाट की भाँति वह सुमना स्टेशन खड़ा हो।

लाल ईंटों की वह इमारत जून के महीने की धूप में चमक रही थी और उस स्टेशन के आसपास दूर तक किसी प्रकार के जीवन की कोई झलक नहीं दिखायी थी। खलासी, सिगनलमैन और कुली, उन तीनों कामों को अकेले सँभालने वाला नवलसिंह स्टेशन के अन्दरवाले बरामदे में लेटा था और मक्खियों को हटाने के लिए अपनी पगड़ी के छोर से रह-रहकर अपने ऊपर पंखा झलता जाता था।

नवलसिंह मझोले कद का गोरा-सा युवक था। उसकी अवस्था प्रायः पच्चीस वर्ष की रही होगी। स्टेशन से हटकर दक्षिण की ओर बारह मील की दूरी पर झबेर नामक ग्राम का रहनेवाला था। जब से सुमना स्टेशन बना था तब से वहाँ नौकरी कर रहा था, लेकिन सुमना को बने हुए भी तो कुल एक वर्ष हुआ था। उस स्टेशन का नाम सुमना क्यों पड़ा, इसकी भी एक कहानी है।

ठीक उस जगह से होकर, जहाँ सुमना स्टेशन बनाया गया था जंगल की एक सड़क उत्तर की ओर जाती है और वह सड़क ठीक वहाँ समाप्त होती है जहाँ तराई से हिमालय की श्रेणियाँ मिलती हैं। जहाँ वह सड़क समाप्त होती है वहाँ सुमनपुर नाम का एक छोटा-सा गाँव था। सुमनपुर गाँव यशनगर के इलाके में था। सुमनपुर में कुछ थोड़े-से गरीब परिवार रहते थे और उन परिवारों को अनेक प्राकृतिक असुविधाओं का सामना करना पड़ता था। सुमनपुर वाली भूमि अनुपजाऊ थी, यद्धपि सुमनपुर का क्षेत्र आकर्षक और सुन्दर था। कुछ वर्ष पहले सुमनपुर के पास अबरक और लाइमस्टोन की खानों का पता चला। यही नहीं सुमनपुर के आसपास पहाड़ों में ताँबे की भी सम्भावना दीखी। धीरे-धीरे सुमनापुर का महत्व बढ़ा है ऐसा लगने लगा कि यदि सुमनपुर का विकास किया गया तो सुमनपुर स्वयं में एक बहुत बड़ा औद्योगिक केन्द्र बन सकता है।

प्रदेश की सरकार ने सुमनपुर के विकास का  कार्यक्रम अपने हाथ में ले लिया। सुमनपुर को रेल-मार्ग से निकट लाने के लिए लखनपुर-यशनगर लाइन पर एक स्टेशन बनाया गया जहाँ से फारेस्ट रोड सुमनपुर को जाती थी और उस स्टेशन का नाम सुमना रखा दिया गया।

नवलसिंह को नींद नहीं आ रही थी। पाँच बजे शामवाली पैसेंजर गाड़ी लखनऊ की ओर से आनेवाली थी। पाँच बजने में अभी एक घण्टे की देर थी, लेकिन नवलसिंह का यह अनुभव था कि कच्ची नींद टूटने में कष्ट होता है। इसलिए नवलसिंह पड़ा-पड़ा इस गाड़ी की बाट जोह रहा था। इस गाड़ी के बाद सुबह तक फिर कोई गाड़ी नहीं आएगी। शामवाली गाड़ी को विदा करके वह अपने गाँव चला जएगा। उजाली रात थी, नौ बजे तक वह अपने गाँव पहुँच जायेगा। मास्टर बाबू को उसने राजी कर लिया था, कि अपने गाँव में रात बिताकर वह सुबह नौ बजे तक वापस आ जाएगा। यशनगर से आनेवाली दस बजे की गाड़ी के लिए। और वह अपने साथ अपनी पत्नी को भी लेता आयेगा। स्टेशन मास्टर ने भी सोचा था कि उस स्टेशनवाली दो व्यक्तियों की आबादी में एक व्यक्ति और बढ़ जायेगा और इसके बाद उन्हें भी अपने परिवार को अपने साथ ले आने की सुविधा होगी। इस निर्जन स्टेशन पर एक स्थान पर एक साल से मुसाफिर भी बहुत कम उतरते थे। एक-दूसरे से कहाँ तक बात की जाए ? दूसरों से बात करने को तरस गये थे वे लोग।

एकाएक नवलसिंह चौंक उठा-दूर बहुत दूर से आता हुआ घबराहट का एक स्वर सुनकर। रेल की घरघराहट की आवाज वह अच्छी तरह पहचानता था वह आवाज यह थी नहीं और अभी रेल का समय भी तो नहीं हुआ था। ध्यान से लेटा-लेटा वह उस घबराहट की आवाज को सुनने लगा....वह कुछ परिचित-सी आवाज लगी उसे। वह आवाज उत्तर की ओर से आ रही थी, नवलसिंह इतना जान गया था। अकेले रहते-रहते उसमें आवाजों की दिशा का बोध हो गया था घरघराहट की आवाज धीरे-धीरे स्पष्ट होती जा रही थी। एकाएक उसे याद हो आया कि पन्द्रह दिन पहले कुछ मोटरें उस जंगल के रास्ते से सुमनपुर गयी थीं। वहीं से नवलसिंह ने आवाज लगायी, ‘‘मास्टर बाबू, सुमनपुर से शायद कोई मोटर आ रही है।’’

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