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खबरों की जुगाली

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3153
आईएसबीएन :8126711329

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खबरों की जुगाली आज के समय में प्रकाशित विभिन्न प्रकार के अखबारों के विषय में वर्णन किया है...

Khabaro Ki Jugali

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

 ‘खबरों की जुगाली’ विख्यात रचनाकार श्रीलाल शुक्ल के लेखन का नया आयाम है। यह न केवल व्यंग्य लेखन के नजरिए से महत्त्वपूर्ण है, बल्कि समाज में चतुर्दिक व्याप्त विद्रूपों के उद्घाटन की दृष्टि से भी बेमिसाल है। साठ के दशक में श्रीलाल शुक्ल ने अपनी कालजयी कृति ‘राग दरबारी’ में जिस समाज के पतन को शब्दबद्ध किया था, वह आज गिरावट की अनेक अगली सीढ़ियाँ भी लुढ़क चुका है। उसकी इसी अवनति का आखेट करती हैं ‘ख़बरों की जुगाली’ की रचनाएँ।

ये रचनाएँ वस्तुतः नागरिक के पक्ष से भारतीय लोकतंत्र के धब्बों, जख़्मों, अंतर्विरोधों और गड्ढों का आख्यान प्रस्तुत करती हैं। हमारे विकास के मॉडल, चुनाव नौकरशाही, सांस्कृतिक क्षरण, विदेशनीति, आर्थिकनीति आदि अनेक जरूरी मुद्दों की व्यंग्य- विनोद से सम्पन्न भाषा में तल्ख और गम्भीर पड़ताल की है ‘ख़बरों की जुगाली’ की रचनाओं ने।

 ‘जुगाली’ को स्पष्ट करते हुए श्री लाल शुक्ल बताते हैं-‘‘यह जुगाली बहुत हद तक लेखक पाठकों की ओर से, उनकी सम्भावित शंकाओं और प्रश्नों को देखते हुए कर रहा था। वे प्रश्न और शंकाएँ अभी भी हमारा पीछा कर रही हैं।’’ इस संदर्भ में खास बात यह है कि उन प्रश्नों और शंकाओं के पनपने की वज़ह मौजूदा सामाजिक व्यवस्था का सतर्क पीछा कर रही है श्रीलाल शुक्ल की लेखनी।

परिचय

 

2003 के तीसरे महीने से लगभग दो वर्ष तक मैंने ‘इंडिया टुडे’ (हिन्दी) के लिए एक पाक्षिक स्तम्भ लिखा था जिसमें पाठकों को रिझाने पर ज़्यादा ज़ोर न था, कोशिश थी किसी तत्कालीन घटना या स्थिति को लेकर उसका परीक्षण करने की और उसमें अन्तर्निहित विडम्बना या एब्सर्डिटी को उजागर करने की। यह एक तरह की जुगाली थी पर यह जुगाली न तो निरुद्देश्य थी, न ही अपना पेट भरने की ग़रज़ से की जा रही थी। यह जुगाली बहुत हद तक लेखक पाठकों की ओर से, उनकी सम्भावित शंकाओं और प्रश्नों को देखते हुए कर रहा था। वे प्रश्न और शंकाएँ अभी भी हमारा पीछा कर रही हैं। उक्त अख़बारी टिप्पणियों के संकलन की सार्थकता सम्भवतः इसी में खोजी जा सकती है।
लखनऊ
30 अप्रैल, 2005
-श्रीलाल शुक्ल

 


वह जो मिनिस्टर बनेगा

 

 

वह उतना मेरा दोस्त नहीं है जितना मैं उसका हूँ। यानी मेरे बारे में उसे लगभग सब कुछ मालूम है पर उसके बारे में मुझे पक्का पता नहीं कि वह जहाज पर खलासी था या वेटर। मुझे वह बस इतना बताता है कि वह मर्चेंट नेवी में रहा है। उसका तौर-तरीका कभी उजड्ड खलासियों जैसा होता है, कभी एक भद्र, शिष्टाचारपूर्ण वेटर का। इधर कुछ दिनों से वेटर की हैसियत उछाल पर है।

आज सवेरे आते ही उसने आने का मकसद बताया, ‘‘मान लो कि मैं इस देश का नया विदेश मन्त्री हूँ, या कम-से-कम विदेश राज्यमन्त्री। मैं चाहता हूँ कि तुम मेरा इंटरव्यू लो। मैं इंटरव्यू देने का अभ्यास करना चाहता हूँ।’’
‘‘कैसे मान लूँ कि...’’ पर मेरी बात बीच ही में काटते हुए उसने कहा, ‘‘लोकसभा चुनावों में मुझे पार्टी टिकट मिलनेवाला है, ऊपर से इशारा मिला है कि चुने जाते ही मुझे विदेश राज्यमन्त्री बना दिया जाएगा।’’
‘‘पर विदेश मन्त्रालय ही क्यों ?’’

इसके जवाब में वह हँसा, बोला, ‘‘मेरी आधी उम्र विदेश में ही तो कटी है। समुद्री तटवाला कौन-सा देश है जहाँ मैं नहीं गया हूँ ? कौन-सा बन्दरगाह है जहाँ मैंने रात नहीं बिताई है ?’’
‘‘चकलाघरों में...’’मैंने धीरे से कहा।
उसने ज़ोर से कहा, ‘‘हाँ, हाँ, वहीं।’’
इंटरव्यू की ज़मीन तैयार हो गई थी। सो, पेश है वह इंटरव्यू :
मैं : ‘‘पर तुम्हारे उन बन्दरगाही तजुर्बों का राजनीति से क्या मतलब ?’’
वह : ‘‘देखिए, राजनीति और, माफ़ कीजिएगा, रंडी में कोई फ़र्क़ नहीं है। पार्टी चीफ़ ने एक दिन कहा था, वेश्या की तरह ही राजनीति कभी सच बोलती है, कभी झूठ। वह ज़बान की कड़वी हो सकती है और बहुत मीठी भी। वह ख़र्चीली होती है और पैसा बटोरनेवाली भी। चीफ़ ने कहा...’’

मैं :‘‘चीफ़- ने कहा हो या नहीं, संस्कृत के एक कवि ने ज़रूर कहा है। बहरहाल, राज्यमन्त्री बन जाने पर आपकी प्राथमिकताएँ क्या हैं ?’’
वह : ‘‘सबसे पहले वे तीन मन्त्र दिन में पाँच बार जपना जो इधर बरसों से बार-बार दोहराए जा रहे हैं।
पहला मन्त्र : भारत की सारी आन्तरिक समस्याएँ पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइ.एस.आइ. की पैदा की हुई हैं।
दूसरा मन्त्र : आइ.एस.आइ. को बांग्लादेश भी बढ़ावा दे रहा है।
तीसरा मन्त्र : जब तक सीमा पार से आनेवाले आतंकवाद पर रोक नहीं लगती, तब तक पाकिस्तान से कोई बात नहीं होगी।’’
मैं :‘‘इसमें नई बात क्या हुई ?’’
वह :‘‘कुछ नहीं। हमारी विदेश नीति गिरगिट नहीं है। वह रंग नहीं बदलती।’’

मैं : ‘‘आपको नहीं लगता कि अगर कभी पाकिस्तान ने कश्मीर के आतंकवाद को रोक दिया, तो उसके साथ बात करने को बचेगा ही क्या ?’’
वह : ‘‘तब हम मौसम की बात कर सकते हैं।’’
मैं : ‘‘आपने पाकिस्तान और बांग्लादेश की बात कही। पर अमेरिका ? या रूस ?’’
वह : ‘‘वहाँ भी हमारी नीति पहले जैसी बनी रहेगी। हमें रूस के साथ लगातार खूबसूरत बातें करनी हैं, अमेरिका के आगे लगातार कटोरा फैलाना है। यह पचास साल पुराना आज़मूदा नुस्खा है।’’
मैं : ‘‘आप अपनी पहली विदेश-यात्रा किस देश से शुरू करना चाहेंगे ?’’

वह : ‘‘तुर्कमेनिस्तान से।’’
मैं : ‘‘क्या यह देश इतना महत्त्वपूर्ण है ?’’
वह : ‘‘भारत के लिए न हो, मेरे लिए है। वहाँ के राष्ट्रपति नियाज़ोव मेरे लिए बहुत बड़ी चीज़ हैं। उन्होंने अपना नाम ही रख लिया है तुर्कमेनबाशी, यानी तुर्कमेनों के बापू। उन्होंने अपनी अम्मा के और अपने नाम से महीनों के नाम तक बदल डाले हैं। उनके जन्मदिन पर राष्ट्रीय अवकाश होता है। हमारे नेतागण उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं मायावती और लालू प्रसाद यादव तो उनके आगे कुछ नहीं हैं। मैं सबसे पहले इस महान निर्लज्जता का दर्शन करना चाहता हूँ।’’
मैं : ‘‘वहाँ से आप यक़ीनन मास्को जाना चाहेंगे ?’’
वह : ‘‘जी नहीं। वहाँ से मैं जिम्बाब्वे जाऊँगा, राष्ट्रपति मुगाबे से मिलने। वहाँ के विपक्ष का नेता डर के मारे भागकर इंग्लैंड में जा छिपा है। उस मुल्क में इंग्लैंड की क्रिकेट टीम ख़ौफ के मारे जाने से इनकार कर देती है। भारतीय प्रजातन्त्र को अभी वहाँ से भी कुछ सीखना है।’’

मैं : ‘‘आप तानाशाही में विश्वास रखते हैं ?’’
वह : ‘‘हरगिज नहीं। मुगाबे चुनाव लड़कर आया है। वैसे तनाशाही से मैं घृणा करता हूँ, पर तानाशाह से नहीं। गांधी ने कहा है कि पापी को घृणा करो, पाप को नहीं।’’
मैं : ‘‘आप गांधी का हवाला दे रहे हैं। क्या कृपापूर्वक आप मेरी खोपड़ी पर एक घूँसा मारेंगे ? मैं समझना चाहता हूँ कि मैं वही हूँ या कुछ और हो गया हूँ।’’
(9.3.2003)

 

बजट : कुछ प्रकट, कुछ कपट

 

 

28 फरवरी को संसद में बजट के पेश होते ही संसद-छाप लोगों से सड़क-छाप लोगों तक की प्रतिक्रियाओं का ताबड़तोड़ प्रसारण शुरू हो गया। हर ऐरे-ग़ैरे से लेकर उच्चवर्गीय नत्थू-खैरे की राय ली जाने लगी। पर मैंने प्रतिक्रियाएँ बटोरने में उतावली नहीं दिखाई, ‘रुपये-पैसे का मामला है, जल्दबाज़ी ठीक नहीं। लोगों को पहले आँकड़ों की जुगाली कर लेने दो। उसके बाद ही पूछताछ करो,’ मैंने सोचा।
लगभग एक सप्ताह बाद मैं लोगों की राय जानने के लिए निकला। सबसे पहला सवाल सबसे पहले मिलनेवाले भिखमंगे से किया, ‘‘नए बजट के बारे में क्या राय है ?’’

‘‘ठीक ही है,’’ भिखमंगे ने कहा, ‘‘पर सुनते हैं, उसमें बेरोज़गारों के लिए कुछ नहीं है।’’ उसने गहरी साँस ली, अपने कटोरे की ओर देखा, कहा, ‘‘शुक्र है ख़ुदा का कि मैं बेरोज़गार नहीं हूँ।’’
‘‘किसानों के लिए भी कुछ ख़ास अच्छा नहीं है।’’
‘‘उनकी तो हालत ख़राब है, सर ! पहले सूखे की मार, अब डीजल, यूरिया के दामों में बढ़ोतरी !’’ उसने दोबारा गहरी साँस ली, कहा, ‘‘भगवान की दया है कि मैं किसान नहीं हूँ।’’
‘‘फिर भी, मुद्रास्फीति बढ़ने से तुम्हारी आमदनी पर असर पड़ सकता है।’’

उसने मुझे गौर से देखा, लगा कि वह अब मुझे मुद्रास्फीति के अर्थशास्त्र पर एक लेक्चर सुनाएगा, पर सँभल गया; बोला, ‘‘ऐसा नहीं है, सर। मिनिमम चैरिटी की दर भी उसी हिसाब से बढ़ती जाती है। पहले लोग चवन्नी ऐंठकर देते थे, अब रुपया देते हुए भी सकुचाते हैं। मेरा ख़याल है कि अगले वित्तीय वर्ष में भीख की न्यूनतम दर दो रुपये हो जाएगी। और सारी आमदनी इन्कम टैक्स फ्री।’’

तभी उसके मोबाइल फ़ोन की घंटी बजी, मुझसे माफ़ी माँगकर वह फ़ोन पर बात करने लगा विश्व कप के किसी क्रिकेट मैच पर कोई सट्टे का मामला था। मैं आगे बढ़ गया और एक ऐसे शख़्स से मुख़ातिब हुआ जो देखने में वेतनभोगी लगता था, और था भी। उसने कहा, ‘‘बजट में अरबों-खरबों की जो बातें होती हैं, उन सबसे हमारा कोई लेना-देना नहीं। वे बातें हमारी समझ में नहीं आतीं, और उन्हें समझने की ज़रूरत किसे है ? हमारा बजट से जो रिश्ता है, वह कुछ टुच्चे क़िस्म के मुद्दों को ही लेकर है। इन्कम टैक्स में क्या रियायत दी गई और क्या छीनी गई; कितना रिबेट मिला, कितना ग़ायब हुआ; मानक कटौतियाँ घटीं या बढ़ी-पूरे बजट का हमारे लिए यही मतलब है। सरकारी नौकरों के लिए कुछ और भी ऐसे ही शगूफे हैं। अवकाश यात्रा का लाभ वापस ले लिया फिर बहाल कर दिया ! एक बार जब मालूम हो गया कि अगले साल कितना मिलेगा, कितना जाएगा, तो उसी वक़्त बजट की ख़बर हमारे लिए बासी हो गई।’’
‘‘छाता-छड़ी से लेकर ए.सी. और कारें तक सस्ती हो रही हैं, इससे कोई मतलब ही नहीं ?’’

वेतनभोगी ने कहा, ‘‘ये सब क्या मेरे लिए ही सस्ती हुई हैं ? ये तो सारे देश के लिए हैं, उन मसलों में मैं क्यों उलझूँ ?’’
अचानक वह हँसने लगा, कुछ कहना चाहता था फिर भी, फिर भी’ से आगे कुछ नहीं कह सका। हँसी थमते ही बोला, ‘‘मेरे दिमाग़ में एक कविता चमक उठी है, सुनिए :
भाई रे यह कैसी बस्ती !
आटा महँगा, मोटर सस्ती ! हा ! हा ! हा ! हा !
उसे ‘हा ! हा !’ में छोड़ मैं ऐसे मित्र के यहाँ गया, जो कभी आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ माने जाते थे पर उनके इस विश्वास ने कि ‘देश रसातल को जा रहा है’, उनकी समझ को कुछ कुन्द कर दिया है। मैंने पूछा, ‘‘बजट के बारे में क्या सोचते हैं ?’’
‘‘रसातल के रास्ते में यह अगला क़दम है।’’

‘‘पर उसके अच्छे पक्षों पर भी ग़ौर करें, ग़रीबों के लिए ग्रुप हेल्थ इंश्योरेंस...।’’
‘‘अच्छी स्कीम है, बशर्ते चल जाए।’’
‘‘ग़रीबी की रेखा से नीचेवालों के लिए अंत्योदय अन्न योजना...’’
‘‘उम्दा है, बशर्ते अन्न उन तक पहुँच जाए।’’
‘‘सड़क, रेल और हवाई अड्डों के विस्तार के लिए 60,000 करोड़ रु. की साझा योजना, जिसमें सार्वजनिक और निजी क्षेत्र साझेदारी निभाएँगे।’’

‘‘चल सकती है, बशर्ते बैल और भैंसा एक जुए के नीचे जुतकर बैलगाड़ी खींच ले जाएँ।’’
‘‘मगर इसकी प्रशंसा तो होनी चाहिए कि देश की सुरक्षा के लिए रक्षा बजट में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।’’
‘‘वक्त आने पर प्रशंसा कर सकता हूँ, बशर्ते इस साल जैसा हाल न हो; यानी रुपया है पर ख़र्च नहीं हो पा रहा है।’’
‘‘इतना तो आप मानेंगे न कि बजट मध्यवर्ग के विस्तार के लिए लाभदायी है और मध्यवर्ग का विस्तार देश की समृद्धि का सूचक है ?’’

‘‘किसी के हाथ-पाँव सींकियाँ हों, गाल पिचके हुए हों और सिर्फ़ तोंद फैल रही हो तो उसे आप तन्तुरुस्त कहेंगे ?’’
इस लाइलाज मरीज को वहीं छोड़कर मैं अन्त में एक साथी रिपोर्टर से मिला। वह आँकड़ों का शौक़ीन है। उससे मैंने बजट के कुछ ख़ूबसूरत आँकड़ें सुनने चाहे पर निराशावाद में वह पिछले मित्र से भी दो क़दम आगे निकला। छूटते ही बोला, ‘‘पता है, बजट वर्ष में वित्तीय घाटा लगभग एक लाख चौवन हज़ार करोड़ रुपया हो गया है ? क्या होगा इस देश का ?’’
इस बार उसकी हाँ-में-हाँ मिलाते हुए मैंने यह नहीं कहा कि देश में चला जाएगा। मैंने कहा, ‘‘भाई , मुझसे इतने लाख करोड़ की बात न करो। मेरी हैसियत कुछ हज़ार या लाख-दो लाख रुपया तक जाने की है। करोड़ों और अरबों की मुझे फ़िक्र नहीं, क्योंकि इतने रुपये के वजूद का मुझे एहसास ही नहीं है। पता नहीं, वित्त मन्त्री को भी ऐसा एहसास है या नहीं। बजट को समझना है तो मामूली आदमी के दुख-दर्द को लेकर मामूली रकमों की बात करें। हाइ फाइनेंस को हाई फाइनेंसवालों के लिए ही छोड़ दें।’’
(23.3.2003)

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नगर विकासमन्त्री से संवाद

 

 

जब तक यह छपकर आपकी निगाह से गुज़रेगा, मुझे पता नहीं, अमेरिका दबंगई कहाँ तक पहुँच चुकी होगी; इराक का कैसा हाल होगा; पेट्रोलियम उत्पादों की क़ीमतें किस ग्रह को छू रही होंगी या हमारे रक्षा, वित्त, पेट्रोलियम और विदेश मन्त्रालयों की चौमुखी रस्साकशी में नीति-निर्णय के मैच का कौन-सा दौर चल रहा होगा। मुझे पता नहीं और शायद किसी को पता नहीं। पर जो मुझे पता है, वह यह है कि तब तक हमारे नगर की सड़कों के विकास का पहला चरण पूरा हो चुका होगा, यानी उनके किनारे बचे-ख़ुचे पेड़ कट चुके होंगे। हमारे नगर विकास मन्त्री कुछ ही दिन पहले अपनी पहली विदेश-यात्रा से लौटे हैं। आते ही उनका दूसरा फैसला था कि सड़क विकास का यह चरण तुरन्त पूरा होना चाहिए। सुनते ही ठेकेदारों की कुल्हाड़ियाँ म्यान से बाहर निकल आईं। मैंने पूछा, ‘‘पेड़, तो कट गए, सड़क कब चौड़ी होगी ?’’
‘‘अगली पंचवर्षीय योजना में,’’ उन्होंने बताया।

पहला फैसला नाम को लेकर था। उन्होंने नगर मन्त्रालय का नाम ‘नागर विकास मन्त्रालय’ कर दिया था। मैंने पूछा, ‘‘यह क्यों ?’’
‘‘इसलिए कि,’’ मन्त्री जी ने समझाया, ‘‘नगर छोटी चीज़ है। इसका मतलब है कि सिर्फ़ नगर ! नगर के विकास का क्या मतलब ? दो-चार गाँव थे। जब उनका विकास हुआ तभी तो नगर बना। नगर का होना विकास के बाद की स्टेज है, पहले की नहीं। इसके विपरीत ‘नागर विकास’ का मतलब हुआ, नगर से सम्बन्धित हर चीज़ का विकास ! नागर, अर्थात् नगर से सम्बन्धित।’’
‘‘यानी सड़क पर जो गायें बैठी रहती हैं, उनका भी आप विकास करेंगे ?’’
‘‘क्यों नहीं ! गोमाता का विकास होना ही चाहिए।’’
‘‘वे तब भी सड़क पर बैठी रहेंगी।’’

‘‘नहीं, सड़क नहीं, उसके बीच डिवाइडर पर। मेरा विचार है कि इसके लिए डिवाइडर की चौड़ाई छह फ़ीट होनी चाहिए। डिवाइडरों के विकास के साथ ही गायों के कारण ट्रैफिक जाम की समस्या स्वयं हल हो जाएगी। नगर को भी गोचारण-संस्कृति का आनन्द मिलेगा।’’
मैंने कुछ रुककर पूछा, ‘‘सूअरों के बारे में आपका क्या विचार है ?’’
‘‘मुझे आपके इस प्रश्न पर आपत्ति है। आप हमारे नागरिकों को सुअर नहीं कह सकते। न भूलें, वे हमारे प्रजातन्त्र की रीढ़ हैं।’’
‘‘क्षमा करें, मैं उन असली सुअरों का ज़िक्र कर रहा था जो पूरे शहर में घूमते रहते हैं; वे आपके प्रजातन्त्र की रीढ़ तो नहीं हैं पर आप उन्हें उसका प्रतीक ज़रूर मान सकते हैं।’’

‘‘ओह, वह सुअर !’’ वे बोले, ‘‘हमारे वाराह भगवान ! वही तो पृथ्वी के उद्धारक हैं ! उन्हें लेकर आपकी क्या समस्या है ’’
‘‘कुछ नहीं, सिवाय इसके कि सूअरों ने शहर पर कब्जा कर लिया है, सब जगह घूमते रहते हैं, ग़न्दगी फैलाते हैं।’’
‘‘आपका विचार ठीक नहीं है। वे सड़कों पर नहीं, ज़्यादातर गलियों में घूमते हैं। वे ग़न्दगी फैलाते नहीं, ग़न्दगी खाते हैं। नागर विकास में उनकी एक विशिष्ट भूमिका है।’’

‘जैसी कि आपकी,’ मैंने सोचा पर होंठ खोलते ही बन्द कर लिया। वे समझे कि मैं उन्हें टोककर कुछ कहना चाहता हूँ; हाथ के इशारे से उन्होंने मुझे रोका; बोलते रहे, ‘‘मेरा दृष्टिकोण यह है कि नगर विकास में यहाँ के प्राणिमात्र का हिस्सा होना चाहिए, यही सर्वांगीण विकास है।’’
‘‘मच्छरों का भी ?’’ मैंने पूछा।
‘‘उनके लिए किसी विकास योजना की ज़रूरत नहीं; वे स्वयं विकसित हो रहे हैं।’’
वे मुझे झटके पर झटका दे रहे थे। हारकर मैंने पूछा, ‘‘तो शहर की सड़कें, यातायात, रोशनी, पानी, सफाई, सब आपकी निगाह में...’’

 वे बोले, ‘‘ये भी ज़रुरी हैं, पर,’’ वे बंगला काव्य पर उतर आए, ‘‘पर...शाबार उपर मानुष शत्य....’’
‘‘देखिए, यूरोपीय और अमेरिका सभी बड़े शहर देखकर लौट रहा हूँ। सभी साफ़-सुथरे चमकदार, लकदक। देखने में सभी स्वर्ग जैसे...’’
मैंने स्वर्ग नहीं देखा, तभी उनकी बात समझा नहीं। पर शायद वे अपनी बात बखूबी समझ रहे थे कह रहे थे, ‘‘उनका भौतिक जीवन सुगन्धित है, पर संस्कृति में सड़ांध है। हमारे यहाँ माना, नालियों में दुर्गन्ध है, पर हमारी महान संस्कृति में सुगन्ध है।’
‘चन्दन और केसर की ?’’ मैंने पूछा।

वे ख़ुश हुए। कहते रहे, ‘‘हमारी संस्कृति उनसे अलग है। नाली की सफाई हो, इसके पहले हम अन्तःकरण की सफाई ज़रूरी मानते हैं।’’
‘‘उसे पाने के लिए क्या करना चाहिए ?’’
‘‘यही कि अन्तःकरण साफ़ रखा जाए।’’
‘‘उस दिशा में आप कर क्या रहे हैं ?’’
‘‘पच्चीस एकड़ ज़मीन माँ सुधामयी के आश्रम के लिए दी है। पश्चिमवाली जो मलिन बस्ती है, बिलकुल धारावी के मुकाबले की, उसे हटाकर यह अध्यात्म तीर्थ बनेगा।’’
‘‘बस्तीवाले कहाँ जाएँगे ?’’
‘‘उसकी चिन्ता न करें। शहर में जो पाँच फ्लाई ओवर बने हैं, उनके नीचे की जगह बस्तीवालों के लिए है। अब वे शहर का किनारा छोड़कर हमारे बीचोबीच आ जाएँगे।’’
तब ‘...शाबार उपर मानुष शत्य...’ सोचता हुआ मैं बाहर निकल आया।
                                (9.4.2003)


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