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दूसरी परम्परा की खोज

नामवर सिंह

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3169
आईएसबीएन :9788126715916

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यह सहज रचना एक सुपरिचित आलोचक के कृति-व्यक्तित्व का अभिनव परिचयपत्र है।

doosri parampara ki khoj Namvar Singh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दूसरी परम्परा की खोज आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के माध्यम से भारतीय संस्कृति और साहित्य की उस लोकोन्मुखी क्रान्तिकारी परम्परा को खोजने का सर्जनात्मक प्रयास है जो कबीर के विद्रोह के साथ ही सूरदास के माधुर्य और कालिदास के लालित्य से रंगारंग है। आठ अध्यायों की इस अष्टाध्यायी के प्रत्येक अध्याय का प्रस्थान-बिन्दु आचार्य द्विवेदी की कोई-न-कोई कृति है, किन्तु यह उपन्यास न तो उन कृतियों की व्याख्या-मात्र है, न उनके मूल्यांकन का प्रयास ही; बल्कि उनके द्वारा उस मौलिक इतिहास-दृष्टि के उन्मेष को पकड़ने की कोशिश की गयी है जिसके आलोक में समूची परम्परा एक नए अर्थ के साथ उद्भासित हो उठती है। अन्ततः इस कृति से एक ऐसा व्यक्तित्व उभरता है जो अपनी सहजता में मोहक है; अपने संघर्ष और पराजय में भी गरिमामय है और अपनी मानव-आस्था में परम्परा के सर्वोत्म मूल्यों का साक्षात् विग्रह है-कुटज के समान साधारण होते हुए भी मनस्वी और देवदारु के समान मस्ती से झूमते हुए भी अभिजात तथा अपनी ऊँचाई में एकाकी।

आलोचना कितनी सर्जनात्मक हो सकती है, इस कृति की प्रच्छन्न भाषा-शैली जैसे उसका एक प्रीतिकर उदाहरण है। नामवरजी की यह कृति द्विवेदीजी के इस कथन को पूरी तरह चरितार्थ करती है कि पण्डिताई जब जीवन का अंग बन जाती है तो सहज हो जाती है और तब वह बोझ भी नहीं रहती। यह सहज रचना एक सुपरिचित आलोचक के कृति-व्यक्तित्व का अभिनव परिचयपत्र है।

 

भूमिका

 

 

परम्परा के समान ही खोज भी एक गतिशील प्रकिया है। फिर भी इस यात्रा में पड़ाव आते हैं। यह पड़ाव, दुर्भाग्य से, तभी आया, जब पण्डितजी न रहे। यह छोटी-सी पुस्तक उस पड़ाव का अनुचिन्तन है। इसमें न पण्डितजी की कृतियों की आलोचना है, न मूल्यांकन का प्रयास। अगर कुछ है तो बदल देनेवाली उस दृष्टि के उन्मेष की खोज, जिसमें एक तेजस्वी परम्परा बिजली की तरह कौंध गयी थी। उस कौंध को अपने अन्दर से गुजरते हुए जिस तरह मैंने महसूस किया उसी को पकड़ने की कोशिश की है। सफल कहाँ तक हो सका। इसका उत्तर ‘परम्परा की दूसरी खोज’ ही देगी। सम्भव है, इसमें मेरी अपनी खोज भी मिल जाय !

कोशिश यही रही है कि न किंचित् अमूल लिखा जाय, न अनपेक्षित। वैसे स्वयं पण्डितजी ने ‘मेघदूत’ की टीका में मल्लिनाख को प्रमाण करके इस आदर्श में थोड़ी-सी छूट स्वयं ले ली थी। वे समर्थ थे। यह छूट लेने की धृष्टता मैं नहीं कर सकता था। सो, कुछ ‘अनपेक्षित’ भले ही आ गया हो, ‘अमूल’ अपने जाने नहीं कहा है। इसीलिए कदम-कदम पर उद्वरण देने पड़े हैं। उद्वरणों की बहुलता से प्रवाह में शायद बाधा पड़ी है। पर प्रमाण के लिए प्रवाह का त्याग क्षम्य होना चाहिए। कहते हैं वाल्टर बेन्यामिन एक पुस्तक सिर्फ उद्वरणों की ही लिखना चाहते थे। काश, मैं ऐसा कर पाया होता !

‘अनापेक्षित प्रसंग वे कहे जा सकते हैं जहाँ अन्य विद्वानों की आलोचना है। लेकिन उनके बिना द्विवेदीजी के वैचारिक संघर्ष का सन्दर्भ अस्पष्ट और अमूर्त रह जाता। इसलिए शिष्टता पर स्पष्टता को तरजीह क्षम्य होनी चाहिए। कहने की आवश्यकता नहीं कि पूर्वपक्ष के ऋषि कुछ कम पूज्य नहीं है-यह एहसास मुझमें है। जानता हूँ, पण्डितजी ऐसी नाजुक स्थिति बड़ी खूबी से निबाह ले जाते थे। इस विषय में मेरे ही लिए नहीं, किसी के लिए भी वे अनुकरणीय हैं।

शायद यह स्पष्ट करना जरूरी हो कि यह प्रयास परम्परा की खोज का ही है। सम्प्रदाय-निर्माण का नहीं। पण्डितजी स्वयं सम्प्रदाय-निर्माण के विरुद्ध थे। यदि ‘‘सम्प्रदाय का मूल अर्थ है गुरु-परम्परा से प्राप्त आचार-विचारों का संरक्षण’’, तो पण्डितजी के विचारों के अविकृत संरक्षण के लिए मेरी क्या, ‘किसी की भी आवश्यकता नहीं है। जो परम्परा पीढ़ियों से चलकर स्वयं पण्डितजी तक आते-आते बदल चुकी थी और स्वयं पण्डितजी के हाथों कट-छँटकर और बन गयी वह स्वयं मेरे प्रयास में कट-छँटकर कुछ और न हो जायेगी इसका दावा कैसे किया जा सकता है ? जाहिर है कि यह सम्प्रदाय निर्माण का ढंग नहीं है।

वे आकाशधर्मी गुरु थे, हर पौधे को बढ़ने के लिए उन्मुक्तता देने के विश्वासी। यह उन्मुक्कतता ही उनकी परम्परा का मूल स्वर है। लेकिन यह उन्मुक्तता जितनी सहज दिखती है उसे समझ पाना उतना सहज नहीं है। अपनी ओर से इसे समझाने में उन्होंने कोई कसर न छोड़ी। पर ‘समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत।’ यह बात तब की है जब 1950 में वे शान्तिनिकेतन से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी के आचार्य होकर आये और एम. ए. अन्तिम वर्ष के छात्र के रूप में मुझे उनके चरणों में बैठकर कुछ सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मेरा ‘सूकरखेत’ काशी ही था। अभिधा में भी। पूरी तरह सचेत होने का दावा तो अब भी नहीं है। पर खोज के दौरान ऐसे क्षण अक्सर आये जब जी में कचोट उठी कि क्यों नहीं पण्डितजी से पहले ही पूछ लिया। याद आया, व्योमकेश शास्त्री के मन में भी ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की दीदी से पूछ लेने की ऐसी ही कचोट उठी थी। पर ‘‘जीवन में जो भूल एक बार हो जाती है वह हो ही जाती है।’’ यहाँ भी वे अपना रास्ता आप खोजने के लिए उन्मुक्त छोड़ गये !

परम्परा के रूप में वे मिले तो अनायास ही, लेकिन लगा कि उन्हें पाने की लिए आयास जरूरी है। यह खोज तभी शुरू हुई थी। पूरी तो आज भी कहाँ हुई, फिर भी विद्वानों के सम्मुख आज उस खोज की अन्तरिम रिपोर्ट पेश करते हुए मन थोड़ा हलका लग रहा है। आशा है, यह पाठकों के लिए भार न होगा। पढ़नेवाले देखेंगे कि पूर्वप्रकाशित लेख इस पुस्तक में सम्मिलित नहीं हैं उनके कुछ विचार भले ही आ गये हों।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
नई दिल्ली, 19 जून’ 82

 

नामवर सिंह

 

1
दूसरी परम्परा की खोज

 

 

1930 की 7 नवम्बर को पण्डितजी शान्तिनिकेतन पहुँचे और 8 नवम्बर उन्होंने अध्यापन कार्य शुरू किया। इसे वे द्विजत्व-प्राप्ति का दिन कहते थे। वैसे, द्विज तो वे पहले से ही थे। उपनयन संस्कार हुआ ही होगा। लेकिन अपना दूसरा जन्म वे शान्तिनिकेतन पहुँचने के दिन को ही मानते थे। जन्मदिन मनाते तो उन्हें कभी देखा नहीं गया। लेकिन द्विजत्व प्राप्ति का दिन वे बड़ी निष्ठा से मनाते थे। किस अर्थ में यह द्विजत्व प्राप्ति थी, इसका कुछ अन्दाजा एक घटना से लग सकता है। शान्तिनिकेतन में एक विधवा अपनी कन्या का विवाह हिन्दू विधि से करना चाहती थी। किसी ने कह दिया कि नान्दी श्राद्ध विधवा नहीं कर सकती। गुरुदेव ने नये-नये आये काशी के ज्योतिषाचार्य पण्डित हजारीप्रसाद द्विवेदी को बुलवा भेजा। पूछा, ‘हिन्दुओं का हजारों वर्ष का इतिहास है, क्या उसमें पहली बार यह घटना हो रही है ? पहले भी तो कभी ऐसी स्थिति आयी होगी ?’ पण्डितजी घर आये। स्मृति ग्रन्थों की छानबीन की। देखा कि पूर्वपक्ष में ऐसे बहुत से वचन हैं जो विधवा के इस अधिकार को स्वीकार करते हैं। लेकिन वचनों की संगति लगाते समय निष्कर्ष रूप में यही कहा गया है कि विधवा को ऐसा अधिकार नहीं है। जाकर गुरुदेव को बताया तो हँसकर बोले, ‘‘क्या पूर्वपक्ष के वे ऋषि कुछ कम पूज्य हैं, जिनका खण्डन उत्तरपक्ष में किया गया है ?’ इस प्रश्न ने पण्डितजी को झकझोर दिया। परम्परा क्या उत्तरपक्ष की है ? पूर्वपक्ष नहीं ? जिस परम्परा को अब तक वे अखण्ड समझते आ रहे थे, देखते देखते शिवधनुष के समान खण्ड-खण्ड हो गयी। लगा कि परम्परा और भी हो सकती है। एक तरह से यह इतिहास बोध का उदय था।

इसके बाद तो शान्तिनिकेतन में रहते हुए अपनी परम्परा के बारे में धीर-धीरे और भी बहुत सी नयी बातें मालूम हुईं। शान्तिनिकेतन न आते तो शायद रवीन्द्रनाथ के प्रसिद्ध निबन्ध ‘भारतवर्ष में इतिहास की धारा’ (1912) पर दृष्टि न पड़ती। उस निबन्ध में ऐसी अनेक स्थापनाएँ हैं जिनका पल्लवन द्विवेदीजी की कृतियों में मिलता है। एक स्थापना तो यही है :‘‘किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि अनार्यों ने हमें कुछ नहीं दिया। वास्तव में प्राचीन द्रविड़ लोग सभ्यता की दृष्टि से हीन नहीं थे। उनके यहयोग से हिन्दू सभ्यता को रूप-वैचित्र्य और रस गम्भीर्य मिला। द्रविड़ तत्त्वज्ञानी नहीं थे। पर उनके पास कल्पना शक्ति थी, वे संगीत और वास्तुकला में कुशल थे। सभी कला-विद्याओं में वे निपुण थे।’’ द्विवेदीजी ने इस रास्ते चलकर गन्धर्वों यक्षों और नागों जैसी आर्येतर जातियों के कलात्मक अवदान की खोज की।

रवीन्द्रनाथ की ही यह धारणा थी कि ‘‘वैष्णव धर्म में एक ओर भगवद्गीता का विशुद्ध, उच्च धर्मतत्त्व है तो दूसरी ओर अनार्य ग्वालों में प्रचलित देव लीला की विचित्र कहानियाँ भी उसमें सम्मिलित हैं।....वैष्णव धर्म का आश्रय लेकर जो लोक-प्रचलित पौराणिक कथाएँ आर्य-समाज में प्रतिष्ठित हुई उनमें प्रेम, सौन्दर्य और यौवन की लीला है; प्रलय-पिनाक के स्थान पर बाँसुरी के स्वर हैं; भूत-प्रेत के स्थान पर वहाँ गोपियों का विलास है; वहाँ वृन्दावन का चिर-वसन्त और स्वर्ग लोक का चिर ऐश्वर्य है।...आभीर सम्प्रदाय प्रचलित कृष्णकथा वैष्णव धर्म में घुल मिल गयी।’’ द्विवेदीजी की प्रथम कृति सूर साहित्य का एक प्रेरणा-स्रोत यह भी है। सम्भवतः यही दिशा दृष्टि उन्हें आभीर भाषा अपभ्रंश की ओर ले गयी, जिस पर आगे चलकर उन्होंने काफी काम किया।

इसी प्रकार कबीर की ओर ध्यान आकृष्ट करनेवाले भी रवीन्द्रनाथ ही हैं। उसी निबन्ध में रवीन्द्रनाथ ने यह कहा था, ‘‘कबीर की जीवनी और रचनाओं में यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि उन्होंने भारत की समस्त बाह्य आवर्जना का अतिक्रमण करते हुए उसके अन्तःकरण की श्रेष्ठ सामग्री को ही सत्य साधना समझकर उपलब्ध किया था।....लोकाचार, शास्त्रविधि और अभ्यास के रुद्धद्वार पर आघात करके उन्होंने भारत को जगाने का प्रयास किया।’’ द्विवेदीजी का कबीर सिर्फ इतना ही नहीं है, किन्तु रवीन्द्रनाथ की यह प्रेरणा पूरे ग्रन्थ में अन्तर्घ्यनित है, इसे कहने की जरूरत नहीं है।
इसी प्रकार कालिदास के लालित्य में रुचि जाग्रत करने का श्रेय भी रवीन्द्र नाथ के लेखों को देना पड़ेगा।

इस प्रकार द्विवेदीजी को भारतीय संस्कृति और साहित्य की परम्परा रवीन्द्रनाथ के माध्यम से मिली। यह ऋण उन्होंने स्वयं ही बार-बार स्वीकार किया है। किन्तु ऐसा लगता है कि यह ऋण जितना है उससे अधिक मान लिया गया है। वैसे, इस शताब्दी का कौन उल्लेखनीय भारतीय लेखक है जो रवीन्द्रनाथ से कुछ-न-कुछ प्रेरित और प्रभावित नहीं है ? किन्तु इसके साथ यह भी सच है कि इस प्रेरणा और प्रभाव के रूप एक-से नहीं हैं। द्विवेदीजी ने कम-से-कम हिन्दी को रवीन्द्रनाथ की प्रेरणा से वह दिया जो उनसे पहले किसी ने न दिया था। मिसाल के लिए कबीर का क्रान्तिकारी रूप। छायावादी कवियों को रवीन्द्रनाथ में रहस्यवाद अधिक आकर्षक लगा था। शायद इसीलिए एक अरसे तक हिन्दी में कबीर के रहस्यवाद की ही चर्चा होती रही कबीर के माध्यम से जाति धर्म निरपेक्ष मानव की प्रतिष्ठा का श्रेय तो द्विवेदीजी को ही है। एक प्रकार से यह दूसरी परम्परा है।

शायद इसीलिए हिन्दी का एक अच्छा-खासा हिस्सा बहुत दिनों तक द्विवेदीजी को परम्परा बाह्य मानता रहा। सच कहें तो द्विवेदीजी उस तरह के हिन्दी वाले थे भी नहीं। शान्तिनिकेतन से उन्हें एक अखिल भारतीय व्यापक दृष्टि मिली थी-अखिल भारतीय भी और विश्व-व्यापक भी। इस व्यापकता का एक ठोस आधार था-भक्ति काव्य। भक्ति आन्दोलन के अनुशीलन के दौरान उन्होंने अनुभव किया कि ‘‘हमारी भाषा का पुराना साहित्य प्रान्तीय सीमाओं में बँधा नहीं है। आपको यदि हिन्दी साहित्य का अध्ययन करना है तो उसके पड़ोसी साहित्यों-बँगला, उड़िया मराठी, गुजराती नेपाली आदि के पुराने साहित्य-लिखित और अलिखित-को जाने बिना आप घाटे में रहेंगे। यही बात बँगला उड़िया, मराठी आदि के पुराने साहित्य के बारे में भी ठीक है। हमारे देश का सांस्कृतिक इतिहास इस मजबूती के साथ अदृश्य काल-विधाता के हाथों सी दिया गया है कि उसे प्रान्तीय सीमाओं में बाँधकर सोचा ही नहीं जा सकता। उसका एक टाँका काशी में मिल गया, तो दूसरा बंगाल में, तीसरा उड़ीसा में, और चौथा महाराष्ट्र में मिलेगा, और पाँचवाँ मालाबार या सीलोन में मिल जाय तो आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है।’’ (कल्पलता पृ. 198) इस प्रकार यह अखिल भारतीय दृष्टि अनुभव लब्ध थी, हवाई कल्पना मात्र नहीं।

विश्व दृष्टि स्वयं शान्तिनिकेतन के वातावरण में थी। जहाँ सिलवां लेवी, विण्टरनित्स जैसी यूरोपीय प्राच्यविद्याविद् और स्ट्रेला कैमरिश जैसी कला विद् अध्यापन और शोध कर चुके हों, वह आश्रम यदि विश्व एक नीड़ की कल्पना जगाये तो कोई आश्चर्य नहीं। किन्तु जैसे ही रवीन्द्रनाथ नामक ग्रन्थ के लेखक कृष्ण कृपालानी ने लिखा है, ‘‘इस चित्र-विचित्र मधुचक्र में भनभनाहट अधिक थी या शहद, यह कहना कठिन है। वातावरण निस्सन्देह स्फूर्तिप्रद था।’’ और महत्त्वपूर्ण वस्तु वह स्फूर्ति ही थी। संयोग से द्विवेदीजी के शान्तिनिकेतन पहुँचने के बाद अगले वर्ष ही 1931 में कवि सोवियत देश गये और वहाँ से लौटने पर रूस की चिट्ठी नामक पुस्तक प्रकाशित करवायी। रवीन्द्रनाथ की इस पुस्तक ने लेखकों और बुद्धिजीवियों में समाजवाद की नयी दुनिया के प्रति आकर्षण पैदा किया द्विवेदीजी इससे अप्रभावित रह गये हों, यह असम्भव है। हिन्दी प्रदेश से दूर रहते हुए भी प्रगतिशील साहित्य आन्दोलन की ओर उनके आकृष्ट होने का एक बड़ा कारण यह भी है।

इसके अतिरिक्त एक आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि भी शान्तिनिकेतन की देन मानी जा सकती है। द्विवेदीजी हिन्दी के उन थोड़े से लेखकों में हैं, जिन्होंने बहुत पहले इस सदी के चौथे दशक में ही भारत के लिए विज्ञान तथा वैज्ञानिक दृष्टि के महत्त्व को स्वीकार कर लिया था। निश्चय ही इस विषय में रवीन्द्रनाथ की प्रेरणा सबसे महत्त्वपूर्ण है। गांधीजी के विपरीत रवीन्द्रनाथ उस समय जिस प्रकार विज्ञान की हिमायत कर रहे थे, द्विवेदीजी द्वारा कवि के पक्ष की स्वीकृति उल्लेखनीय घटना है।

इसीलिए मानव की जय यात्रा की चर्चा में प्रकृति पर मानव की विजय का वर्णन करते हुए वे अक्सर अपने रक्त में अजीब झनझनाहट का अनुभव करते हैं और इस वर्णन में पुनरुक्ति से भी नहीं डरते। आधुनिक युग की वैज्ञानिक प्रगति द्विवेदीजी के लिए एक सूचना मात्र नहीं, बल्कि भावबोध को निर्मित करनेवाली सच्चाई है। इसीलिए आधुनिकता भी उनके लिए एक नया फैशन नहीं बल्कि भावबोध के स्तर की वस्तु है। काशी के एक संस्कृत पण्डित के लिए यह आधुनिकता बोध कितने गहरे अन्त-संघर्ष की प्रक्रिया रही होगी, इसका सिर्फ अन्दाज़ा ही लगाया जा सकता है। ‘‘वर्तमान के साथ अतीत की यह मुठभेड़ भारत के सन्दर्भ में और भी पेचीदा थी क्योंकि इसमें उपनिवेशवादी पश्चिम के साथ विजित पूर्व की मुठभेड़ भी शामिल थी। किन्तु यह देखकर प्रतिकार आश्चर्य होता है कि द्विवेदीजी की दृष्टि एक क्षण के लिए भी इस अन्त-संघर्ष में मोहासक्त नहीं हुई। वे स्पष्ट शब्दों में घोषणा करते हैं कि ‘‘आधुनिक युग के मानवतावाद के साथ मध्ययुग के उस मानवतावाद को घुला नहीं देना चाहिए जिसमें किसी-न-किसी रूप में यह स्वीकार किया गया था कि मनुष्य जन्म दुर्लभ है और भगवान अपनी सर्वोत्तम लीलाओं का विस्तार नर रूप धारण करके ही करते हैं। नवीन मानवतावाद की सबसे बड़ी बात है, उसकी ऐहिक दृष्टि और मनुष्य के मूल्य और महत्त्व की मर्यादा का बोध।’’ (विचार प्रवाह, पृ. 188) भक्ति काव्य के एक प्रेमी और प्रशंसक से सामान्यतः ऐसी बात सुनने की आशा नहीं की जाती ! पूर्व और पश्चिम इस मुठभेड़ में जहाँ की दृष्टि समूचे पश्चिम से मुड़कर पूर्वाभिमुख हो गयी, द्विवेदीजी वैसे ‘भारत-व्याकुल’ नहीं हुए। इसी प्रकार अतीत और वर्तमान की मुठभेड़ में भी उन्होंने अतीत में किसी प्रकार की सुरक्षा नहीं खोजी। इतिहास उनके लिए एक शव था और इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि इस शव साधना में उनकी दृष्टि के सम्मुख मनुष्य का भविष्य था। सम्भवतः इसका कारण है अपने लोक जीवन से उनका लगाव !

इस दृष्टि से द्विवेदीजी और निराला में अद्भुत समानता है। निराला के बारे में जैसा कि कहा गया है, बंगाल के सांस्कृतिक जागरण से प्रेरणा लेते हुए भी निराला अपने जनपद के लोक-जीवन से बहुत गहराई तक सम्बद्ध थे और उनके जीव और साहित्य के बहुत से क्रान्तिकारी स्रोत इस लोक जीवन से ही फूटे थे। इसी प्रकार द्विवेदीजी के जीवन और साहित्य का क्रान्तिकारी स्रोत स्वयं उनके अपने जनपद बलिया का लोक-जीवन है। असल पूँजी यही है, शान्तिनिकेतन ने उसे सिर्फ संस्कार दिया। ‘विचार और वितर्क’ के गतिशील चिन्तन’, ‘अशोक के फूल’ के ‘मेरी जन्मभूमि’ तथा ‘कल्पलता’ के ठाकुरजी की बटोर शीर्षक निबन्धों से द्विवेदीजी के अपने जनपदीय लगाव का कुछ अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। किन्तु उनकी जनपदीय पूँजी का पूरा-पूरा अहसास तो उनके उपन्यासों से होता है। बाणभट्ट की आत्मकथा का नायक भट्टिनी को स्थाणीश्वर से लेकर काशी जनपद से आगे पूर्व दिशा में जहाँ ले जाता है वह द्विवेदीजी की अपनी ही जन्मभूमि है। कहने की आवश्यकता नहीं कि राजधानी से निकलकर इस लोक भूमि में आते ही उपन्यास छोटे-छोटे जीवन्त चरित्रों से जगमगा उठता है और सौरभह्रद (सुरहाताल) के वर्णत्त में लेखक की लेखनी सजीव हो जाती है। इसी प्रकार ‘पुनर्नवा’ की मूल कथाभूमि तो स्वयं द्विवेदीजी के रूप में हल्दी हलद्वीप के रूप में आये हैं। आखिर लोरिक-चन्दा की कथाभूमि और हो ही क्या सकती है ? यदि इन दोनों उपन्यासों के जीवन्त चरित्रों पर दृष्टिपात करें तो भट्टनी भले ही शान्तिनिकेतनी हों, निउनिया तो ठेठ बलिया के आसपास से आने का ही आभास देती है। इसी प्रकार पुनर्नवा के सुमेर काका और चन्दा को भी पहचाना जा सकता है। कहने को तो यहाँ तक कहा जा सकता है कि द्विवेदीजी की कृतियों में जहाँ उच्छल भावुकता है उसे बंगाल की देन समझना चाहिए और जहाँ तेजस्विता है, वह उनके अपने जनपद की विभूति है।

इसी लोक जीवन की भूमि से द्विवेदीजी को हिन्दी की अपनी जातीय परम्परा का भावबोध विरासत में मिला। इस भावबोध का बहुत दिलचस्प ज्रिक बिचार और वितर्क’ (प्रथम संस्करण, 1945) में प्रकाशित प्रेमचन्द का महत्त्व’ शीर्षक लेख में आया है। लिखा है: ‘‘मेरे एक विनोदी मित्र ने एक दिन अचानक एक प्रश्न किया। कल्पना करो रवीन्द्रनाथ शरत्-चन्द्र और प्रेमचन्द तीनों ही परीक्षा हॉल में बैठे हैं। मैं प्रश्नकर्ता हूँ, तुम परीक्षक हो। तीनों को मैं एक-एक कहानी लिखने को देता हूँ। कहानी ऐसी हो जो रुला दे। पर परीक्षक को रोना हो या हँसना उसे बीस-बीस मिनट का समय दिया जायेगा। अब बताओ किसकी कहानी पढ़कर तुम कितनी देर रो सकते हो ? मैं मानता हूँ कि सवाल बेढंगा था और किसी भी समझदार आदमी को इसका उत्तर देने में हिचकाना चाहिए था। लेकिन मुझे तो निर्धारित समय के भीतर एक फैसला कर देना था। बोला : ‘रवीन्द्रनाथ की कहानी पढ़कर पाँच मिनट रोऊँगा, पन्द्रह मिनट सोचूँगा; शरत्-चन्द्र की कहानी पढ़कर सत्रह मिनट रोऊँगा, तीन मिनट सोचूँगा; और प्रेमचन्द्र की कहानी पढ़कर दस मिनट रोऊँगा, दस मिनट सोचूँगा।’ यह जवाब भी सवाल के समान ही बेढंगा था। पर इस बात में मेरा अनुभव तो कुछ-कुछ था ही। मैं स्वीकार करता हूँ कि वह सत्य  मेरा अपना होगा।’’

यह विनोद प्रसंग इसलिए उल्लेखनीय है कि प्रेमचन्द के माध्यम से द्विवेदी-जी ने एक प्रकार से हिन्दी जाति के भावबोध की उस विशेषता की ओर संकेत किया है जिसका मुख्य गुण भाव और विचार के बीच सन्तुलन है। द्विवेदीजी की यह धारणा इतनी बद्धमूल मालूम होती है कि अपनी पहली कृति ‘सूर साहित्य’ में जयदेव, विद्यापति और चण्डीदास की राधा के साथ सूरदार की राधा की तुलना करते हुए भी उन्होंने ऐसी ही स्थापना की है। जयदेव की राधा पूर्ण विलासवती प्रगल्भा हैं, विद्यापति की राधा ईषदुदि्भन्न यौवना हैं, चण्डीदास की राधा प्रेमोन्मादिनी हैं; किन्तु सूरदास की राधा पूर्ण नारी हैं-बाल प्रेम की चंचल लीलाओं से लेकर वियोग की आँच में तपे हुए सान्द्र-गाढ़ प्रेमवाली। द्विवेदीजी के अनुसार अपनी पूर्णता में सूरदास की राधा समूचे वैष्णव काव्य में अद्वितीय हैं। भावबोध के इस सन्तुलन की परम्परा, प्रसंगवश, द्विवेदीजी ने कालिदास और कबीर तक जोड़कर दिखलाने की कोशिश की है।

जरूरी नहीं कि द्विवेदीजी की इस मान्यता से सबकी सहमति हो ही। प्रासंगिक इतना ही है कि द्विवेदीजी शान्तिनिकेतन में रहते हुए भी हिन्दी की अपनी जातीय विशेषता के बारे में अत्यन्त सजग थे और अखिल भारतीय दृष्टि के बावजूद उस जातीय परम्परा का निरूपण ही उनका मुख्य लक्ष्य था।

प्रसंगवश इस भ्रम का निराकरण कर देना आवश्यक है कि द्विवेजीजी की विशेषता उनके संस्कृत-पाण्डित्य में थी। यह बात लगभग तुलसीदास जैसी है। तुलसीदास के समान ही द्विवेदीजी के संस्कृत-ज्ञान में भी पण्डितों ने अनेक छिद्र दिखाये हैं। स्वयं संस्कृत के पण्डितों के बारे में द्विवेदीजी की क्या धारणा थी, इसे ‘चारू चन्द्रलेख’ में धीर शर्मा के चरित्र में देखा जा सकता है, जो थे तो बड़े गम्भीर प्रकृति के विद्वान ‘‘परन्तु उनका बड़ा भारी दोष यह था कि हर बात के बाद एक श्लोक ठोंका करते थे और इन श्लोकों के जंगल में उनकी मूल बात प्रायः खो जाती थी।’’ इसलिए यह बात स्पष्ट रहनी चाहिए कि अपने कालिदास-प्रेम और बाणभट्ट-प्रेम के बावजूद द्विवेदीजी लेखक हिन्दी के ही हैं। वे संस्कृत पण्डित नहीं, हिन्दी लेखक हैं।

फिर भी यह विचित्र विरोधाभास है कि हिन्दी आलोचना की तात्कालिक परम्परा से द्विवेदीजी का सीधा सम्बन्ध नहीं है। उसकी पहली पुस्तक ‘सूर साहित्य’ देखने से नहीं लगता कि इसका लेखक शुक्लजी की ‘भ्रमरगीत सार’ की भूमिका से परिचित है, जबकि वह पुस्तक 1924 में ही द्विवेदीजी के काशी रहते निकल चुकी थी। ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ ‘सूर साहित्य’ की ही स्थापनाओं का व्यापक पटभूमि पर विकास है, जिसमें प्रसंगवश सूर और जायसी के विषय में शुक्लजी की मान्याताओं के सहमतिपरक उल्लेख और स्वयं आलोचक के रूप में शुक्लजी के महत्त्व की स्वीकृति के बावजूद उनकी भक्ति की उदय-सम्बन्धी धारणा के विपरीत अपनी मान्यता रखी गयी है। इसी क्रम में कबीर हिन्दी साहित्य की भूमिका के ही एक अंग का विस्तृत विवेचन और विकास है जिसमें शुक्लजी से भिन्न मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है। निश्चय ही हिन्दी साहित्य का आदिकाल भूमिका के ही दूसरे अंग का विस्तार है पर इसमें शुक्लजी की वीरगाथा सम्बन्धी ऐतिहासिक  मान्यता का स्पष्ट प्रत्याख्यान करते हुए कथानक- रूढ़ियों और काव्य रूपों के क्षेत्र में सर्वथा नयी बातें सामने रखी गयी हैं।
 
 

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