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मेरी कविताई की आधी सदी

बच्चन सिंह

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3158
आईएसबीएन :81-267-0684-8

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इसमें बच्चन जी के काव्य यात्रा का वर्णन हुआ है...

Meri kavitai ki adhi sadi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत कृति बच्चन की बावन कविताओं का संकलन है जिनमें से पैंतालिस उनके पूर्व प्रकाशित चौबीस संग्रहों से चुनी गई हैं और सात कविताएँ यहाँ पहली बार प्रकाशित की जा रही हैं।
बच्चन ने इस सदी के तीसरे दशक की समाप्ति पर लिखना आरम्भ किया था, और आठवें दशक के अन्त तक लिखते रहे। जाहिर है, उन्हें द्विवेदीयुगीन प्रतिष्ठित और छायावादी प्रयोगात्मक काव्य-शैली दाय के रूप में मिली थी।

दरिया में डूबता सूरज
झुरमुट में अटका चाँद
बादलों से झाँकते
तारे
हरसिंगार के झरते फूल
दम घोंटती-सी रात
विष घोलती-सी रात
पाँवों से दबी
दूब
घर, दर, दीवार
चली, छनी राह
पल, छिन, दिन, पाख, मास-
समय का सारा परिवार
मूक !...
मेरे शब्दों के सिवा
कोई नहीं है मेरा गवाह
महसूस कर ली  मैंने अपनी भूल
सीख लिया है कड़वा पाठ-
पारदर्शी द्वार नहीं खोला जा सकता है
सत्य कविता में ही बोला जा सकता है।

इसी पुस्तक से

चल चुका युग एक जीवन


(भूमिका-स्वरूप)

तुमने उस दिन
शब्दों का जाल समेट
घर लौट जाने की बन्दिश की थी।
सफल हुए ?
सफल नहीं हुए
तो इरादे में कोई खोट थी।
तुमने जिस दिन जाल फैलाया था
तुमने उद्घोष किया था,
तुम उपकरण हो,
जाल फैल रहा है; हाथ किसी और के हैं।
तब समेटने वाले हाथ कैसे तुम्हारे हो गये ?
फिर सिमटना
इस जाल का स्वभाव ही नहीं;
सिमटता-सा कभी
इसके फैलने का ही दूसरा रूप है,
साँसों के भीतर-बाहर आने-जाने-सा,
आरोह-अवरोह के गाने-सा।
(कभी किसी के लिए सम्भव हुआ जाल-समेटना
तो उसने जाल को छुआ भी नहीं;
मन को मेटा।
कठिन तप है, बेटा !)
और घर ?
वह है भी अब कहाँ !
जो शब्दों का घर बनाते हैं।
वे और सब घरों से निर्वासित कर दिये जाते हैं।
पर शब्दों के मकान में रहने का
मौरूसी हक भी पा जाते हैं।
और,
‘लौटना भी तो कठिन है चल चुका एक युग एक जीवन’—
अब शब्द ही घर है
घर ही जाल है
जाल ही तुम हो,
अपने से ही उलझो,
अपने से ही सुलझो,
आपने में ही गुम हो।
‘प्रतीक्षा’

बच्चन

मंगलारम्भ


प्रियतम, मैंने बनने को तेरी सुन्दर ग्रीवा का हार,
ललित बहिन-सी कलियाँ छोड़ीं,
भाई से पल्लव सुकुमार
साथ-खेलते फूल, खेलतीं—
साथ तितलियाँ विविध प्रकार,
गोद खेलाते हुए पिता-से
पौधे का मृदु स्नेह अपार,
माता-सी प्यारी क्यारी का
सहज, सलोना, सरल दुलार,
बाल्य-सुलभ-चाञ्चल्य-चपलता
छोड़ा-बाँधी नियम के तार
छोड़ा निज क्रीड़ा-शुभस्थली
शुभ्र वाटिका का घर-द्वार;
प्रियतम, बतला दे आकर्षक है क्यों इतना तेरा प्यार ?

कीर


कीर, तू कर बैठा मन मार
शोक बनकर साकार
शिथिल-तन, मग्न-विचार,
आकार तुझपर टूट पड़ा है किस चिन्ता का भार ?
इसे सुन पक्षी पंख पसार,
तालियों पर पर मार,
हार बैठा लाचार
पिंजड़े के तारों से निकली मानो यह झंकार
‘कहाँ बन-बन स्वच्छन्द बिहार !
कहाँ बन्दीगृह-द्वार !’
महा यह अत्याचार
एक दूसरे का ले लेना जन्मसिद्ध अधिकार।

आदर्श प्रेम


प्यार किसी को करना, लेकिन—
कहकर उसे बताना क्या
अपने को अर्पण करना पर—
औरों को अपनाना क्या।

गुण का ग्राहक बनना, लेकिन—
गाकर उसे सुनाना क्या।
मन को कल्पित भावों से
औरों को भ्रम में लाना क्या।

ले लेना सुगन्ध सुमनों की,
तोड़ उन्हें मुरझाना क्या।
प्रेम-हार पहनाना, लेकिन—
प्रेम-पाश फैलाना क्या।

त्याग-अंक में पले प्रेम-शिशु
उनमें स्वार्थ बताना क्या।
देकर हृदय हृदय पाने की
आशा व्यर्थ लगाना क्या।



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