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मानसरोवर - भाग 7

प्रेमचंद

प्रकाशक : सुमित्र प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3114
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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प्रेमचन्द उपन्यास पर आधारित मानसरोवर की कहानियों का वर्णन...

Mansarohar-7

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रेमचन्द की कहानियों के विषय में....

जब हम एक बार लौटकर हिन्दी कहानी की यात्रा पर दृष्टि डालते हैं और पिछले सत्तर-अस्सी वर्षों के सामाजिक विकास की व्याख्या करते हैं, तो अगर कहना चाहे तो बहुत सुविधाजनक कह सकते हैं कि कहानी अब तक प्रेमचन्द से चलकर प्रेमचन्द तक ही पहुँची है। अर्थात सिर्फ प्रेमचन्द के भीतर ही हिन्दी कहानी के इस लम्बे समय का पूरा सामाजिक वृतान्त समाहित है। समय की अर्थवत्ता जो सामाजिक सन्दर्भों के विकास से बनती है, वह आज भी, बहुत साधारण परिवर्तनों के साथ जस की तस बनी हुई है। आप कहेंगे कि-क्या प्रेमचन्द के बाद समय जहाँ काम तहाँ टिका रह गया है ? क्या समय का यह कोई नया स्वाभाव है ? नहीं, ऐसा नहीं। फिर भी संन्दर्भों के विकास की प्रक्रिया जो सांस्थानिक परिवर्तनों में ही रेखांकित होती है और समय ही उसका कारक है- वह नहीं के बराबर हुई। आधारभूत सामाजिक बदलाव नहीं हुआ। इस लम्बे काल का नया समाज नहीं बन पाया। धार्मिक अन्धविश्वास और पारम्परिक कुंठाएँ जैसी की तैसी बनी रहीं। भूमि-सम्बन्ध नहीं बदले। अशिक्षा और सामाजिक कुरीतियों का अंधकार लगातार छाता रहा।
 
यत्र-तत्र परस्थितियों और परिवेश के साथ ही सामान्य सामाजिक परवर्तन अथवा मनोवैज्ञानिक बारीकियों को छोड़ दे तो शिल्प के क्षेत्र में भी जहाँ सीधे-सादे वाचन में ‘पूस की रात’, ‘कफ़न’, ‘सदगति’ जैसी कहानियाँ वर्तमान हों, कोई परिवेश अथवा परिवर्तन की बारीक लक्षणा और चरित्रांकन की गहराई के लिए किसी दूसरी कहानी का नाम ले तो भी इन कहानियों को छोड़कर नहीं ले सकता। अपने समय और समाज का ऐतिहासिक सन्दर्भ तो जैसे प्रेमचन्द की समस्त भारतीय साहित्य में अमर बना देता है।


-मार्कण्डेय



जेल


मृदुला मैजिस्ट्रेट के इजलास से जानने जेल में वापस आयीं तो उसका मुख प्रसन्न था बरी हो जाने की गुलाबी आशा उसके कपोलों पर चमक रही थी। उसे देखते ही राजनैतिक कैदियों के एक गिरोह ने घेर लिया और पूछने लगीं, कितने दिन की हुई ?
मृदुला ने विजय-गर्व से कहा- मैंने तो साफ-साफ कह दिया, मैंने धरना नहीं दिया। यों आप जबर्दस्त हैं, जो फैसला चाहें करें। न मैंने किसी को रोका, न पकड़ा, न धक्का दिया, न किसी से आरजू-मिन्नत ही की। कोई ग्राहक मेरे सामने आया ही नहीं। हाँ, मैं दूकान पर खड़ी जरूर थी। वहाँ कई वालंटियर गिरफ्तार हो गये थे। जनता जमा हो गयी थी मैं भी खड़ी हो गयी। बस, थानेदार ने आकर मुझे पकड़ लिया।

क्षमादेवी कुछ कानून जानती थीं। बोली-मैजिस्ट्रेट पुलिस के बयान पर फैसला करेगा। मैं ऐसे कितने ही मुकदमे देख चुकी। मृदुला ने प्रतिवाद किया-पुलिस वालों को मैंने ऐसा रगडा़ कि वह भी याद करेंगे मैं मुकदमें की कार्यवाई में भाग न लेना चाहती थी; मैंने उनसे जिरह करनी शुरू की। सरासर झूठ बोलते देखा, तो मुझसे जब्त न हो सका। मैंने उनसे जिरह करनी शुरू की। मैंने भी इतने दिनों घास नहीं खोदी है। थोडा-सा कानूनन जानती हूँ। पुलिस ने समझा होगा यह कुछ बोलेगी तो है नहीं, हम जो बयान चाहेंगे, देंगे। मैंने जिरह शुरू की तो सब बगलें झाँकने लगे। मैंने तीनों गवाहों को झूठा साबित कर दिया। उस समय जाने कैसे मुझे चोट सूझती गयी। मैजिस्ट्रेट ने थानेदार को दो-तीन बार फटकार भी बतायी। वह मेरे प्रश्नों का ऊल-जलूल जवाब देता था, तो मैजिस्ट्रेड बोल उठता था-वह जो कुछ पूछती हैं, उसका जवाब दो, फजूल की बातें क्यों करते हो तब मियाजी का मुँह जरा-सा निकल आता है। मैंने सबों का मुँह बंद कर दिया। अभी साहब ने फैसला तो नहीं सुनाया, लेकिन मुझे विश्वास है, बरी हो जाऊँगी। मैं जेल से नहीं डरती; लेकिन बेवकूफ भी नहीं बनना चाहती। वहाँ हमारे मंत्रीजी भी थे और-बहुत-सी बहनें थीं। सब  यही कहती थी, तुम छूट जाओगी।

महिलाएँ उसे द्वेष-भरी आँखों से देखती हुई चली गयीं। उनमें किसी की मियाद साल-भर की थी, किसी की छह मास की। उन्होंने अदालत के सामने जबान ही न खोली थी। उनकी नीति में यह अधर्म से कम न था।  मृदुला पुलिस से जिरह करके उनकी नजरों में गिर गयी थी। सजा हो जाने पर उसका व्यवहार क्षम्य हो सकता था; लेकिन बरी हो जाने में तो उसका कुछ प्रायश्चित ही नहीं था।   
दूर जाकर एक देवी ने कहा-इस तरह तो हम लोग भी छूट जाते। हमें तो यह दिखाना है, नौकरशाही में से हमें न्याय की कोई आशा ही नहीं।

दूसरी महिला बोली-यह तो क्षमा माँग लेने के बराबर है। गयी तो थीं धरना देने, नहीं तो दूकान जाने का काम ही क्या था। वालंटियर गिरफ्तार हुए थे आपकी बला से। आप वहाँ क्यों गयीं; मगर अब कहती हैं,  मैं धरना देने गयी ही नहीं। यह क्षमा मांगना हुआ, साफ।
तीसरी देवी मुँह बनाकर बोलीं-जेल में रहने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए उस वक्त तो वाह-वाह लूटने के लिए आ गयीं अब रोना आ रहा है। ऐसी स्त्रियों को तो राष्ट्रीय कामों के नगीच ही नहीं आना चाहिए। आंदोलन को बदनाम करने से क्या फायदा।
केवल क्षमादेवी अब तक मृदुला के पास चिंता में डूबी खड़ी थीं। उन्होंने एक उद्दंड व्याख्यान देने के अपराध में साल-भर की सजा पायी थी। दूसरे जिले से एक महीना हुआ यहीं आयी थीं। अभी मियाद पूरी होने में आठ महीने बाकी थे। यहाँ की पंद्रह कैदियों में किसी से उनका दिल मिलता था। जरा-जरा बातों के लिए उनका आपस में  झगड़ना बनाव-सिंगार की चीजों के लिए लेडीवार्डरों की खुशामदें करना घरवालों से मिलने के लिए व्यग्रता दिखलाना जो पसंद न था। वही कुत्सा और कनफुसकियाँ जेल के भीतर भी थीं। वह आत्माभिमान, जो उसके विचार में एक पोलिटिकल कैदी में होना चाहिए, किसी से भी न था। क्षमा उन सबों से दूर रहती थी। उनके जाति प्रेम का वारापार न था।

 एक रंग में पगी हुई थी; पर अन्य देवियाँ उसे घमंडिन समझती थीं और उपेक्षा का जवाब उपेक्षा से देती थी। मृदुला को हिरासत में आये आठ दिन हुए थे। इतने ही दिनों में क्षमा को उससे विशेष स्नेह हो गया था। मृदुला में वह संकीर्णता और ईर्ष्या न थी, न निन्दा करने की आदत, न श्रृंगार की धुन, न भद्दी दिल्लगी का शौक। उसके हृदय में करुणा थी, सेवा का भाव था, देश का अनुराग था। क्षमा ने सोचा था, इसके साथ छह महीने आन्नद से कट जायेंगे; दुर्भाग्य यहाँ भी उसके पीछे पड़ा था। कल मृदुला यहाँ से चली जाएगी ! वह फिर अकेली हो जाएगी। यहाँ ऐसा कौन है ? जिसके साथ घड़ी भर बैठकर अपना दुख-दर्द सुनाएगी, देश-चर्चा करेगी; यहाँ तो सभी के मिजाज आसमान पर हैं। मृदुला ने पूछा-तुम्हें तो अभी आठ महीने बाकी है बहन !

क्षमा ने हसरत के साथ कहा-किसी-न-किसी तरह कट ही जाएंगे बहन ! पर तुम्हारी याद बराबर सताती रहेगी। इसी एक सप्ताह के अन्दर तुमने मुझ पर न जाने क्या जादू कर दिया। जब से तुम आयी हो, मुझे जेल, जेल न मालूम होता था। कभी-कभी मिलती रहना।

मृदुला ने देखा, क्षमा की आँखें डबडबायी हुई थीं।
ढाढ़स देती हुई बोली-जरूर मिलूँगी दीदी मुझसे तो खुद न रह जाएगा। भान को भी लाऊँगी। कहूँगी-चल, तेरी मौसी आई है, तुझे बुला रही है। दौड़ा आयेगा। अब तुमसे आज कहती हूँ बहन, मुझे यहां किसी की याद थी, तो भान की। बेचारा रोया करता होगा। मुझे देख कर रूठ जायेगा। तुम कहाँ चली गयीं ? मुझे छोड़ कर क्यों चली गयीं ? जाओ मैं तुमसे नहीं बोलता, तुम मेरे घर से निकल जाओ। बड़ा शैतान है बहन ! छन-भर निचला नहीं बैठता, सबेरे उठते ही गाता है-‘झन्ना ऊँता लये अमाला’, छोलाज का मन्दिर देल में है।’ जब एक झंडी कन्धे पर रख कर कहता है-तुम ‘ताली-छलाब पीनी हलाम है’ तो देखते ही बनता है। बाप को तो कहता है-तुम गुलाम हो। वह अँगरेजी कम्पनी में हैं, बार-बार इस्तीफा देने का विचार करके जाते हैं। लेकिन गुजर-बसर के लिए कोई उद्यम करना ही पड़ेगा। कैसे छोड़ें। वह तो छोड़ बैठे होते। तुमसे सच कहती हूँ, गुलामी से उन्हें घृणा है लेकिन मैं ही समझाती रहती हूँ। बेचारे कैसे दफ्तर जाते होंगे, कैसे भान को सँभालते होंगे। सासजी के पास को रहता ही नहीं। वह बेचारी बूढ़ी, उसके साथ कहाँ-कहाँ दौड़े !

 चाहती हैं कि मेरी गोद में दबक कर बैठा रहे। और भान को गोद से चिढ़ है। अम्माँ मुझ पर बहुत बिगड़ेंगी, बस यही डर लग रहा है। मुझे देखने एक बार भी नहीं आई। कल अदालत में बाबूजी मुझसे कहते थे, तुमसे बहुत खफा हैं। तीन दिन तक तो दाना-पानी छोडे़ रहीं। इस छोकरी ने कुल-मरजाद डुबा दी, खानदान में दाग लगा दिया, कलमुँही कुलच्छिनी न जाने क्या-क्या बकती रहीं। मैं उनकी बातों को बुरा नहीं मानती ! पुराने जमाने की हैं उन्हें कोई चाहे कि आकर हम लोगों को मिल जायँ। तो यह उनका अन्याय है। चल कर मनाना पड़ेगा। बडी़ मिनन्तों से मानेंगी। कल ही कथा होगी, देख लेना। ब्राह्मण खायेंगे। बिरादरी जमा होगी। जेल का प्रायश्चित तो करना ही पड़ेगा। तुम हमारे घर दो-चार दिन रह कर तब जाना बहन ! मैं आकर तुम्हें ले जाऊँगी।

क्षमा आनन्द के इन प्रंसगों से वंचित है। वह विधवा है, अकेली है। जलियावाला बाग में उसका सर्वस्व लुट चुका है। पति और पुत्र दोनों ही की आहुति जा चुकी है। अब कोई ऐसा नहीं जिसे वह अपना कह सके। अभी उसका हृदय इतना विशाल नहीं हुआ है कि प्राणी मात्र को अपना समझ सके। इन दस बरसों से उसका व्यथित हृदय जाति-सेवा में धैर्य और खोज रहा है। जिन कारणों ने उसके बसे हुए घर को उजाड़ दिया, उसकी गोद सूनी कर दी, उन कारणों का अन्त करने-उनको मिटाने-में वह जी-जान से लगी हुई थी। बड़े-से-बड़े बलिदान तो वह पहले ही कर चुकी थी। अब अपने हृदय के सिवाय उसके पास होम करने को और क्या रह गया था ? औरों के लिए जाति-सेवा सभ्यता का एक संस्कार हो शाक्ति और श्रद्धा के साथ उसकी साधना में लगी हुई थी। आकाश में उड़ने वाले  पक्षी को भी तो अपने बसेरे की याद आती ही है। क्षमा के लिए वह आश्रय कहाँ था ? यही अवसर थे, जब क्षमा भी आत्म-समवेदना के लिए आकुल हो जाती थी। यहाँ मृदुला को पाकर वह अपने को धन्य मान रही थी; पर यह छाँव भी इतनी जल्दी हट गयी !

क्षमा ने व्यथित कंठ से कहा-यहाँ आकर भूल जाओगी मृदुला। तुम्हारे लिए तो यह रेलगाड़ी का परिचय है और मेरे लिए तुम्हारे वादे उसी परिचय के वादे हैं। कभी भेंट हो जाएगी तो या तो पहचानोगी ही नहीं, या जरा मुस्करा कर नमस्ते करती हुई अपनी राह चली जाओगी। यही दुनिया का दस्तूर है। अपने रोने से छुट्टी ही नहीं मिलती, दूसरों के लिए कोई क्योंकर रोये। तुम्हारे लिए तो मैं कुछ नहीं थीं, मेरे लिए तुम बहुत अच्छी थीं। मगर अपने प्रियजनों में बैठ कर कभी-कभी इन अभागिनी को जरूर याद कर लिया करना। भिखारी के लिए चुटकी भर आटा ही बहुत है।
दूसरे दिन मैजिस्ट्रेट ने फैसला सुना दिया। मृदुला बरी हो गयी। संध्या समय वह सब बहनों से गले मिलकर, रोकर-रुला कर चली गयी, मानों मैके से विदा हुई हो

2


तीन महीने बीत गये; पर मृदुला एक बार भी न  आयी। और कैदियों से मिलने वाले आते रहते थे, किसी-किसी के घर से खाने-पीने की चीजें और सौगातें आ जाती थी; लेकिन क्षमा का पूछने वाला कौन बैठा था ? हर महीने के अंतिम रविवार को प्रातः काल से ही मृदुला की बाट जोहने लगती। जब मुलाकात का समय निकल जाता, तो जरा देर रोकर मन को समझा लेती-जमाने का यही दस्तूर है !
 
एक दिन शाम को क्षमा संध्या करके उठी थी कि देखा, मृदुला सामने चली आ रही है। न वह रूप-रंग है, व वह कांति। दौड़ कर उसके गले से लिपट गयी और रोती हुई बोली-यह तेरी क्या दशा है मृदुला ! सूरत ही बदल गई। क्या बीमार है क्या ?

मृदुला की आँखों से आँसुओं की झड़ी लगी थी। बोली बीमार तो नहीं हूँ बहन; विपत्ति से बिंधी हुई हूँ। तुम मुझे खूब कोस रही होगी। उन सारी निठुराइयों का प्रायश्चित करने आयी हूँ। और सब चिंताओं से मुक्त होकर आई हूँ। क्षमा काँप उठी। अंतस्तल की गहराईयों से एक लहर-सी उठती हुई जान पड़ी जिसमें मुझे उसका अपना अतीत जीवन टूटी हुई  नौकाओं की भाँति उतरता हुआ दिखाई दिया। रूँधे कंठ से बोली - कुशल तो है बहन, इतनी जल्दी तुम यहाँ क्यों आ गयी ? अभी तो तीन महीने भी नहीं हुए।

मृदुला मुस्कराई; पर उसकी मुस्कराहट में रुदन छिपा था। फिर बोली- अब क्या कुशल है बहन, सदा के लिए कुशल है। कोई चिंता ही नहीं रही। अब यहाँ जीवन पर्यन्त रहने को तैयार हूँ। तुम्हारे स्नेह और कृपा का मूल्य अब समझ रही हूँ
उसने एक ठंडी साँस ली और सजल नेत्रों से बोली- तुम्हें बाहर की खबरें क्या मिली होंगी ! परसों शहर में गोलियाँ चलीं। देहातों में आजकल संगीनों की नोक पर लगान वसूल किया जा रहा है। किसानों के पास रूपये हैं नहीं, दें तो कहाँ से दें। अनाज का भाव दिन-रात गिरता जा रहा है। पौने दो रुपये में मन भर गेंहू आता है। मेरी उम्र ही अभी क्या है अम्मां जी भी कहती हैं कि अनाज इतना सस्ता कभी नहीं था। खेत की उपज से बीजों तक के दाम नहीं आते। मेहनत और सिंचाई इसके ऊपर। गरीब किसान लगान कहाँ से दें। उस पर सरकार का हुक्म है कि लगान कड़ाई के साथ वसूल किया जाए। किसान इस पर भी राजी नही हैं कि हमारी जमा-जथा नीलाम कर लो घर कुर्क कर लो, अपनी जमीन ले लो; मगर यहाँ तो अधिकारियों को अपनी कारगुजारी दिखाने की फिक्र पड़ी हुई है। वह चाहे प्रजा को चक्की में पीस ही क्यों न डाले; सरकार उन्हें मना न करेंगी।

 मैंने सुना है कि वह उलटे और सह देती है। सरकार को तो अपने कर से मतलब है उन्हें प्रजा मरे या जिये, उससे कोई प्रयोजन नहीं है। अकसर जमींदारों ने तो लगान वसूल करने से इन्कार कर दिया है। अब पुलिस उनकी मदद पर भेजी गयी है। भैरोगंज का सारा इलाका लूटा जा रहा है। मरता क्या न करता, किसान भी घबराकर छोड़-छोड़ कर भागे जा रहे हैं। एक किसान के घर में घुस कर कई कांस्टेबलों ने उसे पीटना शुरू किया। बेचारा बैठा मार खाता रहा। उसकी स्त्री से न रहा गया बेचारी। शामत की मारी कांस्टेबलों को कुवचन कहने लगी। बस एक सिपाही ने उसे नंगा कर दिया। क्या कहूँ बहन। कहते शर्म आती है। हमारे ही भाई इतनी निर्दयता करें, इससे ज्यादा दुःख और लज्जा की और क्या बात होगी ? किसान से जब्त न हुआ। कभी पेट भर गरीबों को खाने को तो मिलता नहीं, इस पर इतना कठोर परिश्रम, न देह में बल न दिल में हिम्मत। पर मनुष्य का हृदय ही तो ठहरा। बेचारा बेदम पड़ा हुआ था। स्त्री का चिल्लाना सुन कर उठ बैठा और उस दुष्ट सिपाही को धक्का देकर जमीन पर गिरा दिया। फिर दोनों में कुशतम-कुश्ती होनो लगी। एक किसान किसी पुलिस के साथ इतनी बेअदबी करे, इसे भला वह कहीं बरदाश्त कर सकती है। सब कांस्टेबलों ने गरीब को इतना मारा कि वह मर गया।
क्षमा ने कहा- गाँव के और लोग तमाशा देखते रहे होंगे।

मृदुला तीव्र कंठ से बोली-बहन, प्रजा ही तो हर तरह से मरन है। अगर दस-बीस आदमी जमा हो जाते, तो पुलिस कहती, हमसे लड़ने आये हैं। डंडे चलाने शुरू करती और अगर कोई आदमी क्रोध में आकर एकाध कंकड़ फेंक देता तो गोलियाँ चला देती। दस बीस आदमी  भुन  जाते। इसलिए लोग जमा नहीं होते; लेकिन जब वह किसान मर गया तो गाँव वालों को तैस आ गया। लाठियाँ ले-लेकर दौड़ पड़े और कांस्टेबलों को घेर लिया। सम्भव है दो चार आदमियों ने लाठियाँ चलायी भी हों। कांस्टेबलों ने गोलियाँ चलानी शुरू कीं। दो तीन सिपाहियों को हल्की चोंटे आयीं।







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