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हास्य-व्यंग्य >> बारामासी

बारामासी

ज्ञान चतुर्वेदी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :248
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3159
आईएसबीएन :9788126702060

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ज्ञान चतुर्वेदी का एक हास्यपूर्ण व्यंग्य...

Baramasi a hindi book by Gyan Chaturvedi - बारामासी -ज्ञान चतुर्वेदी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ज्ञान चतुर्वेदी ने परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी और श्रीलाल शुक्ला की व्यंग्य-परम्परा को न केवल आगे बढ़ाया है, वरन कई अर्थों में उसे और समृद्ध किया है। विषय-वैभिन्न्य तथा भाषा और शैलीगत प्रयोगों के लिए वे हिन्दी व्यंग्य में विख्यात हैं। लकीर पीटने के सख़्त खिलाफ हैं; चाहे वह स्वयं उनकी खींची लकीर ही क्यों न हो।

‘बारामासी’ बुंदेलखंड के एक छोटे से कस्बे के, एक छोटे से आँगन में पल रहे छोटे-छोटे स्वप्नों की कथा है-वे स्वप्न, जो टूटने के लिए ही देखे जाते हैं और टूटने के बाद तथा बावजूद भी देखे जाते हैं। स्वप्न देखने के अजीब उत्कंठा तथा उन्हें साकार करने के प्रति धुँधुला सोच और फिर-फिर उन्हीं स्वप्नों को देखते जाने का हठ-कथा न केवल इनके आस-पास घूमती हुई मानवीय सम्बन्धों पारम्परिक शादी-ब्याह की रस्मों, सड़कछाप कस्बाई प्यार, भारतीय कस्बों की शिक्षा-पद्धति, बेरोजगारी, माँ-बच्चों के बीच के स्नेहिल पल तथा भारतीय मध्यवर्गीय परिवार के जीवन-व्यापार को उसके संपूर्ण कलेवर में उसकी समस्त बिडंबनाओं-विसंगतियों के साथ पकड़ती है, वरन साथ ही बुदेलखंडी परिवेश के श्वास-श्वास में संपदित होते सहज हास्य-व्यंग्य को भी समेटती चलती है।

बुदेलखंड की माटी से बने और उठाए गुच्चन, छुट्टन, छदामी, फिरंगी, लल्ला और चंदू जैसे पात्र और भारतीय नारी के अदम्य संघर्ष तथा भारतीय माँ के अतुलनीय स्नेह की प्रतिनिधि अम्माँ जैसा चरित्र और सब कुछ सह जाने को तत्पर बिन्नू जैसी बहन-‘बारामासी’ की दुनिया में रह रहे ये पात्र अपने पाठकों को एक अनोखे संसार में ले जाएँगे।

 

भूमिका

 

 

शुरू करने से पहले

 

‘नरक यात्रा’ के बाद यह मेरा दूसरा व्यंग्य-उपन्यास है।
‘व्यंग्य-उपन्यास’ किन अर्थों में ‘उपन्यास’ से भिन्न है, या वह वही पुराना माल है जिस पर ‘व्यंग्य वाले’ फालतू ही नया रैपर लगाकर बाजार में ले आए हैं-यह बहस हिंदी अलोचना के उन दिग्गज बहसबाजों पर छोड़ दें, जो इस बाजार में बहस की ही खा रहे हैं। व्यंग्य को विधा माना जाए या वह इस सम्मान लायक नहीं है, यह मुकदमा भी इनके इजलास में वर्षों से धूल खा रहा है। अगले सम्मेलन में फिर बहस हो सके, इसलिए नई तीरीखें दे दी जाती हैं। सो इसे भी छोड़े। वैसे, यह मुकदमा निबटे बगैर व्यंग्य-उपन्यास का मामला भी लटका ही रहेगा। फिर, अभी तो बहस भोपाल, लखनऊ और जयपुर जैसी छोटी अदालतों में घिसट रही है। अपील के बाद अंतिम निर्णय तो दिल्ली में बैठे साहित्य के सुप्रीम कोर्ट के जजों पर निर्भर करेगा कि उस समय उनका मूड़ क्या कहता है और उस समय उनका भाई –भतीजा या चेला उनसे क्या कहलवाना चाहता है। दिल्ली की इस अदालत में साहित्य के बहुत से ऐसे दीवाने मुकदमें पहले ही लंबित हैं, जिन पर हिंदी साहित्य के विभिन्न गिरोहों के बीच फौजदारियाँ होती रहती हैं। सो, इन मामलों की भीड़ में व्यंग्य का नंबर तो फिलहाल आने से रहा। तब तक यदि मैं अपनी इस रचना को ‘व्यंग्य-उपन्यास’ का नाम दूँ, तो साहित्यालोचन की कोतावली में बैठे मुंशी लोग कृपया क्षमा करें।

मुझे व्यंग्य-उपन्यास लिखना इस अर्थ में व्यंग्य और उपन्यास दोनों से अलग तथा कठिन लगता है, कि एक लंबी रचना में, जिसमें जीवन के इतने रंग बिखरे हों, आदि से अंत तक व्यंग्य के तेवर साधना बहुत कठिन, कष्टसाध्य तथा लगभग असंभव सी बात हो जाती है। हर स्थिति, घटना, पात्र, मानसिकता तथा विवरण को व्यंग्य के माध्यम से उतनी ही जीवंतता तथा तीव्रता से निभाने में कितना क्या-क्या लगता है, यह बात एक ऐसी लंबी व्यंग्य-रचना लिखकर ही जाना जा सकता है। चीजें छूट-छूट जाती हैं। भाषा, विट, हास्य, और व्यंग्य का सतत प्रवाह जब-तब टूटने को होता है। एक-एक वाक्य पर कभी-कभी घंटों की मशक्कत के बाद भी वह बात पैदा नहीं होती, जो व्यंग्य और बात, दोनों को बराबर से साध ले। फिर व्यंग्य उपन्यास में ढ़ीलेपन की चंद पंक्तियाँ भी नहीं चलेंगी। चुस्त, दुरूस्त, तनी हुई रस्सी पर सावधानी से चलने का खेल है यह, क्योंकि इसके नीचे गिरकर वापस रस्सी पर पहुँचने की सुविधा व्यंग्यकार को नहीं दी गई है।

इन अर्थों में ‘बारामासी’ का लिखना त्रासद, कष्टप्रद और थकानेवाला अनुभव था, परंतु इसे पूरा करने के संतोष के सामने वह सब कुछ भी नहीं है।
उपन्यास पूरा करने के बाद भी मुझे इसका नाम नहीं सूझ रहा था। ‘नरक यात्रा’ उपन्यास का नाम भी मेरे अनन्य मित्र स्वदेश दीपक ने दिया था। ‘बारामासी’ नाम मेरे एक और मित्र श्रीकांत आप्टे ने दिया है। ‘बारामासी’ ऐसा फूल है, जो हर मौसम में उसी शिद्दत से खिल सकता है। मेरे इस उपन्यास के पात्रों के जीवन-चरित्र को इससे बेहतर और किस नाम से पुकारा जा सकता था ?

 

ज्ञान चतुर्वेदी

 

सपने देखने वाले

 

 

ग्राम व तहसील अलीपुरा, जिला झाँसी, उत्तर प्रदेश। बुंदेलखंड के इस गाँव की एक सँकरी गली में सुबह उतर चुकी है, जैसा कि गली में दोनों ओर बजबजाती नालियों के साथ बैठे टट्टी करते बच्चों की लंबी पक्ति को देखकर ही स्पष्ट है। धूप, खपरैलों, और पक्के छज्जों के, गली में दूर तक झुके कूबड़ों के ऊपर से कूदकर गली में घुस चुकी है। मात्र पटलेदार चडेढ़ी पहने, लगभग अलफनंगे लोग अभी भी घर के चबूतरों पर अलसाए से पसरे हैं। कुछ अभी तक खरारी खटिया पर यूँ बेखबर सो रहे हैं कि लंबी परंतु ढ़ीली चड्ढ़ी अथवा यहाँ-वहाँ से निबकी धोती में से जो दिख रहा है, वह शौचरत बालकों के लिए उत्सुकता तथा मजे लेने का विषय बन गया है। मक्खियाँ, एक सिरे से दूसरे सिरे तक। सार्वजनिक नल पर कुकरहाव करतीं, एक-दूसरे का सर फोड़तीं औरतें और इनसे असंपृक्त से दिखते चबूतरे पर उकडूँ बैठकर दातून करते तथा उसी नाली में, गले से जोर-जोर की आवाज़ें करके कुल्ला करते लोग। फालतू बैठे बब्बा, दद्दा तथा नन्ना कहलानेवाले बूढ़े भी वहीं चबूतरों पर जमे हैं और रात-भर का छाती में जमा बलगम बीड़ी की सहायता से निकालकर उसी नाली को सादर समर्पित कर रहे हैं। चुटकी से जाँघ तथा फोते हा खाल को चपेटकर खुजलाते नौजवान, जलेबी का दोना भिनभिनाती मक्खियों से बचाकर ले जाते शौकीन, जामुन से भरी डलिया सिर पर उठाए एक बुढ़िया और इन सबके ऊपर छाई एक अजीब-सी बू, जो बदबू भी नहीं है और खुशबू तो खैर है ही नहीं।

और, ग्राम अलीपुरा में गर्मी की ऐसी सुबह को इस गली में एक ताँगा आ रहा है। अजीब से कौशल द्वारा ताँगा-चालक नाली के किनारे बैठे एक इंच भी न खिसकने पर आमदा हठी बच्चों को बचाता हुआ ताँगा लिए जा रहा है।
‘‘मानिकपुर पैसेंजर आ गई, भैया ?’’
एक बुड्ढ़े ने ताँगेवाले से यूँ ही पूछ लिया है, यूँ वह स्वयं बीस वर्ष से अलीपुरा से बाहर नहीं गया है। परंतु सिद्धांत यहाँ यह है कि पूछ लेने में क्या हर्ज है।
‘‘हओ...’’ ताँगेवाले ने हामी भरी और ताँगा रोक दिया।
बुड्ढे ने उत्सुकतावश चबूतरे से छलाँग लगाई और ताँगे के पास यूँ आकर कूदा कि एक बार तो घोड़ा भी चौंक गया। ताँगे के यकायक रुक जाने से उत्पन्न उत्सुकता तथा उत्तेजनावश और भी बहुत से फुरसतिए उठकर, चलकर या भागकर आ गए और कुछ ही देर में ताँगे के चारों तरफ भीड़ लग गई।
‘‘इनसे पूछ लीजिए !’’ ताँगेवाले ने थानेदार-से रोबीले व्यक्तित्ववाली सवारी से कहा। ताँगे में उस मुँछाड़िए के अलावा एक लफंगा-सा लड़का तथा दो और अधेड़ व्यक्ति बैठे हैं।
‘‘क्यों भैया, ये दुबेजी का मकान किधर होगा ?’’ पूछा गया।
‘‘कौन दुबेजी ? बरुआसागरवाले ?’’

‘‘नहीं, मऊरानीपुरवाले ?’’
‘‘चलिए, हम चलकर बतला देते हैं।’’
लपककर, तमाशबीनों तथा उत्साही स्वयंसेवकों की भीड़ ताँगे के आगे-आगे चल दी।
‘‘हमारे पीछे लगे रहो।’’ एक ने ताँगेवाले को बताया।
‘‘लगे ही हैं। पर घोड़े से बचना। एकदम घुसे जा रहे हो।’’ ताँगेवाले ने भी बताया।
सारी भीड़ जुलूस बनाकर दुबेजी के घर की तरफ चल दी; एक बूढ़ा, जो घुटनों में दर्द तथा सूजन के कारण उठने तथा जाने से मजबूर था, दूसरे से बोला, ‘‘वही बिन्नू को देखनेवाले आए हैं, शायद इस दफे सगाई घल जाए।’’
‘‘लगता नहीं...’’
‘‘कॉय भैया ?’’
‘‘इन तालबेंहटवालों का भरोसा नहीं। स्साले लड़की देख जाते है पर न ‘हाँ’ का जवाब भेजते हैं, न ‘न’ का।’’
‘‘सो तो है।’’
ताँगा पतली गली के और भी सँकरे मोड़ पर मुड़कर गायब हो गया था, पर बातचीत जारी थी।
बिन्नू सज-सँवरकर तैयार हो रही थीं।
क्यों ?

क्योंकि लल्लन मामाजी ने एक और लड़का बिन्नू के लिए देख लिया था जो सुंदर, सुशील, सभ्य, पढ़ा-लिखा, खानदानी और गौरवर्ण था। ऐसी आलौकिक विशेषताओं से लैस लड़का आज बिन्नू को देखने आ रहा था, सो वे तैयार हो रही थीं। वर्ष में पाँच-छ: बार ऐसे अवसर आते थे जब बिन्नू को यूँ तैयार होना होता था। पिछले पाँच वर्षों से ऐसा ही चल रहा था। हर बार कोई सुशील, सभ्य, खानदानी, गौरवर्ण लड़का आता था, जिसके अनुमोदन हेतु बिन्नू तैयार होती थीं। बिन्नू तैयार होती थीं और वह सुंदर-सुशील, सभ्य लड़का अपने माँ-बाप अथवा चाचा-ताऊ-भानजे-भतीजे-मित्र-यार-लौंडे-लफाड़ी अर्थात कोई भी ऐसा, जिसके पास लड़के के साथ इस ‘प्लेज़र-ट्रिप’ पर आने की फुरसत हो, उनके साथ आता था, बिन्नू को मटकी की भाँति जाँचता-परखता था और फिर अदृश्य हो जाता था।

हर बार नई आशा के साथ बिन्नू को तैयार किया जाता था, बैठक की टूटी कुर्सियों को पड़ोस से माँगे सोफे से बदला जाता था, बिन्नू के लिए गुलाबी साड़ी निकाली जाती थी, जिसके विषय में परिवार में आम सहमति यह थी कि बिन्नू उस साड़ी में तथा उससे मैचिंग ब्लाउज में, जिसकी बाँहों में फुग्गे या गर्दन पर काँच का काम था, सुंदर दिखती थीं। उस दिन बिन्नू को अनुमति दी जाती थी, बल्कि उनसे कहा जाता था कि वे ‘क्रीम-पोडर’ लगा लें, जो कि, अन्यथा, अन्य रूटीन दिनों में लगा लेने पर अपराध माना जाता था और जिसे करते पकड़े जाने पर अम्माँ कहा करती थीं कि बड़ी फैशन-पट्टी न करो बिन्नू, नाक न कटा देना बिरादरी में। यह राय भी आम थी कि क्रीम-पाउड़र लगाने से खाल खराब हो जाती है, बिरादरी में नाक कट सकती है और अच्छी तरह से चोटी गूँथकर बाल काढ़ने से लड़की आवारा हो सकती है। यह बात और है कि ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद बिन्नू प्राय: सुंदर-सी चोटी बनाकर शेष सिंगार-पट्टी भी कर ही लिया करती थीं और इसके बावजूद उनकी खाल खराब नहीं हुई थी, वरन ऐसी मारक तथा कांतिपूर्ण निकल रही थी कि रम्मू उन्हें अँधेरे उजाले में दबोचने की सफल कोशिश के प्रति आशान्वित तथा कटिबद्ध थे। रम्मू पड़ोस के गुरुचरन बनिए की इकलौती संतान थे।

बिन्नू तैयार होते हुए एक भजन गाने की भी (गुनगुनाकर) प्रैक्टिस करती जा रही थीं। प्राय: हर दफे ही ‘लड़का-पार्टी’ के समक्ष बिन्नू से मामाजी एक भजन गाने की गुजारिश किया करते थे। वे उन्हें बताते कि लड़की को गाने का, विशेष तौर पर भजन इत्यादि धार्मिक गीत गाने का शौक है और ईश्वर ने मीठा गला दिया है। बिन्नू अच्छा गा लिया करती थीं अर्थात् बिना बेसुरा हुए वे मूल धुन के आसपास गा लेती थीं। वैसे शौक उन्हें फिल्मी गानों का था, जो वे अकेले में, विशेष तौर पर अटारी पर जब अकेली हों, तब गाया करती थीं। रम्मू अपनी छत से इन गानों को सुनते थे। उन पर इन गानों का, खासकर इनमें गचागच भरे हरजाई, जुदाई, पराई, मिलन, अँधियारी रात, खटिया, तकिया, रतिया, बँहिया, कँगना, अँगना, जोबन इत्यादि वाजिब शब्दों का वाजिब ही असर पड़ता था और इसी के चलते वे बिन्नू को कभी-न-कभी
भी दबोचने के एकसत्री कार्यक्रम के प्रति और भी कटिबद्ध हुए जा रहे थे। वैसे इस समय जो भजननुमा गीत बिन्नू के होठों पर था, उसके बोल कुछ यूँ थे कि मेरी पत राखो गिरधारी मैं, दुखिया सरन तिहारी। भजन के मार्मिक बोलों के माध्यम से यह आशा की जा रही थी कि गिरधारी जो कुछ देर में ताँग पर हिचकोले खाते यहाँ इस दुखिया को देखने आनेवाले थे, वे पड़ोसी के सोफे, गुलाबी साड़ी (साथ में फुग्गेदार बाँहों का मैचिंग ब्लाउज) तथा भजन के ऐसे कातर आह्नान के मिले-जुले कॉकटेल के नशे के असर में बिन्नू को पसंद कर लेंगे।

यहाँ बिन्नू के विषय में यह विचार किसी के नादान मन में आ सकता है कि उनकों इस प्रकार बार-बार सज-धजकर, लगभग नुमाइश-सी सजाकर भावी वरों के समक्ष हर बार यूँ पेश किए जाने पर गुस्सा आता होगा, या कम-से-कम, वे निराश या गहन उदासी में तो डूबती ही होंगी। परंतु ऐसा नहीं था। बिन्नू इस सारे, दारुण नाटक को लड़की के रूप में पैदा होने के साथ जुड़ी नियति का अनिवार्य हिस्सा मानती थीं। उन्होंने बचपन से ही अपने परिवार तथा पास-पड़ोस में बड़ी होती लड़कियों को इसी तरह, यही सब करते देखा था। बल्कि सही बात तो यह थी कि जवानी के के आगमन के साथ शुरू होनेवाले सपनों में बिन्नू ने यह दृश्य ‘रीवाइंड’ करके बार-बार देखा था, यहाँ वे हाथ में चाय की ट्रे उठाए लड़केवालों की खब्बू-टीम को चाय दे रही होती थीं, या फिर कोई ताँगा गली में रुकता था और वे पाती थीं कि उनके सपनों का राजकुमार, उनके घर के ऐन सामने बह रही नाली से अपने चरणों को बचाता हुआ ताँगे से नीचे उतर रहा है, या कोई राजकुमार उनके सजे हुए ड्राइंग रूम में उनसे चाय स्वीकारते हुए चोरी से उनका हाथ छू लेता है। एक दृश्य में तो अम्माँ बौराई-सी भागकर आँगन में प्रवेश करती थीं तथा चिल्लाकर सभी को बताती थीं कि लड़केवालों ने बिन्नू को पसंद कर लिया है। ऐसे सपनों के साथ तेजी से जवान होती बिन्नू के प्राय: सपने साकार भी हुए, बस आखिरीवाले को छोड़कर, अर्थात् अम्माँ को ऐसा चिल्लाने का अवसर कभी नहीं मिला, वरना तो उन्हें देखने हजारों लड़के आए और लगभग हर स्वप्न साकार कर गए।

बिन्नू फिर भी सपनें देखा करती थीं और सपनों से थकी नहीं थीं। फिर कोई लड़का उन्हें देखने आ रहा है, यह बात बिन्नू को बड़ी तसल्ली देती थी। क्योंकि उन्होंने बहुत से घरों बहुत-सी बिन्नुओं को देखा था, जिन्हें अब देखने तक को लड़को ने आना बंद कर दिया था, अथवा जिनके माँ-बाप ने थककर रिश्ते खोजना बंद करके भाग्य पर रोना तथा लड़की के नाम को कोसना शुरू कर दिया था। अम्माँ बिन्नू को नहीं कोसती थीं। एक आशा थी, जो बिन्नू तथा अम्माँ के हृदय में हमेशा ही जगी हुई थी और उसे जगाए रखने का कार्य लल्लन मामा करते थे।

बिल्लू लल्लन मामा की कृतज्ञ थीं। लल्लन मामा रेलवे के रिटायर्ड मुलाजिम थे और बिरादरी के लड़के-लड़कियों की शादियाँ लगवाना ही उनके जीवन का उद्देश्य रह गया था। परिवार में खैर तो सभी की शादियाँ उन्हीं ने तय करवाई थीं, ऐसा उनका दावा था। इस कार्य में भारतीय रेल ने उनकी पूरी सेवा की थी। भूतपूर्व रेलवे कर्मचारी की हैसियत से वे हमेशा ही बिना टिकट इस पर चढ़ते-उतरते रहते थे। रेल अपने बाप की मानते थे वे। अप-डाउन, सभी गाड़ियाँ उनकी थीं। वे किसी भी अप में चढ़ जाएँ और किसी भी डाउन से वापस आ जाएँ। न आएँ तो रिटायरिंग रूम में सो जाएँ। वे चाहे अलीपुरा पहुँच जाते। साथ में टीन की पेटी, जिसमें असली जंत्री, जादू की किताब, मंत्र-तंत्र के पुराने पीले पन्नों वाले ग्रंथ, ‘मनोहर कहानियाँ’ का नवीनतम अंक, ‘जासूसी दुनिया’ की प्रति तथा ‘असली कोकशास्त्र’ इत्यादि के अलावा कई बंड़लों में लिपटी हुई, बिरादरी के विवाह योग्य लड़के-लड़कियों की जन्मपत्रियों का खजाना रहता है।

साथ ही एक मोटी जिल्दवाली पुरानी डायरी, जिसमें शादी-ब्याह के लायक ‘घरों’ का पता, हैसियत, माँग इत्यादि का विस्तार से विवरण रहता है। बात-बात में पेटी खोलते तथा किसी से दस मिनट भी बात हो जाए, तो तुरंत नाम-पता आदि डायरी में नोट कर लेते तथा वायदा करते कि किसी दिन मिलने अवश्य आएँगे, और रेल की मेहरबानी से पहुँचते भी। लल्लन मामा आठ-दस दिन में एक बार अलीपुरा पहुँच ही जाते। हर बार एक नया रिश्ता बिन्नू के लिए तलाशकर। भानजी को ठिकाने से लगा सकें, तो फिर चार-चार भानजे भी कुँवारे बैठे हुए हैं। उनकी भी शादी सही-शाट फिट करनी है। लल्लन मामाजी विधवा बहन के प्रति अपनी जिम्मेदारियों के प्रति पूरे सजग और समर्पित थे। बिन्नू के हाथ पीले हों तो बहन की छाती का बोझ कम हो, इसी चक्कर में न जाने कब से लल्लन भारतीय रेल की छाती पर सवार होकर, बुंदेलखंड़ में यहाँ से वहाँ कुंडलियाँ मिलाते, दहेज पर मोल-भाव करते, अपने स्वर्गीय जीजाजी तथा उनके बाद शेष रहे नदार खानदान की दिव्य पताका लहराते घूम रहे हैं, परंतु सही ‘सेटिंग’ जम नहीं पा रही। खटके दो हैं- एक तो बिन्नू का रंग थोड़ा दबा है, बल्कि निष्पक्ष आकलन तो यही है कि लड़की काली है। दूसरा खटक रहा था कि बिना बाप के ये लौंड़े अपनी बहन के लिए कितना दहेज दे पाँएगे- इस बात पर हर लड़केवाले को संदेह ही रहता था।
खैर, जो भी हो, बिन्नू पुन: तैयार हो रही हैं।

बिन्नू गुनगुनाती हुईं, आशा तथा स्वप्न में डूबती-उतराती हुईं तैयार हो रही थीं। करीने से बाल सँवारकर तथा तत्कालीन लोकप्रिय फैशन के तहत आगे के बालों की लट को छल्लेनुमा आकार देकर बेतरतीबी-भरी तरतीब से माथे पर जमाकर, सस्ती-सी क्रीम चेहरे पर पोतकर तथा अम्माँ की दी हुई सोने की बालियाँ तथा जंजीर गले में डालकर जब वे गुलाबी साड़ी की ‘प्लीटें’ बनाकर पतली कमर में खोंस ही रही थीं कि तभी दरवाजे की साँकल बजी।
‘‘जल्दी निकरो, बिन्नू।’’ बाहर से लल्ला ने पुकारा।
‘‘तनिक झट्टी करो, कितनी अबेर कर रही हो।’’ लल्ला ने चिल्लाकर आह्नान किया।
‘‘बस, हम निकले।’’ बिन्नू ने कहा।

परंतु, अभी वे क्या निकलतीं ! सजावट का एक लंबा कर्मकांड अभी बकाया था।
बिन्नू ने जब तैयार होना शुरू किया था, उससे कुछ घंटों पूर्व की बात है अर्थात बिन्नू-दिखवाई के दिन ही ऐन सुबह की बात। सूरज निकला। रात-भर मच्छरों से कट-कटाकर तथा पसीने, खुजली और बार-बार उठकर छत पर ही बनी गंघाती मोरी में पेशाब कर-करके उमस-भरी गर्मी की रात बिताकर लल्लन मामा जब अटारी से उतरे तब तक गरमी की तीखी धूप आँगन में उतर आई थी। रात के जूठे बर्तन आँगन के एक कोने में बनी मोरी पर भिनक रहे थे। मक्खियाँ मोरी, बर्तनों तथा अन्यान्य स्थानों पर उड़-बैठकर भिन-भिन कर रही थीं। आँगन के बीच स्थित तुलसीघरा में अर्पित पानी बहकर आस-पास के कच्चे आँगन में कीचड़ मचा गया था। आँगन में ही पड़ी ढ़ीली अदवाइन की खाट पर एक कसरती बदन वाला नौजवान, मात्र एक चड्ढ़ी धारण किए, दरी बिछाए अभी भी सो रहा था तथा अम्माँ की अनवरत गालियाँ तथा धक्के खाकर भी नहीं उठ रहा था, यह मामाजी का सबसे छोटा भानजा लल्ला था। आँगन की कच्ची जमीन पर, गोबर की लिपी यहाँ-वहाँ उखड़ रही सतह पर, आलथी-पालथी मारकर बैठे मामाजी के दूसरे भानजे अर्थात चंदू इस समय काँच के एक चीकट गिलास में चाय पी रहे थे और साथ ही रात की बची ढेर-सी बासी रोटियों पर अचार सजाकर नाश्ता भी किए चले जा रहे थे। बड़ेवाले भानजे उर्फ गुच्चन, बाल्टियों में बाहर से पानी ला-लाकर अंदर आँगन में ही बनी टूटी-फूटी हौदी में तथा बड़े-बड़े भीमकाय, पुश्तैनी पीतल के हंड़ों-भगोनों-कलसियों में भर रहे थे।

अंदर किसी कमरे में ऊँची आवाज में रेड़ियों बज रहा था, जिसके साथ उतने ही ऊँचे स्वर में मिलाकर जो गा रहे थे, वे लल्लन मामजी के चौथे भानजे थे-छुट्टन। यह नाम उन्हें अपने अपेक्षाकृत नाटे कद के कारण मिला था। छुट्टन को जब बीड़ी की तलब होती थी, तो वे अंदर रेड़ियों सुनने के बहाने घुस जाते थे। अभी उन्हें पाखाने जाना था, जिसके पूर्व बीड़ी पीना नीतांत आवश्यक था। सो छुट्टन अंदर के इस कमरे में थे। लल्लन मामा के अंदर रेड़ियों बजता सुना तो जान गए कि बीड़ी किस दिशा में सुलगी हुई है। वे अटारी से आँगन में उतरे तो बिना रुके ही उस संगीत-कक्ष में पहुँच गए, जहाँ छुट्टन अजीब कौशल के साथ बीड़ी भी पिए जा रहे थे और गाना भी गा रहे थे। एक ही मुँह और गले के दो मोर्चों पर दताए छुट्टन ने मामाजी को देखा मात्र औपचारिक सम्मान के तौर पर, सींक की आड़-सी करते हुए बीड़ीवाली हथेली को चप्पू-सा बनाकर बीड़ी को पेशीदी कर लिया और इस प्रकार बुजुर्गों का लिहाज करने में वे किसी से कम नहीं हैं, यह प्रदर्शित करते हुए कहा कि मामाजी, गाना सुनिए, बढ़ियावाला है, फिल्म प्रोफेसर का। मामाजी ने संगीत के प्रति रुचि न दिखाते हुए सीधे ही मुद्दे की बात पर आते हुए फुसफुसाते हुए, परंतु फिर भी गाने के शोर के ऊपर अपनी बात सुनाते हुए पूछा कि बंड़ल में एकाध बीड़ी और बची है या नहीं ? छुट्टन ने तुरंत अपनी सद्य:सुलगाई बीड़ी को हथेली की ओट से निकालकर मामाजी की सेवा में पेश करते हुए दिलदार अंदाज में कहा कि यह ले जाइए, पर टट्टी से जल्दी निकल आइएगी क्योंकि बीड़ी पी लेने के बाद हमें भी रुकने में मुश्किल ही होगी।

लल्लन मामाजी ने बीड़ी हथियाकर पाखाने की तरफ जाते-जाते हिदायत दी कि बिन्नू को देखनेवाले आएँगे, तो बरफ लगेगी शरबत में, सो जाकर लेते आना और बोरे में लपेटकर सहेज रखना। इसके उत्तर में छुट्टन ने कहा कि कोने का कनछेदी पानवाला उनका यार है, जो यही काम किया करता है और वह लाकर रख भी चुका है। तब मामाजी ने जाते-जाते रुककर, पेट पर हाथ फेरते हुए राय दी कि ये स्साले तँबोली किसी के सगे नहीं होते और फिर पूछा कि कहीं यह कनछेदी वही हरामी तो नहीं, जिस पर अपने बाप के कत्ल का मुकदमा चल रहा है ? तब छुटंके ने बुरा मानते हुए कहा कि मामाजी, आदमी की समझ हमें भी है और उसका बाप कत्ल करने के लायक ही था और बरफ की चंता आप न करें और आप तो टट्टी हो आएँ और फिर अम्माँ से मिल लें, जो बिन्नू और तालबेंहटवालों की कुंडली मिलने-न-मिलने की कुछ बात कर रही थीं।

मामाजी रुक गए और मुसकुराकर बोले कि इन स्साले तालबेंहटियों का तो ऐसा है कि न तो इनका ही भरोसा है, न इनकी कुंडली का। फिर आगे वे गर्वपूर्वक और बदशाही-भरे स्वर में बोले, पर हम उनके भी बाप हैं। हमने लड़के की कुंडली देखकर बिन्नू की हू-ब-हू वैसी ही कुंडली बनवा ली है और कठिन कार्य पंडित राधे गुरुजी दस रुपए लेकर किया करता हैं परंतु हमसे उन्होंने मात्र पाँच रुपए ही लिए। छुट्टन ने मामाजी की चालाकी का अभिनंनद करते हुए कहा कि जब तक आप जैसे बुर्जुग की छाया हमारे सिर पर है, तब तक हम हजारों तालबेंहटियों के टंट-फोर उठा देंगे। यह सुनकर मामाजी ने गर्वपूर्वक, भानजे द्वारा दी गई बीड़ी को जोर से खींचकर सुट्टा मारा और फिर इस क्रिया की प्रतिक्रियास्वरूप देर तक खों-खों करके ढ़ेर सारा बलगम वहीं कोने में थूककर कहा कि हमने तो भैया, इन तालबेंहटवालों को कानी लड़की भी साबुत बताकर टिपाई है, अगर तुम्हें अपने गोपी चाचा की कन्या की याद हो जिसे बचपन में आँख में फूली पड़ गई थी ?

इसी बीच छुट्टन ने, वहीं कोने में पड़ी पेटी में ठुँसे फटे-पुराने कपड़ों में छुपाकर रखे बंडल से नई बीड़ी निकालकर सुलगा ली थी। छुट्टन ने बीड़ी के धुएँ का छल्ला बनाकर हवा में फेंकते हुए और इस प्रकार की नई पीढ़ी को बीड़ी पीने के मामले में भी अग्रणी सिद्ध करते हुए कहा है कि वह तो ठीक है मामाजी परंतु इन तालबेंहटवालों को चूतिया मत समझ लीजिएगा, ये सुसरे चूतियाटिक चेहरा बनाकर दुनिया को बेवकूफ बनाया करते हैं और आप ने वह कहानी तो सुनी ही होगी कि ‘बाई की टेंट देखियो भ्याने ?’

इस कहानी का उल्लेख करना मामजी का अपमान करने जैसा था क्योंकि वे ऐसी बहुत-सी कथाओं के प्रणेता, लेखक, रचयिता तथा नायक रहे थे, सो ऐसी कहानियाँ उन्हें खूब पता थीं। परंतु जब जिक्र आया ही है तो पाठकों को संक्षेप में यह कथा बताने का मोह हो रहा है ताकि पाठक जान सकें कि किन चरित्रों से पाला पड़ा है।
कथा कुछ यूँ है-
दरअसल एक लड़का कुबड़ा था और अच्छी कन्या से अच्छा दहेज लेकर शादी करने की स्वाभाविक इच्छा के कारण परेशान था। घरवाले भी परेशान थे, पर दहेज तथा सुंदर लड़की के साथ कूबड़ का सुखद संयोग नहीं हो पा रहा था। तब, जैसा कि बुंदेल खंड़ में रिवाज था, या कहें कि लाखों बार आजमाया अचूक नुस्खा था, उसे अपनाते हुए, उन्होंने लड़कीवालों के समक्ष असली माल पेश न करते हुए एक अन्य स्वस्थ लड़का दिखला दिया, जिसे लड़कीवालों ने ऊँचा दहेज देने की हामी भरते हुए पसंद कर लिया।

यह हुआ कहानी का एक हिस्सा।
कहानी का दूसरा हिस्सा यह रहा कि दूसरे एक गाँव में एक सज्जन की सुपुत्री कानी तथा ऐंचकतानी थी तथा वे ऊँचा दहेज देने का संकल्प करके भी कोई लड़का शादी के लिए नहीं फँसा पा रहे थे। तब उन्होंने भी, अपने इलाके के इसी अचूक नुस्खे को आजमाया और लड़केवालों को लड़की की फुआ की सुंदर लड़की दिखाकर फाँस लिया।


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