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सोचा न था

शोभा डे

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :276
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3177
आईएसबीएन :81-267-0310-5

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आधुनिक जीवन की विसंगतियों, आकर्षणों और सम्भावनाओं की लेखिका शोभा डे का सितारों की रातें के बाद हिन्दी में यह दूसरा उपन्यास।

Socha Na Tha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सोचा न था उदासी, ऊब, सपनों और सपनों के नामालूम ढंग से टूट जाने की कहानी है। इस उपन्यास में लेखिका ने एक अत्यन्त सामान्य कथानक के भीतर छिपी असामान्य उत्सुकताओं की खोज की है। माया, जो इस उपन्यास की मुख्य चरित्र है, देखती आँखों उसकी जिन्दगी में किसी तरह का कोई अभाव नहीं, कोई दुःख नहीं- सुन्दर, सुशिक्षित। कलकत्ता जैसे महानगर से मुम्बई जैसे महानगर में आई एक संस्कारवान बांग्ला बहू। एक आधुनिक गृहिणी। रंजन मलिक जैसे अमेरिका-पलट बैंक अधिकारी की बीवी। फिर भी माया के दाम्पत्य जीवन में वह कौन-सी कमी थी, जिसे पूरा करने के लिए वह निखिल जैसे युवक की ओर आकर्षित होती है ?

अंग्रेज़ी की बहुचर्चित कथाकार शोभा डे अपने इस उपन्यास में स्त्री-जीवन को इसी प्रकार से उठाती हैं। दाम्पत्य सम्बन्धों के व्यावहारिक पहलुओं और उसकी छोटी-बड़ी बारीकियों को खोलते हुए वे उक्त प्रश्न के सम्भावित उत्तर को भी संकेतित करती हैं। स्पष्टतया कहा जाए तो पति-पत्नी का सम्बन्ध मात्र सामाजिक, औपचारिक ही नहीं, वह एक गहन भावनात्मक और आत्मिक ज़िम्मेदारी भी है। इसका अभाव एक स्त्री को भटकाव का अवसर ही नहीं, तर्क भी देता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस तर्क को सामने रखते हुए शोभा डे न तो नारी-मनोविज्ञान को अनदेखा करती हैं और न ही हमारे मध्यवर्गीय ढोंग तथा महत्त्वाकांक्षाओं को। ऐसे में स्त्री हो या पुरुष, उसका पाना और खोना जैसे एक-दूसरे का पर्याय बन जाता है।

आधुनिक जीवन की विसंगतियों, आकर्षणों और सम्भावनाओं की लेखिका शोभा डे का सितारों की रातें के बाद हिन्दी में यह दूसरा उपन्यास है। एक सिद्धहस्त रचनाकार अपने चरित्रों का अंकन किस कुशलता से करता है, यह देखने के लिए इस उपन्यास को पढ़ा जाना अनिवार्य है। छोटे-छोटे, हाशिये पर रहने वाले पात्र भी आपको कहानी के भूगोल में अपने पूरे स्वायत्त व्यक्तित्व के साथ खड़े मिलेंगे।

प्राक्कथन

वह मुम्बई की एक उमस–भरी शाम थी, जब माया अपने होने वाले पति से मिली।
अपने ससुरालियों से मिलने वह उसी दिन कलकत्ता से यहाँ पहुँची थी। उसने इस शहर के बारे सुन रखा था, लेकिन आज पहली बार यहाँ आई थी। और बदकिस्मती से इस शहर की जो पहली छाप उसके मन पर पड़ी, वह अच्छी तो बिल्कुल नहीं थी। रेलगाड़ी के ठंडे, एयरकंडीशंड डब्बे से मशहूर विक्टोरिया टर्मिनल के एक विस्तृत, गीले प्लेटफार्म पर उतरते ही उसे महानगर की कुछ खास बातें देखने-समझने को मिलीं। यह वही महानगर था जिसका जादू पूरे हिन्दुस्तान के लोगों के सिर  चढ़कर बोलता है।

मुम्बई गन्धा रहा था। वैसे गन्धाता तो कलकत्ता भी है, लेकिन वह एक अलग किस्म की लगभग दुर्गन्ध होती थी; और फिर वह आदी भी हो चुकी थी। लेकिन मुम्बई शहर से तो हताशा और छल-कपट की दुर्गन्ध उठ रही थी, या हो सकता है यह सड़ी मछलियों का कमाल हो, जिनकी दुर्गन्ध इस शहर से हमेशा चिपटे रहने वाले धुएँ में जा मिली हो। माया ने अपनी नाक दबाते हुए गहरी साँस ली। वह निश्चित करना चाहती थी सम्भव है इस दुर्गन्ध को लेकर उससे भी कोई गलती हुई है। क्या पता यह दुर्गन्ध मुम्बई की न होकर केवल इस गन्दे लोगों के ठसाठस भरे प्लेटफॉर्म की हो।

माया ने जाँच के तौर पर कुछ कदम आगे बढ़ाए और  चौंककर पीछे हट गई। वह प्लेटफार्म पर मुँह के बल औंधी पड़ी एक आकृति से टकराते-टकराते बची। उसने नीचे नजर डाली। आकृति एक आदमी की थी, वह मर चुका था। वहाँ से आते-जाते हजारों लोगों में से एक ने भी रुककर उस लाश पर नजर डालने की कोशिश नहीं की थी। माया को अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ कि फटी-पुरानी लाल कमीजें पहने कुली होशियारी से उस मुर्दा आदमी को फाँदते चले जा रहे थे। बुरी तरह भरे कई-कई सूटकेसों को अपने सिरों पर लादे उन कुलियों की आँखें मारे बोझ के निकली पड़ रही थीं। माया ने अपनी माँ का ध्यान उस आदमी की तरफ खींचना चाहा, लेकिन चित्रा अपना सामान गिनने में इतनी मशगूल थी कि उसके पास उस चीकट प्लेटफार्म पर पड़ी लाश को देखने का समय ही नहीं था।

माया उस मुर्दा आदमी के थोड़ा और पास गई। देखा तो उसका मुंह खुला हुआ था और उसके एक किनारे पर उलटी की लकीर-सी खिंची हुई थी। उसकी आँखें भी बन्द थीं। ऐसा लग रहा था मानो वह उनसे शहतीरों पर नाचते कबूतरों को एक टक ताक रहा हो। माया ने हिसाब लगाया, जवान-सा दिखने वाला वह आदमी तीस से ऊपर नहीं रहा होगा। ठीला-ढाला पाजामा और जगह–जगह दाग लगा कुर्ता। देखने में वह जमीन से जुड़ा और राजनीतिक कार्यकर्ता मालूम होता था। टेलीविजन पर दिखाई जानेवाली रैलियों में माया ने इस तरह के लोगों को अक्सर देखा था। उसके बाल लम्बे उलझे और अनसवरें थे। जूते फटे हुए और गन्दे। उसका एक हाथ उसके सीने पर रखा था, तो दूसरा पसरा हुआ था और उसमें एक अखबार दबा हुआ था। वह सफाचट दाढ़ी मूछोंवाला, आम शक्ल सूरत का आदमी था। माया उस पर से अपनी नजरें हटा नहीं पा रही थी। इससे पहले उसने किसी मृत व्यक्ति को नहीं देखा था; और उसकी घूरती आँखों को देखकर तो यही लगता था, जैसे वह जिन्दा हो।

लेकिन सबसे ज्यादा हैरानी तो माया को यह हो रही थी कि घुटन और फिसलन-भरे उस प्लेटफार्म पर उस मुर्दे की मौजूदगी से किसी भी और व्यक्ति को परेशानी क्यों नहीं हो रही थी। अगर यह कलकत्ता का कोई प्लेटफार्म होता, तो रेलगाड़ी के डिब्बे से निकलना भी मुश्किल हो गया होता। लाश के आसपास भारी भीड़ जमा हो गई होती लोग मदद करने के लिए बढ़-चढ़कर आगे आते। हर कोई एक साथ उत्तेजित होकर बात कर रहा होता और इस सवाल का तुरंत जवाब माँग रहा होता कि यह सब क्यों और कैसे हुआ। रेलवे पुलिस के दो-एक आदमी भीड़ को हटाने की नाकाम कोशिश कर रहे होते। इसके अलावा एक-दो डाक्टर भी आ गए होते और यह बताने को बेताब होते कि मौत का कारण क्या हो सकता है। ‘हत्या’ की बात जरूर उठती और उसके साथ ही लोग इस आदमी की पहचान और हत्यारे के मकसद के बारे में कयास लगाने लग जाते।

इसी तरह की स्थितियों को ‘जघन्य’ अपराध बताना अखबारों को अच्छा लगता है। लेकिन यहाँ मुम्बई में, लोगों की दिनचर्या पर इसका कोई असर नहीं था, और वे एक-दूसरे पर या अपने बीच पड़े मुर्दे पर कोई गौर नहीं कर रहे थे।

आखिर माया ने उस लाश से अपनी नजरे हटाईं और आसपास के माहौल को देखा, तो काँप गई। पर तभी चित्रा ने उसके चमकीले जामुनी रंग के दुपट्टे को खींचतें हुए बाहर निकलने वाले मार्ग की ओर इशारा किया।  
‘‘देखो दिखाई दिए तुम्हें ? यह प्रदीपदा हैं....वहाँ .....नीले चारखाने की कमीज पहने मोटे हो गए हैं।’’
माया मुस्करा दी और फिर उसने अपनी मां की गलती को सुधारा, ‘‘तुम्हारा मतलब है और मोटे हो गए हैं।’’
उसने जोशीले अन्दाज में हाथ हिलाया। उसे अपनी माँ के कद्दू-जैसे यह भाई अच्छे लगते थे। उन्हीं के इसरार करने पर उसने और माँ ने मुम्बई आने और यहां रंजन मलिक और उसकी माँ से मिलने का फैसला किया था।
‘‘अरेंज्ड मैरिज ? मेरे लिए ? मजाक मत करो। और फिर, अभी मेरा कॉलेज का एक और साल बाकी है।’’ माया ने अभी दो महीने पहले ही तो विरोध जताते हुए अपनी माँ से कहा था। उसे याद आया।
‘‘तो ? कौन कहता है कि तुम शादी से पहले अपनी पढ़ाई पूरी कर सकती हो ?’’ उसकी माँ ने तर्क दिया था।
‘‘तो फिर अभी मुम्बई जाने की क्या जरूरत है?’’ माया ने रुकते हुए कहा था।

‘‘क्योंकि मेरे-तुम्हारे आँख झपकने से पहले रंजन जैसे लड़के को लोग हड़प लेते हैं- इसलिए। और फिर, बस दो हफ्ते के लिए यहाँ है। उसे कोई बड़ा इसाइनमेंट करना है। उसके घर वाले उससे ही सारी बातें तय कर देना चाहते हैं। प्रदीपदा की बहुत इच्छा है कि हम मलिक परिवार से मिलें। रंजन अच्छा लड़का है। क्या पता, जब तक हम मुम्बई पहुँचे कोई और कोई खुशकिस्मत लड़की रंजन को ले उड़े। यह मत सोचो कि इस शहर में खूबसूरत बंगाली लड़कियाँ नहीं हैं। मुम्बई में ऐसी लड़कियों की कमी नहीं है, मुझे तो लोगों ने यही बताया है कि वहाँ हजारों हजार की तादात में अच्छी बंगाली लड़कियाँ हैं।’’ चित्रा ने अपने खास उत्तेजना-भरे अन्दाज में कहा था।
‘‘शान्त रहो, माँ। ऐसा नहीं है कि दुनिया में बस यही योग्य लड़का शादी लायक बचा हो। और न ही मैं कोई सौ साल की अनब्याही बुढ़िया हूँ। सही बात तो यह है कि मुम्बई जाने के लिए मैं भी मरी जा रही हूँ ... चाहे हम रंजन मलिक से मिले या नहीं मिलें।’’ यह बात माया ने अपने उसी पुराने अन्दाज में बिना सोचे समझे कह डाली थी। जिससे उसकी माँ को बहुत चिढ़ थी।

‘‘तुम्हारे पिता कोई लखपति तो नहीं जो केवल सैर-सपाटे के लिए हमें मुम्बई भेज देंगे। मुझे उनसे विनती करके रेलगाड़ी का किराया और दो अच्छी साड़ियों के लिए फालतू पैसा माँगना पड़ा था- एक साड़ी तुम्हारे लिए और एक मेरे लिए। तुम पीले कपड़ों में खूबसूरत लगती हो। ज्यादा गोरी लगती हो ‘मैंने आँचल में एक प्यारी-सी पीली तंगैल देख रखी है,’’ चित्रा ने पक्का इरादा करते हुए ऐलान किया था।, ‘‘और मुझे तो वैसे भी एक नयी साड़ी चाहिए। मैंने तुम्हारे पिता से कह दिया है कि पूजा तक दूसरी साड़ी के लिए उन्हें तंग नहीं करूँगी मैं।’’
‘‘मुझे पीले रंग से चिढ़ होती है मां’’ माया ने ठुनकते हुए कहा था, ‘‘तुम्हें तो मालूम है इसमें मैं ज्यादा गोरी दिखती हूँ, तो भी क्या ? वैसा तुम्हारा ‘ज्यादा गोरी’ से मतलब क्या है ? मैं गोरी तो हूँ ही नहीं।’’

‘‘हाँ तुम गोरी हो,’’ चित्रा ने फौरन टोका था, ‘‘ऐसा कहना भी मत। अगर तुम अपने आप को काली समझोगी तो तुम सचमुच में काली दिखने लगोगी। मैं हजार बार तुमसे यह बात कह चुकी हूँ। अपने आप को गोरी समझो तो तुम गोरी ही दिखोगी। रंजन से मिलने जाओ तो पीली साड़ी ही पहनना। प्रदीपदा ने मुझे बताया है कि मलिक परिवार में सभी लोग बहुत गोरे हैं। वे निश्चित तौर पर काली लड़की को अपनी बहू नहीं बनाना चाहेंगे।’’

उस बातचीत को याद कर माया ने मुँह बनाया। उसने प्लेटफॉर्म पर लगी वजन तौलने की मशीन के चटके शीशे में अपना अक्स देखा। गोरी ! माँ यह किस बारे में बात कर रही थी ? वह बिल्कुल भी गोरी नहीं है।
 
लेकिन माया को अपनी चमड़ी की रंगत अच्छी लगती थी। गुनगुनी, चटक-सुनहरी भूरी, जैसे हुगली नदी पर धूप थिरक रही हो। उसकी चमड़ी की रंगत के कारण उसके चमकदार स्याह काले बालों और बड़ी-बड़ी कजरारी आँखों की शोभा कुछ और बढ़ जाती थी। माया ने अपने शरीर को सीधा करते हुए अपने सिर को पीछे की तरफ एक झटका दिया और यह निष्कर्ष निकाला कि किसी भी हिसाब से वह एक आकर्षक युवती है- और रंगत की कौन परवाह करता है। थोड़ी-सी कम-ज्यादा काली या गोरी होने से क्या फर्क पड़ता है, कम-से-कम उसे तो कोई फर्क नहीं पड़ता।

लेकिन, उसकी माँ को ....वह अलग बात थी। चित्रा ने इस मामले में एक कड़ा पैमाना बनाया हुआ था। उसके हिसाब से औरतें केवल ‘गोरी’ या ‘काली’ नहीं होतीं। इन दो रंगतों के बीच कुछ और भी किस्में हैं। उसकी नजर में औरतों का रंग गुलाबी-गोरा, पीला-गोरा, दूधिया-गोरा, भूरा-गोरा, दूध और आटे-सा गोरा, बेहतरीन चमड़ीवाला गोरा से लेकर सादा पीला तक हो सकता था। चित्रा की नजर में इनके अलावा और कोई भी रंग नहीं चढ़ता था। मसलन, उसकी अपनी बेटी का रंग उसके लिए अत्यधिक चिन्ता का विषय था।

वह जब-तक इस बात की सफाई भी देती रहती थी। कहती थी, ‘‘इसका मतलब यह नहीं हैं कि मैं रंग पर इतना ध्यान देती हूँ। लेकिन यह सच है कि गोरी चमड़ी से खुशहाली का पता चलता है। व्यक्ति के दर्जे, उसकी पढ़ाई-लिखाई, घर-बार और रुतबे का पता चलता है। काला आदमी शायद ही कभी पैसे वाला दिखता होगा। खाता-पीता और सुखी दिखता होगा। काला रंग लेकर पैदा होने का मतलब है, जिन्दगी-भर अभिशाप ढोना !’’
मां की इस बात पर माया खीज जाती और तुनककर कहती, ‘‘ठीक है, तब तो मैं जिन्दगी-भर के लिए अभिशप्त ही हूं यह मेरा कसूर नहीं है।’’

चित्रा और भी निराश हो जाती है और बड़बड़ाने लगती है, ‘‘यह बहुत बुरा हुआ कि तुम अपने ददिहाल वालों पर गईं। मेरे मायके वालों को देखो-कोई भी काला नहीं मिलेगा तुम्हें। मुझे किसी पश्चिमी बंगाली से शादी करनी चाहिए थी-हमारे ही लोगों में। लेकिन तुम्हारे बाबा के घरवाले मुझ पर ही लट्टू थे। स्वाभाविक भी है, उन्हें पता था कि बाबा के लिए गोरी दुल्हन ढूँढना कितना मुश्किल होगा। तुम्हें तो पता है, पूरब के बंगाली ज्यादा काले होते हैं। उनकी बोली भी हमसे अलग होती है।’’
 
माया की माँ ने पता नहीं कौन-कौन-सी मानसिक ग्रन्थियाँ पाल रखी थीं। जिन्हें माया कभी नहीं समझ पायी थी। और वह यह भी नहीं समझ पायी थी कि उसे कैसा बंगाली बनना है-पूरबी या पश्चिमी। अपने रंग को देख कर तो वह यही अंदाजा लगाती थी कि वह इन दोनों में से किसी भी तरफ की नहीं है। और यह उसके लिए अच्छा भी था। उसने अपने पिता की ओर से लम्बी, लचीली काया, लंबी-पतली उँगलियाँ और भरा-भरा मुँह मिला था। माँ की ओर से उसे घने, चमकदार बाल और चमकीली काली आँखें मिली थीं। ऊपर वाले ने उसके माता-पिता की शारीरिक खूबियों को जिस तरह समान रूप से उसे दिया था, उससे वह बहुत खुश थी। ठीक है, उसकी नाक कुछ कम चपटी हो सकती थी और उसके गालों की हड्डियाँ कुछ और उभरी हो सकती थीं, लेकिन जो उसकी मुकम्मल तस्वीर बनती थी, वह एक उत्साही, चुस्त और चौकस जवान लड़की की थी जो जिन्दगी की अनेक चुनौतियों से सीधे टक्कर ले सकती थी। रंजन तो उनमें से बस एक था।

माया ने अपनी माँ को इतना घबराया हुआ कभी नहीं देखा था। वे मलिक लोगों के घर जाने के लिए तय समय से पूरा एक घंटा पहले निकली थीं। प्रदीपदा ने इस शाम के बारे में हँसी मजाक करके अपनी बहन को शांत करने की काफी कोशिश की थी।

‘‘मेरे पड़ोसियों ने मुझे बताया है कि मलिक परिवार के लोग अब तक निन्यानबे लड़कियों से बात करके उन सभी को नापसन्द कर चुके हैं। लगता है कि लड़का लड़कियाँ देखने का रिकॉर्ड बनाना चाहता है, और सचिन तेन्दुलकर की तरह सेन्चुरी मारना चाहता है।’’

माया की माँ ने अपने भाई की कलाई पर चपत मारते हुए उसे चुप रहने को कहा था, ‘‘तुम्हारे पास सही पता तो है न ? तुमने दोबारा पता कर लिया था ?’’ उसने माया की तरफ तेज, चिन्तित निगाह डालते हुए कहा था, ‘‘हे भगवान तुम्हारा काजल ! लाओ जल्दी करो, एक रूमाल मुझे दो। कितना खराब लग रहा है। इतना काला और मोटा जैसे तुम दस साल से चैन की नींद नहीं सोईं। कैसे काले-काले घेरे हैं। क्या सोचेंगे वो लोग?’’ और वह माया के नए कोरे रूमाल के एक कोने को अपने थूक से गीला करके काजल के एक छोटे-से धब्बे को पोंछने लगी।


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