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नामवर संचयिता

नन्दकिशोर नवल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :427
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3201
आईएसबीएन :81-267-0670-8

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यह है हिन्दी के ख्यातिप्राप्त आलोक डॉ. नामवर सिंह के आलोचनात्मक लेखन का उत्तमांश

Namvar Sanchayita

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह हैं हिन्दी के ख्याति प्राप्त आलोक डॉ. नामवर सिंह के आलोचनात्मक लेखन का उत्तमांश।
नामवरजी हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचक के रुप में स्वीकृत हैं, लेकिन मूलतः वे एक लोकवादी आलोचक हैं। जिस ‘लोक’ को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने काव्य के प्रतिमान के रुप में व्यवह्रत किया था और जिसे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने क्रांतिकारी अर्थ प्रदान किया, उसे वे मार्क्सवादी की सहायता से ‘वर्ग’ तक ले गए हैं। लेकिन यह उनकी, संकीर्ण और रुढ़िबद्ध विचार प्रणाली के रुप में ग्रहण नहीं किया है। सच्चाई तो यह है कि साहित्य के नए मूल्य के लिए उन्होंने प्रत्येक मोड़ पर लोक की तरफ देखा है। अकारण नहीं कि हिन्दी में वे साहित्य की दूसरी परंपरा के अन्वेषक हैं, जो उस लोक की परंपरा है, जो असंगतियों और अंतर्विरोधों का पुंज होते हुए भी विद्रोह की भावना से युक्त होता है।

नामवरजी की आलोचना हिन्दी में गैर अकादमिक आलोचक का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। ‘कहानीः नई कहानी’ में उन्होंने व्यक्तित्व निबंध की शैली में आलोचना लिखी, जिसमें बात से बात निकलती चलती है और अत्यन्त सार्थक। ‘कविता के नए प्रतिमान’ उनके विलक्षण परंपरा-बोध, गहन विश्लेषण और पारदर्शी अभिव्यक्ति का स्मारक है। इसी तरह ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में उन्होंने ऐसी आलोचना प्रस्तुत की है, जो एक तरफ अतिशय ज्ञानात्मक है और दूसरी तरफ अतिशय संवेदनात्मक। यह सर्जनात्मकता आचार्य द्विवेदी के साहित्य से उनके निजी लगाव के कारण संभव हुई है।
इस वर्ष नामवर जी ने अपने जीवन के पचहत्तर वर्ष पूरे किए हैं। इस अवसर पर यह संचयिता महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की ओर से हिंदी जगत् को दिया गया एक उपहार है, जो उसे पिछली शती के उत्तरार्ध के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी आलोचक के अवदान से परिचित कराएगा।



विश्वविद्यालय का वक्तव्य




आमतौर पर यह धारणा है कि विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी साहित्य, भाषा और संस्कृति को जो अध्ययन-अध्यापन होता है वह अधिकतर रूढ़िग्रस्त और उबाऊ हो गया है। महात्मा गांधी अन्तराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के प्राथमिक सरोकारों में से एक यह है कि पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या और पाठ्यसामग्री को एक नई शताब्दी की नई चुनौतियों और प्रश्नाकुलता के अनुरूप ताजातरीन करते हुए इस क्षेत्र में नए विकल्पों को खोजा, विकसित विन्यस्त किया जाए। तभी यह विश्वविद्यालय हिन्दी अध्ययन-अध्यापन और अनुसन्धान के क्षेत्रों में क्षेत्रों में कुछ ठोस, प्रासंगिक और कारगर विकल्प प्रस्तुत कर सकता है।

हमारे विश्वविद्यालय ने देश और विदेश के श्रेष्ठ विशेषज्ञों में से विचार-विनिमय कर इस दिशा में कुछ प्रयत्न करना शुरू किया है। हमारा लक्ष्य हिन्दी साहित्य, भाषा और संस्कृति को उसकी समग्रता, जटिलता और बहुलता में आलोकित करते हुए उनकी नए प्रश्नों, चिन्ताओं और उत्सुक्ताओं से दो-चार होने की अपार क्षमता और उसकी वर्तमान अनेक दिशाओं को इंगित करना भी है।

चूँकि नए किस्म के पाठ्यक्रम और पाठ्यचर्या के लिए नए किस्म की पाठ्य-सामग्री अनिवार्य है, इस विश्वविद्यालय ने एक अपेक्षाकृत महत्वाकांक्षी प्रकाशन-योजना हाथ में ली है। यह पुस्तक उसी योजना का एक हिस्सा है। इस प्रकाशन-योजना में हिन्दी के प्रमुख लेखकों के प्रतिनिधि संचयनों, विविध विषयों पर आधारित संकलनों, यथा-प्रेम, प्रकृति, अध्यात्म, मृत्यु और अनुपस्थिति, समाज, नदी, ऋतु-विषयक कविताओं के संकलनों के साथ-साथ ऐसे लेखकों के चयन भी प्रकाशित करने की योजना है जो साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा में कतिपय कारणों से विशेष उल्लेख न पा सके किन्तु जिनकी रचनात्मकता से परिचित होने पर हिन्दी साहित्य की समझ समृद्ध ही होगी।

इनके साथ ही अनेक विशिष्ट प्रकाशनों की योजना है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की हिन्दी-कुल भी भाषाओं (भोजपुरी, अवधी, बुन्देलखण्डी, मालवी आदि) की कविताओं का संचयन, हिन्दी के आरम्भिक गद्य का संचयन, मध्यकालीन काव्य का संचयन, सूफी-काव्य का संचयन, बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की हिन्दी कथा, कविता, आलोचना आदि का चयन, महत्त्वपूर्ण लेखकों और कृतियों के द्विभाषी संस्करण (हिन्दी-उर्दू, हिन्दी-अंग्रेजी, हिन्दी-पोलिश आदि) तैयार किए जा रहे हैं।

इस प्रकाशन योजना की एक विशेषता यह है कि इसके निर्माण में लोकतान्त्रिक और पारदर्शी प्रक्रिया अपनाई गई है। अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञों की समितियों ने प्रकाशन योग्य सामग्री के साथ-साथ सम्पादकों का चुनाव भी किया है। निश्चय ही पुस्तकों में उनकी अपनी दृष्टि तो झलकती है, उसके साथ ही वे एक सामूहिक विवेकसम्मत प्रक्रिया का परिणाम भी हैं। इनके तैयार करते समय इस बात का ध्यान तो रखा ही गया है कि इस सामग्री का उपयोग भारत के बाहर उन केन्द्रों में भी किया जाना है जहाँ हिन्दी पढ़ाई जा रही है। यदि वे पुस्तकें सामान्य पाठकों के अतिरिक्त हिन्दी के छात्रों और शिक्षकों के लिए उपयोगी सिद्ध हुई तो हमें सन्तोष होगा।


लोकवादी आलोचक



यह है हिन्दी के ख्यातिप्राप्त आलोचक डॉ. नामवर सिंह के आलोचनात्मक लेखन का उत्तमांश।
‘उत्तमांश’ शब्द पर किसी को आपत्ति हो सकती है, क्योंकि लेखों का चयन करते समय उसमें निश्चय ही किसी-न-किसी मात्रा में सम्पादकीय रुचि का हस्तक्षेप हुआ होगा। वैसे अपने जानते मैंने भरसक प्रयास किया है कि चयन अधिकाधिक निर्वैयक्तिक हो और यथासम्भव नामवरजी के आलोचक रूप पूर्णता में उपस्थित करने वाला।

इस बार आलोचना से गुजरते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि वे लोकधर्मी या लोकवादी आलोचक हैं। हिन्दी आलोचना में ‘लोक’ को कविता का प्रतिमान बनाने का श्रेय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को है लेकिन उसका आकर्षण हिन्दी के मार्क्सवाद आलोचकों के मन में भी कम नहीं रहा है। उदाहरण के लिए डॉ. रामविलास शर्मा की एक पुस्तक का नाम है ‘लोकजीवन और साहित्य’, तो प्रो, चन्द्रबली सिंह की एकमात्र पुस्तक का नाम ‘लोकदृष्टि और हिन्दी साहित्य’। नामवरजी के क्रमश: 1952 और 1953 के लिखे हुए दो लेख हैं- ‘नई कविता में लोकभाषा’ और ‘इतिहास में लोकसाहित्य’। ये दोनों की लेख इस बात की सूचना देते है कि ‘लोक’ में उनका रिश्ता बुनियादी है और वह आचार्य शुक्ल से फरक भी है। आचार्य शुक्ल ने सिर्फ इतना कहा था कि जब पंडितों की काव्यभाषा निर्जीव हो जाती है, तो वह लोकभाषा से पुन: जीवन प्राप्त करती है। नामवरजी उसके साथ एक नई बात करते है कि ‘लोकजीवन ऐसी शक्ति है जो सामाजिक गति को तोड़ने के साथ ही साहित्यिक गतिरोध को भी समाप्त करती है।’ इस तरह वे समाज और साहित्य के बीच एक अन्तस्सम्बन्ध की कल्पना करते हैं।

दूसरे लेख में उन्होंने पुन: आचार्य शुक्ल का हवाला दिया है, पर इस बात पर जो दिया है कि सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य के इतिहास की प्रवाहमान धारा में पाए जानेवाले लोक-साहित्य के तत्वों की खोज की जानी चाहिए। उनकी तरफ स्वयं संकेत करते हुए उन्होंने लोक-साहित्य की परिवर्तनशीलता को रेखांकित किया है। और ‘आदिम-साहित्य’ तथा ‘जन-साहित्य’ से उसकी भिन्नता बतलाई है। खास बात यह है कि नई सामाजिक चेतना के प्रति सहानुभूति रखनेवाले मध्यवर्गीय कवियों की सीमा का उल्लेख करते हुए भी उन्होंने इस बात पर संतोष प्रकट किया है कि उनमें ‘लोक-साहित्य से प्रेरणा ग्रहण करने की ललक है।’ स्मरणीय है कि नामवरजी ने एम.ए. के लघु शोध-प्रबंधन के लिए जो विषय चुना, वह था- ‘हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग’। यह अपभ्रंश उनके अनुसार भी अभीरों की भाषा थी।

आज तो ‘लोक नामवरजी के लिए साहित्य-मात्र का सबसे सुसंगत और विकसित प्रतिमान है। उनका एक लेख है ‘चन्द्रधर शर्मा गुलेरी और हिन्दी नवजागरण’ (1983)। उनमें वे कहते हैं, ‘ऐतिहासिक दृष्टि के कारण गुलेरी जी शास्त्र से चलकर लोक की ओर उन्मुख हुए और शास्त्र को भी लोक की कसौटी पर कसते रहे’ तथा ‘जैन आचार्य हेमचन्द्र के महत्व का स्वीकार इस लोकदृष्टि का ठोस प्रमाण है।’ इतना ही नहीं, ‘गुलेरीजी का ‘पुराना हिन्दी’ शीर्षक दीर्घ निबन्ध हेमचन्द्र की इस लोकवादी परम्परा का अगला चरण है’ और ‘पुरानी हिन्दी में अपभ्रंश पदों का विश्लेषण करते हुए तुलना के लिए जिस सहजता से राजस्थानी, पंजाबी, गुजराती आदि को लोकप्रचलित शब्दों के उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं उससे गुलेरीजी के सुदृढ़ लोक-आधार का एहसास होता है।’ ‘इतिहास की ‘शव-साधना’, (2001) नामवरजी के हाल के लेखों में सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने प्रसंगवश प्रेमचन्द के आर्यसमाज से सहानुभूति रखने की बात कही है, तो उसके पहले उनके साथ ‘लोक-हृदय साहित्यकार’ का विशेषण लगाया है और डॉ. शर्मा के अन्तिम दौर के लेखन में मार्क्सवाद की धकियाकर ऋग्वेद ने जो उसकी जगह ले ली थी, उस पर उनकी टिप्पणी है : ‘वेदों से शुरू करने का यही खतरा है। ‘लोक’ अक्सर छूट जाता है। वहाँ तक पहुँचने की नौबत नहीं आती।’

नामवरजी शिष्ट साहित्य की परम्परा के बरअक्स साहित्य की लोकवादी परम्परा को रखते हैं और उसे साहित्य की दूसरी परम्परा कहते हैं। उसकी खोज करते हुए वे संस्कृत साहित्य तक गए हैं, जिनका प्रमाण है उनका लेख ‘कविता की दूसरी परम्परा’ (1987)। इसके आरम्भ में ही उनका कथन है : ‘‘कविता की दूसरी परम्परा वह है जो लोकधर्मी है। यह लोक-धर्मी काव्य-परम्परा जितनी उर्जस्वी है उतनी ही सुदीर्घ भी। वेदों की ‘आदिम अग्नि’ में इसकी चिनगारियाँ मिल जाएँगी।’ किन्तु पुष्कल रूप में यह विद्याकर के ग्याहरवीं सदी के ‘सुभाषिरत्नकोश’ और श्रीधरदास के बाहरवीं सदी के ‘सुदक्तिकर्णामृत’ में सुरक्षित है। इस कविता का अपना काव्यशास्त्र भी है। प्रभुत्वशाली काव्यशास्त्र ने उस कविता का भी तिरस्कार किया है और काव्यशास्त्र का भी।’’ आगे उन्होंने स्पष्ट किया है कि संस्कृत कविता की यह दूसरी परम्परा संस्कृत कविता की प्रमुख अभिजीत धारा से अलग है। वह न दरबारी है और न आदर्शवादी, बल्कि उसमें एक नया यथार्थवाद उदय होता दिखलाई पड़ता है। एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि शिष्ट काव्य-परम्परा जहाँ स्वभावोक्ति-विरोधी थी, वहाँ इस परम्परा में स्वाभावोक्ति को कविता का सबसे बड़ा गुण माना जाता था। नामवरजी ने भरत मुनि का साक्ष्य-‘स्वभावो लोकधर्मी तु’- से स्वभाव का अर्थ ही लोकधर्म बतलाया है। यह वह सूत्र है, जिसमें सम्पूर्ण लोकधर्मी काव्य-परम्परा पर प्रकाश पड़ता है, वह परम्परा संस्कृत की हो, या हिन्दी की। लोकजीवन, लोकभाषा और लोकधर्मी काव्य-यह सीधा समीकरण है ! ऐसी स्थिति में कविता में रस, ध्वनि या कविता की नई कला की बारीकियाँ ढूँढनेवाले उससे निराश हों और उसकी उपेक्षा करें, तो वह सर्वथा सम्भावित है।

ऊपर आचार्य शुक्ल का जिक्र किया गया है। नामवरजी ने अपने आरम्भिक लेखों में ‘लोक’ के प्रति उनके आग्रह को आपेक्षित महत्व भी दिया है, लेकिन सच्चाई यह है कि उनकी ‘लोक-चेतना का स्रोत्र वस्तुत: आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं। इसका खुलासा सबसे अच्छी तरह आचार्य द्विवेदी पर लिखी गई उनकी ‘दूसरी परम्परा की खोज’ (1982) के ‘भारतीय साहित्य की प्राणधारा और ‘लोकधर्म’, शीर्षक लेख से होता है। इसमें आचार्य शुक्ल के संबंध में उन्होंने कहा है: ‘‘वैसे तो ‘लोकधर्म’ बहुत कुछ वर्णाश्रम धर्म ही है। ‘भक्ति के नाम पर वेद-शास्त्रों की निन्दा करने वाले’ और ‘आर्य धर्म के सामाजिक तत्व को न समझकर लोगों में वर्णाश्रम धर्म के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करने वाले’ नीच जातियों के निर्गुणपन्थी भक्तों की जैसी भर्त्सना शुक्ल जी ने की है, उससे स्पष्ट है कि शुक्ल जी का ‘लोकधर्म’ वस्तुत: ‘आर्यशास्त्रानुमोदित’ सनातन धर्म ही है।’’

फिर उसके विरोध में वे आचार्य द्विवेदी का यह कथन उद्वत करते हैं, जिसमें उनके अनुसार ‘लोकधर्म’ की शक्ति का स्वीकार है : ‘‘मतों, आचार्यों सम्प्रदायों और दार्शनिक चिन्ताओं के मानदंड से लोकचिन्ता को नहीं मापना चाहता बल्कि लोकचिन्ता की अपेक्षा में उन्हें देखने की सिफारिश कर रहा हूँ।’’ इस पर नामवरजी की अपनी टिप्पणी है : ‘‘जन-साधारण के जीवन में नाना विश्वासों के रूप में जीवित इस तथाकथित ‘लोकधर्म’ का महत्त्व इस बात में है कि जनता के असन्तोष को विद्रोह का रूप देने के लिए वैचारिक और भावात्मक शक्ति की भूमिका यही अदा करता है। द्विवेदी जी के साहित्य में भक्ति-आंदोलन की पूर्वपीठिका के रूप में लोकधर्म की विस्तृत चर्चा का यही कारण है कि वे लोकधर्म को ही भक्ति-आंदोलन की जन्मभूमि मानते हैं। जब वे कहते हैं कि ‘कबीर की वाणी वह लेता है जो योग के क्षेत्र में भक्ति का बीज पड़ने से अंकुरित हुई थी’ तो संकेत यही है कि योग के रूप में लोकधर्म ‘क्षेत्र’ की भूमिका अदा करता है।’’ और भी, ‘लोकधर्म’ साधारण जनों से विद्रोह की विचारधारा है। इसे ‘लोकधर्म’ कहने का एक कारण तो है कि यह उच्च वर्गों के ‘शास्त्र’ के समान सूक्ष्मातिसूक्ष्म तर्क-पद्धति से सम्पन्न तथा व्यापक विश्वदृष्टि के रूप में विकसित कोई सुसंगत और सुव्यवस्थित ‘विचारप्रणाली’ नहीं है।

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