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कविता संग्रह >> कहीं नहीं वहीं

कहीं नहीं वहीं

अशोक वाजपेयी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :151
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3127
आईएसबीएन :81-267-0547-7

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अशोक बाजपेई की गद्य कविताएँ।

Kahin Nahin Vahin

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

अनुपस्थिति, अवसान और लोप से पहले भी अशोक बाजपेई की कविता का सरोकार रहा है, इस पर इस संग्रह में उनकी अनुभूति अप्रत्याशित रूप से मार्मिक और तीव्र है। उन्हें चरितार्थ करने वाली काव्याभाषा अपनी शांत अवसनता से विचलित करती है। निपट अंत और निरंतरता का द्वंद्व, होने-न होने की गोधूलि, आस्कति और निर्मोह का युग्म उनकी इधर लगातार बढ़ती समावेशिता को औऱ भी विषद और अर्थगर्भी बनाता है।
अशोक बाजपेई उन कवियों में हैं जो कि निरे सामाजिक या निरे निजी सरोकारों से सीमित रहने के बजाय मनुष्य की स्थिति के बारे में, अवसान, रति, प्रेम, भाषा आदि के बारे में चरम प्रश्नों को कविता में पूछना और उनसे सदग ऐंद्रियता के साथ जूझना, मनुष्य की समानता से बेपरवाह होते हुए जाते युग में, अपना जरूरी काम मानते हैं। बिना दार्शनिकता का बोझ उठाये या अध्यात्मिकता का मुलम्मा चढ़ाये उनकी कविता विचारोत्तेजना देती है।
अशोक बाजपेई की गद्य कविताएँ, उनमें अपनी काव्य-परंपरा के अनुरूप ही रोजमर्रा और साधारण लगती स्थितियों का बखान करते हुए, अनायास ही अप्रत्याशित और बेचैन करने वाली विचारोत्तेजक परिणितियों तक पहुँचती हैं। यह संग्रह बेचैनी और विकलता का एक दस्तावेज हैः उसमें अनाहत जिजीविषा और जीवन रति ने चिंता और जिज्ञासा के साथ नया नाजुक संतुलन बनाया है। कविता के पीछे भरा-पूरा जीवन, अपनी पूरी एंद्रियता और प्रश्नाकूलता में, स्पन्दित है। एक बार फिर यह बात रेखांकित होती है कि हमारे कठिन और कविता विमुख समय में कविता संवेदात्मक चौकन्नेपन, गहरी चिंतमयता, उत्कट जीवनासक्ति और शब्द की शक्ति एवं अद्वितीयता में आस्था से ही संभव है। यह साथ देने वाली पासपड़ोस की कविता है, जिसमें एक पल के लिए हमारा संघर्ष, असंख्य जीवनच्छवियाँ और भाषा में हमारी असमाप्य सम्भावनाएँ विन्यस्त और पारदर्शी होती चलती हैं।

शब्दों से ही

हम बहुत देर खोजते रहे। हमें पता नहीं था कि क्या। कभी कुछ वाक्य, कभी जीवन का अर्थ। कभी नियति का आशय। कभी राहत और उम्मीद। कभी कुछ भी नहीं।
रास्ते कई थे: कुछ जो पहले के थे और कुछ जो हमारे सामने देखते-देखते औरों ने बनाये। हमने भी इधर-उधर चहलकदमी की। कभी रोशनी मिली, कभी घुप्प अँधेरा: कभी निरी गोधूलि।
शुरू में लगता था कि इतनी जल्दी क्या है-काफी समय है, पूरी उमर पड़ी है। अब लगता है कि समय कम हो रहा है, रोशनी धुँधला रही है। पर शब्द हैं कि अधीर और उतावले हैं जैसे कि यह पहले प्रेम का मौसम हो। शब्दों से ही हम जानते हैं शब्दों को।
जो साथ चलते थे जाने कब अपनी-अपनी राह कहाँ निकल गए। जाने कहाँ-कहाँ रोशनी की तलाश में भटकने के बाद अब समझ में आ रहा है कि रोशनी कहीं और से नहीं, इन्हीं शब्दों से आ रही है।
-अशोक वाजपेयी

 


दूसरे संस्करण पर

 

 

कहीं नहीं वहीं का 18 जनवरी, 1991 को भोपाल में पंडित कुमार गंधर्व ने उर्दू कवि श्री अख्तर-उल-ईमान की उपस्थिति में लोकार्पण किया था। वे दुर्दिन थे हालाँकि सर्जनात्मक रूप से बहुत सक्रिय और उत्तेजक दिन। इस संग्रह का दूसरा संस्करण निकल रहा है यह कवि के लिए प्रसन्नता की बात है। मृत्यु को आसक्ति से समझने, रति की सघनता को खोजने-पाने, अपने पासपड़ोस को शब्दों के माध्यम से देखने-टटोलने और कविता में गद्य से खिलवाड़ करने की जो कोशिश इस संग्रह में है अगर थोड़ी-बहुत भी कारगार हुई तो इसका आशय यह है कि इन सबके लिए अभी जगह बची हुई है। एक ऐसे दौर में जब निजी सचाइयाँ हाशिये पर फेंक दी गयी हैं, यह आश्वस्ति मुझ जैसे कवि के लिए शक्तिशाली है !
-अशोक वाजपेयी

 


तुम जहाँ कहो

 


तुम जहाँ कहो
वहाँ चले जायेंगे
दूसरे मकान में
अँधेरे भविष्य में
न कहीं पहुँचने वाली ट्रेन में

अपना बसता-बोरिया उठाकर
रद्दी के बोझ सा
जीवन को पीठ पर लादकर
जहाँ कहो वहाँ चले जायेंगे
वापस इस शहर
इस चौगान, इस आँगन में नहीं आयेंगे

वहीं पक्षी बनेंगे, वृक्ष बनेंगे
फूल या शब्द बन जायेंगे
जहाँ तुम कभी खुद नहीं आना चाहोगे
वहाँ तुम  कहो तो
चले जायेंगे
1990

 


वहाँ भी

 


हम वहाँ भी जायेंगे
जहाँ हम कभी नहीं जायेंगे

अपनी आखिरी उड़ान भरने से पहले,
नीम की डाली पर बैठी चिड़िया के पास,
आकाशगंगा में आवारागर्दी करते किसी नक्षत्र के साथ,
अज्ञात बोली में उचारे गये मंत्र की छाया में
हम जायेंगे
स्वयं नहीं
तो इन्हीं शब्दों से-

हमें दुखी करेगा किसी प्राचीन विलाप का भटक रहा अंश,
हम आराधना करेंगे
मंदिर से निकाले गये
किसी अज्ञातकुलशील देवता की-

हम थककर बैठ जायेंगे
दूसरों के लिए की गयी
शुभकामनाओं और मनौतियों की छाँह में-

हम बिखर जायेंगे
पंखों की तरह
पंखुरियों की तरह
पंत्तियों और शब्दों की तरह-

हम वहाँ भी जायेंगे
जहाँ हम कभी नहीं जायेंगे।
1990

 


एक बार जो

 


एक बार जो ढल जायेंगे
शायद ही फिर खिल पायेंगे।

फूल शब्द या प्रेम
पंख स्वप्न या याद
जीवन से जब छूट गये तो
फिर न वापस आयेंगे।

अभी बचाने या सहेजने का अवसर है
अभी बैठकर साथ
गीत गाने का क्षण है।

अभी मृत्यु से दाँव लगाकर
समय जीत जाने का क्षण है।

कुम्हलाने के बाद
झुलस कर ढह जाने के बाद
फिर बैठ पछतायेंगे।

एक बार जो ढल जायेंगे
शायद ही फिर खिल पायेंगे
1990

 


हम न होंगे

 


हम न होंगे-
जीवन और उसका अनन्त स्पन्दन,
कड़ी धूप में घास की हरीतिमा,
प्रेम और मंदिरों का पुरातन स्थापत्य,
अक्षर, भाषा और सुन्दर कविताएँ,
इत्यादि, लेकिन, फिर भी सब होंगे-
किलकारी, उदासी और गान सब-
बस हम न होंगे।

शायद कभी किसी सपने की दरार में,
किसी भी क्षण भर की याद में,
किसी शब्द की अनसुनी अन्तर्ध्वनि में-
हमारे होने की हलकी सी छाप बची होगी
बस हम  न होंगे।

देवता होंगे, दुष्ट होंगे,
जंगलों को छोड़कर बस्तियों में
मठ बनाते सन्त होंगे,
दुबकी हुई पवित्रता होगी,
रौब जमाते पाप होंगे,
फटे-चिथड़े भरे-पूरे लोग होंगे,
बस हम न होंगे।

संसार के कोई सुख-दुख कम न होंगे
बस हम न होंगे।
1990

 


अकेले क्यों

 


हम उस यात्रा में
अकेले क्यों रह जायेंगे ?
साथ क्यों नहीं आयेगा हमारा बचपन,
उसकी आकाश-चढ़ती पतंगें
और लकड़ी के छोटे से टुकड़े को
हथियार बनाकर दिग्विजय करने का उद्यम-
मिले उपहारों और चुरायी चीजों का अटाला ?

क्यों पीछे रह जायेगा युवा होने का अद्भुत आश्चर्य,
देह का प्रज्जवलित आकाश,
कुछ भी कर सकने का शब्दों पर भरोसा,
अमरता का छद्म,
और अनन्त का पड़ोसी होने का आश्वासन?

कहाँ रह जायेगा पकी इच्छाओं का धीरज
सपने और सच के बीच बना
बेदरोदीवार का घर
और अगम्य में अपने ही पैरों की छाप से बनायी पगडण्डियाँ ?
जीवन भर के साथ-संग के बाद
हम अकेले क्यों रह जायेंगे उस यात्रा में ?
जो साथ थे वे किस यात्रा पर
किस ओर जायेंगे ?

वे नहीं आयेंगे हमारे साथ
तो क्या हम उनके साथ
जा पायेंगे ?
1990

 


हम

 


हम उस मंदिर में जायेंगे
जो किसी ने नहीं बनाया
शताब्दियों पहले

हम प्रणाम करेंगे उस देवता को
जो थोड़ी देर पहले
हमारे साथ चाय की दूकान पर
अखबार पलट रहा था

हम जंगल के सुनसान को भंग किये बिना
झरने के पास बैठकर
सुनेगे पक्षियों-पल्लवों-पुष्पों की प्रार्थनाएँ

फिर हम धीरे-धीरे
आकाशमार्ग से वापस लौट जायेंगे
कि किसी को याद ही न रहे
कि हम थे, जंगल था
मंदिर और देवता थे
प्रणति थी-

कोई नहीं देख पायेगा
हमारा न होना
जैसे प्रार्थना में डूबी भीड़ से
लोप हो गये बच्चों को
कोई नहीं देख पाता-

सब कुछ छोड़कर नहीं

हम सब कुछ छोड़कर
यहाँ से नहीं जायेंगे

साथ ले जायेंगे
जीने की झंझट, घमासान और कचरा
सुकुमार स्मृतियाँ, दुष्टताएँ
और कभी कम न पड़नेवाले शब्दों का बोझ।

हरियाली और उजास की छबियाँ
अप्रत्याशित अनुग्रहों का आभार
और जो कुछ भी हुए पाप-पुण्य।

समय-असमय याद आनेवाली कविताएँ
बचपन के फूल-पत्तियों भरे हरे सपने
अधेड़ लालसाएँ
भीड़ में पीछे छूट गये, बच्चे का दारुण विलाप।

दूसरों की जिन्दगी में
दाखिल हुए अपने प्रेम और चाहत के हिस्सों
और अपने होने के अचरज को
साथ लिये हम जायेंगे।
हम सब कुछ छोड़कर
यहाँ से नहीं जायेंगे।
1990

 


नहीं आ पायेंगे

 


जब एक दिन हम
सब कुछ छोड़कर चले जायेंगे
तो फिर बहुत दिनों तक वापस नहीं आयेंगे।

पता नहीं किस अँधेरे, किस भविष्य, किस जंगल में भटकेंगे,
किस गुफा में बसेरा करेंगे,
कहाँ क्या-कुछ बीन-माँग कर खायेंगे ?

पता नहीं कौन से शब्द और स्वप्न,
कौन सी यादें और इच्छाएँ,
कौन से कपड़े और आदतें,
यहीं पीछे छूट जायेंगे-
जाते हुए पता नहीं कौन सी शुभाशंसा
कौन सा विदागीत हम गुनगुनायेंगे ?

फिर जब लौटेंगे
तो पुरा-पड़ोस के लोग हमें
पहचान नहीं पायेंगे,
अपना घर चौबारा बिना पलक झपकाये ताकेगा,
हम जो छोड़कर गये थे
उसी में वापस नहीं आ पायेंगे।

हम यहाँ और वहाँ के बीच
कुछ देर चिथड़ों की तरह फड़फड़ायेंगे-
फिर हवा में,,

गैब में
आसमान में
ओझल हो जायेंगे।

हम चले जायेंगे
फिर वापस आयेंगे
और नहीं आ पायेंगे।
1990

 


वापसी

 


जब हम वापस आयेंगे
तो पहचाने न जायेंगे-
हो सकता है हम लौटें
पक्षी की तरह
और तुम्हारी बगिया के किसी नीम पर बसेरा करें
फिर जब तुम्हारे बरामदे के पंखे के ऊपर
घोंसला बनायें
तो तुम्हीं हमें बार-बार बरजो-

या फिर थोड़ी सी बारिश के बाद
तुम्हारे घर के सामने छा गयी हरियाली
की तरह वापस आयें हम
जिससे राहत और सुख मिलेगा तुम्हें
पर तुम जान नहीं पाओगे कि
उस हरियाली में हम छिटके हुए हैं।

हो सकता है हम आयें
पलाश के पेड़ पर नयी छाल की तरह
जिसे फूलों की रक्तिम चकाचौंध में
तुम लक्ष्य भी नहीं कर पाओगे।

हम रूप बदलकर आयेंगे
तुम बिना रूप बदले भी
बदल जाओगे-

हालाँकि घर, बगिया, पक्षी-चिड़िया,
हरियाली-फूल-पेड़, वहीं रहेंगे
हमारी पहचान हमेशा के लिए गड्डमड्ड कर जायेगा
वह अन्त
जिसके बाद हम वापस आयेंगे
और पहचाने न जायेंगे।
1990


अन्त के बाद-1

 


अन्त के बाद
हम चुपचाप नहीं बैठेंगे।

फिर झगड़ेंगे,
फिर खोजेंगे,
फिर सीमा लाँघेंगे

क्षिति जल पावक
गगन समीर से
फिर कहेंगे-
चलो
हमको रूप दो,
आकर दो !

वही जो पहले था
वही-
जिसके बारे में
अन्त को भ्रम है
कि उसने सदा के लिए मिटा दिया।

अन्त के बाद
हम समाप्त नहीं होंगे-
यहीं जीवन के आसपास
मँडरायेंगे-
यहीं खिलेंगे गन्ध बनकर,
बहेंगे हवा बनकर,
छायेंगे स्मृति बनकर।

अन्तत:
हम अन्त को बरकाकर
फिर यहीं आयेंगे-
अन्त के बाद
हम चुपचाप नहीं बैठेंगे।
1990

 


अन्त के बाद-2

 


अन्त के बाद
कुछ नहीं होगा
न वापसी
न रूपान्तर
न फिर कोई आरंभ।

अन्त के बाद
सिर्फ अन्त होगा।
न देह का चकित चन्द्रोदय,
न आत्मा का अँधेरा विषाद,
न प्रेम का सूर्यस्मरण।
न थोड़े से दूध की हलकी सी चाय,
न बटनों के आकार से
छोटे बन गये काजों की झुँझलाहट।
न शब्दों के पंचवृक्ष,
न मौन की पुष्करिणी,
न अधेड़ दुष्टताएँ होंगी
न वनप्रान्तर में नीरव गिरते नीलपंख।
न निष्प्रभ देवता होंगे,
न पताकाएँ फहरते लफंगे।
अन्त के बाद
हमारे लिए कुछ नहीं होगा-
उन्हीं के लिए सब होगा
जिनके लिए अन्त नहीं होगा।
अन्त के बाद
सिर्फ
अन्त होगा,
हमारे लिए।

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