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लेख-निबंध >> हम अनिकेतन

हम अनिकेतन

श्रीनरेश मेहता

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3186
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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यह पुस्तक यात्रा-वृत्तान्त पर आधारित पुस्तक है...

Hum Aniketan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सामान्यतः तो जीवन और लेखन समान्तर ही रहते हैं लेकिन जब प्रणयन गम्भीर कर्म और स्वत्व बन जाता है तब जीवन और लेखन तदाकृत हो जाते हैं लेखन के सन्दर्भ में अद्वैत की यह युग्म भले ही चिन्मयकारी लगे, लेकिन जीवन के सन्दर्भ में अनेक विषमताएँ उत्पन्न हो जाया करती हैं।

‘‘हम अनिकेतन’’ की इस यात्रा में बहुत कुछ इसी संगमनी मानसिकता को देखा जा सकता है कि इस यात्रा में जीवन पूरी तरह परिपार्श्व, भूमि या समर्पित हो गया है और हमें आद्यन्त लेखन ही यात्रिक बना दिखता है। शायद नरेशजी के जीवन का भी यही प्रतिपाद्य था-लेखन। अतः कहा जा सकता है। कि कला या प्रणयन के क्षेत्र में जीवन को ही तिरोहित या आहूत होना होता है तभी सम्भव हुआ करती है लेखकीय अद्वैतता और अद्वितीयता।

भूमिका

वस्तुतः ‘हम अनिकेतन’ अपने गत पचास वर्षों के उस लेखकीय जीवन और अनुभवों का एक ऐसा सर्वेक्षण है जिसे बताया जा सकता था अथवा कहा जा सकता था। सच तो यह है कि किसी भी सम्पूर्णता की अभिव्यक्ति सम्भव ही नहीं अतः जो सम्भव नहीं उसकी न तो अपेक्षा ही की जानी चाहिए और न उसके लिए परितापित ही होना चाहिए। तात्पर्य यह कि हम जीते एक प्रकार से हैं लेकिन उसे अभिव्यक्ति भिन्न प्रकार से करते हैं क्योंकि यही सम्भव और नैसर्गिक है। हम तो केवल यही कर सकते हैं कि भिन्नता की इन दो विपरीतताओं में, भले ही थोड़ी ही सही परन्तु सर्जनात्मक गाँठ लगा सकें तो इतना ही बहुत है। अभिव्यक्ति को यथासम्भव सर्जनात्मक बना देना ही हमारे हाथों में होता है, बस।

मुझे प्रायः पारिवारिक एल्बम को देखकर असुविधा हुई होगी। लगता है न कि कैसे किरिच-किरिच, टुकड़ों टुकड़ों में टूटते हुए हम यहाँ तक पहुँचे हैं। काले घुँघराले बालों वाले तब के दैहिक कसेपन से लेकर आज के खल्वाट वाले सफेद बालों की महिमा-मंडित इस शुभ्रता तक कैसे काँख-कूँदकर पहुँचे हैं जिसकी आधरभूत बुनावट में रोज-रोज की छोटी-छोटी भूलें, साहित्यिक असफलताएँ, आर्थिक हाहाकार, परिवेशगत असन्तोष आदि के न जाने कितनी ही तरह के कलाबत्तू से बेल-बूटे कढ़े हुए हमारी ओर देख रहे हैं, विवश। दिखने के स्तर पर जो कामदानी, जरी- पोशाक है, वह हमारे अन्तस में मन को कैसी चुभ रही होती है। लेकिन इस बानक को क्या किसी दिन किसी को भी पूरी तरह बताया जा सकता है, या कहा जा सकता है ? नहीं न, क्योंकि व्यवहार जगत में कहना नहीं, सहना होता है। वस्तुतः हम यहाँ दिखने के लिए ही हुए होते हैं, न कि होने के लिए। होना, हमारा निजषन है, प्रदर्शन नहीं। फिर भी भाषा की सारी शालीनता के बावजूद कुछ तो छलक ही जाता है और इस ‘हम अनिकेतन’ को भी ऐसा ही कुछ माना जा सकता है।

वास्तविकता तो यही है कि मुझे किसी से भी कोई शिकवा-शिकायत नहीं रही इसलिए चेष्टा भर किसी की अवमानना भी नहीं की होगी और न उपेक्षा ही। हाँ, भूल से किसी के पैरों पर पैर पड़ गया होगा तो इसके लिए आज भी क्षमा माँगने में मुझे क्यों संकोच होना चाहिए ? वैसे पता नहीं जो मेरे निकट परिवार और आत्मीय बनकर रहे उनसे क्या और कैसे कहूँ क्योंकि मेरे व्यक्ति को झेलना तो उन्हें ही पड़ा, और प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ छोटापन तो होता ही है। अतः उनकी विषमता समझ सकता हूँ कि अपने जीने की दुरूहता के साथ किसी अन्य को झेलने की विभीषिका भी उठानी पड़े लेकिन तब भी उफ न करे तब उस स्थिति में आपका सारा ज्ञात बड़प्पन इन अनाम, अज्ञात बड़प्पनों के सामने नगण्य हो जाता है।

जहाँ तक इस आलेख का प्रश्न है तो वह यह कि तीन चार वर्ष पूर्व ही अशोक बाजपेयी ने इसके लिए प्रेरित किया था। सोचा भी था कि लिख डालूँ परन्तु कुछ अन्य कारणों से तथा अपनी व्यस्तताओं के कारण टल गया। लेकिन दो वर्ष पूर्व प्रभाकर श्रोत्रिय ने आखिरकार इसे पूरा करवा ही लिया। भारत-भवन में जब इसका पाठ हुआ तब ऐसा लगा कि इसकी नोंक- पलक दुरुस्त करनी होगी। इस बीच मोतियाबिंद के आपरेशन के कारण भी देर होती चली गयी इसीलिए छपने में विलम्ब हुआ। शायद छपना इस बार भी टल जाता परन्तु रमेशचंद्र इसे अनिश्चिता के दलदल से निकालने के लिए कटिबद्ध ही हो गये। वैसे कह नहीं सकता कि यह आपको कितना सन्तुष्ट करेगा, पर यदि करता है तो यह आपकी रसज्ञता होगी। हाँ, इस आलेख को जब एक संज्ञा देने की बात उठी तो सहसा नवीनजी की प्रसिद्ध कविता ‘हम अनिकेतन हम अनिकेतन’ का स्मरण हो आया और कृतार्थ हुआ कि नवीनजी ने इसे संज्ञित किया।
इति नमस्कारान्ते-

होली 16 मार्च 1995
19 ए, लूकरगंज
इलाहाबाद


हम अनिकेतन

‘‘लेखन के पचास वर्ष’’ से तात्पर्य अभिव्यक्ति के पचास वर्ष, न कि सृजन के। लेखन या अभिव्यक्ति तो सृजनात्मक या अनभिव्यक्त ‘‘आइसबर्ग’’ की वह ‘‘टिप’’ भर है जो हमें दिखलायी देती है। जीवन के, या अनुभवों के अतल जलों के अन्धकार में गहरे पैठे आइसबर्ग का वह विशाल वास्तविक स्वत्व हम कभी नहीं देख पाते हैं जो उस टिप को निरभ्र व्यक्त किये होता है। निश्चित ही वह टिप नहीं बल्कि ठण्डे, अगम जलों में डूबा पसरा हिमखण्ड ही आइसबर्ग का वास्तविक सृजनात्मक स्वत्व है। जीवन से अनाविल रूप में निबद्ध यह सृजनात्मकता ही जीवन है जिसे धारना हमारी नियति है और भोगना, प्रकृति। जीवन की इस सृजनात्मक सत्ता या स्वरूप को उसकी सम्पूर्णता में अभिव्यक्त या रच पाना किसी के लिए भी कभी सम्भव नहीं हो सका और शायद इसकी अपेक्षा भी नहीं रही। सृजन और लेखन के इस आधारभूत तथा स्वत्वगत पार्थक्य की प्रकृति एवम् प्रक्रिया को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जीवन की अनभिव्यक्त तथा अकथनीय सत्ता या स्वरूप, सृजन है और अभिव्यक्त तथा कथ्य सम्भाव्य सत्ता या स्वरूप लेखन है। पहली अवस्था चूँकि प्राकृतिक है इसलिए व्याकरणातीत महाक्रिया है जबकि दूसरी अवस्था मानवीय है इसलिए व्याकरण सम्मत क्रियापद है।

अपने तिहत्तर वर्षों के जीवन में से आज जब मैं पचास वर्षों के लेखन की ही चर्चा कर रहा हूँ तो ऐसी जिज्ञासा स्वाभाविक ही होगी कि शेष वर्ष क्या हुए ? शायद यह कहना समीचीन होगा कि ये शेष वर्ष लेखकीय अभिव्यक्ति की वह अनभिव्यक्त सृजनात्मकता है जो अन्तः सलिला रूप में आद्यन्त मुझमें तथा लेखन में व्याप्त और समाहित हैं। अपनी ही छाया की भाँति कभी आगे भागते हुए तो कभी पीछे घिसटते हुए या फिर पैरों की राह विलीन होकर भी सृजनात्मकता शाश्वत विद्यमान तथा सक्रिय है। अतः कहा जा सकता है कि हमारे न जानने पर भी सृजन आक्षण घटित होता रहता है, जबकि लेखन तो प्रयास सिद्ध क्रिया है। सृजन और लेखन की समान कुलगोत्रता के बावजूद इस तात्विक भिन्नता को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सृजनात्मक अवस्था में परिवेश हममें घटित होता है जबकि लेखन की स्थिति में हम परिवेश में घटित होते हैं।
कहा जा सकता है कि यात्रा, चाहे वह किसी की, कैसी ही हो, गति होती है, और गति मात्र की प्रकृति तथा प्रक्रिया होती है-सतह पर अभिव्यक्ति के पूर्व अनाम अँधेरों के बीच से गुजरना तथा उपरान्त पुनः अनामता में विलीन हो जाना किसी भी मेधावी नदी या वर्चस्वी नदी के अभिव्यक्त, आक्षितिज फैले विराट अनुमान के क्या हम कभी उसके यथार्थरूप में जान पाते हैं जो धरती को गहराइयों में अकथनीयता के अँधेरों में शताब्दियों गुमनाम बना रहता है ?

 अनभिव्यक्त जल किस उद्गम बिन्दु पर अभिव्यक्त होने के लिए अपने सम्पूर्ण स्वत्व के साथ जैसा उत्कट, संकल्पी संघर्ष करता है और धरती को फोड़कर बाहर आने के लिए आतुर, रह-रह हाँफ रहा होता है, इसे क्या बिना देखे केवल अनुमान से समझा जा सकता है ? वह चाहे वासुदेव अश्वत्थ अभिव्यक्त हो रहा हो या जल, धरती के चट्टानी नागपाशों को चीरकर बूँद- बूँद बनकर अभिव्यक्ति के खुले आकाश में थरथराते पैर रख रहा होता है, तब जो संघर्ष यातना वह भोग रहा होता है, उसे क्या हम कभी भी उसकी तथता में जान पाते हैं ? कैसे प्रत्येक जल बिन्दु औचक थरथरातेपन के साथ धरती पर सतर्क और सशंक भाव से पैर रखता है जैसे कोई चौकन्ना पक्षी जंगल और आकाश की अपरिमेयता में संभावित आक्रमण और भय की थाह लेता सतर्क हो। सृजन मात्र की यह प्रकृति है-शाश्वत थरथरातापन, जैसा कि नदी के उद्गम स्थान पर होता है। धरती के बाहर वनस्पति नदी कविता या और कुछ बनकर आना, प्रत्येक बार पहला जैसा ही होता है-अनाश्वस्त। उद्घम के चारों ओर फैले, सूखे पत्तों पर नटबाजी करते हुए आरंभिक चलना कितना और कैसी सिद्धि माँगता है यह उन निरीह जलबिन्दुओं से कभी पूछा होता।

चारों ओर फैले, गिरे सूखे पत्तों और टहनियों की छोटी से छोटी बाधा भी कितनी विकट होती है यह उन जल बिन्दुओं के निराश्रित निःशब्द चलने के टूटे-टूटेपन को देखकर ही समझा जा सकता है। उस स्थिति में मार्ग में आया धरती का छोटा सा कटाव या दरार भी कैसी सुरसा के खुले मुख सी द्रोणी बन जाती है कि बूँदें उसमें हठात् लचक कर समाने लगती हैं। कैसे राम-राम करते दरारें, दर दरारें पार करते मार्ग ढूँढ़ा जाता है। कहने को नगण्य कंकड़ या रोड़ा ही होता है, लेकिन फलाँग कर नहीं बल्कि उन नवजात जलों को कैसे उनकी भी परिक्रमा पृथ्वी- परिक्रमा जैसी ही करनी होती है क्योंकि बिना परिक्रमा कराये ये अनिवार्य बाधाएँ मार्ग नहीं देती हैं। न टहनियों न पेड़-जड़ों किसी को भी तो सहानुभूति नहीं होती। हाँ। पेड़ों से झरी धूप की बुँदकियाँ ही एकमात्र सहभोक्ता बनी चारों ओर छितरी फैली होती हैं। बूँद से धारा और धारा से आरंभिक तुतलाता प्रवाह बनने की प्रक्रिया में कैसी और कितनी थकान आ जाती है यह नर्मदा या शोण को उनके अमरकंटक वाले नितान्त सामान्य से लगने वाले एकान्त उद्गम और आरण्यक परिवेश में देखने पर ही समझा जा सकता है, अभिव्यक्ति मात्र के माथे से ऐसा ही पसीना टपकता है। ठीक भी है, बिना लहूलुहान हुए वर्चस्वी स्वत्व भी तो संभव नहीं।



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