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रहस्य-रोमांच >> रुद्र गुफा का स्वामी

रुद्र गुफा का स्वामी

शिव वचन चौबे

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3187
आईएसबीएन :81-8031-082-5

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संस्कृति, रहस्य और रोमांच पर आधारित उपन्यास जिसकी तुलना समीक्षकों ने देवकीनन्दन के उपन्यासों से भी की हैं।

Rudra Gupha Ka Swami

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


शिववचन चौबे लोकगीतों और लोककथाओं में जीवन्तता तलाशने वाले मिथक प्रेमी कथाकार प्रेमी मात्र नहीं है। वे ग्रामीण जीवन के बदलते चरित्र को उसकी सहजता और चालाकी के साथ रेखांकित करने वाले संवेदनशील रचनाकार हैं। रुद्रगुफा का स्वामी, आत्मपरक वस्तुपरकता से विकसित आज के गांवों और नगरों में विद्यमान सम्पत्ति मोह के भीषण परिणामों का संकेत करने वाला अत्यंत रोचक उपन्यास है।

यह उपन्यास लोककथा के रहस्य, रोमांच, जिज्ञासा कौतूहल आदि तत्वों के उपयोग से बना होने के कारण पाठक को अंत तक बांधे रहता है। हिन्दी में कौतूहल और रहस्य का सामाजिक यथार्थ के उद्धाटन की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण प्रयोग है।

देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों जैसा यह नाम निम्न जातियों के स्वार्थपरक इस्तेमाल का उद्धाटन करते हुए उनकी उद्धुद्ध विवेकशक्ति को रेखांकित करता है। रुद्रगुफा का स्वामी कौन है ? और क्यों बना है ? यह प्रश्न यथार्थ के अनेक हेतुओं का उद्धाटन करता है। निश्चित ही यह पाठकों और आलोचकों को अपने स्वरूप और संकेत से आकर्षित करेगा।


एक



उत्तर प्रदेश के बलिया जिला में जब आप रसड़ा बलिया रोड से बलिया पहुँचकर सिकंदरपुर की ओर जाएंगे, तो करीब सात किलोमीटर पर एक कच्ची सड़क पश्चिम-उत्तर की ओर जाती हुई मिलेगी। इस कच्ची सड़क पर तीन किलोमीटर चलने पर एक छोटा-सा गांव है, बमनपुरा। इसी गाँव में रामजतन पांडे रहते थे। ये दो भाई थे, शिवरतन पांडे और रामजतन पांडे। वे खानदानी गरीब थे। इनके पूर्वज भीख मांग कर अपनी जीविका चलाते थे। परिवार सात्विक और कर्मकांडी था। बच्चा-बच्चा संस्कृत और ज्योतिष का जानकार था। विशेषता यह थी कि वे उत्तर प्रदेश और अपने जिला-जवार में नहीं, बल्कि बिहार के आरा जिले में भीख माँगा करते थे। साल में एक या दो बार कुछ दिनों के लिये ये अपने गाँव आते और एकाध महीना परिवार के साथ बिताते थे। गाँव में इनका एक पुस्तैनी कच्चा फूस का मकान था। पीढ़ियाँ बीत गयीं, किंतु उस मकान ने खपड़े का मुँह नहीं देखा। खपरैल तक नहीं हो पाया। यही कारण था कि भीख माँगने से वे जो कुछ कमाते थे, उससे परिवार का खर्च चलाने के अलावा, वर्षात के पहले मकान की कच्ची दीवाल और फूस के छाजन का मरम्मत कराने में समाप्त हो जाता था। गाँव के लोग जानते थे कि पांडे लोग बाहर नौकरी करते हैं।

वे भी लाज के मारे भीख माँगने वाली बात कभी किसी को बताते नहीं थे। शिवरतन पांडे आरा जिले के बक्सर तहसील में और उनका छोटा भाई रामजतन पांडे भभुआ तहसील में भीख माँगते थे। राजतन भीख मांगने के अलावा लोगों का हाथ भी देखते थे। वे जन्मकुंडली और हस्तरेखा विशेषज्ञ थे। यह हुनर उन्होंने अपने पिता पंडित रामखेलावन पांडे से सीखी थी। इस हुनर के चलते उनकी अच्छी कमाई हो जाती थी। लेकिन इस कमाई को वे अपने लिए नहीं, बल्कि गरीबों के लिये खर्च करते थे। रामजतन पांडे अपने बड़े भाई शिवरतन पांडे से ज्यादा चतुर थे। दुनियादारी में माहिर थे। यही कारण था कि उन्होंने हाथ देखने की अपनी विद्या को गुप्त रखा था, नहीं तो मुफ्त में हाथ दिखानेवालों की भीड़ लग जाती। वे अपनी औकात जानते थे। एक भिखमंगे की क्या बिसात होती है ? जिसके दरवाजे पर भीख माँगने के लिए जय करो, वही भीख देने के पहले अपना हाथ पसार दे-‘‘पंडित जी, मेरा हाथ देखें। मेरा भविष्य बतावें।’’ बात वहीं खत्म नहीं होती। उस परिवार के मर्द, औरत, बूढ़े बच्चे सब अपना-अपना हाथ दिखाने के लिए कतार में खड़े हो जाते। सबको अपने भविष्य की चिंता लगी रहती। सब लखपति करोड़पति बनना चाहते।

 बिना पढ़े-लिखे सब ऑफिसर बनना चाहते। भीख तो भीख की ही तरह मिलेगी एक पाव, अथवा दो पाव लेकिन एक ही दरवाजे पर तीन-चार घंटे बीत जायें, तब तो हो गयी छुट्टी। सारा दिन भीख मांगो और पावो एक-दो सेर अनाज। दिन भर चले, अढ़ाई कोस। ऐसे धंधे से क्या फायदा, जिससे घर का आटा भी गीला हो। उन्होंने अपने पिता को इस दुर्गति का सामना करते देखा था। उनके पिता पंडित रामखेलावन पांडे भीख मांगने के अलावा लोगों का हाथ देखने और कुछ झाड़-फूँक करने का काम भी करते थे। इससे भीख का धंधा तो चौपट हो ही गया, उनकी बदनामी भी हुयी थी। कितने लोग इनके खिलाफ हो गये थे। उन दिनों सोनडीहरा गाँव के खरपत यादव, मनबोध तिवारी और पलकधारी दुसाधनामी ओझइत थे। वे तीनों ठीका पर भूत-प्रेत और जिन्न उतारते थे। निपूती को पूत और सपूती को अन्न-धन देते थे। पूरे भभुआ तहसील में उनकी ओझाई की तूती बोलती थी। मिरियां गांव के मजार पर जब वे अपनी धूनी रमाते, तो सैकडों औरत और मर्द हुंडी लेकर उनके चरणों में लोट पड़ते। पता नहीं, इन तीनों में कौन सी दिव्यशक्ति थी कि इनकी धूनी देखते ही औरतों का शरीर हिलने लगता था। वे धूनी से कुछ दूरी पर अचानक धम्म से जमीन पर गिर पड़तीं और वही लेटे-लेटे अथवा बैठे-बैठे अपना माथा जोर-जोर से हिलाने लगतीं। उनके मुख से एक ही आवाज बार-बार निकलती आहा उहूँ-आहा उहूँ। सर के बाल बिखर जाते, ब्लाउज ढीला हो जाता, साड़ी खुल जाती और शरीर पसीने से लथपथ हो जाता, किंतु उनके माथे और शरीर के हिलने का क्रम बंद तब तक नहीं होता जब तक उन पर ओझइतों की कृपा नहीं होती। यह कृपा क्या थी, कोई नहीं जानता। यह रहस्य ही उनकी ओझाई की सफलता का मूलमंत्र था। जब बानरघाट गाँव के जमींदार कुंवर नथमल सिंह की बहू राधा की शादी के पाँच वर्ष बाद भी पैर भारी नहीं हुए तो उनकी पत्नी को चिंता सताने लगी। उन्होंने अपने पति से कहा कि बहू के सिर पर कोई जिन्न चढ़ा हुआ है। जब तक वह नहीं उतरेगा, तब तक बहू के पैर भारी नहीं होंगे। यह सुनकर कुंवर नथमल सिंह ने पत्नी से पूछा-‘‘तुझे कैसे मालूम कि बहू के सिर पर जिन्न सवार है, यह बात तुझे किसने बताई ?’’

‘‘कल सोनडिहरा के मनबोध तिवारी आये थे। वे नामी ओझइत हैं। मिरियां के मजार पर भी बैठते थे। मैंने उनसे बहू के बारे में पूछा था। उन्होंने बहू का हाथ देखकर बताया कि उसके सिर पर जिन्न है। बाद में बहू ने भी कहा कि उसे भी जिन्न की शंका है।’’

‘‘बहू ने क्या कहा ?’’ पत्नी की बात सुनकर कुंवर साहब ने फिर पूछा।’’ बहू ने कहा कि रात में कभी कभी लगता है कि कोई उसके खाट पर चढ़ गया है और उसे अपनी बांहों में पकड़कर जोर से दबा रहा है। उसके बाद वह उसके साथ संभोग करते हुए कहता है कि उसे जीवन भर बच्चा नहीं होने देगा। लरकोर नहीं होने देगा। वह उसे जीवन भर जवान रखेगा।’ पत्नी की बात सुनकर कुंवर साहब हंसते हुए कहने लगे। ‘‘अरे सुहागन, तू इस मनबोध तिवारी को नहीं जानती हो। मैं इसकी नस-नस पहचानता हूँ। यह स्साला महापातकी है। खरपत अहीर, पलकधारी दुसाध और यह तिवरिया, इन तीनों का एक गिरोह है। ये स्साले सोनडीहरा गाँव में उत्पात मचाये हुए हैं। अड़ोस-पडोस के गाँव और जवार-मथार के शरीफ इनसे परेशान हैं। ओझाई के नाम पर सीधी-सादी गांव की अनपढ़ औरतों का तन और धन दोनों लूटते हैं। किसी न किसी दिन ये पुलिस की गिरफ्त में आयेंगे तब इनका भंडा फूटेगा। तू इनके चक्कर में कभी न पड़ना। तुम बहू को बेटे के साथ बनारस भेज दो। वहाँ वे किसी अच्छे लेडी डाक्टर से दिखवाकर आ जायं। सब ठीक हो जायेगा। पाँच साल का समय कोई समय नहीं होता है। चिंता मत करो।’’ कहते हुए कुंवर साहब चले गये।

कुंवर साहब ने जो कुछ कहा उससे उनकी पत्नी लालता देवी का मन नहीं भरा। उनकी बातें उन्होंने अपनी बहू राधा को बतायी। अंत में सास-बहू ने मिरियां मजार जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया। मजार पर पहुँचते ही अप्रत्याशित ढंग से राधा का शरीर हिलने लगा। वह थोड़ी ही देर में धड़ाम से जमीन पर गिरकर हाथ-पैर पीटने और सर हिला-हिला कर आहा-उहूँ-आहा-उहूँ करने लगी। बहू की दशा देखकर ठकुराइन भय से काँप उठीं। वे दौड़कर धनी पर बैठते हुए मनबोध तिवारी के पास गयी और उनसे जल्दी कुछ करने को कहा। उस समय तिवारी जी नशे में थे। दारू के प्रभाव से आँखें लाल लाल हो उठी थीं। ठकुराइन को पहचानते हुए कहा-‘‘आ गई जजमानिन ? शिव शंभू शिव शंभू...। बोल हर-हर महादेव।’’
जी, गुरुजी हुकुम’’ एक चेले ने आवाज दी। अरे हुक्म का नाती, पइठ, लगा गोता पानी में। बाहर का भेद, भीतर का भेद, दस बरिस आगे का, दस बरिस पीछे का, खोल भेद। काहे अइसा हो रहा है। ई भंइस, रोज भंइसाती है, लेकिन गभिनाती काहे नहीं ? भंइस का भेद, भंइसा का भेद खोल। स्साला, कर दे दूध का दूध और पानी का पानी। शिव शंभू शिव शंभू.......।
 
पता नहीं, यह कौन-सी भाषा है ? इसका अर्थ और संकेत क्या है ? लेकिन गुरु का रहस्यमय आदेश पाते ही चेले ने डमरू बजाना शुरू कर दिया। राधा के सर के चारों तरफ घुमा-घुमाकर डमरू बजाया। उसकी आरती की। शरीर पर अक्षत और पीले सरसों की वर्षा की, फिर चिमटे से उसके शरीर पर धड़ाधड़ वार करना शुरू कर दिया। सुकुमार औरत मार पड़ते ही जमीन पर पसर गयी। कराहने लगी। उसके शरीर से पसीने छूटने लगे। चिमटे से उसका शरीर कई जगह छिलजाने के कारण खून भी चूने लगा। अंत में दर्द से परेशान और भय से उस कांपती राधा ने कहा-दुहाई सरकार, मेरी जान छोड़ दें। भक्त ने कौन-सी भूल की जो इतना दंड दे रहे हैं ? त्राहि नाथ त्राहि नाथ...।’’ यह सुनते ही चेले ने जोर की डांट लगाई ‘‘बकवास बंद कर। जीव का बदला जीव। खून का बदला खून। तू अगले जन्म में रंडी थी। पाँच सौ पचहत्तर मर्दों के साथ सोई थी। तेइस मर्दों को जहर देकर मार डाला था। उनमें से एक बाभन था। वही तेरे सर पर जिन्न बनकर चढ़ा है। तुझे रोज भंइसाता है, लेकिन गाभिन नहीं होने देता। रंडी कहीं गाभिन होती है ? वह कहीं बच्चा देती है ? भोगेगी तू अभी अपने कर्मों का फल और भोगेगी।’’ कहते कहते चेले ने जोर-जोर से अपना सर हिलाना और गाना शुरू किया-
‘‘सोने मूठी छुर्रिया, खडगन मूठी धार,

पूरब दुअरिया, सरूज हो रखवार।
कसि के बंधवा बान्ह होबाबा, पूरब के दुआर
नैना जोगनियां नाहीं पावें हो पैसार।
आहा-उहूँ-आहा-उहू-आहा-उहूँ।
जै हो काली कमच्छा वाली...। एक भैसा, पाँच बकरा, पाँच बोतल दारू। मांगती है महाकाली, जल्दी से हुँकारू।
बोल, जल्दी बोल। तुम्हारी इच्छा पूरी होगी।
चेले की बात सुनकर वहीं बैठी भयभीत ठकुराइन ने तुरंत कहा-‘‘मंजूर है, महाराज मंजूर है।’’
‘‘मंजूर है तो देर क्यों ? जमाकर हुंडी, खुले तकदीर की कुंडी।’’
घबराइ हुई ठाकुराइन ने तुरंत बटुए से पाँच हजार एक सौ रुपया निकाल कर चेले के चरणों में सुपुर्द किया। उसी समय पलकधारी दुसाध ने मनबोध तिवारी के कान में फुसफुसाया –ऐ तिवारी जी, ई कुंवर नथमल सिंह की बहू है न ?’’
‘‘हूँ रे, क्या बात है ? बड़ा मालदार आसामी है। देखो न, फट से एकावन सौ उगल दिया।’’

‘‘ऐ तिवारी जी, हमरे जवान बेटी के नथमलवा के बेटा दस दिन अपनी हवेली में बंद करके उसके साथ कुकर्म किया। मेरी बेटी को पेट रह गया था। किस तरह पेट गिरवा कर मैंने उसका गवना कराया था। ऊ दिन भूले नहीं भुलात है, एक तिवारी जी। आज बदला लेबै के हमरो मन करत हौ। तू हँकुरी भरो तो हम अपना जियरा जुड़ा लेई। नथमल सिंह की बहू को अरहर के खेत वाली मड़ई में खींच लें।’ कहते-कहते पलकधारी अतीत में डूबकर रूआँसा हो उठा।

‘‘हमें कोई एतराज नहीं है। लेकिन अगर कहीं बात फूट गयी, तो जुलुम हो जाएगा, पलकधारी। नथमल सिंह बहुत कड़ा मिजाज का ठाकुर है। जिंदा उठवा लेगा और लाश का पता नहीं लगेगा। बोटी-बोटी काट देगा, गंडासी से। तोहार को पूरा परिवार कटि जाई, बाकिर हमरो जान ऊ पानी में डूबे नहीं छोड़ेगा। सोच लो, आगे पीछे, ऐसा न हो कि बांड बांड़ जायें और नव हाथ के पगहा भी लेते जायं। कहीं बहुत मंहगा न पड़े तोहार बदला, पलकधारी।’’ तिवारी की बात सुनकर पलकधारी सहम गये। वे डर के मारे काँप उठे। उनका सारा उत्साह ठंडा पड़ गया। खरपत यादव से भी नहीं रहा गया। वे भी ओझइत बने वहीं बैठे गाँजा का दम लगा रहे थे। कहने लगे ऐ तिवारी जी, पलकधारिया के दिमाग खराब हो गया है। गगरी अनाज भइल औकात भूल कर उपद्रव करने लगता है। ओझाई में चार पइसा कमा लेने से पलकधारी इसका दिमाग खराब हो गया है। ई तो मरेगा ही नथमल सिंह के हाथ हम लोगों को भी लात खिलवायेगा।’’

‘‘क्या कहते हो खरपत ? मेरा दिमाग खराब हो गया है ? अगर आपकी बहिन बेटी के साथ वैसा कुकर्म होता, तो क्या आप चुपचाप बैठ जाते ? अरे, आप क्या, पूरी अहिरटोली लाठी भाँजने लगती। महाभारत मच जाता। लाश पर लाश गिर जाती। हमको भाषण सुना रहे हैं। क्या चमार दुसाध की कोई इज्जत नहीं होती। उनकी बहिन बेटी क्या बाभन ठाकुर की भौजाई लगती है ? मारे बरियरा रोवे न देय।’’ तैश खाते हुए पलकधारी ने कहा। उसकी बात सुनते ही खरपत का पारा गरम हो गया।’’ क्या, कह रहे हो पलकधारी ? चमार दुसाध ? शरम नहीं आती है, कहते हुए। जिस लचिया की बात करते हो, क्या वह तुम्हारी बेटी थी ? नथमल सिंह के बेटे धीरेन्द्र सिंह ने लचिया के साथ कुकर्म किया था। यह सच है। लेकिन यह भी सच है कि लचिया तुम्हारी बेटी नहीं थी।’’ ‘‘तब क्या वह तुम्हारी बेटी थी ? तुमने उसे जन्माया था ? तुम सोये थे मेरी मेहरारू के साथ ?’’ गाँजी का दम खींचते हुए पलकधारी ने कहा।

‘‘मुँह मत खुलवाओ पलकधारी, नहीं तो सब उगल के रख दूँगा। लंगटा-उघार हो जाओगे। तुम दुसाध हो, न। दुसाध की शादी कहीं चमार की बेटी से होती है ? इमिरती, किस दुसाध की बेटी थी ? बताओ। वह तो चमाइन थी। मंहगू चमार की बेटी थी। जब जवानी का नशा चढ़ा तो उसके पैर बहक गये। वह सुंदर तो थी ही। उसके संबंध बहुतों के साथ हुए थे। उस समय तुम जवान था। गाँव में पहलवानी करता था। वह छतिया उठान थी और तुम मुछिया उठान थे। इमिरती के साथ तुम्हारा भी संबंध बना था। जब तुमने उसको जबर्दस्ती उठा कर अपने घर लाया, उस समय वह पेट से थी। लचिया उसी पेट से पैदा हुई थी। बताओ, हुयी थी कि नहीं हुई थी ? तब वह अकेले तुम्हारी बेटी कैसे हुई ? बुरा मत मानना। उन दिनों उसके संबंध खुद नथमल सिंह से भी थे। उनके यहाँ ज्यादा आती-जाती थी। उसकी अधिकांश रातें हवेली में ही बीतती थीं। सारा गाँव जवार इस बात से वाकिफ था। हमारे तुम्हारे सम्बंध तो उससे बहुत बाद में बने थे। उस समय वह नथमल सिंह के पत्तल की जूठन थी।’’ यह सुनकर मनबोध तिवारी ने बीच में ही बात काटते हुए कहा-‘‘अरे तब तो लचिया धीरेन्द्र सिंह की बहन ही हो गयी न। उन्होंने कुकर्म पलकधारी की बेटी के साथ नहीं, बल्कि अपनी बहन के साथ किया था। तुम्हारी बात से तो यही लगता है, खरपत है कि नहीं ?’’

 

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