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बोलनेवाली औरत

ममता कालिया

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :92
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3140
आईएसबीएन :81-7-55-593-0

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ममता कलिया ने इन कहानियों को महिलावादी क्रोधी भंगिमा से नहीं रचा है, न ही इनमें औरतों के प्रति अबोध आकुलता है।

Bolne Wali Aurat a hindi book by Mamta Kaliya - बोलनेवाली औरत - ममता कालिया

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ममता कालिया के रचना लोक में दो तरह की छवियाँ प्रमुख हैं। एक में हमारे भारतीय समाज के मध्यवर्ग की स्त्रियाँ और उनका दुःख है। दूसरे में सामान्य जीवनानुभव हैं।
ममता कलिया महिला त्रासदी के स्थूल रूपों को अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं बनातीं। जरूरत पड़ने पर वह त्रासदी की कुछ परंपरागत स्थितियों को शामिल करती हैं किन्तु ज्यादातर वह कठिन मगर बेहतर प्रणाली उपयोग में लाती हैं। उनकी दिलचस्पी सूक्ष्म स्तरों और गहरे प्रभावों-प्रतिक्रियाओं को उद्धाटित करने में दिखती है।
ममता कलिया ने इन कहानियों को महिलावादी क्रोधी भंगिमा से नहीं रचा है, न ही इनमें औरतों के प्रति अबोध आकुलता है। ये गुस्से और भावुकता से पृथक निर्भर और निस्संग तरीके से यथार्थ को हाजिर करती हैं। वस्तुतः उनकी कहानियाँ नारीवाद न होकर नारी के यथार्थ की रचनाएँ हैं।

 

अखिलेश

 

कहानी ‘खिड़की’ पढ़ी। मुझे आपकी अब तक की तमाम कहानियों में से यह कहानी ज्यादा अच्छी लगी। इसमे खूबी यह है कि आपकी तमाम सूझ-बूझ और कला-कौशल के बावजूद वह स्वतः स्फूर्त ढंग से संपादित होती चलती कहानी है। लेखक का अनुशासन और फार्म को लेकर उसकी अति सजगता अक्सर रचना के स्पोण्टेनियस तत्त्वों को मार डालती है लेकिन इस कहानी में बौद्धिक सजगता और पात्रों के भीतर का जीवन्तः स्फुरण दोनों अंतर्गुम्फित हैं। सचमुच यह एक कमाल है।

 

मनोज रूपड़ा

 

बोलनेवाली औरत

 

‘‘यह झाड़ू सीधा किसने खड़ी की ?’’ बीजी ने त्योरी चढ़ाकर विकट मुद्रा में पूछा।
जवाब न मिलने पर उन्होंने मीरा को धमकाया,, ‘‘इस तरह फिर कभी झाड़ू की तो....’’
वे कहना चाहती थीं कि मीरा को काम से निकाल देंगी पर उन्हें पता था नौकरानी कितनी मुश्किल से मिलती है। फिर मीरा तो वैसे भी हमेशा छोड़ूँ-छोड़ूँ मुद्रा में रहती थी।
‘‘मैंने नहीं रखी’’, मीरा ने ऐंठकर जवाब दिया।
‘‘मैंने रखी थी बीजी’’, शिखा ने आँगन में आते हुए कहा।
‘‘क्यों रखी थी ! तुझे इतना नहीं मालूम कि झाड़ू खड़ी रखने में दलिद्दर आता है, कर्ज बढ़ता है, रोग जड़ पकड़ लेता है।’’
‘‘यह तो मैंने कभी नहीं सुना।’’
‘‘जाने कौन गाँव की है तू ! माँ के घर से कुछ भी तो सीख कर नहीं आई। काके का काम वैसे ही ढीला चल रहा है, तू और झाड़ू खड़ी रख, सीख है तेरी !’’
‘‘मेरा ख्याल है झाड़ू गुसलखाने के बीचोबीच भीगती हुई, पसरी हुई छोड़ देने से दलिद्दर आ सकता है। तीलियां गल जाती हैं, रस्सी ढीली पड़ जीती है और गंदी भी कितनी लगती है।’’
‘‘आज तो मैंने माफ कर दिया, फिर कभी झाड़ू खड़ी न मिले, समझी।’’
‘‘इस बात में कोई तुक नहीं है बीजी, झाड़ू कैसे भी रखी जा सकती है।’’
बीजी झुँझला गई। कैसी जाहिल और जिद्दी लड़की ले आया है काका। लाख बार कहा था इस कुदेसिन से ब्याह न कर, पर नहीं, उसके सिर पर तो भूत सवार था।
शिखा को हँसी आ गई। बीजी अपने को बहुत सही और समझदार मानती हैं, जबकि अक्सर उनकी बातों में कोई तर्क नहीं होता।
उसे हँसते देखकर बीजी का खून खौल गया।
‘‘इसे तो बिलकुल अकल नहीं है,’’ उन्होंने मीरा से कहा।
‘‘बीजी चाय पिएँगी ?’’ शिखा ने पूछा।
बीजी उसकी तरफ पीठ करके बैठी रहीं। शिखा की बात का जवाब देना वे जरूरी नहीं समझतीं। वैसे भी उनका ख्याल था कि शिखा के स्वर में खुशामद की कमी रहती है।
शिखा ने चाय का गिलास उनके आगे रखा तो वे भड़क गई, ‘‘वैसे ही मेरा कब्ज के मारे बुरा हाल है, तू चाय पिला-पिलाकर मुझे मार डालना चाहती है।’’
शिखा ने और बहस करना स्थगित किया और अपना चाय का गिलास लेकर कमरे में चली गई।
शिखा का शौहर, कपिल अपने घरवालों से इन अर्थों में भिन्न था, कि आमतौर पर उसका सोचने का एक मौलिक तरीका था। शादी के ख्याल से जब उसने अपने आस-पास देखा, तो कॉलेज में उसे अपने से दो साल जूनियर बी.एस.सी. में पढ़ती शिखा अच्छी लगी थी। सबसे पहली बात तो यह थी कि वह उन सब औरतों से एकदम अलग थी जो उसने परिवार और अपने परिवेश में देखी थीं। शिखा का पूरा नाम दीपशिखा था लेकिन कोई नाम पूछता तो वह महज नाम नहीं बताती, ‘‘मेरे माता-पिता ने मेरा नाम गलत रखा है। मैं दीपशिखा नहीं, अग्निशिखा हूँ।’’ वह कहती।

अग्निशिखा की तरह ही वह हमेशा प्रज्वलित रहती, कभी किसी बात पर, कभी किसी सवाल पर। तब उसकी तेजी देखने लायक होती। उसका वक्तृता से प्रभावित होकर कपिल ने सोचा वह शिखा को पाकर रहेगा। पढ़ाई के साथ-साथ वह पिता के व्यवसाय में भी लगा था, इसलिए शादी से पहले नौकरी ढूँढ़ने की उसे कोई जरूरत नहीं थी। बिना किसी आडंबर, दहेज या नखरे के एक सादे समारोह में वे विवाह-सूत्र में बँध गए। शिखा उसकी आत्मनिर्भरता, खूबसूरती और स्वतंत्र सोच से प्रभावित हुई। तब उसे यह नहीं पता था कि प्रेम और विवाह दो अलग-अलग संसार हैं। एक में भावना और दूसरे में

व्यवहार की जरूरत होती है। दुनिया भर में विवाहित औरतों का केवल एक स्वरूप होता है। उन्हें सहमति-प्रधान जीवन जीना होता है। अपने घर की कारा में वे कैद रहती हैं। हर एक की दिनचर्या में अपनी-अपनी तरह की समरसता रहती है। हरेक के चेहरे पर अपनी-अपनी तरह की ऊब। हर घर का एक ढर्रा है जिसमें आपको फिट होना ही होना है। कुछ औरते इस ऊब पर श्रृंगार का मुलम्मा चढ़ा लेती हैं पर उनके श्रृंगार में एकरसता होती है। शिखा अंदाज लगाती, सामनेवाले घर की नीता ने आज कौन-सी साड़ी पहनी होगी और प्रायः उसका अंदाज ठीक निकलता। यही हाल लिपस्टिक के रंग और बालों

की स्टाइल का था। दुःख की बात यही थी कि अधिकांश औरतों को इस ऊब और कैद की कोई चेतना नहीं थी। वे रोज सुबह साढ़े नौ बजे सासों, नौकरों, नौकरानियों, बच्चों, माली और कुत्तों के ....घरों में छोड़ दी जातीं, अपना दिन तमाम करने के लिए। वही लंच पर पति का इंतजार, टी.वी. पर बेमतलब कार्यक्रमों का देखना और घर-भर के नाश्ता, खाना-नखरों की नोक पलक सँवारना। चिकनी महिला पत्रिकाओं के पन्ने पलटना, दोपहर को सोना, सजे हुए घर को कुछ और सजाना, सास की जी-हुजूरी करना और अंत में रात को एक जड़ नींद में लुढ़क जाना।

कपिल के घर आते ही बीजी ने उसके सामने शिकायत दर्ज की, ‘‘तेरी बीवी तो अपने को बड़ी चतुर समझती है। अपने आगे किसी की चलने नहीं देती। खड़ी-खड़ी जवाब टिकाती है।’’
कपिल को गुस्सा आया। शिखा को एक अच्छी पत्नी की तरह चुप रहना चाहिए, खासतौर पर माँ के आगे। इसने घर को कॉलेज का डिबेटिंग मंच समझ रखा है और माँ को प्रतिपक्ष का वक्ता। उसने कहा, ‘‘मैं उसे समझा दूँगा, आगे से बहस नहीं करेगी।’’
‘‘उल्टी खोपड़ी की है बिल्कुल। वह समझ ही नहीं सकती’’, माँ ने मुँह बिचकाया।
रात, उसने कमरे में शिखा से कहा, ‘‘तुम माँ से क्यों उलझती रहती हो दिन-भर !’’
‘‘इस बात का विलोम भी उतना ही सच है।’’
‘‘हम विलोम-अनुलोम में बात नहीं कर रहे हैं, एक संबंध है जिसकी इज्जत तुम्हें करनी होगी।’’
‘‘गलत बातों की भी।’’
‘‘माँ की कोई बात गलत नहीं होती।’’
‘‘कोई भी इंसान परफेक्ट नहीं हो सकता।’’
कपिल तैश में आ गया, ‘‘तुमने माँ को इनपरफेक्ट कहा। तुम्हें शर्म आनी चाहिए। तुम हमेशा ज्यादा बोल जाती हो और गलत भी।’’
‘‘तुम मेरी आवाज बंद करना चाहते हो।’’
‘‘मैं एक शांत और सुरुचिपूर्ण जीवन जीना चाहता हूँ।’’
शिखा अंदर तक जल गई इस उत्तर से क्योंकि यह उत्तर हजार नए प्रश्नों को जन्म दे रहा था। उसने प्रश्नों को होठों के क्लिप से दबाया और सोचा, अब वह बिल्कुल नहीं बोलेगी, यहाँ तक कि ये सब उसकी आवाज को तरस जाएँगे।
लेकिन यह निश्चय उससे निभ न पाता। बहुत जल्द कोई न कोई ऐसा प्रसंग उपस्थित हो जाता कि वह ज्वालामुखी की तरह फट पड़ती और एक बार फिर बदजुबान कहलाई जाती। तब शिखा बेहद तनाव में आ जाती। उसे लगता घर में जैसे

टायलेट होता है ऐसे एक टॉकलेट भी होना चाहिए जहाँ खड़े होकर वह अपना गुबार निकाल ले, जंजीर खींचकर बातें बहा दे और एक सभ्य शांत मुद्रा में बाहर आ जाए। उसे यह भी बड़ा अजीब लगता कि वह लगातार ऐसे लोगों से मुखातिब है जिन्हें उसके इस भारी-भरकम शब्दकोश की जरूरत ही नहीं है। घर तो सुचारु रूप से चलाने के लिए सिर्फ दो शब्दों की दरकार थी–जी और हाँ जी।
‘‘कल छोले बनेंगे ?’’
‘‘जी छोले बनेंगे।’’
‘‘पाजामों के नाड़े बदले जाने चाहिए।’’
उसने अपने जैसे कई स्त्रियों से बात करके देखा। सबमें अपने घरबार के लिए बेहद संतोष और गर्व था।
‘‘ ‘हमारे तो ये ऐसे हैं।’ ‘हमारे तो ये वैसे हैं जैसा कोई नहीं हो सकता। ‘बमारे बच्चे तो बिलकुल लवकुश की जोड़ी हैं।’ ‘हमारा बेटा तो पढ़ने में इतना तेज है कि पूछो ही मत।’ ’’
शिखा को लगता उसी में शायद कोई कमी है जो वह इस संतोष में लबालब भरकर ‘मेरा परिवार महान्’ राग नहीं अलाप सकती।
रातों में बिस्तर में पड़े-पड़े वह देर तक सोती नहीं, सोचती रहती, उसकी नियति क्या है। न जाने कब कैसे वह एक फुलटाइम ग्रहिणी बनती गई जबकि उसने जिंदगी की एक बिल्कुल अलग तस्वीर देखी थी। कितना अजीब होता है कि दो लोग बिल्कुल अनोखे, अकेले अंदाज में इसलिए नजदीक आएँ कि वे एक-दूसरे की मौलिकता की कद्र करते हों, और महज इसलिए टकराएँ क्योंकि अब उन्हें मौलिकता बरदाश्त नहीं। दरअसल वे दोनों अपने-अपने खलनायक के हाथों मार खा रहे

थे। यह खलनायक था रुटीन जो जीवन की खूबसूरती को दीमक की तरह चाट रहा था। कपिल चाहता था कि शिखा एक अनुकूल पत्नी की तरह रुटीन का बड़ा हिस्सा अपने ऊपर ओढ़ ले और उसे अपने मौलिक सोच-विचार के लिए स्वतंत्र छोड़ दे। शिखा की भी यही उम्मीद थी। उसकी जिंदगी का रुटीन ढर्रा उनसे कहीं ज्यादा शक्तिशाली था। अलस्सुबेरे वह कॉलबेल की पहली कर्कश ध्वनि के साथ जग जाता और रात बारह के टन-टन घंटे के साथ सोता। बीजी घर में इसी रुटीन की चौकीदार तैनात थीं। घर की दिनचर्या में जरा-सी भी देर-सबेर उन्हें बर्दाश्त नहीं थी। शिखा जैसे-तैसे रोज के काम

निपटाती और जब समस्त घर सो जाता, हाथ-मुँह धो, कपड़े बदल एक बार फिर अपना दिन शुरू करने की कोशिश करती। उसे सोने में काफी देर हो जाती और अगली सुबह उठने में भी। उसके सभी आगामी काम थोड़े पिछड़ जाते। बीजी का हिदायतनामा शुरू हो जाता, ‘‘यह आधी-आधी रात तक बत्ती जलाकर क्या करती रहती है तू। ऐसे कहीं घर चलता है !’’ ससुर 1940 में सीखा हुआ मुहावरा टिका देते, ‘‘अर्ली टु बेड अर्ली टु राइज वगैरह-वगैरह।’’ हिदायतें सही होतीं पर शिखा को बुरी लगतीं। वह बेमन से झाड़ू-झाड़न-पोचे का रोजनामचा हाथ में उठा लेती जबकि उशका दिमाग किताब,

कागज और कलम की माँग करता रहता। कभी-कभी छुट्टी के दिन कपिल घर के कामों में उसकी मदद करता। बीजी उसे टोक देतीं, ‘‘ये औरतोंवाले काम करता तू अच्छा लगता है। तू तो बिल्कुल जोरू का गुलाम हो गया है।’’
घर में एक सहज और सघन संबंध को लगातार ठोंक-पीटकर यांत्रिक बनाया जा रहा था। एकांत में जो भी तन्मयता पति-पत्नी के बीच जन्म लेती, दिन के उजाले में उसकी गर्दन मरोड़ दी जाती। बीजी को संतोष था कि परिवार का संचालन बढ़िया कर रही हैं। वे बेटे से कहतीं, ‘‘तू फिकर मत कर । थोड़े दिनो में मैं इसे ऐन पटरी पर ले आऊँगी।’’

पटरी पर शिखा तब भी नहीं आई जब दो बच्चों की माँ हो गई। बस इतना भर हुआ कि उसने अपने सभी सवालों का रुख अन्य लोगों से हटाकर कपिल और बच्चों की तरफ कर लिया। बच्चे अभी कई सवालों का जवाब देने लायक समझदार नहीं हुए थे, बल्कि लाड़-प्यार में दोनों के अंदर एक तर्कातीत तुनकमिजाजी आ बैठी थी। स्कूल से आकर वे दिन-भर वीडियो देखते, गाने सुनते, आपस में मार-पीट करते और जैसे-तैसे अपना होमवर्क पार लगाकर सो जाते।
कपिल अपने व्यवसाय से बचा हुआ समय अखबारों, पत्रिकाओं और दोस्तों में बिताता। अकेली शिखा घर की कारा में कैद घटनाहीन दिन बिताती रहती। वह जीवन के पिछले दस सालों और अगले बीस सालों पर नजर डालती और घबरा जाती। क्या उसे वापस अग्निशिखा की बजाय दीपशिखा बनकर ही रहना होगा, मद्धिम और मधुर-मधुर जलना होगा। वह क्या करे अगर उसके अंदर तेल की जगह लाबा भरा पड़ा है।
उसे रोज लगता कि उन्हें अपना जीवन नए सिरे से शुरू करना चाहिए। इसी उद्देश्य से उसने कपिल से कहा, ‘‘क्यों नहीं हम दो-चार दिन को कहीं घूमने चलें।’’
‘‘कहाँ ?’’
‘‘कहीं भी। जैसे जयपुर या आगरा।’’
‘‘वहाँ हमें कौन जानता है। फिजूल में एक कई जगह जाकर फँसना।’’
‘‘वहाँ देखने को बहुत कुछ है। हम घूमेंगे, कुछ नई और नायाब चीज़ें खरीदेंगे, देखना, एकदम फ्रेश हो जाएँगे।’’
‘‘ऐसी सब चीजें यहाँ भी मिलती हैं, सारी दुनिया का दर्शन जब टी.वी. पर हो जाता है तो वहाँ जाने में क्या तुक है ?’’
‘‘तुक के सहारे दिन कब तक बिताएँगे ?’’
बच्चों ने इस बात का मजाक बना लिया ‘‘कल को तुम कहोगी, अंडमान चलो, घूमेंगे।’’
‘‘इसका मतलब हम कहीं नहीं जाएँगे, यहीं पड़े-पड़े एक दिन दरख्त बन जाएँगे।’’
‘‘तुम अपने दिमाग का इलाज कराओ, मुझे लगता है तुम्हारे हॉरमोन बदल रहे हैं।’’
‘‘मुझे लगता है, तुम्हारे भी हॉरमोन बदल रहे हैं।’’
‘‘तुम्हारे अंदर बराबरी का बोलना एक रोग बनता जा रहा है। इन ऊलजलूल बातों में क्या रखा है ?’’
‘‘शिखा याद करती वे प्यार के दिन जब उसकी कोई बेतुकी नहीं थी। एक इंसान को प्रेमी की तरह जानना और पति की तरह पाना कितना अलग था। जिसे उसने निराला समझा वही कितना औसत निकला। वह नहीं चाहता जीवन के ढर्रे में कोई नयापन या प्रयोग। उसे एक परंपरा चाहिए जी-हुजूरी की। उसे एक गांधारी चाहिए जो जानबूझकर न सिर्फ अंधी हो बल्कि गूँगी और बहरी भी।
बच्चों ने बात दादी तक पहुँचा दी। बीजी एकदम भड़क गई, ‘‘अपना काम-धंधा छोड़ अब जयपुर जाएगा, क्यों, बीवी को सैर कराने। एक हम थे, कभी घर से बाहर पैर नहीं रखा।’’
‘‘और अब जो आप तीर्थ के बहाने घूमने जाती हैं, वह ?’’ शिखा से नहीं रहा गया।
‘‘तीरथ को तू घूमना कहती है। इतनी खराब जुबान पाई है तूने, कैसा गुजारा होगा तेरी गृहस्थी का ?’’
‘‘काश गोदरेज कंपनी का कोई ताला होता मुँह पर लगवानेवाला, तो ये लोग उसे मेरे मुँह पर जड़कर चाभी सेफ में डाल देते’’, ‘‘सच ऐसे कब तक चलेगा जीवन !’’
बच्चे शहजादों की तरह बर्ताव करते। नाश्ता करने के बाद जूठी प्लेटें कमरे में पड़ी रहतीं मेज पर। शिखा चिल्लाती, ‘‘यहाँ कोई रूम सर्विस नहीं चल रही है, जाओ, अपने जूठे बर्तन रसोई में रखकर आओ।’’
‘‘नहीं रखेंगे, क्या कर लोगी’’, बड़ा बेटा हिमाकत से कहता।
न चाहते हुए भी शिखा मार बैठती उसे।
एक दिन बेटे ने पलटकर उसे मार दिया। हल्के हाथ से नहीं, भरपूर घूँसा मुँह पर। होठ के अंदर एक तरफ का मांस बिल्कुल चिथड़ा हो गया। शिखा सन्न रह गई। न केवल उसके शब्द बंद हो गए, जबड़ा भी जाम हो गया। बर्तन बेटे ने फिर भी नहीं उठाए, वे दोपहर तक कमरे में पड़े रहे। घर भर में किसी ने बेटे को गलत नहीं कहा।
बीजी एक दर्शक की तरह वारदात देखती रहीं। उन्होंने कहा, ‘‘हमेशा गलत बात बोलती हो, इसी से दूसरे का खून खौलता है। शुरू से जैसी तूने ट्रेनिंग दी, वैसा वह बना है। ये तो बचपन से सिखानेवाली बातें हैं। फिर तू बर्तन उठा देती तो क्या घिस जाती।’’
उन्हीं के शब्द शिखा के मुँह से निकल गए, ‘‘अगर ये रख देता तो इसका क्या घिस जाता।’’
‘‘बदतमीज कहीं की, बड़ों से बात करने तक की अकल नहीं है।’’ बीजी ने कहा।
ससुर ने सारी घटना सुनकर फिर 1940 का मुहावरा टिका दिया, ‘‘एज यू सो, सो शैल यू रीप।’’
कपिल ने कहा, ‘‘पहले सिर्फ मुझे सताती थीं, अब बच्चों का भी शिकार कर रही हो।’’

‘‘शिकार तो मैं हूँ, तुम सब शिकारी हो’’, शिखा कहना चाहती थी पर जबड़ा एक दम जाम था। होठ अब तक सूज गया था। शिखा ने पाया, परिवार में परिवार की शर्तों पर रहते-रहते न सिर्फ अपनी शक्ल खो बैठी है वरन् अभिव्यक्ति भी। उसे लगा वह ठूँस ले अपने मुँह में कपड़ा या सी डाले इसे लोहे के तार से।

उसके शरीर से कही कोई आवाज न निकले बस, उसके हाथ-पाँव परिवार के काम आते रहें। न निकले इस वक्त मुँह से बोल लेकिन शब्द उसके अंदर खलबलाते रहेंगे। घर के लोग उसके समस्त रंध्र बंद कर दें फिर भी ये शब्द अंदर पड़े रहेंगे, खौलते और खदकते। जब मूत्यु के बाद उसकी चीर-फाड़ होगी, तो ये शब्द निकल भागेंगे शरीर से और जीती-जागती इबारत बन जाएँगे। उसके फेफड़ों से, गले की नली से, अंतड़ियों से चिपके हुए ये शब्द बाहर आकर तीखे, नुकीले, कँटीले, जहरीले, असहमत के अग्रलेख बनकर छा जाएँगे घर भर पर। अगर वह इन्हें लिख दे तो एक बहुत तेज ऐसिड का आविष्कार हो जाय। फिलहाल उसका मुँह सूजा हुआ है, पर मुँह बंद रखना चुप रहने की शर्त नहीं है। ये शब्द उसकी लड़ाई लड़ते रहेंगे।


मेला

 

मकर संक्रांति से एक दिन पूर्व पहुँच गई चरनी मासी। पहले कभी उनके घर आई नहीं थी। पर उन्होंने पता-ठिकाना ढूँढ़ निकाला।
अंकल चिप्स की छोटी-सी डायरी में उनके पोते के हाथ की टेढ़ी-मेढ़ी लिखावट में दर्ज था-‘सत्यप्रकाश, 227 मालवीय नगर, इलाहाबाद।’
उनके साथ चमड़े का एक बड़ा थैला, बिस्तरबंद और कनस्तर उतरा। और उतरीं उन जैसी ही गोल-मटोल उनकी सत्संगिन, प्रसन्नी।
स्टेशन से चौक के, रिक्शेवाले ने माँगे चार; मासी ने दे डाले पाँच रुपए। तीरथ पर आई हैं, किसी का दिल दुखी न हो। पुन्न कमा लें। इतनी ठंड में से दो सवारी खींचकर लाया है रिक्शेवाला।
चाय-पराँठे के बाद उनके लिए कमरे का एक कोना ठीक किया गया तो बोलीं, ‘‘रहने दो, घंटे-भर बाद स्वामीजी के आश्रम में जाना है।’’
सत्य ने कहा, ‘‘थोड़े दिन घर में रह लो मासी, वहाँ बड़ी ठंड है।’’
‘‘तीरथ करने निकली हैं; गृहस्थ विच नहीं रहना।’’
‘‘अच्छा मासी यह बताओ, आप तीरथ पर क्यों निकली हो ?’’
‘‘ले मैं क्या पहली बार निकली हूँ। सारे तीरथ कर डाले मैंने–हरद्वार, ऋषिकेश, बद्रीनाथ, केदारनाथ, पुष्करजी, गयाजी, नासिक, उज्जैन। बस, प्रयाग का यह कुंभ रह गया था, वह भी पूरन हो जाएगा।’’
‘‘मासी आप इतने तीरथ क्यों करती हो ?’’
‘‘ले, पाप जो धोने हुए।’’
भानजे की आँखों में शरारत चमकी, ‘‘कौन-कौन से पाप आपने किए हैं ?’’ सत्ते, सत्यप्रकाश, मासी से सिर्फ छह साल छोटा था। नानके में उनका बचपन इसी मासी को छकाते, खिझाते बीता था।
चरनी मासी हँस पड़ीं, एकदम स्वच्छ दाँतोंवाली भोली-भाली निष्पाप हँसी। जब वे निरुत्तर होने लगती हैं तो स्वामीजी की भाषा में बोलने लगती हैं, ‘‘पाप सिर्फ वह नहीं होता जो जानकर किया जाय। अनजाने भी पाप हो जाता है, उसी को धोने।’’
अनजाने पाप में उनके स्वामीजी के अनुसार बुरा बोलना, बुरा देखना, बुरा सुनना जैसे गांधीवादी निषेध हैं।
सत्ते की पत्नी चारु साइंस की टीचर है।
उसने कहा, ‘‘मासी, आपसे भी तो लोग अनजाने में कभी बुरा बोले होंगे। जैसे जीरो से जीरो कट जाता है, पाप से पाप नहीं कट सकता क्या ?’’
‘‘नहीं, पाप से पाप और मैल से मैल नहीं कटता। पाप की काट पुण्य है, जैसे मैल की काट साबुन।’’
‘‘ ‘मल-मल धोऊँ दाग नाहीं छूटे’, जैसे भजन के बारे में आप क्या सोचती हैं ?’’
‘‘छोटे-मोटे तीरथ पर यह मुश्किल आती होगी, प्रयाग का महाकुंभ तो संसार में अनोखा है। तुम गरम पानी से नहानेवालों क्या जानो।’’ मासी ने आर्यां दी हट्टी के लड्डुओं का पैकेट पीप में से निकालकर चारु के हाथ में दिया और कहा, ‘‘तीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूर नसावन।’’ चारु सोचने लगी, दसियों बरस से तो मैं इन्हें जानती हूँ, जगत मासी हैं ये। हर एक के दुःख में कातर, सुख में शामिल। न किसी से वैर न द्वेष, पड़ोस में सबसे बोलचाल, रिश्तेदारों में मिलनसार, परिवार में आदरणीय, यहाँ तक कि बहुएँ भी कभी इसकी अलोचना नहीं करतीं। ऐसी प्यारी चरनी मासी कुंभ पर कौन से पाप धोने आईं हैं कि घर की सुविधा छोड़ वहाँ खुले में रहेंगी।
पर मासी नहीं मानीं। सूरज डूबने से पहले चली गईं।
पेशे से पत्रकार है सत्ते मरग दोस्तियाँ उसकी हर महकमे में हैं। इसलिए जब एस.पी. कुंभ ने कहा, ‘‘कवरेज आपके रिपोर्टर करते रहेंगे, एक दिन खुद आकर छटा तो देख जाएँ।’’ अभी मेला क्षेत्र में प्रवेश भी नहीं किया था सत्य और चारु ने कि मेले का समाँ नजर आने लगा। सोहबतिया बाग से संगम जानेवाले मार्ग पर भगवे रंग की एम्बैसडर गाड़ियाँ दौड़ रही थीं। पाँच सितारा अध्यात्म पेश करनेवाले, विशाल जटाजूट धारण किए साधु-संत, फकीर रंग-बिरंगे यात्रियों के रेले में अलग नजर आ रहे थे। दूर से गंगा-तट पर असंख्य बाँस-बल्ली के चंदोवे तने हुए थे। कहाँ घर में रजाई में बैठे हुए भी ठंड से ठिठुर रहे थे लोग, कहाँ मले में ठण्डे कपड़ों में बूढ़े, जवान, अधेड़ स्त्री-पुरुष और बच्चे एक धुन में चले जा रहे थे। रेलगाड़ी के डब्बों की तरह चल रहे थे। सबसे अच्छा दृश्य था किसी टोले का सड़क पार करने का उपक्रम। सब एक-दूसरे की धोती या कुरते का छोर पकड़ रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह चल रहे थे। ठीक 11 साल 86 दिन बाद पड़ा है यह महाकुंभ। शहर इलाहाबाद नहीं शत-प्रतिशत प्रयाग है आजकल। अनेकानेक यज्ञ की पावन भूमि पूर्ण कुंभ के माहात्म्य से सहिमामंडित है। इस अवधि का हर दिन भक्ति, ध्यान और स्नान के लिए शुभ है। यों तो यात्री यहाँ पूरे साल आते हैं पर इस माह यहाँ रिकॉर्ड तोड़ भीड़ हैं। सार्वाधिक चहल-पहल के स्थल हैं संगम तट, भरद्वाज आश्रम, अमृतवट और अक्षयवट। लगता है वेद, पुराण, आख्यान तीनों आप चल कर समीप आए हैं। अद्भुत मेला है यह। इतने वर्ष बाद आता है। न जाने कहाँ-कहाँ से इसमें इतनी भीड़ जुट आती है। न कोई किसी को निमंत्रण भेजता है न बुलावा। बस लोग हैं कि उमड़े चले आते हैं।
‘‘स्नान करना है तो बजरा मँगवाया जाय,’’ कप्तान साब ने पूछा। सत्य हँस दिया। उसकी इन बातों में कोई आस्था नहीं।
‘‘हमारा इरादा तो आज घर पर भी नहाने का नहीं था।’’ उसने कहा।
‘‘मैं सुबह-सुबह ही नहा चुकी हूँ’’, चारू ने सफाई दी।
मेले में मकर संक्रान्ति पर कितने नहाए, इस बात पर अधिकारियों में बहस है। प्रेस और पुलिस के अलग-अलग आँकड़े हैं। अखबार में छपा है तेरह लाख तो पुलिस का दावा है छब्बीस लाख।। शाम को रेडियों ने कहा है दस लाख से ऊपर नहाए हैं।
प्रशासन के अफ़सर कूद-कूदकर आँकड़े सप्लाई कर रहे हैं। पत्रकार नाम का जीव देखते ही पत्रकारितावाला गंगाजल मँगवाते हैं।, ‘‘अरे द्विवेदी जी, आप अब आ रहे हो, भीड़ तो भोर से नहा रही है। क्या कहा पच्चीस, अजी पैंतीस तो दुई घंटे पहले नहा चुके थे।’’
दरअसल स्नानर्थियों की घोषित संख्या से ही सरकारी बजट में डाइव मारने की गुंजाइश निकलेगी।
द्विवेदीजी अपनी बंदर-टोपी में से सवाल फेकते हैं, ‘‘डूबे कितने ?’’
कप्तान साब के पीछे कई मातहत खड़े हैं, ‘‘एक भी नहीं, एक भी नहीं।’’ सब कोरस में कहते हैं।
‘‘ऐसा कैसे हो सकता है ?’’
‘‘चार केस हुए थे, चारों को बचा लिया। एक भी डूबने नहीं दिया गया।’’
‘क़ौमी एकता’ के रिपोर्टर रिज़वी ने कहा, ‘‘दीन मुहम्मद तो कह रहा था, वहाँ झूसी के कटान का पास सात लाशें निकाली गईं आज।’’
‘‘आज आप मूँगफलीवाले से डिटेल लेंगे तो यही होगा। वह तैराक को लाश बताएगा और लाश को कंकाल।’’
कुल मिलाकर प्रेस को आभास मिल जाता है कि प्रशासन के अधिकारियों में अद्भुत तालमेल है। प्रशासन मुदित है। ऐसा मलाई-बजट स्वीकृत किया है केंद्र और प्रदेश सरकार ने कि कई पीढ़ियों का महाकुंभ हो गया, तार दिया गंगा मैया ने। बीवी-बच्चे रिश्तेदार-पड़ोसी सबको खुश कर दिया। मातहतों के मुँह भी हरे हो गए। बरसों से सूखे पड़े पेड़ों की सिंचाई हुई है इस बरस। गाड़ियों का काफिला पुलिस और प्रशासन की छोलदारियों में झूम रहा है सफेद-हाथियों-सा। जब गाड़ी सरकारी हो, ड्राइवर सरकारी हो, पेट्रोल भी सरकारी हो और सवारी निजी हो फिर न पूछिए मस्ती, सर्दी में भी गर्मी लगती है, दिल से एक ही आवाज़ निकती है जय माँ गंगे, जय माँ गंगे।



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