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मानसरोवर - भाग 8

प्रेमचंद

प्रकाशक : सुमित्र प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3111
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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प्रेमचन्द उपन्यास पर आधारित मानसरोवर की कहानियों का वर्णन...

Mansarovar--8

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रेमचन्द की कहानियों के विषय में....

जब हम एक बार लौटकर हिन्दी कहानी की यात्रा पर दृष्टि डालते हैं और पिछले सत्तर-अस्सी वर्षों के सामाजिक विकास की व्याख्या करते हैं, तो अगर कहना चाहे तो बहुत सुविधाजनक कह सकते हैं कि कहानी अब तक प्रेमचन्द से चलकर प्रेमचन्द तक ही पहुँची है। अर्थात सिर्फ प्रेमचन्द के भीतर ही हिन्दी कहानी के इस लम्बे समय का पूरा सामाजिक वृतान्त समाहित है। समय की अर्थवत्ता जो सामाजिक सन्दर्भों के विकास से बनती है, वह आज भी, बहुत साधारण परिवर्तनों के साथ जस की तस बनी हुई है। आप कहेंगे कि-क्या प्रेमचन्द के बाद समय जहाँ काम तहाँ टिका रह गया है ? क्या समय का यह कोई नया स्वाभाव है ? नहीं, ऐसा नहीं। फिर भी संन्दर्भों के विकास की प्रक्रिया जो सांस्थानिक परिवर्तनों में ही रेखांकित होती है और समय ही उसका कारक है- वह नहीं के बराबर हुई। आधारभूत सामाजिक बदलाव नहीं हुआ। इस लम्बे काल का नया समाज नहीं बन पाया। धार्मिक अन्धविश्वास और पारम्परिक कुंठाएँ जैसी की तैसी बनी रहीं। भूमि-सम्बन्ध नहीं बदले। अशिक्षा और सामाजिक कुरीतियों का अंधकार लगातार छाता रहा।

यत्र-तत्र परस्थितियों और परिवेश के साथ ही सामान्य सामाजिक परवर्तन अथवा मनोवैज्ञानिक बारीकियों को छोड़ दे तो शिल्प के क्षेत्र में भी जहाँ सीधे-सादे वाचन में ‘पूस की रात’, ‘कफ़न’, ‘सदगति’ जैसी कहानियाँ वर्तमान हों, कोई परिवेश अथवा परिवर्तन की बारीक लक्षणा और चरित्रांकन की गहराई के लिए किसी दूसरी कहानी का नाम ले तो भी इन कहानियों को छोड़कर नहीं ले सकता। अपने समय और समाज का ऐतिहासिक सन्दर्भ तो जैसे प्रेमचन्द की समस्त भारतीय साहित्य में अमर बना देता है।


-मार्कण्डेय


खून सफेद



चैत का महीना था, लेकिन वे खलियान, जहाँ अनाज की ढेरियाँ लगी रहती थीं, पशुओं के शरणस्थल बने हुए थे, जहाँ घरों से फाग और बसंत की अलाप सुनाई पड़ती, वहाँ आज भाग्य का रोना था। सारा चौमासा बीत गया पानी की एक बूँद न गिरी। जेठ में एक बार मूसलाधार वृष्टि हुई थी, किसान फूले न समाये, खरीफ की फसल बो दी, लेकिन इन्द्रदेव ने अपना सर्वस्य शायद एक ही बार लुटा दिया था। पौधे उगे बड़े और सूख गये। गोचर भूमि में घास न जमी ! बादल आते, घटाये उमड़ती, ऐसा मालूम होता कि जल-थल एक हो जायेगा, परन्तु वे आशा की नहीं, दुःख की घटायें थीं। किसानों ने बहुतेरे जप-तप किये, ईट और पत्थर देवी और देवताओं के नाम से पुजाये, बलिदान किये, पानी की अभिलाषा में रक्त के प्याले बह गये, लेकिन इंद्रदेव किसी तरह न पसीजे। न खेतों में पौधे थे, न गोचरों में घास, न तालाबों में पानी, बड़ी मुसीबत का सामना था। जिधर देखिए धूल उड़ रही थी। दरिद्रता और क्षुधा-पीड़ा के दारुण दृश्य दिखायी देते थे। लोगों ने पहले तो गहने और बर्तन गिरवी रखे और अंत में बेच डाले। फिर जानवरों की बारी आयी और जब जीविका का अन्य कोई सहारा न रहा तब जन्मभूमि पर जान देने वाले किसान बाल-बच्चों को लेकर मजदूरी करने निकल पड़े। अकाल-पीडितों की सहायता के लिए कहीं-कहीं सरकार की सहायता से काम खुल गया था। बहुतेरे वहीं जाकर जमे। जहाँ जिसको सुभीता हुआ, वह उधर ही जा निकला।


 2


संध्या का समय था। जादोराय थका-माँदा आकर बैठ गया और स्त्री से उदास होकर बोला- दरखास्त नामंजूर हो गयी। यह कहते-कहते वह आंगन में जमीन पर लेट गया। उसका मुख पीला पड़ रहा था और आँते सिकुड़ी जा रही थीं। आज दो दिन से उसने दाने की सूरत नहीं देखी। घर में जो कुछ विभूति थी—गहने, कपड़े, बर्तन-भाड़ें सब पेट में समा गए। गाँव का साहूकार भी पतिव्रता स्त्रियों की भाँति आँखें चुराने लगा। केवल तकाबी का सहारा था, उसी के लिए दरख्वास्त दी थी, लेकिन आज वह भी नामंजूर हो गई, आशा का झिलमिलाता हुआ दीपक बुझ गया।

देवकी ने पति को करुण दृष्टि से देखा। उसकी आँखों में आँसू उमड़ आये। पति दिन-भर का थका-माँदा घर आया है। उसे क्या खिलावे ? लज्जा के मारे वह हाथ-पैर धोने के लिए वह पानी भी न लायी। जब हाथ-पैर धोकर आशा-भरी चितवन से वह उसकी ओर देखेगा तब वह उसे क्या खाने को देगी ? उसने आज कई दिन से दाने की सूरत नहीं देखी थी। लेकिन उस समय उसे जो दुख हुआ, वह, वह क्षुधातुरता के कष्ट से कई गुना अधिक था। स्त्री घर की लक्ष्मी है। घर के प्राणियों को खिलाना-पिलाना वह अपना कर्तव्य समझती है। और चाहे यह उसका अन्याय ही क्यों न हो, लेकिन अपनी दीन-हीन दशा पर जो मानसिक वेदना उसे होती है, वह पुरुषों को नहीं हो सकती।

हठात् उसका बच्चा साधो नींद से चौंका और मिठाई के लालच में आकर वह बाप से लिपट गया। इस बच्चे ने आज प्रातः काल चने की रोटी का एक टुकड़ा खाया था और तब से कई बार उठा और कई बार रोते-रोते सो गया। चार वर्ष का नादान बच्चा, उसे वर्षा और मिठाईयों में कोई सम्बन्ध नहीं दिखाई देता था। जादोराय ने उसे गोद में उठा लिया, उसकी ओर दुःख भरी दृष्टि से देखा। गर्दन झुक गयी और हृदय की पीड़ा आँखों में न समा सकी।


3


दूसरे दिन यह परिवार भी घर से बाहर निकला। जिस तरह पुरुषों के चित्त से अभिमान और स्त्री की आँख से लज्जा नहीं निकलती, उसी तरह अपनी मेहनत से रोटी कमाने वाला किसान भी मजदूर की खोज में घर से बाहर नहीं निकलता। लेकिन पापी पेट, तू सब कुछ करा सकता है ! मान और अभिमान, ग्लानि और लज्जा ये सब चमकते हुए तारे तेरी काली घटाओं में छिप जाते हैं।

प्रभात का समय था। दोनों विपत्ति के सताये घर से निकले। जादोराय ने लड़के को पीठ पर लिटा लिया। देवकी ने फटे-पुराने कपड़ों की गठरी सिर पर रखी। जिस पर विपत्ति को भी तरस आता। दोनों की आँखें आँसुओं से भरी थीं। देवकी रोती थी। जादोराय चुपचाप था। गाँव के दो-चार आदमियों से रास्ते में भेंट भी  हुई, किंतु किसी ने इतना भी न पूछा कि कहाँ जाते हो ? किसी के हृदय में सहानुभूति का वास न था।
जब ये लालगंज पहुँचे, उस समय सूर्य ठीक सिर पर था। देखा मीलों तक आदमी ही आदमी दिखाई देते थे। लेकिन हर चेहरे पर दीनता और दुख के चिह्न झलक रहे थे।

बैसाख की जलती हुई धूप थी। आग के झोंके जोर-जोर से लहराते हुए चल रहे थे। ऐसे समय में हड्डियों के अगणित ढाँचे जिनके शरीर पर किसी प्रकार का कपड़ा न था, मिट्टी खोदने में लगे हुए थे। मानो वह मरघट भूमि थी। जहाँ मुर्दे अपने हाथों अपनी कब्रें खोद रहे थे। बूढ़े और जवान, मर्द और बच्चे, सब ऐसे निराश और विविश होकर काम में लगे हुए थे मानो मृत्यु और भूख उनको सामने बैठे घूर रही है। इस आफत में न कोई किसी का मित्र था न हितू। दया, सहृदयता और प्रेम ये सब मानवीय भाव हैं। जिनका कर्त्ता मनुष्य है। प्रकृति ने हमको केवल एक भाव प्रदान किया है और वह स्वार्थ ईश्वरप्रदत्त गुण कभी हमारा गला नहीं छोड़ता।

4

आठ दिन बीत गये थे। संध्या समय काम समाप्त हो चुका था। डेरे से कुछ दूर आम का एक बाग था। वहीं एक पेड़ के नीचे जादोराय और देवकी बैठी हुई थी। दोनों ऐसे कृश हो रहे थे कि उनकी सूरत नहीं पहचानी जाती थी। अब स्वाधीन कृषक नहीं रहे। समय के हेरफेर से आज दोनों मजबूर बने बैठे हैं।
जादोराय ने बच्चे को जमीन पर सुला दिया। उसे कई दिन से बुखार आ रहा है। कमल-सा चेहरा मुरझा गया। देवकी ने धीरे से हिला कर कहा- बेटा ! आँखें खोलो। देखो साँझ हो गयी।

साधो ने आँखें खोल दीं, बुखार उतर गया था। बोला-क्या हम घर आ गये माँ ? घर की याद आ गयी। देवकी की आँखें डबडबा आयीं। कहा-नहीं बेटा ! तुम अच्छे हो जाओगे, तो घर चलेंगे। उठकर देखो, कैसा अच्छा बाग है।
साधो मां के हाथों के सहारे उठा और बोला—माँ ! मुझे बड़ी भूख लगी है, लेकिन तुम्हारे पास कुछ तो नहीं है। मुझे खाने को क्या दोगी ?

देवकी के हृदय में चोट लगी, पर धीरज धर के बोली –नहीं बेटा, तुम्हारे खाने को मेरे पास सब कुछ है। तुम्हारे दादा पानी लाते हैं तो मैं अभी नरम-नरम रोटियाँ बनाए देती हूँ।
साधो ने मां की गोद में सिर रख लिया और बोला—माँ ! मैं न होता तो तुम्हें इतना दुख तो न होता। यह कहकर वह फूट-फूट कर रोने लगा। यह वही बे समझ बच्चा है, जो दो सप्ताह पहिले मिठाइयों के लिए दुनिया सिर पर उठा लेता था। दुःख और चिंता ने कैसा अनर्थ कर दिया है। यह विपत्ति का फल है। कितना दुख पूर्ण, कितना करूणाजनक व्यापार है।

इसी बीच में कई आदमी लालटेन लिए हुए वहाँ आए। फिर गाड़ियाँ आयीं। उन पर डेरे और खेमें लदे हुए थे। दम के दम वहाँ खेमे गड़ गए। सारे बाग में चहल-पहल नजर आने लगी। देवकी रोटियाँ सेंक रही थी, साधो धीरे-धीरे उठा और आश्चर्य से देखता हुआ डेरे के नजदीक जाके खड़ा हो गया !

5

पादरी मोहनदास खेमे से बाहर निकले तो साधो उन्हें खड़ा दिखाई दिया। उसकी सूरत पर उन्हें तरस आ गया। प्रेम की नदी उमड़ आयी। बच्चे को गोद में लेकर खेमे में एक गद्देदार कोच पर बैठा दिया और तब उसे बिस्कुट और केले खाने को दिए लड़के ने अपनी जिंदगी में इन स्वादिष्ट चीजों को कभी नहीं देखा। बुखार की बैचैन करने वाली भूख अलग मार रही थी। उसने खूब मन भर खाया और तब कृतज्ञ नेत्रों से देखते हुए पादरी साहब के पास जाकर बोला-तुम हमको रोज ऐसी चीजें खिलाओगे।

पादरी साहब इस भोलेपन पर मुस्कुरा कर बोले मेरे पास इससे भी अच्छी-अच्छी चीजें हैं। इस पर साधोराय ने कहा-अब मैं रोज तुम्हारे पास आऊँगा।
उधर देवकी ने रोटियाँ बनायी और साधो को पुकारने लगी। साधो ने माँ के पास जाकर कहा मुझे साहब ने अच्छी-अच्छी चीजें खाने को दी हैं। साहब बड़े अच्छे हैं।

देवकी ने कहा मैंने तुम्हारे लिए नरम-नरम रोटियाँ बनायी है। आओ तुम्हें खिलाऊँ।
साधो बोला-अब मैं न खाऊँगा। साहब कहते थे कि मैं तुम्हें रोज अच्छी-अच्छी चीजें खिलाऊँगा। मैं अब उनके साथ ही रहा करूँगा। मां ने समझा कि लड़का हँसी कर रहा है। उसे छाती से लगाकर बोली–क्यों बेटा, हमको भूल जाओगे ? देख मैं तुम्हें कितना प्यार करती हूँ।
साधो तुतला कर बोला-तुम तो मुझे रोज चने की रोटियाँ दिया करती हो। तुम्हारे पास तो कुछ नहीं है। साहब मुझे केले और आम खिलावेंगे। यह कह कर वह फिर खेमे की ओर भागा और रात को वहीं सो रहा। !

पादरी मोहनदास का पड़ाव वहाँ तीन दिन रहा। साधो दिन भर उन्हीं के पास रहता। साहब ने उसे मीठी दवाइयाँ दीं। उसका बुखार जाता रहा। वह भोले-भाले यह देखकर साहब को आशीर्वाद देने लगे। लड़का भला चंगा हो गया और आराम से है। साहब को परमात्मा सुखी रखे। उन्होंने बच्चे की जान रख ली। चौथे दिन रात को ही वहाँ से पादरी साहब ने कूच किया। सुबह को जब देवकी उठी तो साधो का वहाँ पता न था। उसने समझा, कहीं टपके ढूँढ़ने गया होगा, किंतु थोड़ा देख कर उसने जादोराय से कहा- लल्लू यहाँ नहीं है। उसने भी यही कहा- यहीं कहीं टपके ढूँढ़ता  होगा।
लेकिन जब सूरज निकल आया और काम पर चलने का वक्त हुआ तब जादोराय को कुछ संशय हुआ। उसने कहा-तुम यहीं बैठी रहना, मैं अभी उसे लिए आता हूँ।

जादोराय ने आस-पास के सब बागों को छान डाला और अन्त में जब दस बज गये तो निराश लौट आया। साधो न मिला, यह देख देवकी ढाढ़े मार कर रोने लगी।

फिर दोनों अपने लाल की तलाश में निकले। अनेक विचार चित्त में आने-जाने लगे। देवकी को पूरा विश्वास था कि साहब ने उस पर कोई मंत्र डालकर वश में कर लिया। लेकिन जादो को इस कल्पना के मान लेने में कुछ संदेह था। बच्चा इतनी दूर अनजाने रास्ते पर अकेले नहीं आ सकता। फिर दोनों गाड़ी के पहियों और घोड़े के टापों के निशान देखते चले जाते थे। यहाँ तक की वे सड़क पर आ पहुँचे। वहाँ गाड़ी के बहुत से निशान थे। उस विशेष लीक की पहचान न हो सकती थी। घोडे़ के टाप भी एक झाड़ी की तरफ गायब हो गये। आशा का सहारा टूट गया। दोपहर हो गयी थी। दोनों धूप के मारे बैचेन और निराशा से पागल हो गये। वहीं एक वृक्ष की छाया में बैठ गये। देवकी विलाप करने लगी। जादोराय ने उसे समझाना शुरू किया।

जब जरा धूप की तेजी कम हुई तो दोनों फिर आगे चले। किंतु अब आशा की जगह निराशा साथ थी। घोड़े के टापों के साथ उम्मीद का धुँधला निशान गायब हो गया था।

शाम हो गयी। इधर-उधर गायों-बैलों के झुंड निर्जीव से पड़े दिखायी देते थे। यह दोनों दुखिया हिम्मत हार कर एक पेड़ के नीचे टिक रहे। उसी वृक्ष पर मैना का एक जो़ड़ा बसेरा लिये था। उनका  नन्हा-सा शावक आज ही एक शिकारी के चंगुल में फँस गया था। दोनों दिन भर उसे खोजते फिरे। इस समय निराश होकर बैठे रहे। देवकी और जादो को अभी तक आशा की झलक दिखाई देती थी, इसलिए वे बैचेन थे।
तीन दिन तक ये लोग खोय हुए लाल की तलाश करते रहे। दाने  से भेंट नहीं, प्यास से बेचैन होते तो दो-चार घूँट पानी गले के नीचे उतार लेते।

आशा की जगह निराशा का सहारा था। दुख और करुणा के सिवाय और कोई वस्तु नहीं। किसी बच्चे के पैरों के निशान देखते तो उनके दिलों में आशा तथा भय की लहरें उठने लगती थीं।  
लेकिन प्रत्येक पग उन्हें अभीष्ट स्थान से दूर लिये जाता था।


6


इस घटना को हुए चौदह वर्ष बीत गये। इन चौदह वर्षों में सारी काया पलट गयी। चारों ओर रामराज्य दिखायी देने लगा। इंद्रदेव ने कभी उस तरफ अपनी निर्दयता न दिखायी और न जमीन ने ही। उमड़ी हुई नदियों की तरह अनाज से ढेकियाँ भर चलीं। उजड़े हुए  गाँव बस गये। मजदूर किसान बन बैठे और किसान जायदाद की तलाश में नजरें दौड़ाने लगे। वही चैत के दिन थे। खलियानों में अनाज के पहाड़ खड़े थे। भाट और भिखमंगे किसानों की बढ़ती के तराने गा रहे थे। सुनारों के दरवाजे पर सारे दिन और आधी रात तक गाहकों का जमघट बना रहता था। दरजी को सिर उठाने की फुरसत न थी। इधर-उधर दरवाजों पर घोड़े हिनहिना रहे थे। देवी के पुजारियों के अजीर्ण हो रहा था जादोराय के दिन भी फिरे। 

उसके घर छप्पर की जगह खपरैल हो गया। दरवाजे पर अच्छे बैलों की जोड़ी बँधी हुई है। वह अब अपनी बहली पर सवार होकर बाजार जाया करता है। उसका बदन अब उतना सुडौल नहीं है। पेट पर इस सुदशा का विशेष प्रभाव पड़ा है और बाल सफेद हो चले हैं। देवकी की गिनती भी गाँव की बूढी औरतों में होने लगी है व्यावहारिक बातों में उसकी बड़ी पूछ हुआ करती है। जब वह किसी पड़ोसिन के घर जाती है तो वहाँ की बहुएँ भय के मारे थरथराने लगती हैं। उसके कटु वाक्य, तीव्र आलोचना की सारी गाँव में धाक बाँधी हुई है। महीन कपड़े अब उसे अच्छे नहीं लगते, लेकिन गहनों के बारे में वह इतनी उदासीन नहीं है।



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