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कब्रिस्तान में पंचायत

केदारनाथ सिंह

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3118
आईएसबीएन :9788171198306

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कब्रिस्तान में पंचायत केदारनाथ सिंह का एक व्यंग्य हास्य निबंध है

Kabristan Main Panchayat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कब्रिस्तान में पंचायत कवि केदारनाथ सिंह की एक गद्य कृति है-एक कवि के गद्य का एक विलक्षण नमूना-जिसमें उसकी सोच, अनुभव और उसके पूरे परिवेश की कुछ मार्मिक छवियाँ मिलेंगी और बेशक वे चिंताएँ भी जो सिर्फ एक लेखक की नहीं हैं। पुस्तक के नाम पर जो व्यंग्यार्थ है, वह हमारे समय के गहरे उद्वेलन की ओर संकेत करता है और शायद इस बात की ओर भी कि इस अबोलेपन की हद तक बँटे हुए समय में परस्पर बातचीत के सिवा कोई रास्ता नहीं। यह अबोलापन इतना गहरा है कि इतनी दूर तक फैला हुआ है कि आज एक माँ औऱ उसके द्वारा रची गई उसकी अपनी ही सृष्टि के बीच एक लंबी फाँक आ गयी है। इस पुस्तक के ज्यादातर आलेख इन्हीं फाँकों या दरारों के बोध से पैदा हुए हैं-फिर वह अक्का महादेवी की पीड़ा-भरी चुनौती हो या एक रहस्यमय दर्द से एक मामूली आदमी का मर जाना।

इन आलेखों में एक सुखद विविधता मिलेगी, जिसका फलक एक ओर वाक्यपदीयम् से कोलकाता की सड़क पर पड़ी घायल चिड़िया तक फैला है और दूसरी ओर विस्मृत दलित कवि देवेन्द्र कुमार से दलित कविता के पितामह तेलुगू के महाकवि जुर्रम जाशुआ तक। दक्षिण के कुछ कालजयी रचनाकारों पर लिखी गई तलस्पर्शी टिप्पणियाँ इस पुस्तक को एक और विस्तार देती हैं और थोड़ी सी अखिल भारतीयता भी।

पारदर्शी और कसी हुई भाषा में लिखे गये ये आलेख कुछ समय पूर्व दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में क्रमिक रूप से छपे थे और वृहत्तर पाक-समुदाय द्वारा पढ़े-सराहे गये थे। कुछ नई सामग्री के साथ उन आलेखों को एक जगह एक साथ पढ़ना तथा अलग ढंग का अनुभव होगा और शायद एक आवयिक संग्रथन का सूचक भी।

 

नीम का पेड़ और वाक्यपदीयम्

कुछ सवाल हैं, जिन्हें अब कोई किसी से नहीं पूछता—यहां तक कि स्वयं से भी नहीं। जो गांव से शहर आता है, उसे कुछ दिन उस नए माहौल में अटपटा जरूर लगता है, पर धीरे-धीरे वह उसका हिस्सा बनने लगता है और रिटायर होने-होने तक वह उसका इतना अभिन्न हिस्सा बन चुका होता है कि लौटने के लिए उसके पास दूसरी कोई जगह नहीं होती। जो होती है, उसके साथ स्मृति का एक पतला-सा धागा उसे जोड़े रखता है, जो इतना जर्जर होता है कि किसी भी क्षण टूट सकता है। इसलिए अब किसी से यह पूछना कि रिटायर होने के बाद आप कहाँ जाएँगे, एक निरर्थक सा सवाल बनता जा रहा है। बहुत पहले कभी ग्रीक कवि कबाफी की एक कविता मैंने पढ़ी थी, जिसमें एक पंक्ति आती थी—‘यदि तुमने किसी शहर में अपने जीवन के बीस बरस गुजार दिए, तो समझ लो तुम दुनिया के बाकी तमाम शहरों के लिए बेकार हो चुके हो।’ यह पंक्ति इस सदी के दूसरे या तीसरे दशक में कभी लिखी गई थी और तब से शहरों का जीवन काफी बदल चुका है और उनकी वह मीठी-सी मारक शक्ति भी अधिक असरदार हो गई है जो आदमी के स्नायुतन्तुओं को धीरे-धीरे सुन्न कर देती है।

पर एक सुखद आश्चर्य तब होता है, जब हम पाते हैं कि अब भी कुछ लोग हैं, जो अपने जीवन का अधिकांश किसी शहर को सौंप देने के बाद, उस कस्बे या गांव में लौट जाने की इच्छा अन्त तक बचाए रखते हैं, जहाँ से वे आए थे। ऐसे अक्सर छोटे लोग होते हैं—छोटे-छोटे काम करने वाले, जिन्हें शहर तभी तक स्वीकार करता है, जब तक उनकी उपयोगिता होती है और उसके बाद उस सीठी की तरह जो गन्ने से रस के निचुड़ जाने के बाद मशीन से बच जाती है, उसे बाहर फेंक देता है। पर मैंने देखा है कि कुछ दूसरे प्रकार के लोग भी ऐसे होते हैं, जो एक निश्चित आर्थिक सुरक्षा के बावजूद, शहर के सारे ताम-झाम को छोड़कर अन्ततः अपने मूल स्थान को लौट जाते हैं और ऐसे लोग अक्सर वे होते हैं जिन पर आधुनिकता का दबाव जरा कम होता है। इससे कोई यह निष्कर्ष निकालना चाहे कि मूल स्थान से विच्छिन्नता का सम्बन्ध उस संस्कृति से है, जिसे हम आधुनिकता कहते हैं तो शायद उसे नकारना आसान न होगा।

हिन्दी की दुनिया में पंडित रघुनाथ शास्त्री का नाम कदाचित् बहुत जाना-पहचाना न हो, पर वेदान्त और व्याकरण-दर्शन के क्षेत्र में अखिल भारतीय ख्याति के विद्वान थे, जिन्हें अब पश्चिम के भारतविद् भर्तृहरि के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘वाक्यपदीयम्’ के भाष्यकार के रूप में जानते हैं। लम्बे समय तक यह ग्रंथ अध्येताओं के बीच एक चुनौती की तरह रहा है। रघुनाथजी शायद पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने उसका भाष्य लिखने का बीड़ा उठाया और वह भी तब जब वे वाराणसी से सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के आचार्य-पद से अवकाश ग्रहण कर चुके थे। प्रचलित धारणा यही है कि बड़ा बौद्धिक कार्य वहीं सम्भव है, जहाँ बडे़ पुस्तकालय हों और जाहिर है कि यह सुविधा बड़े शहरों में ही सुलभ होती है। पर यह रघुनाथ जी का विलक्षण साहस ही कहा जाएगा कि उन्होंने ठेठ गाँव को अपने कर्मक्षेत्र के रूप में चुना और यह आज अविश्वसनीय-सा लगता है कि पकी उम्र में ‘वाक्यपदीयम्’ जैसे जटिल ग्रंथ के भाष्य लेखन का सारा काम वहीं रुककर पूरा किया।

शहर में लम्बा जीवन बिताकर जब कोई गाँव लौटता है तो वह अपनों के बीच स्वयं को बहुत कुछ अजनबी की तरह पाता है। पर रघुनाथजी गाँव के जीवन में खूब रस लेते थे और वहाँ इस तरह रहते थे जैसे उस परिवेश से बाहर कभी गए ही न हों। कहते हैं, वहां रहते हुए उनके तीन ही काम थे-जिन्हें वे पूरे धर्माभाव से करते थे—गंगा, स्नान, मुकदमा लड़ना और ‘वाक्यपदीयम्’ का भाष्य लिखना। मुझे कई बार लगता है कि भाष्य लेखन के लिए ‘वाक्यपदीयम्’ के चुनाव और अवकाश प्राप्ति के बाद गाँव में बसने के उनके निर्णय के बीच एक सहज सम्बन्ध था। यह अकारण नहीं है कि ‘वाक्यपदीयम्’ उत्तर आधुनिक विचारकों के बीच खासा चर्चित रहा—यहाँ और पश्चिम में भी।

मैंने रघुनाथजी को एक पेड़ के नीचे बैठकर लिखते हुए देखा था और वह दृश्य मेरे लिए अविस्मरणीय है। यह शायद सन 73-74 की बात होगी। मुझे बलिया कचहरी में किसी काम से जाना पड़ा था। उस परिवार में घुसते ही जो पहला व्यक्ति दिखाई पड़ा वे थे परशुराम चतुर्वेदी। उन्हें मैंने उनकी बड़ी-बड़ी मूंछों से पहचाना। वे वकालत से अवकाश ले चुके थे, लेकिन फिर भी बिना नागा कचहरी जरूर जाते थे। उनसे मिलकर जब आगे बढ़ रहा था तो उन्होंने एक नीम के पेड़ की ओर इशारा किया, जिसके नीचे एक आदमी बैठा हुआ कुछ लिख रहा था। उन्होंने बताया कि वे रघुनाथजी हैं और उस पेड़ के नीचे बैठकर वाक्यपदीयम् का भाष्य लिख रहे हैं। कचहरी में ‘वाक्यपदीयम्’ ? पहले मैं चौंका। फिर लगा कि निकट से देखना चाहिए। पहुँचा तो देखा कि वे उस सारे माहौल से निरपेक्ष और तन्मय लिखे जा रहे थे। मैंने प्रणाम किया तो उन्होंने पोथी से सिर ऊपर उठाया और पूछा, ‘आप’ ? मैंने गाँव के हवाले से अपना परिचय दिया और फिर अपने कुतूहल को रोक न सका।

मैंने पूछा—‘पंडितजी, कचहरी के इस शोरगुल के बीच आप कैसे लिख लेते हैं ?’ उन्होंने कचहरी के मैदान के एक सधे हुए खिलाड़ी की तरह उत्तर दिया—‘क्यों, इसमें कठिनाई क्या है ? मेरी आँखें पोथी पर लगी हैं और कान जज साहब की पुकार की ओर और दोनों में कोई विरोध नहीं है।’

उस दिन मुझे पहली बार पता चला कि संसार को असार मानने वाले उस वेदान्ती में अद्भुत कुतूहलवृत्ति भी है और एक ऐसी जिन्दादिली को असारती की अवधारणा को ध्वस्त करती है। बोले, ‘सुनो, अभी कुछ दिन पहले डॉ. राघवन मेरे गाँव आया था।’ मैंने पूछा, ‘कौन राघवन ?’ तो बोले—‘अरे वही मद्रासवाला अंग्रेजी ढंग का संस्कृत विद्वान।’ जब मैंने पूछा कि किसलिए आए थे तो बोले, ‘‘वाक्यपदीयम् की एक कारिका में उलझ गया था, सो स्पष्टीकरण के लिए आया था।’ फिर भी हंसते हुए जोड़ा—‘‘मैंने उसे तो समझा दिया और वह पूर्ण संतुष्ट होकर चला भी गया। पर मैं अब तक उस कारिका से उलझ रहा हूं—लग ही नहीं रही है।’ इस तरह की स्वीकारोक्ति के लिए जो नैतिक साहस चाहिए, वह रघुनाथजी में था और उनके गहरे पांडित्य के भीतर से पैदा हुआ था। मैं सोचने लगा—यह जो वृद्ध व्यक्ति मेरे सामने है—जो कचहरी के निरर्थक कोलाहल के बीच एक नीम के नीचे बैठकर ‘वाक्यपदीयम्’ की एक कारिका से अपने निपट एकान्त में घंटों से उलझ रहा है, उसे कैसे समझा जाए ? क्या संगति है उस सारे ऊलजलूल की, उस गहन चिन्तन की प्रकिया के साथ जो उस मस्तिष्क में चल रही है और फिर भी कान हैं कि जज साहब की पुकार की ओर लगे हैं।

शायद उस पूरी स्थिति का सम्बन्ध उस बड़े परिवेश से हो, जिसमें गंगा नदी भी थी और नीम का पेड़ भी और चारों ओर से घिरे हुए वह भरपूर गहमागहमी भी जिसे जीवन कहा जाता है। आधुनिक मनुष्य की, अपने मूल से विच्छिन्नता का यह एक समाधान था, जिसे ‘वाक्यपदीयम्’ के भाष्यकार ने अपने लिए खोज लिया था। पर क्या यह सचमुच आज के नागरिक मनुष्य के लिए कोई समाधान है ? शायद हो, शायद न हो। पर यदि चुनाव की छूट हो (जो कि दिनों दिन कम होती जा रही है) तो ‘हो’ के पक्ष में मतदान करूँगा।

 

कब्रिस्तान में पंचायत

 

यह शीर्षक कुछ चौंकानेवाला लग सकता है। पर मेरी मजबूरी है कि जिस घटना का बयान करने जा रहा हूँ, उसके लिए उसके सिवा कोई शीर्षक हो ही नहीं सकता। कब्रिस्तान वह जगह है जहाँ सारी पंचायतें खत्म हो जाती हैं। मुझे याद आता है कि रूसी कवयित्री अन्ना अख्मातोवा की एक युद्धकालीन कविता में बमबारी से ध्वस्त पीटर्सबर्ग (जो तब लेनिनग्राद कहलाता था) के बारे में एक तिलमिला देने वाली टिप्पणी है, जिसमें वे कहती हैं—‘‘इस समय शहर में अगर कहीं कोई ताज़गी है तो सिर्फ कब्रिस्तान की उस मिट्टी में, जो अभी-अभी खोदी गई है।’’ शब्द मुझे ठीक-ठीक याद नहीं। पर आशय यही है। कब्रिस्तान पर बहुत-सी कविताएँ लिखी गई हैं। पर अन्ना अख्मातोवा की यह पंक्ति शायद सब पर भारी पड़ती है। कब्रिस्तान का जो पक्ष मुझे सबसे ज्यादा दिलचस्प लगता है वह यह कि कई बार मृतकों के घर के आजूबाजू जिन्दा लोगों के भी घर होते हैं। जीवन और मृत्यु का यह विलक्षण सह-अस्तित्व सिर्फ एक कब्रिस्तान में ही दिखाई पड़ता है—जहाँ एक ओर नया गड्ढा खोदा जा रहा है तो दूसरी ओर बच्चे लुका-छिपी खेल रहे हैं।

मेरे अपने गाँव में मुसलमान परिवारों की संख्या ज्यादा नहीं है। सन् सैंतालीस से पहले कुछ अधिक परिवार थे। पर उसके बाद उनकी संख्या क्रमशः कम होती गई। वे कहाँ गए, इसके बारे में कोई कुछ नहीं जानता। अब सिर्फ तीन-चार परिवार रह गए हैं और उनका यह छोटा-सा कब्रिस्तान है, जो गाँव के एक सिरे पर है। मुझे याद नहीं कि आधुनिक सुविधाओं से वंचित उस छोटे से गाँव में कभी कोई साम्प्रदायिक तनाव हुआ हो। हाँ, एक बात जरूर हुई है कि कब्रिस्तान की भूमि थोड़ी पहले से सिकुड़ गई है, जिसे चारों ओर से बाँस और नागफनी के जंगल ने ढँक लिया है। शायद यही कारण है कि वह छोडी़ हुई भूमि आबादी का हिस्सा बनने से बच गई।

पर सभी जगह ऐसा नहीं है। हम सब जानते हैं कि कब्रिस्तान की भूमि को लेकर छोटे-मोटे तनाव अक्सर होते रहते हैं। कई बार इसकी दुर्भाग्यपूर्ण परिणतियाँ भी देखी गई हैं। एक ऐसे ही अवसर पर होने वाली पंचायत में मुझे शामिल होना पड़ा था, जिसकी स्मृति मेरे जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण स्मृतियों में से एक है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिस छोटे-से टाउन में मैं प्राचार्य पद पर कार्य करता था, उसके आसपास के गाँवों में मुस्लिम आबादी अच्छी खासी थी। पर कुल मिलाकर बुद्ध की स्मृति की छाया में पलने वाला वह जनपद साम्प्रदायिक सौहार्द के लिहाज से काफी शान्त रहा है और किसी हद तक आज भी है। पर एक बार एक कस्बानुमा-गाँव में, जहाँ दोनों सम्प्रदायों की आबादी लगभग बराबर थी, एक छोटी-सी घटना घट गई। वह होली के आसपास का समय था, जब हवा में पकी हुई फसल की एक हल्की-सी गंध घुली रहती है। पर तनाव की प्रकृति शायद यह होती है कि वह कभी भी और कहीं से भी ज्यादा पैदा हो सकता है—फिर वह कब्रिस्तान की बंजर भूमि ही क्यों न हो। अचानक यह खबर फैली कि उस गाँव में दंगा हो गया है और आशंका थी कि वह पूरे इलाके में आग की लपट की तरह फैल न जाए। जिलाधिकारी ने समय रहते अपने पूरे पुलिस बल के साथ हस्तक्षेप किया और फसाद थम गया। पर सिर्फ वह थमा था, खत्म नहीं हुआ था। फिर जिलाधिकारी की पहल पर ही इलाके के कुछ प्रमुख लोगों को बुलाया गया, जिसमें महाविद्यालय का प्रिंसिपल होने के नाते मैं भी शामिल था। फिर पूरी टोली उस स्थान पर ले जाई गई, जहाँ से दंगा शुरू हुआ था। वह कब्रिस्तान की जमीन थी, जिसके एक किनारे पर दो-चार घर बने हुए थे और मवेशियों के लिए कुछ दोचारे भी।

वहाँ दोनों समुदाय के कुछ वरिष्ठ लोग बुलाए गए और तय हुआ कि समस्या का समाधान पंचायत के द्वारा निकाला जाएगा। जिलाधिकारी ने घोषित किया कि दोनों पक्ष के लोग एक-एक पंच मनोनीत करेंगे और दोनों मिलकर जो फैसला करेंगे, वह दोनों ही समुदायों को मान्य होगा। बहुसंख्यक समुदाय ने पहले निर्णय किया और फिर मुझे बताया गया कि वहाँ से मेरे नाम का प्रस्ताव किया गया है। अल्पसंख्यक समुदाय के निर्णय में थोड़ा समय लगा। पर अन्ततः उन्होंने भी एक फैसला कर लिया और उसे एक चिट पर लिखकर जिलाधिकारी की ओर बढ़ा दिया। उन्होंने चिट को खोला और फिर मेरी ओर बढ़े। बोले—अद्भुत निर्णय है, अल्पसंख्यक समुदाय ने भी आप ही को चुना है। जिलाधिकारी महोदय चकित थे, पर इसके पीछे जो संकेत था, उससे थोड़े आश्वस्त भी। चकित तो मैं भी था कि आखिर यह हुआ कैसे ?

पर मेरी असली परीक्षा अब थी। जो दायित्व मुझे सौंपा गया था, उसके लिए मैं सक्षम हूँ, इसको लेकर सन्देह मेरे भीतर थे। मेरी सबसे बड़ी सीमा तो यही थी कि मैं उस तनाव के इतिहास और उसकी पृष्ठभूमि से बिल्कुल अपरिचित था। पर मेरे सौभाग्य से उस गाँव के प्रधान एक वृद्ध मुसलमान थे, जो पेशे से डॉक्टर थे और जिनकी शिक्षा-दीक्षा कश्मीर में हुई थी। मैं उनसे मिला और मेरे प्रति उस समुदाय ने जो विश्वास व्यक्त किया था, उसके लिए उसका शुक्रिया अदा किया। फिर रहा न गया तो पूछ ही लिया—‘‘आखिर आप लोगों ने यह कैसे समझा कि मैं आपके विश्वास का पात्र हूँ।’’ वह बोले—‘‘हम आपको नहीं जानते। पर हमारे लड़के जो आपके यहाँ पढ़ते हैं, उन्होंने आपके बारे में जो बता रखा था, यह फैसला उसी की बुनियाद पर किया गया।’’ मैं अवाक् था—और उस गुरुत्तर दायित्व के भार से दबा हुआ भी, जो अचानक मुझ पर डाल दिया गया था।

पर मेरी परेशानी को शायद डॉक्टर ने जान लिया। जैसा कि बता चुका हूँ, वे उस गाँव के प्रधान भी थे। वे मुझे कुछ दूर ले गए और सारे संघर्ष की कहानी बताई, जो संक्षेप में यह थी कि बहुसंख्यक समुदाय ने कब्रिस्तान की लगभग आधी जमीन पर कब्जा कर लिया है और यह काम एक दिन में नहीं, कोई चालीस-पचास वर्षों से धीरे-धीरे होता आ रहा था। फिर उन्होंने निष्कर्ष दिया—‘‘ज्यादती उनकी है, गलती हमारी।’’ मैंने पूछा, ‘‘गलती कौन-सी ?’’ बोले—‘‘हमने कभी एतराज नहीं किया—इसलिए पचास साल बाद एतराज करना बिल्कुल बेमानी है।’’

मैंने पूछा, ‘‘फिर रास्ता क्या है ?’’ वे कुछ देर सोचते रहे। फिर बोले—‘‘एक ही रास्ता है, जहाँ तक कब्जा हो चुका है, उसमें से कुछ गज जमीन हमें लौटा दी जाए, ताकि हमें लगे कि हमारी भावना का सम्मान किया गया। उसके बाद जो सीमा-रेखा तय हो, उस पर दीवार खड़ी कर दी जाए, जिसका खर्च दोनों पक्ष बर्दाश्त करें।’’

वृद्ध डॉक्टर का दिया हुआ फार्मूला मैंने सभा के सामने इस तरह रखा जैसे कि वह पंचायत का (यानी कि मेरा) फैसला हो। पर मेरा उसमें कुछ नहीं था। यह कहते हुए कि ‘दीवार खड़ी कर दी जाए’ मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं थोड़ा अटका था—क्योंकि मुझे एक ओर बड़ी लेकिन अदृश्य दीवार याद आ गई, जो देश के नक्शे में खड़ी कर दी गई थी। पंचायत ने फैसला दिया और उठ गई। यह कोई 25-26 साल पहले की बात है। मैं नहीं जानता उस दीवार का क्या हुआ ? शायद वह बनी हो और शायद उसे कुछ साल बाद तोड़ दिया गया हो—पर यही क्या कम है कि उसके बाद वहाँ से फिर किसी फसाद की खबर नहीं आई। मुझे जीवन में कई छोटे-बड़े सम्मान मिले हैं—हालाँकि मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि पुरस्कार को ठीक-ठाक ‘सम्मान’ कहा जा सकता है या नहीं। पर कैसी विडम्बना है कि मुझे जीवन का सबसे बड़ा ‘पुरस्कार’ एक कब्रिस्तान में मिला था, जिसके बारे में सोचकर मेरा माथा कृतज्ञता से झुक जाता है।

 

बसना कुशीनगर में

 

काफी पहले—शायद 1974-75 के आसपास मैंने कुशीनगर में जमीन का एक टुकड़ा देखा था। सोचा था, उसे खरीदकर वहाँ एक छोटा-सा घर बनाऊँगा। यह सम्भव न हो सका, क्योंकि बीच में दिल्ली आ गई। दिल्ली और कुशीनगर, ये हमारे जीवन की वास्तविकता के दो छोर हैं, जिन्हें जोड़ने वाला पुल कभी बना ही नहीं। एक बार जब दिल्ली आ गया तो फिर न चाहते हुए भी दिल्ली का ही हो रहा। कुशीनगर को तो नहीं भूला, पर वह जमीन का टुकड़ा, जहाँ रिटायर होकर बसना चाहता था, धीरे-धीरे स्मृति से ओझल हो गया। पिछले दिनों उधर जाना हुआ था और जब कुशी नगर से गुजर रहा था तो देखा, वह जमीन का टुकड़ा अब भी उसी तरह खाली है। पर वहाँ बसने की इच्छा कब की मर चुकी थी। ‘मर चुकी थी’—शायद यह मैंने गलत कहा। सिर्फ दिल्ली की धूल की अनगिनत परतों के नीचे कहीं दब गई थी। उस दिन उस जमीन के खाली टुकड़े को देखा तो दबी हुई इच्छा जैसे फिर से जाग पड़ी। पर तब और अब के बीच लम्बा फासला है। दिल्ली में बिना जमीन का एक घर ले लिया है—लगभग हवा में टंगा हुआ। यहाँ ज्यादातर लोग हवा में टंगे हुए रहते हैं—शायद यह कास्मोपालिटन संस्कृति का खास चरित्र-लक्षण है।

पहली बार जब कुशीनगर गया था तो वह खासा उजाड़ था। बुद्ध की उस निर्वाण-स्थली को देखने जाने वालों की संख्या बहुत कम थी। विदेशी पर्यटक तो बहुत कम दिखाई पड़ते थे। शायद आवागन की सुविधा का अभाव इसका एक कारण रहा होगा। अब जापान सरकार की मदद से सड़क बेहतर हो गई है। बगल में ही एक हवाई अड्डे का निर्माण चल रहा है—जिस पर कहते हैं, बड़े हवाई जहाज भी उतर सकेंगे। एक सरकारी गेस्ट हाउस के अलावा अनेक नए विदेशी होटल बन चुके हैं—बेहद महँगे और आधुनिक सुविधाओं से संयुक्त। आधुनिकता इतनी महँगी क्यों होती है ? क्या इसीलिए वह भारतीय जीवन की जो सामान्य धारा है, उसका हिस्सा आज तक नहीं बन पाई है ? ऐसे में उत्तरआधुनिकता की चर्चा विडम्बनापूर्ण लगती है—मानो एक पूरा समाज छलाँग मारकर किसी नए दौर में पहुँच गया हो।

पर जिस कुशीनगर में मैं बसना चाहता था, वह एक और कुशीनगर था। उसका स्थापत्य कुछ ऐसा था, जैसे वह पूरा परिवेश खुदाई के बाद बाहर निकाला गया हो। शाल वन तो कब का खत्म हो चुका था। पर जो वृक्ष और वनस्पतियाँ बची थीं, उनमें थोड़ा-सा ‘बनैलापन’ कहीं अब भी दिखाई पड़ता था। इसी परिवेश के एक अविच्छिन्न हिस्सा थे—चीना बाबा। हाँ, इसी नाम से उस क्षेत्र की जनता उन्हें जानती थी। उनके बारे में असंख्य कहानियाँ प्रचलित हैं। पर वे उस अर्थ से बाबा नहीं थे, जिस अर्थ में हम इस शब्द को जानते हैं। वे चीनी मूल के थे और पिछली शताब्दी के शुरू में कभी भटकते हुए कुशीनगर आ गए थे, लगभग किशोर वय में। वे पर्यटक की तरह नहीं आए, ऐसे आए थे जैसे किसी स्थान के आकर्षण से खिंचा हुआ कोई चला आता है। वे चुपचाप आए थे और एकदम चुपचाप उस स्थान के एक कोने में रहकर उन्होंने लगभग साठ बरस बिता दिए।

कोई घर नहीं था उनके पास—यहाँ तक कि एक झोंपड़ी भी नहीं। घर की जगह उन्होंने एक पेड़ को चुना था। मुझे कई बार लगता है कि पेड़ शायद आदमी का पहला घर है। इसीलिए जब उसे कहीं जगह नहीं मिलती, तो वह उसी घर में चला जाता है और यह कितना अद्भुत है कि उसका दरवाजा हमेशा खुला मिलता है। तो उस किशोर चीनी भिक्खू को भी (जिसे बाद में भारतीय मानस ने ‘चीन बाबा’ का नाम दे दिया) उसी वृक्ष-घर ने पहले शरण दी, एकदम निःशुल्क। वह वृक्ष भी कोई सामान्य पेड़ नहीं था—एक विशाल बरगद। बरगद की हजार खूबियाँ होती हैं—पर एक बहुत बड़ी खूबी यह होती है कि वह पक्षियों के लिए एक उन्मुक्त सदावर्त की तरह होता है—एकदम निर्बाध और चौबीसों घंटे खुला। वह किशोर चीनी भिक्खू भी एक पक्षी की तरह उड़कर उस बरगद के पास आ गया था और बरगद ने सिर्फ उसे रहने की जगह ही नहीं दी, खाने-पीने का भी बन्दोबस्त कर दिया। खाने के लिए ऊपर ‘पकुहे’ (बरगद की छोटी-छोटी फलियाँ) थे और नीचे पुरातन नदी का पवित्र जल।

पर उस विशाल वट-वृक्ष की एक और खूबी थी। वह एक स्तूप के ऊपर खड़ा था और उसके दबाव से स्तूप एक ओर थोड़ा झुक गया था। बौद्ध इतिहास स्तूपों से भरा है। पर निर्वाण-स्थली के पास का वह स्तूप न सिर्फ सबसे छोटा है, बल्कि सबसे अनगढ़ भी। उसकी अनगढ़ता को वट-वृक्ष ने थोड़ा ढँक लिया था और वहाँ इस तरह खड़ा था, जैसे स्तूप के साथ ही उसकी रचना की गई हो। उसी वट-वृक्ष पर चीनी भिक्खू ने एक छोटी-सी मचान बना ली थी और अपने दीर्घ जीवन के पूरे साठ साल उसी पर बिताए थे। और बातें छोड़ भी दें तो यह अपने आप में एक रोमांचकारी घटना की तरह लगता है।

अगर मैं भूलता नहीं तो सन् 1960 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरू कुशीनगर आए थे—किसी कार्यक्रम के सिलसिले में। कहते हैं कि उस समय उन्हें वह स्तूप भी दिखाया गया था, जो असल में चीनी भिक्खू का ‘घर’ था। पं. नेहरू बौद्ध संस्कृति के प्रेमी थे। उन्हें स्तूप पर बरगद का होना अटपटा—बल्कि स्तूप के लिए क्षतिकारक भी लगा। सो, उन्होंने आदेश दिया कि बरगद को काट गिराया जाए। कहते हैं कि इसकी सूचना जब वृद्ध भिक्खू को दी गई तो उसने प्रतिरोध किया। पर आदेश ऐसा था कि उसे टाला नहीं जा सकता था। इसलिए एक सुबह मजदूर बुला लिए गए और बरगद को काट गिराने का निश्चय कर लिया गया। अब बरगद पर चीनी भिक्खू था और नीचे सरकारी अहलकार। भिक्खू का तर्क था कि यह मेरा घर है और इसे काटा नहीं जा सकता और जनता की प्रतिक्रिया यह थी कि भिक्खू के तर्क में दम है। पर वही हुआ जो होना था। भिक्खू को जैसे-तैसे नीचे उतरने के लिए राजी किया गया। उसे इस तर्क ने लाचार और निहत्था कर दिया कि यदि बरगद को नहीं काटा गया तो स्तूप टूटकर गिर जाएगा। बरगद को काट गिराया गया, पर जो टूटकर नीचे गिरा वह असल में वृद्ध चीनी भिक्खू था। वह मचान से उतरकर नीचे तो आ गया—पर इस तरह जैसे उनकी आँखों के आगे के पूरे साठ साल भहराकर गिर पड़े हों।

मैं इसी घटना-क्रम के बीच उस भिक्खू से मिला था—नहीं, उसे सिर्फ ‘देखा’ था। उसके लिए स्तूप के निकट ही एक छोटा-सा कमरा बनवा दिया गया था, जिसमें वह बंद था। उसने कई दिनों से खाना-पीना बन्द कर रखा था। आसपास के लोग खाना लेकर आते थे और खिड़की से आवाज देते थे—‘चीना बाबा, खाना खा लो।’ पर वह उस आवाज से जैसे हजारों मील दूर कहीं पड़ा था—मानो चीन देश की किसी छोटी-सी पुरानी कोठरी में। यह उसका निर्वाण था—लगभग उसी भूखंड पर जहाँ बुद्ध का निर्वाण हुआ था।

अब यह घटना एक किंवदन्ती बन चुकी है। पर जब भी उस प्रसंग को याद करता हूँ तो मेरा अपना कुशीनगर में बसने का विचार और वहाँ न बस पाने की कसक—दोनों ढोंग की तरह लगते हैं।

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